अनसुलझी / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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सारी रात अच्छी तरह से सो नहीं पाई थी झूमका। सनऊ एक एककर दरवाजा और खिड़की पीट रहा था जिससे बच्चे भी डरकर उठ गए थे। जो मने में आए वह गाली देने करने की इच्छा हो रही थी झूमना को अपने निक्कमे कोडी मर्द को। आधी रात में उन दोनों में जो चिल्ला-चिल्ली हो रही थी कि सारे पडोसी जगकर अगर उन दोनों को वहाँ से निकाल दे तब भी वह कुछ नहीं कह पाती। बहुत ही छटपटाहट और बेचैनी के साथ गुजरी थी उसकी वह रात।

पिताजी आए थे दीपावली का उपहार लेकर और भाइओं के लिए व्रत रखा था उसने। पिताजी कह रहे थे,” चलो, दीपावली इस बार हमारे साथ मनाना।“ तब भी झूमका नहीं गई। महीने-पन्द्रह दिन बाप के घर रहने से हाथ से दो दो घर निकल जाएंगे। आने तक तो बेटा बेटी भूख प्यास से तडपकर मर जाएंगे। वह मास्टराणी तो और ज्यादा मर जाएगी, उसके घर दिन में एक बार नहीं जाने पर वह जमकर गाली देती थी। महीने में पन्द्रह दिन के लिए गई तो वह सहन नहीं कर पाती? उसके घर में तो काम भी कम। वह आनन-फानन में घर में दस जगह ताला लगाकर जाती है। साढ़े नौ बजे वहाँ से चली जाती है। अग्रवाल के घर में बहुत काम ह। पांव से सिर तक। दो-दो झोड़ी झूठे बर्तन। नवजात शिशु को लेकर चार बच्चों के दो-दो कपडे गिने से कपड़े हो जाते थे दो बाल्टी। मालकिन भी बहुत चालाक, कहती है वाशिंग मशीन मैं चला देती हूँ, तुम धोए हुए कपड़ों को खंगाल कर सूखा दो। अगर कहीं कोई मैल छूटा हो तो उस कपड़े पर तुम ब्रश फेर देना। दस तरीख को पैसा देते समय कहती है कि कपड़े तो मैं मशीन से साफ करती हूँ। और दो बर्तन और घर पोछने के लिए क्या तुम्हें तीन सौ रूपए देंगे? रख, ये दो सौ पचीस रुपए।

झूमका सोच रही थी, अगर उस दिन वह अपने पिताजी के साथ चली गई होती, तो आज यह दुर्दिन नहीं देखना पड़ता। उसने सब तो बेच बाच कर खा लिया, अब उसके पास बचा ही क्या है?

शराबी, जुआरी, सट्टेबाज –सभी गुण थे उसमे। अभी दो घंटे पहले पैसे छीनकर लेकर गया। जाते समय कहकर गया, इन चंद पैसों के लिए मर क्यों रही हो? रूको, आज देखना मैं जीतकर कितने सारे पैसे लेकर आता हूँ। दिवाली के दिन रात में जुआ खेलने से लक्ष्मी घर में आती है। पैसा जीतने के बाद हम लोग दिल्ली चले जाएंगे।

दिल्ली जाने की बात सुनकर झूमका की छाती धड़क उठी। जहां हरदिन सिर छुपाने की जगह नहीं, खाना बनाने का घर में सामान नहीं। हाथ में जितने पैसे थे, वे सब खत्म हो गए तब घर में काम काज कर बहुत ही कष्ट के साथ पैसे कमाकर वे लौटे थे ओड़िशा को। और फिर एक बार दिल्ली जाएंगे इस बेवकूफ के साथ? साथ में होंगे और दो बच्चें।

