अनहद नाद / भाग-13 / प्रताप सहगल

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“क्या बिगाड़ रहा हूँ?...मेरे दो छोटे भाई और हैं। यह भी सही। शिवा मुझे अच्छा लगता है। यह आगे बढ़ेगा...मुझसे कुछ हो जाता है उसके लिए तो उसका सुख मुझे ही मिलता है।” हांडा ने कहा।

“वो तुम्हें बड़ा पूछेगा।” आर्या बोला।

“न पूछे...मेरा काम ही यहाँ के अच्छे बच्चों को खोजना है, उन्हें आगे बढ़ाना है।” हांडा ने कहा।

“अरे हांडा, सरकारी काम है...इतनी दयानतदारी की ज़रूरत नहीं।”

“मुझे जो अच्छा लगता है, करता हूँ, न कोई दयानतदारी है न कोई बेईमानी।”

“पता भी है करता क्या है आजकल...”

हांडा खामोश रहा। आर्य क्षण-भर रुककर बोला-”वह है न नेकचंद की छोकरी सुमन, उसके साथ हीरो बना फिरता है।”

“उम्र है उसकी।”

“उम्र है...कॉलोनी में इज़्ज़त है कि नहीं किसी की...”

“मुझे तुम्हारी बातें समझ नहीं आ रहीं।” हांडा ने कहा।

“समझोगे तब जब तमाशा लगेगा, तुम भी बदनाम होओगे...तुम्हारे साथ ही तो सबसे ज़्यादा उठता-बैठता है।” आर्य ने पैंतरा बदला।

“हांडा क्षण-भर के लिए खामोश हो गया। देवेंद्र आर्य को लगा, उसका यह निशाना सही जगह लगा है। हांडा ने इतना ही कहा-उसे समझाऊँगा।”

शिवा इतनी देर से सुन रहा था। एकदम अंदर चला आया और बोला-”जो समझना है अभी समझाइए, इनके सामने।”

देवेंद्र आर्य का चेहरा फक्क हो गया। हांडा को अच्छा भी लगा और कुछ खराब भी, पर वह जल्दी ही व्यवस्थित हो गया। बोला-”बैठो-बैठो।”

देवेंद्र आर्य एकदम उठा और कहकर चला गया-”बित्ते-भर का छोकरा, इसकी यह मजाल...तुमने इसे सिर चढ़ा रखा है हांडा, अब रायज़ादा साहब से ही मिलना पड़ेगा।”

शिवा अभी भी खड़ा था। आर्य के चले जाने के बाद बैठा।

हांडा ने कहा-”क्या चक्कर है?”

“कुछ भी नहीं।”

“कुछ तो है, देवेंद्र आर्य झूठ नहीं बोलता। तुम्हें पता ही है वह यहाँ का लीडर भी है। कुछ नुकसान भी कर सकता है।” यह बात कहते हुए हांडा के मन में यही आशंका थी कि कहीं वह उसी की शिकायत बड़े दफ्तर में न कर दे।

“मैंने किया क्या है...?”

“सुमन के साथ घूमते हो।”

“स्कूल ही तो जाता हूँ।”

“क्यों?”

“मुझे अच्छी लगती है।”

“और तुम भी उसे अच्छे लगते हो?”

“हाँ।”

“कैसे पता?”

“बस, लगता है।”

“पर यह मज़दूर कॉलोनी है। यह प्यार-व्यार बड़े लोगों के चोंचले हैं। तुम्हें पढ़ाई में ही मन लगाना चाहिए।”

शिवा के मन में आया कि वह कहे कि खुद तो जाते हैं करौलबाग कुल्फी खाने के बहाने लड़कियाँ ताड़ने, उन्हें छेड़ने और मुझे उपदेश देते हैं, पर उसने ऐसा कहा नहीं, बोला-”पढ़ता तो हूँ ही। छमाही का नतीजा तो पता है आपको।”

हांडा चुप हो गया। वाकई शिवा ने अच्छे अंक प्राप्त किए थे। “मैं तुम्हें समझा ही सकता हूँ। अभी यह सब रहने दो तो ठीक ही है। बहुत वक्त पड़ा है इसके लिए...हमारी बात और है...।” शायद हांडा ने शिवा के मन की बात भाँप ली थी और इसीलिए यह बात कही थी।

