अनहक / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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आजकल मौसम काफी गीला, चिपचिपा और बासी हो रहा है।हर समय कुछ घुटा-घुटा सा, हलके अँधेरे में घिरा कुछ रहस्मयी सा।कल रात देर तक बारिस होती रही अब जाकर थमी है।रात भर खिड़की खुली रही और भीतर कमरे, बिस्तरे, मेज-कुर्सी आदि में बाहर से बारिस के भूले-बिसरे छीटें आते रहे और उसे और गम, उदासी, तनहाई से सराबोर करते रहे।

वह कितना जगा, कितना सोया है, कुछ अनुमान नहीं लगा पाया है।यह काफी दिनों से ऐसा ही है।घर की दीवारों पर उदासी चिपक-सी गयी है और उसके दिल दिमाग में रच बस गयी है।यहाँ तक की उसके सपने भी निराशा, उदासी, वितुष्णा, गम और दुःख से भरे हो गये हैं।वह बहुत चाहता है के कम से कम उसके सपने तो आशावान और प्रसन्नता से भरपूर आयें।इसलिए वह कई बार वह जल्दी से हंसी खुसी सोने की कोशिश करता है, परन्तु अलबत्ता उसे जल्दी नींद नसीब नहीं होती, फिर झुंझलाहट में वह अपने लिए कुछ अच्छा सोच नहीं पाता और दिवास्वप्न भी खुशगवार नहीं रह पाते और अंत में नींद भी उसे आशाजनक मधुर सपनों से महरूम कर देती है।

लेटे लेटे, वह छत देखता है।कभी पंखा टूनमुन गति से चलता हुआ और कभी स्थिर उसकी जीवन की गति की तरह।बिना परिवर्तन के स्थिर अनुप्रयुक्त।वह आंखे मुंद लेता है।माँ का झुर्रियों भरा चेहरा देखता है, बूढ़ा थका और अंतहीन इंतज़ार में शनैःशनैः विलुप्त होता हुआ।उसके चेहरे पर अजीब-सा विष्मयबोध है, चिंतातुर, हतप्रितिभ। फिर धीरे-धीरे म्लान होते हुए अद्ध्रश्य हो जाता है।वह गुमसुम ताकता रह जाता है...अक्सर माँ की उदास हंसी उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है और वह कह उठती है-अब तेरी शादी ब्याह हो जाय और पोते का मुंह देख लूं तो चलूँ...ऊपर वाला भी कब तक इंतज़ार करेंगा? यह उन दिनों की बात है जब वह कुंवारा था।परन्तु अब...?

उसके पिता की मृत्यु उसके बचपन में ही हो गयी थी।उसे पिता की बहुत छोटी धुधली याद् है।

वह कई बार सोचता है कि उसका सोचना बेकार है इसलिए अब नहीं सोचूँगा, जो कुछ होना होगा देखा जायेंगा परन्तु वह अपने को सोच से मुक्त नहीं कर पाता है। कौन कर पाया है? विशेष रूप से उस पड़पड़ींयाये जैसे सूखे जिस्म से पर्त उघड़ती चली जाती है चाहे अनचाहे।जैसे मकान का पुराना पलस्तर ढीला होकर अपने आप झरता रहता है, वैसे ही उसकी यादें भी कुरेंदो या न कुरेंदो उस पर झरती रहती है।

उसका ब्याह हुआ और माँ के रहते ही हुआ था।हांलाकि देर से हुआ था पर दुरस्त हुआ था।वह और माँ बहुत प्रसन्न थे।चाँद से रोशन चेहरे वाली और यक्षणी के अकार प्रकार वाली थी उसकी पत्नी यानी मोहनी।उसने देखते ही हा कर दी थी।परन्तु उसने उसका इंटरव्यू लिया था।उसका चेहरा दिख रहा है और उसने पूछा था-

"कुछ पुछोगें नहीं...?" उसने हलके से मुस्कराते हुए कहा।वह बड़ी स्टाइलिश अंदाज में खड़ी थी।उसका एक हाथ थोड़ी पर और एक हाथ कमर में था, उसे अपने को रिजेक्ट करने का चैलेन्ज दे रही हो।

"मुझे पसंद है..." वह हड़बड़ाया था।

"क्यों...?" वह गर्वोन्नत थी।परन्तु वह उसके सौदर्य से मदहोश था।

"क्या पूछना...?" अब एक डर उसके जेहन में धस गया था कही वह उसे अस्वीकृत न कर दे।

" उम्र, शिक्षा, पसंद-नापसंद, दोस्ती-दुश्मनी कुछ भी नहीं...? उसका मन अंतर्द्वंद में उलझा हुआ चुप था।

"नहीं..., कोई जरुरत नहीं...!" उसने बेझिझक कहा।वह इस अनिंद्य सुन्दरी को खोना नहीं चाहता था।

"तो...! ...मिस्टर विराज, ...हम चलें...?"

"अवश्य।" उसने सहमति दी।परन्तु उलझन यह भी थी कि वह उसकी स्वीकृति के विषय में अनभिग्न था।

उनका आपस में प्रथम साक्षात्कार बहुत ही संक्षिप्त और साधारण था।मुश्किल से पांच मिनट्स भी नहीं चला।परन्तु बाहर के कमरे में उसके परिवार और रिश्तेदार और उसकी माँ अकेली बेहद उत्सुक्तता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।उन दोनों का ब्याह पक्का हो गया और महीने के भीतर ही, हो भी गया।

यह पहला अवसर था कि उसने अपने अलावा किसी अन्य व्यक्ति की विशिष्टता स्वीकार की थी।शायद वह उसके अप्रतिम सौदर्य से प्रभावित...भयभीत हुआ था।माँ ने जब उसके सौदर्य की प्रसंसा उससे की तो उसका रोम-रोम खिल और चमक उठा था।उसे ऐसी संगनी मिलेगी यह उसकी कल्पना से परे की बात थी।

परन्तु मृग मरीचिका थी, मोहिनी...!