उस समय तो दिल्ली जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। नौ भाइयों की एक बहिन। पिता स्टील प्लांट में सफाई का काम करते थे। शादी के लिए एक अच्छा वर ढूंढ रखा था। झूमका की छोटी भाभी से सनऊ राखी बंधवाने के लिए उसके घर गया था। एक दिन रूकने की जगह पर पांच दिन रूका था। चाकलेट, अमचूर, जूडा बांधने वाले तरह-तरह के रबर-बैंड लाकर दिए थे उसने झूमका के लिए। उस दिन से उसका मन उस पर आ गया था। सनऊ ने कहा था, “चलो, यहां से दिल्ली चले जाते हैं,नहीं तो तुम्हारे पिता तुम्हारी दूसरे के साथ शादी कर देंगे।” जितना भी पैसा हाथ में था, वे लेकर दोनो ट्रेन में बैठकर दिल्ली चले गए थे, जिसकी भनक भाइयों को तक नहीं लगी।

दिल्ली से लौटते समय झूमका पेट से थी। पिता के घर न लौटकर सीधी चली गई थी सनऊ के घर। शादी-ब्याह नहीं होने के कारण वह सास की आंखों में खटकने लगी। मेरे बेटे को मुझसे अलग करने वाली नागिन। पिता को खबर लगने से मिलने आये थे। कह रहे थे, भाइयों को समझा-बुझाकर तुम्हें घर बुलाएंगे। सनऊ को बैठाकर समझाया था, उसका शादी ब्याह करने के लिए धांगडा की व्यवस्था कर दी थी, स्टील प्लांट में मेरे साथ काम करता था। तुम तो उसे लेकर फरार हो गए। बैठकर खाने से क्या तुम्हारा संसार चलेगा। जाओ कुछ काम-धाम करो, और अपना पेट पालो।

सनऊ ठेकेदार के बंगले पर काम करने जाता था। एक दिन की सत्तर रूपए मजदूरी। झूमका को आधा देता था और आधा पी-पाकर उडा देता था। तब झूमका कुछ भी कमाती नहीं थी। नहीं पीने से उसके शरीर की थकान कैसे मिटेगी, तब वह सोचती थी। मजाक- मजाक में एक दिन मिस्त्री ने करणी से उसके हाथ को खरोंच दिया, उस दिन वह उससे मारपीट कर गुस्से से काम छोड़कर आ गया। बहुत समझाने के बाद कभी ट्रेक्टर से बालू उतारना, तो कभी मन होने से घर द्वारा की पुताई करना आदि काम करता था। उसके बाद हफ्ते में एक दिन या दो दिन। पांच-छ दिन बैठकर रह गया घर में।

सास ने उसको खाना नहीं दिया। घर से बाहर निकाल दिया। किसी घर के बरामदे में पोलीथीन ढककर दो दिन आश्रय लिया था। आखिर में शिरीधारा ने खोली जुगाड़ कर दिया था सौ रुपए भाडे में। वह देख रही थी जब सनऊ पेट भरने के लिए खाना की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है तो वह भाडे की क्या व्यवस्था करेगा?

शिरीधारा के पास रो-धोकर अपना दुखदर्द बयान करने पर मास्टराणी के घर में काम दिलवा दिया था। झूमका के काम करने से सनऊ और आलसी हो गया। बच्चे को संभाल रहा हूँ, दिखाने के लिए घर में बैठा रहता था जब तक झूमका घर नहीं आ जाती थी। क्या नाश्ता लाई हो,कहकरखुद खोजने लगता था। झूमका का ससूर अच्छा आदमी था। बेटे को उत्पात समझ रहा था। सनऊ के लिए कहीं न कहीं से काम का बंदोबस्त कर लिया। मगर वह आलसी आदमी काम पर नहीं जाता था। एक समय जाने से दूसरे समय छुट्टी। फिर एक बार बाप और बेटे ने मिलकर एक होटल बनाई। जंगल से लकडी काटकर तथा टोकरी में मिट्टी पत्थर ढोकर एक दीवार बनाई। किवाड़ भी जोड़ दिया था। ठेके का काम। बिहारी ट्रक वालों को चाय और खुचरा पेट्रोल बेचेगा, सोचकर बीचरास्ते में दुकान डाली थी। कुल मिलाकर डेढ़ हजार रूपया मिलता था बाप-बेटे को। झूमका के लिए एक पीस ब्लाऊज खरीद कर लाया था सनऊ और बाकी पैसों को बाप-बेटे ने मिलकर दारु में उडा दिया।