थोड़ी देर वहाँ निस्तब्धता पसरी रही। फिर शिवा उठकर चला गया।

सुमन ताज़ा खिले हुए गुलाब की तरह ही खिल रही थी। शिवा की रगों में दौड़ते खून की गरमाहट बाहर छलकने लगी थी। दोनों एक-दूसरे की ओर तेज़ी से खिंचे। उन्हें मालूम नहीं था कि क्या है। प्रेम, लव, मुहब्बत। यही शब्द सुने थे उन्होंने। उन्हें भी यही महसूस हुआ। सम्मोहन शब्द उन्होंने सुना ही नहीं था। न किसी ने उन्हें कभी बताया था। बस, एक अनाम-सा खिंचाव उन दोनों के बीच गहरे रूप में छाया हुआ था। दोनों को एक-दूसरे का हलका-सा स्पर्श बड़ा अच्छा लगता और जब भी गली के किसी मोड़ पर आते-जाते मिलते, शिवा सुमन को हलका-सा हाथ मार देता, कहीं भी। सुमन इठलाकर तेज़ी से निकल जाती। दोनों अक्सर घर में ही मिलते। घंटों बातें करते। इन बातों में कहीं भी ‘सत्यार्थप्रकाश’ नहीं था, न कोई वेद, शास्त्र या पुराण। इन बातों में स्कूल था, शरारतें थीं, सहेलियाँ और दोस्त थे, फिल्में थीं या फिर कॉलोनी के किस्से। उनका संधिस्थल अक्सर छत होती, पर वहाँ ज़्यादा देर तक रहना संभव नहीं होता। उन्होंने कोई कसमें नहीं खाईं, पर बँधे रहे। उन्हें लेकर इधर-उधर कुछ फुसफुसाहट ज़रूर होने लगी थी। वे इससे बेखबर थे। शिवा को डर था तो बस देवेंद्र आर्य का, और उसका यह डर एक दिन सच निकला।

शाम जल्दी ही ढल गई थी। हलकी सर्दी थी। कॉलोनी की एक अँधेरी गली में शिवा और सुमन एक-दूसरे का हाथ थामे खड़े थे। दोनों के बीच खामोशी थी। वे बात क्यों नहीं कर रहे थे? शायद उन्हें भी नहीं मालूम। शायद एक-दूसरे का सान्निध्य ही उन्हें एक अबूझ सुख दे रहा था। दोनों तंद्रिल थे।

“यह देखिए।” सुनते ही शिवा पर फैली तंद्रा टूटी। देखा तो सामने देवेंद्र आर्य था साथ ही शिवा का पिता। शिवा को काटो तो खून नहीं। वह देवेंद्र आर्य से डरता ज़रूर था, पर उसने इस बात की तो कभी कल्पना ही नहीं की थी कि देवेंद्र आर्य इस नीचता तक जा सकता है।

“क्या कर रहे हो यहाँ?” जगतनारायण के स्वर में संयम-भरा रोष था-”चलो घर।” शिवा के मन में तो आया कि देवेंद्र आर्य के मुँह पर इतना कसकर तमाचा मारे कि उसकी बत्तीसी बाहर हो, पर वह कुछ भी नहीं कर सका। सुमन जल्दी से गली के दूसरे छोर से निकल कर घर जा पहुँची। देवेंद्र आर्य को ऐसे लग रहा था जैसे उसने पानीपत की लड़ाई जीत ली हो।

घर पहुँचते ही जगतनारायण शिवा पर बरस पड़ा-”शर्म नहीं आती, यही सब करने के लिए बड़े हो रहे हो...घर में तेरी बहन जवान हो रही है, उसका ध्यान है कि नहीं...और पढ़ाई...पता भी है कितनी मेहनत से आता है पैसा...देवानंद बना फिरता है...घर की इज़्ज़त का कोई ध्यान नहीं।” यह भाषण और भी चलता रहता अगर बीच में टोककर शकुन्तला यह न पूछती-”हुआ क्या है?”

