अनहद नाद / भाग-20 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

“पैसे तो इतने ही मिलेंगे। शायद थोड़ा ज़्यादा।”

“उतने मुझसे लो। उससे भी पच्चीस ऊपर...तुम्हारे लिए ही कह रहा हूँ। मुझे मालूम है, तुम यहाँ ज़्यादा टिकोगे नहीं। आगे पढ़ाई भी शुरू कर दी है। बी.ए. करो, एम.ए. करो, कोई अच्छी नौकरी मिले तो जाओ भी...यही क्लर्की...दस साल बाद अपर डिवीज़न क्लर्क बनोगे। इम्तिहान वगैरह पास कर लिया तो असिस्टेंट और रिटायर होने तक ज़्यादा से ज़्यादा सेक्शन ऑफिसर हो जाओगे। तुम इससे कहीं आगे बढ़ सकते हो, बाकी तुम जानो। जाना ही है तो मुझे बता देना। बस, नोटिस का भी कोई झंझट नहीं।”

शिवा जब दयाराम की तुलना और लोगों से करने लगता तो दयाराम वाकई काफी भारी पड़ता था। वह शिवा के साथ इतना उदार क्यों है, यह बात उसकी वाकई समझ में न आती थी, पर दफ्तर में अक्सर लोगों का मानना यही था कि उसका स्वाभाव ही ऐसा है। दयाराम न हो तो फर्म ही बैठ जाए। उसके बाकी भाइयों को तो लोग ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। शिवा को अपने पिता का भी ध्यान आया। जगतनारायण के लिए तो यह नौकरी एक उपलब्धि थी और दयाराम के लिए यह बंद दरवाज़ों वाले मकान में प्रवेश करना था।

शिवा ने सियाराम से बात की। सियाराम भी दुविधा में था। शिवा ने सब सोचा। व्यावहारिक दिक्कतें भी उसके सामने आ रही थीं। कई बार वह काम के चक्कर में कॉलिज लेट पहुँचता। पीरियड निकल जाता। कई बार जगदीश से छोटी-छोटी बातों पर कहा-सुनी हो जाती थी, जिससे वह परेशान रहता। सोचा कि यही उसकी मंज़िल थोड़े ही है। यह तो एक पड़ावभर है। पढ़ना फिर से शुरू कर दिया है। आगे बढ़ेगा ही और पिंगले एजेन्सीज़ से इस्तीफा देकर शिवा लाजपतराय मार्केट से नार्थ ब्लॉक जा पहुँचा।

सरकारी क्लर्की मिलने से शिवा के घर में सभी प्रसन्न थे। हरीश ने मुबारक दी। सबसे ज़्यादा खुशी साहिल को हुई थी। साहिल मज़दूर था। उसे कुर्सी पर बैठे काम करते लोगों से बहुत ईर्ष्या होती थी। जिस दिन शिवा ने ज्वाइन किया, शाम को घर जाने से पहले साहिल के यहाँ पहुँचा। साहिल तख्ती पर काग़ज़ चढ़ाए ग़ज़ल कहने में मसरूफ था। उसे देखते ही चहक उठा-”आओ मेरे यार! ताज़ा-तरीन ग़ज़ल सुनो।”

“इरशाद।”

“कमला! चाय!”

कमला ने नमस्कार किया। शिवा को बधाई दी। फिर चाय ले आई। तीनों ने मिलकर चाय पी। मिठाई भी खाई। साहिल ने ग़ज़ल सुनाई।

“फिल्म दिखाओ देवर जी!” कमला कम बोलती थीं। ज़्यादातर बातें उसकी आँखें ही करती थीं। साँवले चेहरे पर कजरारी आँखें बड़ी फबती थीं।

“कौन-सी देखोगी भाभी!” शिवा ने पूछा।

“अरे यार मेरे! यह तो यूँ ही बकती है। हमें बेहद खुशी है...” क्षण-भर रुककर साहिल कहने लगा-कोई दिन ऐसा नहीं निकलता, जिस दिन हमारे घर तुम्हारी दो-चार बार चर्चा न होती हो। पता नहीं क्या जादू कर दिया है तुमने हम सब पर।”