आज उसे रह-रह कर क्यों लगता है कि उसकी स्निग्ध हंसी, मुस्कराहट या खिलखिलाहट एक रहस्य थी। वह जो कहती करती बोलती थी सिर्फ छलावा था या सिर्फ एक अभिनय था। उन सब के पीछे एक रहस्य था जो शायद अब प्रगट हुआ है।नहीं...नहीं..., वह अब भी वह अनभिग्न है।

वह अपने कमरे में अकेला ऊबा-सा खिड़की से बाहर मकानों की छतों पर ठंडी उतरती धूप को देखता है तो एक क्षण के लिए ऐसा भ्रम हो जाता है कि वह आ रही है।समय के अन्तराल में ऐसा कुछ भी शेष नहीं रहा है जो बीता नहीं है। जो काल के कुचक्र में समां नहीं गया है और मोहिनी एक टूटी पतंग-सी शून्य में डगमगाती रह गयी है जो कही न गिरती है न किसी के पकड़ में आती है।

उसकी उसमे दिलचस्पी सीमित थी...सिर्फ ब्याह तक, उससे अधिक कुछ भी नहीं। ब्याह के बाद उसके चेहरे पर सुखी-सी विरक्ति और निरर्थकता का भाव उमड़ आया था।वह एक गूढ़ रहस्मय पहेली-सी उसे असीमता से प्रताणित करती जा रही थी। उसने ब्याह को अप्रत्याशित रूप एक रहस्यमय गांठ में तब्दील कर दिया था जिसको खोलना दूरूह था। जिसकी बलिवेदी पर माँ होम गयी थी और वह उसके कगार में था।

सकुशल ब्याह संपन्न होने के बाद वह उसके घर मुश्किल से एक सप्ताह भी नहीं रुकी होगी और उसके संग सिर्फ एक दो बार ही।मोहिनी के विचित्र और निर्लज्ज व्यवहार से वह झेप गया था।किन्तु वह अपरिहार्य थी।

परन्तु मोहिनी! जब वह गयी फिर लौट कर नहीं आई. वैचारिक द्वंद्व में उलझे उसके अन्वेषक मन कोई कारण तलाश नहीं कर पा रहा था।उसके पास न आने का कोई अपेक्षित उत्तर नहीं मिल रहा था। उसकी बाते अक्सर बेतुकी और असंगत होती थी, जब-जब वह उसे बुलाने कभी अकेले और कभी माँ के साथ जाता था...उसनके मन के भीतर उपजती आशंका, सीधे-सीधे शब्दों में उसने बेसाख्ता रख दी-

"मै तुम्हारे पास नहीं आ रही हूँ। किसी भी कीमत पर।" उसने बहुत ही निर्भीक और निर्रणायक स्वर में कहा।

"क्या?" वह विस्मित हुआ... "क्यों? ...क्या कारण है?" वह मिमियाया।

"तुम हिंसक हो...दहेजलोभी हो, रेपिस्ट हो...तुमसे मुझे जान का खतरा है।" उसने रोते हुए चिल्लाकर कहा।

उसके आरोपों को सुनकर वह हतप्रभ रह गया।आश्चर्य में उसका मुंह खुला का खुला रह गया। उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि मोहिनी यह सब कह रही है।उसके चेहरे के हावभाव देखकर वह स्तम्भित रह गया।

"यह गलत और झुन्ठा है, बेबुनियाद है।" अचानक हुए इस अतिशय मर्मान्तक आघात से उसने भी मन और वाणी का संतुलन खो दिया था।वह चीख रहा और चिल्ला रहा था।माँ ने उसे शांत किया।

"बहु! ऐसा नहीं करते, ऐसा गलत नहीं बोलते।अपने घर चलो..." माँ ने मोर्चा सम्हाला।अनुनय विनय की।

"नही...मै किसी कीमत पर नहीं जाउंगी।" वह निर्द्वंद और स्पष्ट थी।हांलाकि स्वर मध्यम था।

"फिर...?" माँ की आकांक्षा, आशंका सब निराशा में परिवर्तित हो चुकी थी।

' फिर क्या? मैं यही रहूँगी...जैसे रहती हूँ...वैसे ही रहूँगी।" उसने निर्विकार भाव से कहा।

उसके घर के सब लोग माँ, बहन, भाई और पिता सब देखते रह गए.और वह माँ के साथ वैसे ही स्थितिप्रज्ञ जड़ बैठा रह गया था।सिर्फ वही बोल रही थी बाकि सभी सुन रहे थे अवाक् हतप्रभ।

"चलो।! ...निकलो यहाँ से...जल्दी करो..." उसने बहस का कोई अवसर नहीं दिया।विराज को लगा कि मोहिनी सुनहरी नागिन में परिवर्तित हो चुकी है वह उसे किसी भी वक़्त डंस सकती है।

वह माँ के साथ दबे पांव जीना उतरने लगा था। कोई ऐसा कैसे कर सकता है।बिना बात का बतंगड़ बनाया जा सकता है, रस्सी का सांप बनाया जा सकता है! परन्तु उसने बिना मतलब झूंठ का ऐसा पहाड़ खड़ा किया था, जिसमे सेंध लगाना मुश्किल था।उसके घर से बाहर निकलते हुए उसने एक बार ऊपर देखा, वह बालकनी में खड़ी उसका जाना निहार रही थी।उसने एक दो बार उसे कांपते स्वर में पुकारना चाहा परन्तु आवाज गले में घुट कर रह गयी। माँ को जबरदस्त झटका लगा था।माँ की तबीयत बेहद गंभीर जान पड़ रही थी।उसने झटके से अपना सर मोड़ लिया।उसके बाद उसने पीछे मुड़कर न देखा न कोई बात की।