झूमका को लगता था वही एक हफ्ता उसके सबसे ज्यादा खराब दिनों का था। नहीं तो सनऊ इस तरह बातोंबातों में रूठकर दिल्ली चला जाता? पिता ने तो उसके लिए नौकरी वाला लड़का खोजा था। सनऊ ने क्या मंत्र फूंका कि क्या ऐसी बात कही कि उसका मन किसी और की तरफ नहीं गया, केवल मन में यही विचार आ रहा था कि बिना सनऊ को पाए जीवन व्यर्थ है।

झूमका अपने साड़ी के आंचल को बच्चों को ओढ़ा दिया। बाहर में कुछ कुछ बातें सुनाई दे रही थी। बस्ती के सारे आदमी सोए नहीं थे। पुलिस के डर से सामने वाले दरवाजे पर एक ताला लगाकर पिछवाडे बैठकर जुआ खेल रहे थे। घर से तार खींचकर पिछवाड़े में बल्ब लटका दिया था। कैसे खेलते हैं ये खेल, झूमका को पता नहीं था। उसका पिता, भाई ये खेल नहीं खेलते थे। खदानी इलाकों से राऊरकेला ज्यादा शिक्षित जगह है। उस घर में टी॰वी. भी था। उसके भाई के पास लूना थी। यहां टी.वी सीरियल देखने के लिए झूमका शिरीधारा को 20 रुपए भाड़ा देती थी। यह जगह मूर्ख लोगों की जगह थी। वे अपने बेटों को राऊरकेला भेज देंगे।

झूमका ने कपाल पर हाथ रखकर जुहार किया, ऐ माँ, आज सनऊ जीतकर आएगा तो प्रसाद चढ़ाऊंगी। इसके बाद वह उन पैसों से फेरीवाले से एकाध कंबल खरीदूंगी। इस खपरीली झोली में जितने भी पोलिथीन ढकने से सुबह-सुबह ठंडी हवा आती है।

तरह तरह की बातें सोचते हुए न जाने कब उसकी आंख लग गई। बाहर से चिल्लाने की आवाज सुनकर हठात उसकी नींद खुल गई। वह उस आवाज को पहचान गई थी। ऐसा लगता है दूर कुरैसर के घर में कुछ हुआ है। इतना नजदीक से कभी नहीं सुनी। लडाई-झगडा हुआ होगा। कुरैसर की औरत लंगडी है। लंगडाते-लंगडाते वह ज्यादा काम नहीं कर सकती थी। एक घर पकड़ी थी जो उसको निपटाने में दोपहर हो जाती थी। बिचारी गर्भवती भी थी। उसका आदमा बड़ा गुस्सैल था। लंगडी को पीटता था। फिर भी वह कम बदमाश नहीं थी । पक्की चोरनी थी। चुपके-चुपके सामान उठाकर कब कमर के खोसे में रख लेगी, किसी को पता तक नहीं चलता था। कितनी बार तो हाथ-घड़ी, तो कितनी बार नथिनी। कितनी बार दो आलू,तो कितनी बार मुट्ठी भर सर्फ। जितना वह हथियाकर लाती थी, कलमुंहा कुरैसर जुएं में उडा देता था। चोरनी के लिए अच्छा ही हुआ है।