शिवा को समझ में नहीं आया कि वह इस बात का क्या जवाब दे। कुछ कहना था सो कहा-”नई साइकिल बड़ी अच्छी है। पर सोचता हूँ, अब बस से ही दफ्तर जाया करूँ।”

दोनों बातों में कोई तुक नहीं थी। तीनों चाय पीने लगे। क्षण-भर बाद शिवा ने यही कहा-”अगले हफ्ते चलते हैं। नटराज या लिबर्टी में, जहाँ भी कहो।”

मध्यवर्गीय लोगों के पास मनोरंजन का साधन फिल्म ही तो है। तीनों ने फिल्म देखने के बाद खाना भी बाहर ही खाया। खुशी को बाँटने का उनके पास इससे अच्छा और कोई तरीका नहीं था।

नई साइकिल मिलने से शिवा की गतिविधियाँ बढ़ गईं। फर्र-फर्र सवारी उसे अच्छी लगती थी। अब वह सीधा दफ्तर जाता। दफ्तर से कॉलिज, कॉलिज में यारबाज़ी और देर रात घर। रात को ही उसे पढ़ने का मौका मिलता। एक ही तो कमरा था। अभी ठंड भी शुरू नहीं हुई थी, सो बाहर गली में ही चारपाई बिछा लेता। सुबह दफ्तर जाने से पहले दोस्तों से मिलता। ज़्यादातर साहिल के घर ही जाता। एक दिन वह रोज़मर्रा की तरह से ही साहिल के घर पहुँचा। वह घर पर नहीं था। दफ्तर खुलने में भी अभी काफी समय था। “भाभी जी, पानी तो पिलाओ।” कमला स्टोव पर खाना पका रही थी। अकेली। उसने शिवा को पानी दिया। पानी पीने के बाद शिवा ने ही बतियाने और समय काटने की गरज़ से पूछा-”क्या पका रही हो भाभी?”

“तरकारी।”

“क्या है?”

“लौकी, खाओगे?”

“लंच तो पैक है।”

साहिल होता तो तीनों काफी खुलकर बातें करते थे, पर अचानक शिवा को लगने लगा कि वह अकेले में कमला से बात करे तो क्या करे। साहित्य के बारे में वह कुछ जानती नहीं। न राजनीति पर बात कर सकती है, न इतिहास पर। हाँ, करेला कैसे अच्छा बनता है या अच्छी मूली किस मौसम में होती है जैसी बातें ही की जा सकती थीं।

“चाय पिओगे?”

शिवा ने घड़ी पर नज़र डाली। उसके पास अभी एक घंटे का समय था-”पी लेते हैं।”

कमला ने झट से तरकारी का भाजन उतारकर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। “इधर ही आ जाओ।”

छोटे-से कमरे से छोटी-सी रसोई में जाते शिवा को देर नहीं लगी। कमला ने मोढ़ा बिछा दिया। शिवा वहीं विराज गया। सोचने लगा, क्या बात करूँ। एक बेरंग-सी खामोशी उनके आसपास पसर गई थी। कमला कभी स्टोव पर चढ़ाए पानी को देखती। कभी शिवा को। उसी ने खामोशी तोड़ी-”कोई बात करो न!” कमला की आवाज़ में लरज़ आ गई थी। उसकी कजरारी आँखें पल-भर के लिए उठतीं, शिवा को देखतीं और झुक जातीं।

“आप ही करो ना कोई बात।” शिवा ने कहा।

“बात तो मैं बहुत दिन से करना चाहती थी, पर डर लगता है।”

शिवा का माथा ठनका।

“डर...किस बात का...”