यह अनहोनी थी, अकल्पनीय, अविश्वनीय और आधारहीन। वह सोचता है कि उसका चंद दिनों का साथ एक सपना था।कभी उसकी निर्निमेष आँखों में झांककर उसने अपने भविष्य के खूबसूरत चित्रपट देखने का प्रयास किया था।

पहले भी वह अकेला था, नहीं साथ में उसकी चिंतित माँ रहती थी-"मेरे बाद इसका क्या होगा?" आज फिर वह अकेला है बिलकुल अकेला।वास्तव में देखा जाये तो वह नितांत अकेला भी नहीं है।आज शारीरिक रूप में माँ नहीं है परन्तु उसकी बीती हुई आत्मीयता उसे सहसा घेर लेती है।लगता है उसकी चिंतित आत्मीयता, ममता उसका पीछा कर रही है।और दूसरी तरफ फुफकारती नागिन उसे डंस लेने को आतुर उसका पीछा करती रहती है।दोनों तरह के छलावे उसके अपने निर्मित स्वप्न जगत को छिन्न भिन्न किये है।

माँ तो उसी दिन मर गयीं थी जिस दिन मोहिनी ने झूंठे, अनर्गल, आधारहीन आरोप लगाकर उसके पास लौटने से मना कर दिया था।दिनचर्या का आवश्यक कार्य निपटाकर वह पलंग पर अक्सर सिकुड़ी-सी लेती रहती थी।उनकी क्लांत थकी मुद्रा देखकर लगता कि वह रात भर सोई नहीं है।हर समय चुप।भारी तबियत।कभी कभी खीज भरे स्वर में कह उठती तू उसे बाँधकर नहीं रख सका।फिर अपने कहे पर अफ़सोस जदा हो जाती।विराज न घटता न बढ़ता सिर्फ शून्य-सा निरर्थक रह गया था।

माँ की शारीरिक मौत उस दिन हो गयी जिस दिन पुलिस उसकी गिरफ़्तारी का वारेंट लेकर आई थी, "अनहक दंड" ...सिर्फ इतना ही उनके मुंह से निकला और उनकी हृदयगति रूक गयी थी।मोहिनी के विचित्र व्यवहार से जो तनाव चिंता फ़िक्र हम में ब्याप्त हो गयी थी उसकी पहली बलि माँ के भेंट के रूप ली थी।

उनकी डूबती साँस का प्रकम्पित स्वर हौले-हौले दूर होता जा रहा था।माँ अपलक एकटक उसे देखे जा रही थी। कुछेक पलों के लिए वह विक्षिप्त-सा हो गया था।

"क्या मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?"

"न..." उसे प्रतिउत्तर मिला।

' फिर..." वह विस्मित विरक्ति-सा माँ को देखता रह गया। माँ अब भी उसे देख रही थीं।माँ की अज्ञात विष्मय भरी आंखे उसके भविष्य में आगत गहन कष्ट से विचलित थीं।

इंस्पेक्टर उसे छोड़कर चल दिया, "अपनी जमानत का इन्तेजाम कर लीजियेगा।" मोहल्ले भर के लोग इकट्ठे हो गए. उन्होंने माँ की आँखों को बंद किया। माँ पंचतत्व में विलीन हो गयी थीं।

दिन के चार बज गए थे और वैसा ही पड़ा था, यादों की भीषण, दुरूह भूलभुल्लियाँ में। उसे बड़े जोर की तलब लगी।उसने सिगरेट तलाशनी चाही सब ख़त्म हो चुकी थी।बाहर निकलना लाज़मी हो गया था।वह वैसे ही निकलने की सोच रहा था किन्तु उसका ध्यान अपने कपड़ो पर गया।कुरता-पजामा काफी गुजड़-मुजड़ गए थे...तुम इतने उदास क्यों रहते हो, उसने अपने से पूछा? ... नहीं अब मैं काफी सम्हल गया हूँ...जो हुआ सो हुआ...इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है...अब आगे देखना है कैसे निपटाना है? ...यस...हाँ...वह हँसता है...उसने खिलखिलाकर हँसना चाहा था। परन्तु वह हंसी फीकी और बेजान और बेमतलब की मुंह चीरना था।उसे हलकी-सी खुसी हुई कि वह सिगरेट पीकर इस अंतरजाल से निश्चय ही मुक्ति पा लेगा..., बाहर किसी होटल में खा भी लेंगे।

वह ढंग से तैयार होकर बाहर निकल आया।उसने उलझे बिखरे बालों को ठीक किया और आँखों को छीटें मार-मार कर ताजा करने की कोशिश की नकामयाब रहा।वे विवश अधखुली ही रह गयी थीं।आँखों से याद आया, माँ की भी ऑंखें अधखुली रह गयी थी।शायद वह उससे कुछ कहना चाहती थी, या अंत में उसे जीभर के देखना चाहती थीं। क्या...? उसे लगता है माँ अब भी अद्रश्य रूप से उसके साथ है।आज भी माँ की प्रस्थान वाली ऑंखें उसे अकारण चौका देती है।उसे अपने को सवांरना व्यर्थ लगा।

वह सिगरेट के कश लेता हुआ निरुदेश्य टहल रहा था।परन्तु उसके दिमाग में कई स्मृतियाँ, घटनायें चलचित्र की माफिक चल रही थीं तथा कई तरह की बातों, बोलिओं, आवाज़ों ने उसके कान को अवरुद्ध कर रखा था। घूमता टहलता वह शहर से काफी दूर निकल आया था। अचानक उसे लगा कि वह कोई परिचित-सी जगह पर आ गया है। कुछ दूर और चला होगा कि पाँव ठिठक गये। अरे! यह तो अमित के घर का रास्ता है।अमित उसका प्यारा दोस्त, मुसीबत के वक़्त वही काम आया था। जिसने उसकी जमानत ली थी। माँ के बाद जो उसे सबसे ज्यादा समझता था।