“पूछो इसी से...” बाकी सभी भाई-बहन चुपचाप सुन रहे थे। उन्हें लग रहा था, भाऊ ने कोई बड़ी गड़बड़ की है...वरना पिताजी तो उसे कुछ कहते ही नहीं थे।

विद्रोही और आक्रोशी शिवा ने खामोशी से सब सुन लिया। जगतनारायण ने अपनी फैक्टरी में हो रही हलचलों का रोना रोया, मँहगाई की बात की। अपनी खराब तबीयत की ओर शिवा का ध्यान दिलाते हुए कहा कि उसके बाद सारे घर की जिम्मेदारी उसी पर है। सारी बातचीत की टोन ऐसी कि जगतनारायण एक टूटते हुए आदमी की तरह से उभरा। शिवा सोचता रहा-कुछ कहे, कुछ कहे। उसने कुछ नहीं कहा। बस, मन ही मन आर्य को गालियाँ देता रहा और उसका सिर फोड़ने की योजना बनाता रहा।


शिवा आज घर में अकेला था। अपने क्वार्टर का पिछला दरवाज़ा खोलकर वह सुमन के घर की ओर पिछवाड़े से ही बढ़ा। दरवाज़ा आधा खुला था। उसने झाँककर देखा, सुमन बर्तन मल रही थी। उसने थोड़ा-सा झाँका और सुमन को इशारे से बुलाया। सुमन ने भी संकेत से कहा-”चलो कोई देख लेगा।” शिवा एक ओर हो गया। सुमन के घर में माँ थी। ‘सुमन शिवा के साथ गली में पकड़ी गई’ जैसी बात जब नेकचंद को देवेन्द्र आर्य ने अपने तरीके से समझाई तो नेकचंद ने सुमन का स्कूल जाना बंद कर दिया। शिवा परेशान-सा सुबह उठता। सैर के बहाने सुमन के स्कूल की ओर चक्कर लगा आता और निराश होकर लौटता। सुमन के घर जाना भी बंद था। करे तो क्या करे! इस दूरी ने शिवा के मन में सुमन के प्रति आकर्षण और भी बढ़ा दिया था। आज जब संयोगवश शिवा घर में अकेला था तो उसने सुमन से मिलने की कोशिश की।

सुमन ने अंदर जाकर देखा, माँ सो रही थी। दोपहर का वक्त था। सुमन पिछवाड़े से निकलकर ही शिवा के घर पहुँच गई। किसी ने देखा या नहीं देखा, इसकी चिंता उन दोनों ने नहीं की। सुमन के अंदर आते ही शिवा ने झट से दरवाज़ा बंद कर लिया और सुमन को खींचकर अपने से चिपका लिया। सुमन भी कई दिन से शिवा से मिलने को तरस गईं थी। शिवा ने उस दिन पहली बार सुमन को चूमा तो जैसे बाँध टूट गया। सुमन इसके लिए तैयार थी या नहीं, पर दोनों एक-दूसरे को पागलों की तरह चूमने लगे। सुमन की आँखों से दो अश्रु लुढ़क पड़े। शिवा ने उन्हें अपने होंठों से सँभाल लिया। उन्हें सचमुच मालूम नहीं था कि उन्हें क्या हो रहा है और इसी आवेश में शिवा सुमन में दाखिल हुआ। तरंगों में नहाते शिवा और सुमन अनहद नाद में भीग गए।

सुमन अपने बाल सँवारती हुई दरवाज़ा खोलकर अपने घर की ओर भागी और शिवा चारपाई पर लेटकर मुग्ध भाव से छत को देखने लगा। उसे लगा जैसे उसने आर्य का सिर फोड़ दिया है। आज उसके सामने चोखा और तोषी के संबंधों का रहस्य भी खुल गया था।

नए स्कूल में आकर शिवा की ज्ञानतंत्रियाँ एकदम कैसे खुल गईं, उसे पता नहीं चला। वह अब सभी शिक्षकों का प्रिय था। अर्थशास्त्र के मास्साब ने उसे घर बुलाकर माल्थस और एडीसन की किताबें दीं। जिलेसिंह ने उसे स्वतंत्र भारत की कुछ समझ दी। एक दिन शिवा ने पूछा था-”अब जब भारत में सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं तो क्या कोई भी भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकता है? जिलेसिंह ने कहा था-”हाँ।” शिवा के अंदर एक उमंग ने कुलाँच भरी-”मैं भारत का राष्ट्रपति बनूँगा।” हिन्दी के मास्साब सीसराम शिवा को बहुत पसंद करते थे। वे शिवा के हल किए हुए पर्चे सारी कक्षा को दिखाकर कहते-”उत्तर ऐसे लिखने चाहिए।”

