अनन्त चतुर्दशी / उमा अर्पिता

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अनन्त चतुर्दशी का पर्व भाद्र मास की शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति इस दिन एकाग्रचित्त से प्रातःकाल भगवान अनन्त का पूजन करता है, वह अनन्त सिद्धि को प्राप्त करता है।

भारत के उत्तरी भागों में अनन्त चतुर्दशी का पर्व अत्यंत श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। अनन्त भगवान के एक सौ आठ नामों में से एक है। अनन्त चतुर्दशी के व्रत के प्रारंभ के संबंध में प्रचलित कथा इस प्रकार है:

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने जरासन्ध को मारने के लिए राजसूय यज्ञ का प्रारंभ कर दिया। अपने चारों भाइयों तथा श्रीकृष्ण के साथ मिलकर युधिष्ठिर ने अनुपम यज्ञशाला का निर्माण करवाया। यज्ञस्थल को अनेको माणिक मोती व अमूल्य रत्नों से सुशोभित किया गया। यज्ञस्थल की छटा व सौंदर्य इंद्रलोक जैसा प्रतीत होता था। नियत समय पर यज्ञ के लिए विभिन्न राज्यों के राजा एकत्र होने लगे। कौरवों को भी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रण भेजा गया। कौरव यज्ञशाला की शोभा देखकर अचंभित रह गए। दुर्योधन भी उस छटा को निहारता हुआ चल रहा था कि स्फटिक से बने फर्श को पानी समझ उसने हाथों से धोती ऊँची कर ली, पैर रखते ही उसे भूल का अहसास हुआ। थोड़ा और आगे चलने पर उसने फिर वैसा ही स्फटिक का फर्श देखा, लेकिन ज्यूं ही उस पर पाँव रखा वह धम्म से पानी से भरे तालाब में जा गिरा। पास ही महल की अटारी पर द्रौपदी अपनी सखियों के साथ खड़ी थी। उसने यह दृश्य देखा तो खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-अंधे की औलाद अंधी ही होती है। दुर्योधन ने सुना और गुस्से से भर उठा। वह वहीं से वापस लौटने को हुआ परंतु मामा शकुनि ने उसे समझाया कि इस व्यंग्य का बदला तुम द्यूत क्रीड़ा के समय लेना। राजसूय यज्ञ समाप्त हुआ। सब राजा अपने-अपने राज्यों को लौट गये। दुर्योधन भी लौट आया पर वह व्यंग्य बाण उसके हृदय में चुभता रहा। उसने मामा शकुनि की सलाह से द्यूत क्रीड़ा का आयोजन किया और पांडवों को उसमें आमंत्रित किया। मामा शकुनि ने पांसे बदल डाले और पांडव अपना सब कुछ हारते चले गए। अंततः वे द्रौपदी को भी जुए में हार गए। भरे दरबार में द्रौपदी का अपमान कर दुर्योधन ने अपने अपमान का बदला लिया। पांडवों को 12 वर्ष का वनवास हो गया। वे वन-वन भटकने लगे। वन में भटकते पांडवों को देखने की इच्छा से जगदीश्वर कृष्ण पांडवों के समक्ष उपस्थित हुए। दुखी पांडवों ने भगवान के चरणों में सिर टिकाया। धर्मराज युधिष्ठिर ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाते हुए पूछा कि हे प्रभु हमें कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे हम इस दुखों के सागर से छूट जाएँ। यह सुन भगवान कृष्ण ने कहा कि हे युधिष्ठिर मैं तुम्हें सब पापों का नाश करने वाले व्रत के विषय में बताता हूँ। यह अनन्त व्रत है। इस व्रत के करने से स्त्री और पुरुषों के सब कार्य सफल होते हैं। यह व्रत सब विपदाओं को हरने वाला है। यह भाद्रपद शुक्ला की चौदस के दिन होता है। यह सुन युधिष्ठिर बोले-हे भगवान आपने अनन्त किसे कहा। यह किसका नाम है। कृष्ण ने कहा-पार्थ मैं अनन्त हूँ। आप मेरे उस रूप को समझें। जो काल आदित्य आदि ग्रहरूप हैं जिससे कि कलाकाष्ठ मुहूर्त्त दिन और रात शरीर हैं। पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष और युगादि की जिसकी व्यवस्था है वही काश है, उसी को मैंने अनन्त कहा है। पहले मैंने अर्जुन को जो रूप दिखाया था वह योगियों के ध्यान करने योग्य सर्वश्रेष्ठ है, जो विश्वरूप अनन्त है, जिसमें चौदह इन्द्र, बसु, बारहों आदित्य और ग्यारहों रूद्र हैं। सातों ऋषि, समुद्र, पर्वत, सरित, दु्रम, नक्षत्र, दिशा, भूमि, पाताल और भूर्भव आदि हैं।