देखते-देखते बेटी ने गुदड़ी के अंदर पेशाब कर दिया। एक बार तो झूमका के कपडे भी भीग गए थे। भीगा खोसा खोलकर आंचल को बदल पहन लिए झूमका ने। कपड़े का टुकडा लाकर गुडडी के ऊपर डाल दिया था। उसके पास दो साडियां थी मगर उसकी बेटी पेशाब करके भीगा देती थी। कल काम पर जाऊँगी तब अगर इसी को पहनकर जाऊँगी। मास्टरनी नाक-भौं सिकोडेगी, नाक-भौं क्या सिकोडेगी, कहेगी। उसकी बेटी तो और नाक फुलाएगी, कहेगी- -“झूमका ! तुम इधर से जाओ। क्या महक रहा है।” मास्टरनी कुछ भी बोल सकती है। बेशर्म होकर पूछेगी- तुम्हारी बेटी का पेशाब? इतनी गंदी होकर तुम ऑफिसर लोगों के घर काम करने आती हो, तुम्हें खराब नहीं लगता है? तुम्हारे कहने पर तो रखी, तुम्हें और कोई घर नहीं घुसाएगा। अहा रे ! दयावती, हफ्ते में पांच दिन मांस बनातीहै मगर कभी थोड़ा झोल तक खाने को नहीं देती है। रविवार के दिन हड्डीवाला मांस खरीदा था, दो टुकडे मांस दिया था। तब कितनी बार कहा था – “ ऐ झूमका ! जाते समय मांस ले जाना, मांस ले जाना।” समऊ पठान के पास काम करते समय एक दिन आंतों के साथ रान या चाप के दो टुकडे छुपाकर लाया था। अब तो वह दर्जी के पास काम करता है उस हटली में। कितनी बार कहा बचा खुचे कपडों से बच्चों के शर्ट सिल दे, मगर सुना नहीं। कहता था दुआस कटिंग करता है। कपडा बचाकर वह उसे बेचता था और दारू पीता था। कहां से और कपडा मिलेगा, जो तुम मांग रहे हो। आजकल उसका मुझ पर विश्वास हो गया। इसलिए दुकान उसके भरोसे छोडकर वह जाता है, चोरी करने पर रखता? किवाड़ पर सांकल की झनझनाहट सुनकर झूमका समझ गई थी यह निश्चय ही सनऊ है। चिडचिडा कर पूछने लगी-

“क्यों दरवाजा खटखटा रहे हो? बच्चें उठ जाएंगे?”

“तू दरवाजा खोल।”

“तुम्हें क्या चाहिए, कहो? सोना होतो आओ, नहीं तो जाओ सुबह उठना।”

“दूंगा अभी खींचकर” बाहर से सनऊ उसे धमकाने लगा।

अवश्य ही यह आदमी जुए में हारा है, नहीं तो इस तरह की दादागिरी नहीं दिखाता। हा... हा.. मेरे महीने की कमाई को भी जुए में उडा दिया। जैसे झूमका के भीतर आग जल रही हो, वह कहने लगी, “तुम जाओ गड्डे में पड़ो, हरामी, मैं तुम्हारे लिए दरवाजा नहीं खोलूंगी।”

दरवाजे पर जोर से पैरों से धक्का दिया था सनऊ ने। उसकी आवाज सुनकर दोनो बच्चें डरकर उठ गए थे। झूमका ने दोनो को अपनी गोद में लेकर पुचकारा था।

“ए माँ ! भूख लग रही है” बच्चे ने कहा।

“कल मास्टरनी के घर पीठा मिलेगा, दीपावली का पीठा लाऊँगी खाना। अब सो जा।”

“वह तुम्हारी माँ है?”

“हाँ।”

“तुम्हारी माँ ने मुझे बिस्कुट दिए थे।”

“हाँ, कल और मांगकर लाऊंगी। अब सो जा।”

झूमका के माँ की बिस्तर पर पड गई थी। हर समय कफ और खांसी। राउरकेला जाती तो एकबार देखकर आ जाती। झूमका की माँ और सास दोनो बहिनें लगेगी मामा और मौसी के बेटी। मगर झूमका सास को फूटी कौडी भी नहीं सुहाती थी। स्कूल के सामने भूजे हुए चने बेचती थी।नाति को अपने पास रख, मैं काम पर जाती हूँ, कहने से वह उलटा पुलटा बोलना शुरु कर देती थी। एकदम झगडालू। अपनी बेटी की शादी के लिए उसने एक जोडा पायल खरीद कर रखा था। किस समय उसे ले जाकर सनऊ जुए में हार गया, कहकर बुढिया दिनरात तक झगड़ती रही। “मेरा आदमी है मगर तुम्हारा बेटा था. मैं तो तुम्हारे कमरे में नहीं गई थी? तुम मेरे ऊपर क्यों बिगड रही हो? “ झूमका ने कहा था मगर बुढिया कहां सुनती।

झूमका की दाहिनी आंख फड़कने लगी। थूक लगाया था उस आंख पर। इस जुआरी ने पैसे भी डुबा दिए होंगे, नहीं तो यह आंख इस तरह क्यों फडकती? जुआरी को किसी ने मार तो नहीं दिया? झूमका के मन में तरह तरह के ख्याल आने लगे। धीरे से उसने सांकल खोल दी। कहां जाऊंगी, पिछवाडे में खूब सारे आदमी बाहर अंगने में बैठकर जुआ खेल रहे थे। औरत को वहां देखकर क्या कहेंगे। खिडकी और दरवाजे ऐसे ही खुले रख दिए थे झूमका ने। कब वह शरावी आकर सोएगा। ठिठुराने वाली ठंड में किसके बरामदे में जाकर सोएगा?”