कुछ ही क्षणों में वह अमित के घर के सामने खड़ा था।फाटक खुला था। वह दबे कदमों से भीतर चला आया।उसने दरवाजे की कालबेल बजा दी।फिर भूल गया कि अंगुली वापस भी लेनी है।घंटी की आवाज दूर तक चीखती और गुजती रही।साथ ही साथ घंटी की आवाज का पीछा करती हुई उसकी आवाज।

दरवाजा खुला और आश्चर्य चकित-सा अमित उसे भीतर खीच लेता है।एक दो मिनट्स तक वह वैसे ही अहमक की तरह उसे घूरता रहता है और फिर हंस पड़ता है।जब उसने उसे अपने साथ सोफे में बैठा लिया, तब उसे अहसास हुआ,

"इतनी दूर पैदल आये हो?" उसने उसकी आँखों में आँखों डालकर चिंतित स्वर में पूंछा।

"नहीं मैं सिगरेट पीने निकला था और कब तुम्हारा घर आ गया पता ही न चला।" और वह मुस्कराने लगा।

"यार! सम्हालो अपने आप को।" उसकी भेदभरी दृष्टि उसे छीलने लगी थी।

'अरे! कुछ भी तो नहीं...मै ठीक हूँ...दोस्त।' उसने झेपकर सफाई दी।

तब तक उसकी पत्नी आ गयी।उसकी शादी मुझसे पहले हो गयी थी।उसके एक बच्चा भी था चार साल का।दुवा सलाम के बाद वह फिर चाय नास्ता लेकर आई.वह कुछ पल उसकि तरफ देखती रही।कमरे में घुटा घुटा-सा सन्नाटा पसर गया था।शीतल ने अचानक सन्नाटा भंग किया और उसके कोर्ट केस के विषय में पूंछतांछ करने लगी।उसे यह अहसास रहता है कि बातों का रूख उधर की तरफ जायेंगा जरुर।हाँलाकि वह जानता है कि अमित जरुर शीतल को सब कुछ बताता रहता होंगा।परन्तु उसके साथ और कोई क्या बात करेगा? इसलिए उसे शीतल के पूछने पर कोई कौतुहल नहीं हुआ।

उसको उसका यह प्रकरण छेड़े जाने काफी अरुचि होती है।यह उसे निराशा और अवसाद में घसीट ले जाती है।वह वहाँ से जल्दी निकल जाना चाहता था।किन्तु अमित और शीतल से जल्दी छुटकारा संभव नहीं हो पाता था।उन्होंने उसे डिनर के बाद ही जाने दिया और ड्राईवर उसे घर तक छोड़ गया।हांलाकि वह मना करता रहा परन्तु उसकी वह लोग नहीं सुनते।

वहाँ से आने के बाद उसका मन फिर उचाट हो गया।वे उलाहना दे रहे थे कि इतने दिन से वह वहाँ क्यों नहीं आया? वह दोनों कहते रहते है खाली वक़्त में इधर निकल आया करो।मन बदल जायेगा।वह जानता है कि उसका मन तो क्या बदलेगा? किसी के पास खीजता और है।लोग उसके और उसकी पत्नी के अन्तरंग सम्बंधों को उधाड़ने कि कोशिश और करते है।उसके पास उसकी प्रसंसा या बुराई करने का कोई वाक्य नहीं होता।क्यों...चली गयी? लोग कारण तलाशते है। उसे खुद कोई कारण समझ में नहीं आता।वह यह बात कहना चाहता है कह नहीं पाता।वह अंदाज लगाना चाहता है परंतु उस अंदाज को प्रगट करने में झिझकता है।हमसे बहुत कुछ ऐसा है जो अनकहा रह जाता है।

उस रात देर तक उसकी निरीह खामोश आँखें अँधेरे कमरे में, के, आसपास भटकती रही। दोष, कारण, समस्या निहारती रही तलाशती रही, असफल रही। उसके सम्बन्ध में कोई रहस्य बूझती रही परन्तु अधीर मन बार-बार कह उठता, नहीं कुछ भी नहीं है उसका रहस्य।

वह सोचता है कि एक बार, कम से कम एक बार, उससे एकांत में मुलाकात हो जाये।वह उससे पूछना चाहता है कि उसका कसूर क्या है? कभी-कभी वह सोचता है कि वह मोहिनी को एक लम्बा-सा पत्र लिखे, कुछ नहीं तो चौसठ पेज का तो हो ही या ऐसा पत्र जिसका कोई अंत न हो।परन्तु उसके वकील ने उससे किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने से मना किया है, केस कमजोर हो जायेंगा।

दिमाग के साथ आंखे भी थक गयी थी। ऑंखें झुकने लगी थी, वह सो गया।

कभी कभी वह सोचता है कि वह अर्थहीन बाते क्यों सोचता है? जैसे एक बार या कई बार वह लम्बी देर तक यह सोचता रहा कि मोहनी को अपनी गलतियो का अहसास होगा और वह माफ़ी मांगती हुई उसके पास वापस आ जाएँगी, सब लफ़ड़ा सुलझ जायेगा और वे हैप्पी मैरिड कपल की तरह रहने लगेंगे...अचानक माँ की आवाज उभरती है, "न...बच्चे न...नही... माँ झुंझलाकर प्रतिरोध करती नज़र आती है। वह मोहिनी के प्रति आगाह करती है।परन्तु उसे उसके साथ खुश देखकर अपना विरोध छोड़ देती है..." उसका सर चकराने लगा है। सर दर्द से फटा जा रहा है। वह उठकर सर दर्द की एक गोली लेता है। अब धीरे-धीरे उसको राहत मिलती है।