पानी खौलने लगा था। कमला ने उसमें चाय पत्ती डाल दी, साथ ही दूध भी। स्टोव की आँच धीमी करते हुए कहा-”यही कि आप साहिल साहब से कुछ कह दें।” शिवा के माथे की ठनक अंदर ही अंदर एक आकार लेने लगी। फिर भी बात की तह तक पहुँचकर शायद खुद को आश्वस्त करना चाहता था-”कोई ज़रूरी नहीं कि हर बात साहिल साहब से की ही जाए...बताओ तो...।” शिवा के लिए यह अप्रत्याशित था, पर पिछले कुछ क्षणों में वह खुद को किसी भी अनहोनी के लिए तैयार कर चुका था। उसने ऐसी बातें सस्ते किस्म के उपन्यासों में पढ़ी थीं। शायद किसी फिल्म में भी इस तरह का संवाद सुना था। उसे यह सब बड़ा बचकाना लगता था। पर आज जब उससे उम्र में कोई साठ-आठ साल बड़ी महिला ऐसी ही बात कर रही थी तो वह रस लेने लगा। बोला-”अच्छा जी!”

“हाँ और बहुत परेशान करते हो...सच-सच बता दूँ न सब...दरवाज़ा बंद है?”

“नहीं तो।”

कमला तेज़ी से उठी और घर का दरवाज़ा बंद कर दिया। चाय में तेज़ी से उबाल आ रहा था। कमला ने स्टोव बंद कर दिया। मिट्टी के तेल की तेज़ गंध पूरे घर में फैल गई।

शिवा सब समझता हुआ भी मोढ़े पर समाधिस्थ होकर बैठा था। कमला ने उसे पीछे से पकड़कर कहा-”बताऊँ, कैसे परेशान करते हो...ऐसे।” कहते हुए उसने शिवा को चूम लिया। उसके बाल बिखेर दिए। शिवा सचमुच सकते में आ गया। उसने कमला के बारे में इस तरह से कभी सोचा नहीं था। इससे पहले उसने सुमन की देह का स्पर्श ज़रूर किया था। पूरा साक्षात्कार किया था उसके होने का। उसके साक्षात्कार की गंध उसके अन्तर्मन में कहीं गहरी समाई हुई थी, पर कमला...कभी-कभी उसके मन में आकर्षण ज़रूर जागता। बस, इतना ही। यह भी नहीं कि वह भाभी को माँ के रूप में ही देखने वाली नैतिकता में विश्वास रखता था। एक व्यक्ति के रूप में भाभी के रूप में सामने आई कमला का वह आदर करता था। साहिल और कमला के साथ बिताए कई-कई क्षण उसके सामने से तेज़ी के साथ निकल गए।

“क्या सोचने लगे?” कमला अब भी उसके बालों पर हाथ फेर रही थी।

रसोईघर में ही तह किए हुए बिस्तर पर एक मचान की शक्ल में लगे हुए थे। शिवा की शिराओं में नैतिकता नहीं, गरम खून बह रहा था। उसने पूछा-”सपने में और क्या करता हूँ?” कमला ने व्यंग्य को समझा और घूमकर शिवा की गोद में बैठ गई। अब शिवा ने कमला को चूमना शुरू किया तो वह निढाल-सी हो गई। शिवा ने उसे उठाया और तह किए हुए बिस्तरों पर लिटा दिया। “हाँ, यही।” कहते हुए कमला ने शिवा को पूरी तरह से अपनी ओर खींच लिया। थोड़ी ही देर में सारी नैतिकताएँ गर्म लावा बनकर बह गईं। रसोईघर में शांति व्याप्त थी। चाय भी ठंडी हो चुकी थी। कमला के साँवले चेहरे पर एक कांति फैल गई थी। शिवा कमरे में जाकर चारपाई पर लेट गया। उसके ज़हन में रह-रहकर सुमन कौंधने लगी। सुमन के साथ उसके जीवन का प्रथम साक्षात्कार। एक रोमांच था। एक अनिश्चितता में घटा था वह सब। वह तो सब यहाँ भी था। शिवा का अनिश्चित, पर कमला? पूर्वनियोजित था कमला का हमला। जाने किस-किस तरह से कुछ बातें, भाव विचार कहीं गुंजलक मारकर बैठे रहते हैं और उपयुक्त समय आने पर बाहर आ निकलते हैं।