रात खत्म होने में दो घंटे का समय रहा होगा, गहरी नींद में सो गई झूमका। किसी के हाथ लगने से उसकी नींद टूट गई थी। ‘कौन’ कहकर आँखें खोली तो देखा सनऊ सामने था। सनऊ उसको हिला-हिलाकर उठा रहा था।

“क्या हुआ? सो नहीं रहे हो, चिटकनी लगा दी?” नींद में झूमका ने पूछा था।

“तुम्हारे से काम था।”

“क्या काम?”

“मेरी बात सुनो।”

“जीत कर आए हो? क्या लाए हो? कितना लाए हो?”

“तुम उठो न।” सनऊ ने कहा था।

तुरंत उठकर बैठ गई थी झूमका। सच में, उसकी आंखों से नींद भाग गई थी। क्या क्या लाए हो दिखा तो दो? मुंह उतारकर बैठ गया सनऊ। “हां, समझ गई तुम हार गए हो। मुझे पता था। कब जीतकर आए थे, जो आज जीतते। कल के लिए चावल नहीं है। मेरी कमर दर्द कर रही है, तो डॉक्टर के पास दवाई-दारु करवाऊंगी, सोचकर पैसा खोज रही थी मगर तुमने तो सब उडा दिए।”

जम्हाई लेते हुए झूमका ने कहा, “छोडो, सो जाओ कल की बात कल देखेंगे।”

“झूमका, झूमका ! ”

“क्या हुआ?” चिढ़ गई थी झूमका इस बार। ” सारी रात सोने नहीं देते हो, सुबह काम करने जाऊंगी या नहीं? पैसे तो तुम सारे हार गए। काम पर जाऊंगी तो नाश्ता-वाश्ता मिलेगा जिससे मेरे बच्चों का तो पेट भरेगा।”

“तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रही हो? तब से बक-बक कर रही हो, मैं और क्या बोलूंगा? बडी दुविधा में पड गया हूँ। क्या करूंगा मुझे बता?” झूमका की आंखों से नींद गायब-सी हो गई।

“आह !” उठकर बैठ गई थी वह, “क्या दुविधा है, मेरे घर में है क्या, जो चिंता की बात है। साफ साफ कहो।”

“सारी गलती मेरी है।” सनऊ ने कहा। “मैं लोभ में पड़ गया था। पता नहीं, मेरी मति कहां मारी गई थी जो सारे पैसे हार गया। मेरा सब कुछ लूट लिया साले दर्जी ने? छतिसगढ़िया से मैं हारूंगा? मेरी औरत को रख लेना जा। यह मेरी लास्ट बाजी है।”

“क्या कहा, क्या कहा तुमने?” झूमका चहक उठी।

“तुम्हारा न खा रही हूँ, न पी रही हूँ। तुमने क्या सोच कर मुझे बंदी रखा। तुम्हारी इतनी बड़ी हिम्मत। इसलिए तुमने मेरे हाथ पकडे थे, समझी। मेरा दिमाग खराब हो गया था जो तुम्हारे जैसे निकम्मे कुडिया आदमी के साथ शादी की। मेरे पिता ने मेरे लिए स्टील प्लांट में एक आदमी देखा था। मैं कलमुंही अपने भाग्य को लात मारकर तुम्हारे साथ आई। और तुमने मुझे गिरवी रख दिया? हरामजादे, तुमने अपनी बहिन को गिरवी नहीं रख दिया। मुझे खरीदकर लाकर लाया था क्या?” गुस्से में झूमका ‘तुम’ से ‘तू’ पर उतर आई थी।

“तूझे मरना है तो मर, जो करना है कर, मेरा क्या जाता है? मेरा हाथ पकडकर शादी की थी, आज तुमने ऐसी मर्दानगी दिखा दी?”