वह मोहिनी का फोटो देखता है।खुबसूरत फ्रेम किया हुआ फोटो। अब भी उसकी दीवाल में शोभायमान है।फोटो में कितनी सौम्य, सुंदर, शांत है, रूपगर्विता। उसके साथ वह भी है सहमा सिकुड़ा परन्तु गर्वोन्नत।कई बार सोचता है कि वह फोटो वहाँ से हटा दें, कहीं कबाड़ में फेक दें, जला दें।परन्तु नहीं कर पाता है, यह सोचकर कम से कम अनजान अपरचित आगुन्तकों से, यह मेरी पत्नी है, कहकर परिचय तो करवाया तो जा सकता है। अब भी वह किसी से यह नहीं कह पता है कि उसका पत्नी से डिवोर्स का केस चल रहा है...लोग क्या कहेंगे...? कुछ उसमे भी तो कमी होगीं।? क्या कारण बतायेंगा? पता नहीं क्यों? वह उस फोटो को देखकर उत्तेजित, अपमानित और गुस्से में आ नहीं पाता।? ...उसे खुद इस बात का आश्चर्य होता है...कभी कभी वह सोचता है कि लोगों की अपेक्षा अपनी कहानी कहना कठिन है और लिखना तो शायद कभी नहीं हो पायेंगा...उसे शब्दों, वाक्यों और अक्षरों में खोजना, चेष्टा करना या उसके विषय में कुछ भी याद करना आत्म-बिडम्बना-सा लगता है। सिर्फ हफ्ते भर के साथ ने उनके बीच कोई खलिश पैदा नहीं की थी। किन्तु उसके बाद क्या कुछ नहीं भोगना पड़ रहा है।

क्या वह कभी उस व्यक्ति से परिचित हो पायेगा जिसका नाम मोहिनी है? उसके सम्बन्ध में उसकी धारणा क्या है? उसने ऐसा क्यों किया? ऐसी पुलिस रिपोटिंग क्यों की? एक हफ्ते में वह रानी महरानी की तरह रही और दोनों बंदे उसके खूबसूरत आतंक से सहमे उसे तुष्ट करने को भरसक प्रयास करते रहे, और नतीजा बेहद विपरीत। चंद दिनों का उसका साथ उसे खुशी देता था परन्तु वह तनाव रहित नहीं था।एक खिची खिची-सी अपूर्णता छाई रहती थी।वह उससे किस तरह असंतुष्ट थी, अभी तक जान नहीं पाया है। अक्सर उसका अधीर मन उत्सुक और उतावला हो उठता उस रपट को उसकी जबानी सुनिश्चित करने को। हाँलाकि जब वह अंतिम बार उसे बुलाने गया था तो उसने यही सब गम्भीर आरोप लगाये थे उसके साथ न आने के लिए.।परन्तु पुलिस में यह सब लिखित में देना उसे स्थायी रूप से बुरी तरह में प्रताणित, प्रक्षालित, अपमानित कर दिया था।फिर उसने उसे स्थायी वसूली प्राप्त करने का साधन बना दिया था...परन्तु फिर भी वह उससे घृणा नहीं कर पा रहा था।

आज शायद अंतिम बार उसे कोर्ट जाना था।पिछले तीन वर्षो से दुसरे तीसरे महीने कोर्ट की तारीखे पड़ती है-फिरोजाबाद, उसके गृह नगर। वही उसने पुलिस में शिकायत करी थी और वही से मुकदमा। तभी वह उसे देख लेता था दूर से।-ख़ामोशी में लिपटी हुई और एक हलकी मुस्कान ओढ़ती हुई.वह उसकी आँखों की आत्मीयता पढ़ लेती थी और दूर कही दूर चली जाती थी। परन्तु उसकी आँखों में उससे दूर जाने और अलग रहने की चाह पुरजोर तरीके से जिन्दा थी।

उसके वकील का शुरू से यह अभिमत था कि उसे समझौता कर लेना चाहिए था। परन्तु उसे अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने की जिद थी।इस जिद पर पहला आघात जब लगा जब मोहिनी ने कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने उस पर लगे अभियोजन को अक्षरशः दोहरा दिए बिना किसी हिचक और संवेदना के. उस दिन उसे पहली बार पता चला कि व्यक्ति आँखें मिलाते हुए मुंह दर मुंह भी भावनारहित झूठ बोल सकता है। उस क्षण से उसका साथ मिलने और भविष्य के क्षणों को संग जी लेने की चाह पूर्णतया ध्वस्त हो गयी।

अपने को सही साबित कर लेने की जिद पर दूसरी ठोकर जब लगी, जब जज साहेब ने उसे दस हज़ार रुपया महिना गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित कर दिया, जब तक कि कोर्ट का फैसला न हो जाये। विगत तीन वर्षो से वह दस हजार रुपया महिना गुजारा भत्ता कोर्ट में जमा करता आ रहा है।जिस माह देर हो जाती है या चूक जाता है पुलिस सम्मन लेकर हाज़िर हो जाती है।

उसकी जिद को तीसरा आघात तब लगा जब हमारी दहेज़ मुक्त विवाह को धता बताते हुए, ससुराल पक्ष के दस लाख दहेज़ देने की मांग स्वीकार कर ली गयी । उन्होंने उसके वकिल की प्रूफ देने की मांग अस्वीकार करते हुए यह दलील दी कि इतना तो मध्यवर्ग की शादी में दहेज़ होता ही है।

अंततः उसे अपनी जिद को बेमौत मारते हुए समझौता करने के लिए बाध्य होना पड़ा। समझौता के लिए दोनों पक्षों के वकील मिले और कम से कम बीस लाख में समझौतें की सहमति पाई गयी। झकमार के उसे सहमति देनी पड़ी। दोनों पक्षों की तरफ से समझौते की लिखित सहमति कोर्ट में दाखिल हुई और कोर्ट ने अपनी सहमति दी। वह मकान बेचकर दो किस्तों में भुगतान कर पाया था।