शिवा ने घड़ी की ओर देखा। अभी भी पंद्रह मिनट उसके पास थे। चाय दोबारा बनी। दोनों ने पी। दोनों की ही आँखों में तृप्ति का भाव था। शिवा के मन में यह सवाल बार-बार आ रहा था-आखिर साहिल में क्या कमी है? स्वस्थ है, सुंदर है, कमला का ध्यान भी रखता है। फिर...? हर फिर और हर प्रश्न का जवाब कभी देर से मिलता है और कभी नहीं भी मिलता। कमला ने शिवा को जाने से पहले एक बार फिर कसकर पकड़ा, चूमा और कहा-”मेरी बात का ध्यान रखना।” शिवा कई-कई तरह के सवालों में उलझा दफ्तर रवाना हो गया।

पुरुष चाहे कितना ही बड़ा दार्शनिक, वैज्ञानिक, चिन्तक या सुधारक क्यों न बन जाए, नारी की देह का आकर्षण उसके लिए बड़ा प्रबल होता है। सारी नैतिकता, परंपरा और संस्कारों के बावजूद याचित, अयाचित, सामाजिक रूप से स्वीकृत या अस्वीकृत संबंधों के पिरामिड बनते ही हैं। कुछ छिपकर, कुछ खिलकर। कुछ सोच-समझकर, कुछ आवेश में आकर। शिवा के संस्कार आर्य समाजी थे, विज्ञान की बात भी वह कुछ-कुछ करता था, साथ ही साहित्य का विद्यार्थी भी था। वह जानता था कि साहित्य नीतिशास्त्र नहीं, जीवन का धड़कता हुआ दस्तावेज़ होता है। जो दूसरे शास्त्रों में निषिद्ध है, वह साहित्य में स्वीकार्य है। साहित्य ही व्यक्ति को व्यक्ति समझता है। कोई निरीक्षण-परीक्षण की वस्तु मात्र नहीं। ना ही मिथकीय गंगा की पवित्र धारा। साहित्य ही एक ऐसा माध्यम है, एक ऐसी राह, जहाँ काला सिर्फ काला और सफेद सिर्फ सफेद नहीं होता। तो क्या वह साहित्य रच रहा था? या साहित्य रचने के लिए कच्चा माल जुटा रहा था? क्या जीवन पूर्व नियोजित हो सकता है? नहीं। सुमन के साथ जो घटा और जो कमला के साथ घटा-आखिर दोनों ही स्थितियों में कहीं कोई बुनियादी फर्क है या नहीं? या यह केवल देह का आकर्षण है। शिवा के दिमाग़ में एक के बाद एक प्रश्न मँडराने-टकराने लगे। खुद ही बार-बार सवाल-जवाब करता। यह दोनों ही घटनाएँ सिर्फ वही जानता था। सुमन के साथ हुए संबंध की चर्चा उसने आज तक किसी के साथ नहीं की थी। उसे बार-बार लगता कि किसी से भी चर्चा करके वह हलका हो जाएगा। या कहीं गहरे में एक अबूझ डर था जो उसे रोकता था। कई बार मन में आता कि वह और लोगों की तरह से थोड़ी शेखी मारे। ऐसे अवसर आते भी थे, पर वह हमेशा खामोश रह जाता। कमला के बारे में भी वह बात करता तो किससे! अंदर ही अंदर आल्हादित होता। कभी कहीं कुछ कोंचता। कई बार उसे ब्रह्मचर्य व्रत और उसके भंग होने की पीड़ा की अनुगूँज भी सुनाई देती। पर अब कमला की आँखें, कमला के केश, कमला के होंठ, कमला का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसे घेर लेता और सारे प्रश्न एक-एक करके भरभराने लगते।