“चुप, चुप, इतनी चिल्ला क्यों रही हो? बच्चे उठ जाएंगे, पास-पडोस को पता चलेगा।”

“तूने तो अपनी औरत को गिरवी रख दिया, जिसे पांच लोग भी नहीं जानेंगे क्या? कल बात फैलेगी नहीं? सही कह रही हूँ,कल सुबह की गाड़ी से मैं राऊरकेला जा रही हूँ।”

“दो थप्पड मारूंगा, राऊरकेला याद आ जाएगा।” सनऊ ने कहा।

“हाथी के दांत और मरद की बात, समझी। तू जाएगी उस दर्जी के पास।”

“तुमने नशा किया है? तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है? नहीं तो कोई अपनी औरत को परपुरुष को सुपुर्द करता है। तुझे जरा भी अक्ल नहीं है, बुद्धू, अपने औरत और बच्चों का पेट नहीं पाल सकते हो इसलिए यह ऊपाय खोजा है? कल तुम इस बस्ती में मुंह नहीं दिखा पाओगे, मैं मुंह दिखा पाऊंगी,कहो? तुम्हारा बाप तुझे रखेगा? बस्तीवाले छींटाकशी नहीं करेंगे? तेरी बुद्धि पर राख पडे।” आंखों से पानी निकल आया झूमका के। “तुम जैसे जुआरी लोगों के बाल बच्चे नहीं, तुम्हारी कोई जाति-बिरादरी नहीं? क्या खेल खेलता है, जो खेल खेलता है, वह भाड़ में जाए। जो मेहनत करके लक्ष्मी लाई थी, उस लक्ष्मी को तुमने घर से बाहर निकाल दिया। मैं जा रही हूँ, दर्जी के घर, और आयंदा तुम्हारे घर में कदम नहीं रखूंगी। सुबह-सुबह अपना सामान लेकर राऊरकेला चली जाऊँगी।”

झूमका का उत्तर सुनकर सनऊ थोडा नरम पड़ गया था। कहने लगा- “और दो घंटे बाद रात खत्म हो जाएगी। तू मैदान गई थी या दर्जी के घर। कौन जानता है कहो तो? तेरे वहां पांव रखने से हो गया। अगर उसने तूझे छू लिया तो साले को एक झटके में काट डालूंगा। मैं क्यों तुझे इतना जोर देकर कह रहा हूं, तुम नहीं समझ रही हो। अब मुझे दर्जी छोटे-मोटे कपडे सिलने को दे रहा है। और किसी दिन मैं उससे कटिंग सीख लूंगा। ट्रेनिंग हो जाने पर हम भी एक मशीन खरीद लेंगे। तब मैं मास्टर हो जाऊंगा। मेरी दुकान पर दो-दो बच्चे रखूंगा काज और बटन सिलाने के लिए।”

सनऊ की बात सुनकर झूमका ने मुंह मोड लिया। “तुम्हारी इन घटिया बातों पर मुझे विश्वास नहीं है। बहुत देख लिया है।” कुछ समय के लिए दोनो चुपचाप बैठे रहे। झूमका सोच रही थी कि वह किसकी शरण में जाए। पूरी की पूरी बस्ती तो नशे से ग्रस्त है। आंखे होने पर भी सब अंधी।

“तुम्हारा घरवाला कह रहा है तो तुम जाओ।”

सनऊ ने अपना मुंह खोला- “तुझे डर लग रहा है, जाओगी तो मैं तूझे रास्ता दिखा देता हूँ।”