आज केस की अंतिम सुनवाही है।वह फिरोजाबाद एक दिन पहले ही पहुच गया था।क्योंकि आज अंतिम अरदास थी इसमें वह चूक नहीं सकता था। आज वे फाइनली अलग हो जाएँगे। वह सोचता है कि वह जुड़े ही कब थे जो अलग हो रहे थे? इन बीते वर्षों में अच्छी बुरी घटनाओं के दरम्यान हर बार सम्बंधो के नए से नए पहलु नज़र आते रहे है।

मजिस्ट्रेट के आने के बाद कोर्ट की कार्यवाही मुश्किल से दस मिनट्स भी नहीं चली।न्यायाधीश ने उन दोनों की जबानी अलग होने की सहमति पूछी और उन दोनों स्वीकारोक्ति के उपरांत उनके डिवोर्स पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी।

वे सब बाहर जा रहे थे।वे काफी लोग थे मोहिनी उसके माता-पिता, भाई-भाभी, बहन-बहनोई और उनका वकील। वे कोर्ट से निकलकर एक रेस्टोरेंट की तरफ मुखातिब थे। विराज अकेला कोर्ट में खड़ा रह गया, एकदम संज्ञाशून्य सा। उसके वकील ने उसे टोका, "माफ़ कीजियेगा, अब हमें बाहर चलना चाहिए... यहाँ सब कुछ..." वाक्य अधूरा रह गया और वह सहमा-सा खड़ा रहा। हठात उसे कुछ याद आया...हाँ... अब सब कुछ समाप्त हो गया है...फैसला भी हो गया है।

"लेकिन..." वह हकलाकर चुप हो गया।

वह सोच में पड़ गया जिस एक अकेली मुलाकात के लिए वह विगत तीन वर्षों से प्रतीक्षारत था, आज हो सकती है।आज नहीं तो फिर संभव नहीं हो पाएंगी...फिर अगर होगी भी तो वह सन्दर्भहीन मुलाकात होगी। आज नहीं तो फिर नहीं।

"क्या बात है?" उसके वकील ने पूछा। वह वैसे ही कोर्ट के कटघड़े में ठिठका, सहमा, प्रताणित और अधूरा खड़ा था। वह वकील के साथ बाहर निकलकर साथ-साथ चल रहा था।वह अब भी उसकी तरफ देख रहा था, क्या बात के उत्तर में...?

"वकील साहेब! क्या आप मेरा एक छोटा-सा काम और कर देंगे? आखरी काम।" यह कहकर वह कही भीतर तक खामोश हो जाता है। उसकी त्रस्त ऑंखें उस पर चिपक जाती है।

' हाँ...हाँ...बोलिए न? " वकील ने उत्सुक निगाहों से उसे देखा।

"मोहिनी से मेरी एक ऐकांतिक मुलाकात का प्रवंध कर देंगे? अभी इसी वक़्त। आज के बाद यह निरर्थक होगी।" यह् कहकर उसके चेहरे पर एक मासूम-सी जड़ता उतर आई.

' देखते है? " वह उसे विष्मय से देखता है।और उसे वैसा ही छोड़कर चल देता है।

वह एक सस्ते से रेस्टोरेंट में उसका इंतजार कर रहा था।जहाँ उसके अलावा कोई ग्राहक नहीं था। प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही थी। वह चिंतित था मुलाकात हो पाएंगी या नहीं? वह राजी होगी या नही? वकील साहेब सक्षम होंगे उन्हें समझाने में? उसने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मांगे थे। क्या कहना पूछना है? यह बहुत दिनों ने उसके जेहन में तैर रहा था।

उसकी आँखों ने उसके दिमाग का साथ छोड़ दिया था।वे उसके टेबल के पास आकार खड़े हो गए थे और वह संज्ञान नहीं ले पाया।

"मिस्टर विराज! लो मोहिनी जी आ गयी। परन्तु ध्यान रहे, सिर्फ पंद्रह-बीस मिनट्स।" उसने अचकचाकर उन्हें देखा और सुना। वे दोनों उसे अजीब नज़रों से देख रहे थे।

"आप लोग कब से खड़े है? मुझे पता ही नहीं चला।" एकदम उसके मुंह से निकल पड़ा। दोनों ने कुछ नहीं कहा। वकील साहेब मोहिनी को छोड़कर बाहर उस पारिवारिक झुण्ड में शामिल हो गए, जो चिंतित उनका इंतज़ार कर रह था। वह उसके पास एक कुर्सी खींच कर सामने बैठ गयी। वह बेख़ौफ़ थी।

"कहिये क्या कहना है?" उसने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पूछा।हांलाकि उसके स्वर में भीगा-सा कम्पन था, मानो वह जबरदस्ती अपने आग्रह को दबा रही हो।

उस रेस्टोरेंट में कुछ अँधेरा, धुवां और घुटा घुटा-सा सन्नाटा छा गया था।कर्मचारी पानी रख गया था और उनके लिए चाय पकौड़े बना रहा था। उसने ऐसा ही आदेश दे रखा था मोहिनी के आने से पहले ही।

"मुझे बड़ा अजीब लगता है, मोहिनी! मैं कई दिनों से मौके की तलाश में था कि..." उसने चौक कर उसकी तरफ देखा। वह कुछ देर अपलक उसकी तरफ देखती रही। उसे पहले यह अनुमान था कि वह उससे कारण पूछेगा, परन्तु वह क्या कह रहा है? वह ऐसे बिहैव कर रहा जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रणय निवेदन से पहले करता है। हांलाकि अभी न कोई प्रश्न किया गया था न सुना गया था। हममें बहुत कुछ ऐसा है जो कि सदैव अनकहा रह जाता है।परन्तु आज उसे कुछ कहना नहीं पूछना था। आज वह पूछ कर रहेगा।

आकुलता भरी शांति छा गयी थी। वह उसके प्रश्न के प्रारंभ होने का इंतज़ार कर रह थी और वह कहाँ से प्रारंभ करूँ इस उधेड़बुन में था। उसे अपने ऊपर से विश्वास नहीं रहा। उसे लगा कि वह एक असहाय-सी कमजोरी महसूस कर रहा है। वह उसे टटोल रही थी।