प्रिंसिपल बी.डी. शर्मा तक शिवा को बहुत प्यार करते थे। उसे कभी-कभी बाबे की याद भी आती। पर यह प्रिंसिपल उसे बहुत अच्छा लगता। लंबा-चौड़ा डली-डौल, हाथ में बेंत लिए स्कूल में घूमता। अनुशासनप्रिय। किसी भी छात्र की क्या मजाल कि बिना पास के वह स्कूल के बरामदों में घूमता मिले या किसी भी मास्टर की इतनी हिम्मत हो कि कोई क्लास छोड़ दे।

अर्थशास्त्र वाले मास्साब शिवा को अर्थशास्त्री बनने की सलाह देते, तो जिलेसिंह कहते, राजनीतिशास्त्र में एम.ए. करना पर राजनीति में जाना मत। शिवा ने सोचा था, राजनीति में जाएगा नहीं तो राष्ट्रपति कैसे बनेगा? भला बिना राजनीति में जाए कोई राष्ट्रपति कैसे बन सकता है?

सीसराम तो उसे हमेशा हिन्दी में ही आगे बढ़ने की राय देते। वह जब भी हिन्दी के किसी बड़े लेखक की किताब के बारे में शिवा से पूछते या उसे पढ़ने की सलाह देते तो उन्हें यह जानकर हैरत होती कि शिवा वह सब पहले ही पढ़ चुका है।

स्कूल में कोई नाटक होता तो उसकी तैयारी बिना शिवा के नहीं हो सकती। स्कूल की पत्रिका की योजना भी शिवा ने बना डाली और एक ही साल में ‘दीवार-पत्रिका’ मुद्रित पत्रिका के रूप में बदल गई। स्कूल की पहली पत्रिका प्रकाशित हुई। शिवा उस दिन बहुत प्रसन्न था। इतना ही नहीं, स्कूल में बच्चों को मुफ्त दूध बँटेगा तो उसका इंचार्ज भी शिवा ही होगा। अनुशासन समिति बनेगी तो शिवा उसमें ज़रूर होगा। स्कूल में टेलीक्लब बनी तो उसका संयोजक भी शिवा। एन.सी.सी. में भी शिवा ज़रूर जाएगा। यानी शिवा स्कूल में सर्वव्यापी होगा। तभी एक दिन उसे स्कूल के ही एक मास्साब रणवीरसिंह ने कहा था-”शिवा! और कामों में इतने मत उलझ जाओ कि पढ़ाई पीछे रह जाए। शरीर और दिमाग़ की एक सीमा होती है।”

“मास्साब, दिमाग़ तो एक बर्तन है। बर्तन जैसे राख से चमकता है, वैसे ही दिमाग़ काम से।” शिवा ने अपना तर्क लगाया।

“बर्तन को चमकाने के लिए राख तो ठीक है, पर उसे रेती से घिसने लगो तो...” रणवीरसिंह के इस तर्क की शिवा के पास कोई काट नहीं थी। वह अचकचाकर रह गया। सोचने लगा कि मास्साब ठीक ही कहते हैं। क्या मैं सचमुच दिमाग़ को रेती से घिस रहा हूँ? इसका फैसला शिवा न कर सका। पर यह बात उसके अंदर दूर तक उतर गई और वह रात देर-देर तक पढ़ने लगा।

घर में एक ही तो कमरा था। उसी में नौ आदमी। कभी कोई रसोई में ही सो जाता। वह देर तक पढ़ता तो पिता की घुड़की सुनाई देती, “सो जा, मुझे भी सुबह काम पर जाना है।” सुबह उठकर पढ़ने की कोशिश में वह हमेशा नाकाम रहता। उसके और पिता के बीच अक्सर यह द्वंद्व भी छिड़ा रहता था। पिता का कहना था कि पढ़ने का सबसे अच्छा वक्त सुबह है। ब्रह्म मुहूर्त में उठो, पढो, सब याद रहता है। शिवा का कहना था कि रात जितनी देर तक पढ़ो, वही ठीक है। दस बजे के बाद एकदम सन्नाटा हो जाता है, वही वक्त सबसे ठीक है पढ़ने के लिए। शिवा का यह तर्क पिता के गले नहीं उतरा तो वह बाहर बिजली के पोल के नीचे अपनी चारपाई डालने लगा। जब तक पढ़ सकता, पढ़ता, फिर अंदर आकर सो जाता। गर्मी होती तो वहीं सो जाता। यह सिलसिला शिवा को पसंद आया, क्योंकि इस तरह से वह अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ दूसरी किताबें भी पढ़ लेता था। इनमें साहित्य से लेकर जासूसी, ऐयारी, भदेस और नग्न लेखन की भी किताबें होती थीं...