साहिल के बारे में भी उसके मन में दुविधाजनक स्थिति थी। उसे वह अपना दोस्त मानता था और दोस्त की पत्नी के साथ यह संबंध। यह तो घोर अनैतिकता है। क्या वह साहिल से बात करे और उससे क्षमा माँग ले? या फिर बता दे कि प्रस्ताव तो कमला का ही था। उसका इस सारे प्रसंग में दोष ही क्या है? वह मना भी तो कर सकता था! भाग भी सकता था! नहीं! नहीं! पुरुष भला ऐसा करते हैं क्या! ऐसी स्थिति में तो नपुंसक ही भाग सकता है। कभी किसी को पता चल गया तो? इसी ‘तो’ को शिवा ने अपने मन की परतों के नीचे कहीं गहरे दबा दिया और अगली सुबह फिर कमला के पास पहुँच गया। कमला सचमुच उसके इन्तज़ार में थी। खिड़की से ही उसने कहा-”पीछे से आ जाओ।” शिवा ने पिछवाड़े से घर में प्रवेश किया। बरामदे में साइकिल रख दी। कमला ने अंदर घुसते ही उसे अपनी ओर खींच लिया-”साहिल जी से कोई बात तो नहीं हुई?”

“मैं तो उनसे मिला भी नहीं...क्या बात है?”

“ऐसे ही।”

“कुछ बात तो है?”

“बहुत गुस्सा होकर गए हैं।”

“कोई और बात होगी।”

सचमुच साहिल कमला पर किसी और वजह से खफा हुआ था, लेकिन कमला की आत्मग्लानि ही उसे डरा रही थी। शिवा से बात करके वह आश्वस्त हुई और उसके बालों में हाथ फेरने लगी। उसने ज़मीन पर ही बिस्तर लगा रखा था। आज पहले जैसी अफरा-तफरी नहीं थी। सब कुछ सुनियोजित था, “तुम्हें मेरे बारे में ऐसा सपना क्यों आया?”

“क्या जानूँ?” कहकर कमला ने शिवा के हाथों को चूमा।

वैसे तो हर उम्र के पुरुष और औरत द्वारा की गई प्रशंसा अतिरिक्त रूप से अच्छी लगती है, शिवा की उम्र में तो यह पागलपन की सीमा को भी लाँघ सकती है। शिवा बार-बार कमला के मुख से अपनी प्रशंसा सुनना चाहता था और कमला बार-बार शिवा को छूना चाहती थी। उसे पीना चाहती थी।

“पीछे से ही आया करो। सुबह नौ बजे दरवाज़ा खुला मिलेगा।”

“इतनी जल्दी डर गई?”

“पड़ोस का चौधरी है, उसकी नज़र रहती है इधर। उसी ने पिताजी को बिगाड़ रखा है। उसी की शह पर यह पीपल का पेड़ लगा है और यह मन्दिर-सा भी बन गया है। इससे बचकर ही रहना।”

“हूँ।” कहते हुए शिवा कमला के साथ नीचे बिछे बिस्तर पर लेट गया।

शिवा और कमला का सिलसिला खामोशी से चलने लगा। चंद दीवारों के बीच। लोगों की नज़रों से दूर। एक दिन जब शिवा वहाँ पहुँचा तो देखा, पीछे का दरवाज़ा अंदर से बंद था। सामने की ओर आया तो बाहर ताला लगा था। अचानक। कल तो कमला ने ऐसा कुछ बताया नहीं। वह खड़ा-खड़ा कुछ सोच ही रहा था कि उसके कानों में अपना ही नाम सुनाई पड़ा-”शिवा!”

इधर-उधर देखा, कोई दिखा भी नहीं।

“शिवा, पीछे देखो, मैं हूँ।”

शिवा मुड़ा, देखा साहिल का पिता अविनाश उसे बुला रहा था।

“कभी हमारे पास भी आ जाओ।”

शिवा को इस बेतकल्लुफी पर थोड़ी हैरत तो हुई, पर अविनाश के पास चला गया। अविनाश छोटे-से मंदिर के बाहर पीपल के नीचे ही चारपाई बिछाकर बैठा था।

“आओ बैठो।”

शिवा अविनाश के साथ ही बैठ गया।

“जगदीश से मिलने आए हो या कमला से?”