"हाँ...हाँ...आगे कुछ...?" उसने उसकी हिचक से आजिज आकर पूछा।

"अपने ऐसा क्यों किया? ...सच सच कहना। अब तो तुम्हारे मन मुताबिक फैसला हो चूका है...क्या उस सात दिनों में मैं तुम्हे मारता-पीटता था? नोचता-घसोटता था? जबरदस्ती रेप करता था? दहेज़ माँगता था?" वह एकदम से फट पड़ा था।उत्तेजना में क्रोध और गुस्से में वह कांपने लगा था। परन्तु उसका स्वर समान्य से कुछ ही अधिक था। वह लाल हो गया।

मोहिनी ने अपमान से पीड़ित विस्मित आतुरता से उसे देखा और हलके से मुस्कराकर बोली, " मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं इतनी हिम्मत कर पाऊँगी। उस रात देर तक आतंक, उलझन और घबराहट से नीद नहीं आई थी।किन्तु मुझे अपने घर से प्रतिशोध लेना था जिसमे तुम्हारी आहुति देनी पड़ी। उस रात सिर्फ अपने प्रतिशोध के विषय में ही सोचा था उसे आगे कुछ भी नही।

"क्या मतलब?" विराज का स्वर उच्च नहीं था।

वह सोचती रही।वे दोनों अकेले थे।वे दोबारा मिलने वाले नहीं थे।वह उस अतीत की तरफ जा रही थी जिससे विराज का कोई वास्ता नहीं था। परन्तु उसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा था। उसके दिल-दिमाग में पुरानी बेहद, दुखद स्मृतियाँ, आकाशीय बिजली की तरह क्रोंध रही थीं। वह उससे साँझा करने को उद्धृत हुई.

' क्या आपके पास समय है? " वह कुर्सी पर सीधी हो गयी और कहा।

"निश्चय ही।" उसने तुरंत कहा।

" नहीं, आपने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मिलने की मांग रखीं थी। उसने उलाहना दिया।

' वो, तो इसलिए कहा था कि आप मुझसे किसी वक़्त, किसी समय, किसी दिन मिलने को तैयार नहीं थी। ऐसा मुझे लगा था।

"हाँ...इस वक़्त से पहले मैं ऐसा ही सोचती थी कि कही आप हिंसक न हो जाएँ? ।आज भी..." फिर उन दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी ब्याप्त हो जाती है। अहिंसक निरपराध के सामने कुछ कहना भी दुष्कर होता है।वह हल्के कम्पन में थी, जो उसकी हथेलियों में प्रगट हो रहा था। विराज ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों से ढक लिया। उसे हौसला मिला। उसने अहिस्ता से उसके हाथों से अपनी हथेलियाँ खीची और अपनी हिचकिचाहट से परे जाते हुए कहा-

"कॉलेज के दिनों में मुझे अपने सहपाठी सुनील जाटव से प्यार हो गया। पढाई ख़त्म करते ही हम दोनों ने विवाह करने की ठानी।मेरे घर वाले किसी तरह तैयार नहीं थे।उन्हें अपनी ऊँची जाति के मान, अपमान प्रतिष्ठा के कारण यह असम्भव कोटि का कार्य था और सुनील के घर वाले डर के मारे बेबस थे।हम लोग एक दुसरे के प्यार में इतने समर्पित थे कि सुनील की नौकरी लगते ही हम लिव इन रिलेशनशिप यानी के सहजीवन अपना लिया।घर वालों के मान अपमान से बेफ़िक्र बेख़ौफ़। तुरंत कोर्ट मैरिज इसलिए नहीं की, बाद में घर वालों को राजी कर लेंगे।मगर ऐसा न हो सका।एक दिन मेरे घरवाले कुछेक लोगों के साथ मेरे सहजीवन में आ धमके और हम दोनों को बुरी तरह मार पीट कर अलग-अलग कर दिया।"

वह लगातार बोल रही थी कुछ ऐसे जैसे वह अपनी नहीं किसी और की कहानी सुना रही हो। कुछ क्षण वह रुकी और उसकी प्रतिक्रिया देखने की कोशिश की।परन्तु उसका चेहरा निर्विकार भावहीन एक अबोध बच्चे-सा उसकी कहानी को उत्सुक्तता से सुनने में तल्लीन था।

"मुझे अपने घर ले आये और सुनील को उसके घर वालों को ऐसा सौपा कि वह अपनी जाति में झटपट शादी कर बैठा।शायद तभी उसे अपनी मौत से निजात मिली होगी। उसके पिता रिटायर हो चुके थे और वह चार-चार बहनों का एकलौता भाई था।वह डरपोक था।" मेरे अहम् को चोट लगी थी।

वह जल्दी-जल्दी धीमे और स्पष्ट बोल रही थी।इतना धीमे कि सिर्फ वही सुन पा रहा था। उसकी आँख भर आई थी और गला रुद्ध गया था।वह रुकी और उसने पानी पीकर अपने को रिफ्रेश किया।अबकी बार उसने विराज पर दृष्टि नहीं डाली और कहने लगी-

" इन सब सदमों ने मुझे बुरी तरह तोड़ कर रख दिया।मेरी हालत बुरी तरह बेहद ख़राब थी।सहजीवन के दुष्परिणाम स्वरुप मैं प्रेग्नेंट हो चुकी थी।घर वालों के समझाने और सुनील की बेवफाई से बसीभूत होकर, मरता क्या न करता, के तहत मैंने अपने गर्भ से मुक्ति पा ली।' यह मेरी अस्मिता पर हमला था।

उसकी आँखों से आंसू अनायास बहने लगे थे।जिसे उसने चतुराई से पोछ लिया। वह जान कर अनजान बन गया। कुछ पल मेरी तरफ चोर निगाहों से देखते रही फिर बोली,