हे युधिष्ठिर! आप इस व्रत के प्रति किसी प्रकार का संदेह न कीजिए, इस व्रत को पूरे विधि-विधान से कीजिए, आप समस्त दुखों से छुटकारा पा जाएँगे। इस पर युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से इस व्रत का विधि-विधान जानना चाहा। इस व्रत के आरंभ की कथा सुनाते हुए भगवान कृष्ण ने कहा कि कृतयुग में सुमन्त नाम का वशिष्ठ गोत्र का एक ब्राह्मण था। उसका विवाह भृगु ऋषि की दीक्षा नाम की लड़की के साथ हुआ था। उनकी एक कन्या हुई, जिसका नाम उन्होंने सुशीला रखा। सुशीला की माँ के देहांत के बाद सुमन्त ने धर्म पुंस की लड़की कर्कशा से विवाह कर लिया। जैसा नाम वैसा स्वभाव। कर्कशा हर समय लड़ती रहती थी, पर सुशीला भी अपने नाम के अनुरूप सुशील थी। वह चुपचाप घर के सब काम करती रहती। मुनिराज कौडिन्य ने एक बार वहाँ से गुजरते हुए सुशीला को देखा और उसके पिता से कहा कि वह सुशीला से विवाह करना चाहते हैं। सुमन्त ने खुशी-खुशी सुशीला का विवाह कौडिन्य मुनि से कर दिया। कौडिन्य मुनि सुशीला को साथ लेकर चल पड़े। रास्ते में यमुना नदी के किनारे मुनि ने विश्राम के लिए रथ रुकवा लिया। मध्याह्न काल में भोजन के समय नदी किनारे सुशीला ने लाल कपड़े पहने स्त्रियों का समुदाय देखा, जो अनन्त चतुर्दशी के दिन भक्ति भाव से जनार्दन देव की पूजा कर रहा था। उनके पास जाकर सुशीला ने अत्यन्त विनम्र भाव से पूछा कि वे सब कौन-सा व्रत कर रही हैं। उन्होंने बताया कि वे भगवान अनंत की पूजा कर रही हैं। सुशीला ने इस व्रत का विधान पूछा तो उन्होंने बताया कि एक प्रस्थ अच्छा अन्न हो, जिससे बने मिष्ठान में से आधा ब्राह्मण को निर्लोभ हो, दी हुई दक्षिणा के साथ दे दें तथा आधा अपने खाने के लिए रख लें। नदी के किनारे दान सहित इसका पूजन करना चाहिए। कुशाओं का शेष बनाकर बाँस के पात्र पर रखें। फिर स्नान कर मंडल पर दीप गंधों से तथा पुष्प, धूप एवं अन्य अनेक पकवानों के साथ तैयार किये नैवेद्य से अनन्त की पूजा करनी चाहिए। उसके आगे कुंकुम का रंगा हुआ चौदह गाँठों का डोरा रखकर पवित्र गंध आदि से उसकी पूजा करें। उसके बाद पुरुष इसे अपने दायंे तथा स्त्रियाँ बायें हाथ में बाँध लें।

‘अनन्त संसार’ के डोरे को हाथ में बाँधकर भगवान की इस कथा को सुन, विश्वरूप नारायण अनन्त भगवान का ध्यान करके भोजन आचमन करें। सुशीला ने इस व्रत को किया और प्रसन्न हो पति के साथ चली गई। अनन्त व्रत के प्रभाव से उसका घर धन-धान्य से भर गया। एक दिन क्रोधवश सुशीला के पति ने उसकी बाँह पर बँधे अनन्त डोरे को तोड़कर आग में डाल दिया। सुशीला के घर में द्रारिद्रय छा गया। कौडिन्य मुनि ने अपनी पत्नी से इस विपदा का कारण पूछा तो सुशीला ने बताया कि आपने डोरे को तोड़कर भगवान अनन्त का अपमान किया था, जिसके शापवश हमें यह विपदाएँ भोगनी पड़ रही हैं। कौडिन्य मुनि को यह सुनकर बड़ा पश्चाताप हुआ। वह भगवान अनन्त को देखने की मन में ठान वन की ओर चल दिए। अनेक कष्ट सहने के बाद उन्हें अनन्त भगवान के दर्शन हुए। वृद्ध ब्राह्मण के रूप में भगवान ने कौडिन्य मुनि का हाथ पकड़ा और उन्हें एक गुफा में ले गए। वहाँ उन्होंने दिव्य स्त्री-पुरुष वाली अपनी पुरी उसे दिखाई। फिर दिव्य सिंहासन पर विराजमान शंख, चक्र, गदा, पù और गरूड़ से सुशोभित विश्वरूप अनन्त को दिखाया। कौडिन्य मुनि गद्गद हो उठे और भक्तिभाव से भगवान के चरणों में सिर टिका दिया। उन्होंने भगवान से अनन्त डोरे को नष्ट करने की बात बताई तथा उसके प्रायश्चित का उपाय जानना चाहा। भगवान अनन्त ने उन्हें चौदह वर्षों तक भक्तिभाव से अनन्त की पूजा करने को कहा तथा अन्तर्धान हो गए। घर लौट कौडिन्य मुनि ने अपनी पत्नी के साथ पूरे विधि-विधान एवं भक्ति भाव से अनन्त की पूजा की। तत्पश्चात उनका सुख-वैभव लौट आया। संसार के समस्त सुखों को भोगकर अंततः वह अनन्त के पुर में चला गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि अब मैंने तुम्हें इस व्रत का फल, पुण्य, विधान आदि सब बता दिए हैं। अब तुम निस्संदेह अनन्त की व्रत उपासना करो। युधिष्ठिर ने तब इस व्रत के उद्यापन के विषय में जानना चाहा तो श्रीकृष्ण ने कहा कि आदि मध्य और अनन्त में व्रत का उद्यापन होता है। उसी विधि विधान से सपत्नीक पूजा अर्चना करके ब्राह्मणों को यथोचित दान-दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर भगवान अनन्त के व्रत का उद्यापन पूर्ण करें। कृष्ण जी से व्रत का महात्म्य सुनकर युधिष्ठिर ने भी अपने भाइयों तथा पत्नी सहित इस व्रत को किया। आज भी भक्ति भाव से लोग अनन्त की पूजा करते हैं तथा सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।