उस दिन स्कूल में बड़ी चहल-पहल थी। दसवीं कक्षा का सालाना नतीजा आने वाला था। दसवीं कक्षा के नतीजे का स्कूल में विशेष महत्व होता था। वहीं से यह संकेत मिलने लगते थे कि अगले वर्ष हायर सेकेंडरी की परीक्षा में स्कूल का परिणाम क्या रहेगा। अनुशासनबद्ध स्कूल में भी कुछ अव्यवस्था फैली हुई थी। शिवा को थोड़ा अजीब लग रहा था। उसने हिन्दी के ही एक दूसरे मास्साब ओ.पी. शर्मा से पूछा-”मास्साब! आज अच्छा नहीं लग रहा।”

“क्यों?” संक्षिप्त और तीखी आवाज़ में प्रश्न था।

“यह अफरा-तफरी।”

“यह अफरा-तफरी नहीं, चहल-पहल है बेटा, और तुम्हें तो थोड़ी देर में सब अच्छा ही अच्छा लगेगा।”

शिवा की समझ में यह बात नहीं आई। असल में कुछ छात्रों के माता-पिता भी स्कूल में आए हुए थे, तो वैसा अनुशासन रखना संभव भी नहीं था। वह ओ.पी. शर्मा की कही हुई बात पर सोचने लगा कि ‘सब अच्छा ही अच्छा लगेगा’ में ध्वनि क्या है?

थोड़ी ही देर में इस पहेली का समाधान हो गया। परिणाम घोषित हुआ। वह सारे स्कूल में प्रथम आया। उसके पास ही उसका निकटतम मित्र हरीश भी बैठा था, सबके साथ उसने भी ताली बजाई। इसके अतिरिक्त उस पर और कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। शिवा के घर से कोई नहीं आया था, न माँ, न पिता। वह अपनी खुशी बाँटे तो किससे?

उसे सबसे आगे बुलाया गया। इनाम में किताबें और सभी शिक्षकों की शाबाशी मिली। शिवा ने रणवीरसिंह की ओर देखा। रणवीरसिंह के होंठों में दबी हुई मुस्कान थी। सीसराम का पूरा चेहरा ही मुस्करा रहा था। प्रिंसिपल बी.डी. शर्मा ने आशा ज़ाहिर की कि अगले वर्ष बोर्ड में शिवा अवश्य ही स्कूल का नाम रोशन करेगा।

उस दिन से शिवा सबका पहले से भी ज़्यादा चहेता हो गया। कई लड़के उससे मित्रता गाँठने को आतुर हो उठे कि शिवा के साथ ही पढ़ें तो हमारे भी अंक अच्छे आएँगे।

ऐसे खुशी के मौकों पर शिवा के दिमाग़ में सत्तू, नट्टू, लोटा, बल्लू अक्सर कौंध जाते। वे आज कहाँ होंगे? क्या उनमें से भी किसी ने ऐसी ही जगह हासिल की होगी? सत्तू भी तो पढ़ने में अच्छा था। उसे भूषी और दीपू का भी ध्यान आया। उनका नतीजा भी तो आया होगा। बाद में उसे पता चला कि भूषी फेल हुआ और उसने स्कूल छोड़ दिया। दीपू जैसे-तैसे पास हुआ। भूषी अब कहाँ होगा? वह सोचता। शायद घई के साथ मिलकर चरस का धंधा कर रहा हो या जेबें तराश रहा हो, या टिकटें ब्लैक कर रहा हो। वह भूषी से मिलना चाहता था। पर कहाँ? एक बार उसके घर भी गया था। उसे मनोहर मिला था। उसने छूटते ही कहा-”तुम उससे मिलने का विचार ही छोड़ दो। अपनी दुनिया में रहो। जिस रास्ते पर वह चला गया है, वह रास्ता तुम्हारा नहीं है।” मनोहर ने उसे यह भी बताया था कि कैसे उसने उसे दो बार जेल जाने से बचाया। बच्चा होने की वजह से उसे रियायत हो गई, वरना आज वह तिहाड़ जेल में बैठा चक्की पीस रहा होता। शिवा को लगा जैसे वह, भूषी और दीपू तीनों तिहाड़ जेल में चक्की पीस रहे हैं, पत्थर तोड़ रहे हैं। उसने सिर को हलका-सा झटका दिया और मनोहर से बिना कोई बात किए लौट आया।

रास्ते में सोचता रहा कि उसे मनोहर से कुछ पूछना चाहिए था। कहना भी चाहिए था कि भूषी अगर खराब राह पर गया है तो उसका ज़िम्मेदार कौन है? पर उसने नहीं पूछा। क्यों नहीं पूछा? अक्सर वह वक्त पर पूछना भूल जाता है, कहना भूल जाता है, बाद में सोचता है, तब क्या! किससे कहे? क्या कहे? सुनेगा कौन?