"घर वाले मेरा दूसरा विवाह करवाना चाहते थे। मैं घर, परिवार, समाज में काफी बदनाम हो चुकी थी। मैं किसी तरह राजी नहीं थी। इसके बावजूद वे अपने प्रयत्न में लगे थे। कई बार रिश्ते तय होते-होते टूट गए जब उन्हें कही से मेरा अतीत पता चल जाता। इससे मुझे दुःख नहीं होता बल्कि अपने को सही होने का सुख मिलता था। लेकिन..." उसका गला बुरी तरह रूंध गया था।उसके अंतर्द्वंद छिन्न भिन्न होकर बाहर निकलने को मचलने लगे थे।

"मुझे से ब्याह से अरुचि थी।परन्तु मैं पराधीन थी। मुझे समवयस्क लडकों के सतही फिसलने वाले दृष्टिकोण से चिढ़ थी।पता नहीं कहाँ से मेरे भीतर बदला लेने की प्रवत्ति घर कर गयी और क्रमशः यह सनकीपन की हद तक समां गयी...इसी बीच भाई पता नहीं कहाँ से तुम्हे पकड़कर ले आये। मैं आपको अपने अतीत और भविष्य के लिए आगाह करना चाहती थी। इसलिए पहली मुलाकात में, मैं आपको बार-बार उकसाती रही कि कुछ पूंछ तांछ करो। परन्तु आप देखते इतने मोहित, सम्मोहित और आकर्षित हुए कि भूतकाल क्या वर्तमान भी नहीं पूछा...विवाह के समय आप पच्चीस के भी नहीं हुए थे जबकि मैं तीस पार कर चुकी थी। मुझे यह ठीक नहीं लगा था परन्तु मेरे पास जीवन यापन के लिए विवाह के अलावा कोई विकल्प नहीं था।"

उन दोनों के बीच मौन ठहर गया था।समय थम-सा गया था। मोहिनी भी प्रकृतिस्थ थी और विराज का मन उसकी थाह नहीं ले पा रहा था।वह उत्कंठित था अपने हश्र में विषय में। अचानक उसका खोया मन वापस लौटा और उसने विराज के हाव-भाव ताड़ लिए.

"आपके साथ बिताये सात दिन अच्छे गुजरे और मन ही मन प्रसन्न और संतुष्ट थी। परन्तु मुझे अपने घर वालों की प्रसन्नता खटक गयी। उनके चेहरें पर आया विजयी भाव मुझे भीतर तक प्रताणित और अपमानित कर गया। मैं पराजय की कुंठा से ग्रस्त थी। बदला लेने की प्रवृत्ति पूर्णरूप से उभार पर आ चुकी थी। आपके यहाँ से आने के बाद अचानक मेरे दिल में यह ख्याल आया कि उनके द्वारा तय की गयी जातिवादी अर्रेंज मैरिज को मैं बर्बाद करके मैं अपनी पहली शादी (सहजीवन) को उनके द्वारा नष्ट भ्रष्ट करने का प्रतिशोध लिया जा सकता है।तदनुरूप मैंने वही-वही किया जो पराजित करता है अपने आखिरी ब्रहास्त्र के रूप में जिसमे वह स्वयं भी नष्ट हो जाता है...मुझे अकेले जिंदगी काटनी है यही मेरा परिवार और समाज के प्रति प्रतिशोध और प्राश्चित भी है।"

मोहिनी के मन के गहरे भाव जो शब्दों में व्यक्त नहीं हो पा रहे थे, जिनकी अभिव्यक्ति में उसकी भाषा दरिद्र हो गयी थी।उन्हें आँखे से बड़ी सहजता से संप्रेषित कर रही थी।उसके मन की सारी उर्जा आँखों में केन्द्रित हो गयी थी। वह फफक-फफक कर रो उठी। विराज में उसके प्रति अभी तक संचित सारी कलुषता काफूर हो चुकी थी।

उसकी आँखें आंसुओं से रिक्त हो चुकी थी। वह उठी। उसने वासवेसिन में अपना छोटा-सा रूमाल गीला किया और उससे चेहरे पर छप आयें आंसुओं को साफ किया। वह पुनः उसके पास आकर बैठ गयी।एकदम फ्रेश।

उन दोनों ने अपनी चाय और नास्ता समाप्त किया। इस दरम्यान कोई कुछ नहीं बोला।

"अब हमें चलना चाहिए." उसने उठते हुए कहा।

' हाँ..." उसने भी सहमति में सर हिलाया।बाहर उसके लोग उसका चिंतित और बेसब्री से इंतज़ार कर रहें थे। उंसने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मांगे थे और एक घंटा से भी ज्यादा हो चुका था।

दरवाजे पर आकर वह पलटी रुकी और उसके पास आने का इंतज़ार किया और कहा, "एक अनुरोध है आपसे?"

"कहिये?" उसे कोई विशेष उत्सुक्तता नहीं थी।

"हम दोनों के बीच इस समय जो कुछ कहा सुना गया है, कृपया अपने तक सीमित रखियेगा। विश्वास है आप किसी और के साथ साँझा नहीं करेंगे?" यह कहकर उसने आशाजनक नज़रों से उसे ताका।

"निश्चय ही...अवश्य..." विराज ने उसे आश्वस्त किया।

उस रात जब वह सोने लगा तो लगा कोई भारी बोझ जो उसके दिमाग में लदा था, वह बहुत हल्का पड़ चुका है।

एक अरसे के बाद वह एक अधमिटी अधूरी समृति, एक अस्पष्ट धुधले दर्द के बावजूद वह सो सका था।

आज सोचता है तो लगता है कि उसका एक अलग अस्तित्व और व्यक्तित्व था। वह सोचता है कि क्या वह उस व्यक्ति से कभी परिचित हो पाएंगा जिसका नाम मोहिनी था।