झूमका की आंखों से मानो आग निकल रही हो। यह आदमी है या? मन कर रहा था कि मुंह पर थूक दूं। गुस्से से वह तमतमा उठी। आंचल में बेटी सो रही थी। धीरे से खिसक कर उसकी तरफ आई। जैसे-तैसे साडी पहनकर मन ही मन सोच रही थी, मैं उधर जाऊंगी जहां मेरे कदम ले जाएंगे। रेल लाइन पर अपना सिर रख दूंगी।संभाल अपने बच्चों को। दरवाजा खोलकर एक-एक कदम रखकर वह बाहर चली गई। कहीं दूर पटाखे फूटने लगे। पिछवाडे में जुए के खेल का एक दौर पूरा हो गया लगता है तभी तो बस्ती में कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही है। टेकरी पर चढ़ते समय उसे डर लग रहा था। उसे ज्यादा डर लग रहा था उस अधेड उम्र के दर्जी के बारे में सोचकर। पियक्कड जुआरी, बच्चे और औरत को विलासपुर में छोड दिया है उसके बेटे को चित्ती सांप काटने के बाद। उसका बेटा सांप काटने से मर गया था। इतनी उम्र होने के बाद भी औरतों पर डोरे डालता है। इसलिए अपने बालों में खिजाब लगाता है। किसी जन्म में पाप किया होगा तभी तो इस जन्म में बेटा मरा है, फिर भी पाप संचय कर रहा है।

मैं क्या करूं, सोच रही थी झूमका। नशेड़ी के पास मेरी इज्जत जाएगी? गुस्से-गुस्से में मैं घर छोड़कर बाहर तो आ गई? मेरी अक्ल पर ताला पड़ गया था। पीछे मुडकर देखने लगी थी झूमका। पीछे केवल अंधकार, आगे में दर्जी दुआस का मकान।

दुआस उसी समय शायद पहुंचा था उसके घर। खिडकी, दरवाजे खुले थे। खूं-खूं कर खांस रहा था। यदि उस आदमी ने उसे खींच लिया तो? अगर बाघ की गुफा में बकरी आएगी तो वह क्या उसे छोडेगा? पूरी की पूरी निगल जाएगा? आगे का सोचकर पता नहीं क्यों झूमका को बहुत डर लग रहा था। कलमुंहे दुआस ! तू मर क्यों नहीं गया, तू यहां किवाड खोलकर बैठा है। इस बुढापे में तेरे आशिकपने को धिक्कार !

मेरी बदनामी होने से होगी। कल यदि मैं तुम्हारा नाम काउंसिलर के पास शिकायत न कर दी और तूझे अगर पुलस की हाजत में नहीं बैठाया तो मुझे मत कहना, हरामजादे।

झूमका लौटने लगी थी। सनऊ ने कहा था, तू तो केवल अपने कदम रखकर आ जाना। उसने कदम रख दिया। पीछे से दुआस ने आवाज लगाई-

“कौन है, कौन है वहां?”

“मैं सनऊ की औरत।”

“तुम आ गई?” दुआस ने कहा।

झूमका कांप उठी। उसका शरीर पसीने से तर-बतर हो गया। दरवाजे की चौखट पर आकर खडा हो गया दुआस। उसके मटमैले दांतों की हंसी -

“अरे अरे ! खेल-खेल में हार गया तो सच मैं तुम आ गई। जा जा, घर को जा।

आंखें बंद करके वहां से भागी झूमका। उसे भीतर ही भीतर एक अपमान अनुभव होने लगा। किस जगह वह अपना मुंह छुपाएगी। झटपट लौटते समय उसका पेट काटने लगा। मैदान की ओर जाना था मगर वह पानी का लोटा तो साथ में नहीं लाई थी। अच्छा, दुआस को देखो, बाबाजी की तरह बैठा है, अपने मठ में। औरत उसके आगे समर्पण कर रही थी। फिर भी लौटा दिया? मेरे शरीर में मलमूत्र की गंध से, मेरे काले कलूटे हाथ देखकर?

घर के दरवाजे तक वह आ गई थी। धीरे से घर के अंदर चली गई झूमका। और कौन सोएगा, रात खत्म होने लगी थी। सनऊ सोया ही था शायद। उसने पूछा - “आ गई क्या झूमका?”

“हूँ।”

उठकर बैठ गया सनऊ। “मुझ पर गुस्सा कर रही हो? ”

झूमका ने कुछ नहीं कहा।

“एक बात पूंछू? गुस्सा नहीं होगी तो?” सनऊ कहने लगा। “सच सच बताना, उसने तुझे छूआ तो नहीं?”

क्रोध से आगबबूला हो उठी झूमका। मन ही मन कहने लगी, “तेरे ऊपर बिजली गिरे !”