तभी उसकी आँखों के सामने सुमन नाच उठी। रिपोर्ट कार्ड हाथ में लिए वह पहले उसी के घर के पिछवाड़े पहुँचा। दरवाज़ा बंद था। खटखटाने की हिम्मत नहीं हुई। अपने क्वार्टर लौट आया। पिता घर नहीं थे। माँ भी मुहल्ले में किसी की तीमारदारी में लगी थी। वह रिपोर्ट कार्ड किसे दिखाए।

शाम को जगतनारायण थका-हारा घर लौटा। शिवा ने रिपोर्ट कार्ड उसके सामने रख दिया। जगतनारायण ने पढ़ा। उसकी आँखें छलछला आईं। उसने शिवा की पीठ पर हाथ फेरा। कहा-”जैसा तू करेगा, छोटे भी वही करेंगे।”

जगतनारायण फैक्टरी में परेशान रहता था। पता नहीं नौकरी कब तक है, कब तक नहीं। यूनियन का सदस्य बनने की वजह से रामस्वरूप और उसके बीच दोस्ती का रिश्ता तो टूट ही चुका था। इसी बीच साफ-सुंदर लाइनें लगाने वाली मशीन और एक दूसरा पेंटर फैक्टरी में आ चुके थे। जगतनारायण का वर्चस्व लगभग खत्म हो चुका था। महत्व भी। वर्चस्व और महत्व खत्म होने के बाद उस व्यक्ति का कुछ भी कर दो, वह क्या बिगाड़ लेगा, यह बात रामस्वरूप अच्छी तरह से जानता था।

रामस्वरूप को एक तरह से जगतनारायण से खुंदक हो गई थी कि हमारा आदमी और यूनियन में! जगतनारायण सोचता था, वह यूनियन में है तो कोई उसका साथ देगा, उसे नौकरी से निकाला नहीं जा सकता, नहीं तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह से कभी उठाकर बाहर फेंका जा सकता है। तब वह क्या करेगा? सात बच्चे। वह सिहर जाता। दिल्ली में न कोई मकान, न दुकान, न जायदाद, न जमापूँजी। न ऐसी हिम्मत ही रही थी कि नए सिरे से काम जमा ले। हाँ, शिवा जैसे-तैसे पढ़ जाए। हायर सेकेंडरी तो कर ही ले। कहीं नौकर हो जाएगा, तब वह किसी की परवाह नहीं करेगा।

पर समय कहाँ मानता है! जिसका जहाँ स्वार्थ सिद्ध होता है, वह उसी दिशा में जाता है। रामस्वरूप ने यूनियन के नेता को उसके बेटे को नौकरी देकर दाना डाला। और जगतनारायण को नौकरी से निकाल दिया।

उसके बाद फैक्टरी के बाहर नारे भी लगे, लाल झंडे भी गड़े, लेबर इंस्पेक्टर भी आया। दिन में आया तो कमरे में अनार का जूस चला गया। शाम को आया तो स्कॉच खुल गई। लाल झंडे फड़फड़ाते रहे और जगतनारायण की नौकरी जाती रही। जगतनारायण को गहरा सदमा लगा। रोहतक से दिल्ली तक की इस यात्रा से उसे क्या मिला? विश्वासघात? ठीक सात दिन बाद उसने चारपाई पकड़ ली। शिवा को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? एक ओर इतना अच्छा नतीजा। उसे वाहवाही मिल रही थी। हांडा, चावला, भाटिया और मल्होत्रा सभी ने उसकी पीठ ठोंकी थी। बस, देवेंद्र आर्य को ही यह बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने कहा भी था कि या तो शिवा को प्रश्न-पत्रों की पहले से ही जानकारी थी या फिर उसके नतीजों में कहीं कुछ गड़बड़ है। शिवा में इतनी काबिलियत है ही नहीं कि वह सारे स्कूल में अव्वल रहे। तब शिवा को हँसी आई थी, पर आज वह हँस नहीं पा रहा था।