शिवा के लिए यह हमला अप्रत्याशित था। अचकचा गया। फिर सँभला-”साहिल से।”

“उसकी तो सुबह की शिफ्ट है। आजकल तो दो-दो शिफ्ट में काम करता है। कमला घर में नहीं है क्या?”

“नहीं,” शिवा को स्पष्टीकरण देना ज़रूरी लगा-”मुझे मालूम नहीं था कि साहिल की सुबह की शिफ्ट है, सो...”

“हाँ-हाँ, बहुत गहरी दोस्ती है तेरी उससे...किस-किससे इसकी दोस्ती नहीं हुई। साल, दो साल, बस। अरे, जो अपने बाप का नहीं हुआ, वह किसी और का क्या होगा।”

शिवा के लिए यह तर्क नया नहीं था। वह बड़ों के अक्सर इसी तरह के निर्णयात्मक तर्क सुनने का आदी था। फिर भी बोला-”यह बात नहीं।”

“बात तो यही है...मुझे...अपने बाप को घर से निकाल दिया...उस छिनाल के पीछे...”

शिवा को समझ में नहीं आ रहा था कि वह रुके कि जाए। दफ्तर जाने में अभी समय था, पर इनकी ऊलजलूल बातें क्यों सुने और वो भी कमला और साहिल के खिलाफ। यह भी लालच कि शायद इतने में कमला आ ही जाए। वह बैठ रहा। अविनाश ने जब साहिल और कमला की काफी बुराई कर ली तो शिवा ने कहा-”छोड़िए पिताजी! यह बाप-बेटे का मामला है। आप जानें, वह जाने, मुझे क्या लेना-देना।”

“लेना-देना तो है...मैं जानता हूँ, यह दोनों मेरे बारे में क्या-क्या बकते फिरते हैं।”

“मुझे सचमुच में नहीं मालूम।”

“मेरी बीवी को भी मेरे पास नहीं आने देते। जाने कहाँ भेज देते हैं। और मुझे करते हैं बदनाम।”

“ऐसा तो कुछ नहीं पिताजी।”

शिवा की बात पर ग़ौर किए बिना अविनाश कहता रहा-”तेरे को कहा तो ज़रूर होगा, मैं मंदिर के अंदर छोटी-छोटी लड़कियों को बुलाकर बिगाड़ता हूँ...उस छिनाल ने भी मुझ पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती का इल्ज़ाम लगाया होगा। जाने खुद तो किसका पेट लेकर आ घुसी हमारे खानदान में और मुझे घर से बाहर निकलवाने के लिए मुझ पर इल्ज़ाम लगा दिया।” शिवा अब परेशान हो उठा। क्या कमला वाकई ऐसी हो सकती है? या कि अविनाश ही कोई बदला ले रहा है? उसको कमला ने ही बताया था कि उसके ससुर की नीयत उसके लिए ठीक नहीं थी, सो एक दिन इसी बात पर बाप-बेटे में झगड़ा हुआ और साहिल ने बाप को घर से बाहर निकाल दिया।

“अरे, यह तो भला हो इस चौधरी का, जो इसने मुझे सँभाला, वरना मैं तो सड़क पर था।” अविनाश कह रहा था-”तेरे को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ शिवा! तू नेक लड़का है, पर यह छिनाल तुझे बिगाड़ देगी।” कमला के लिए बार-बार छिनाल शब्द का इस्तेमाल शिवा को अच्छा नहीं लग रहा था। पर वह अविनाश को रोकता भी कैसे! उसे वहाँ से चले जाना ही ठीक लगा-”चलता हूँ।”

“मत्था तो टेक ले।”

“आप मेरे बारे में सब जानते हैं, यह भी जानते होंगे कि इस सबमें मेरी श्रद्धा नहीं है।”

“ना सही, अंदर चलकर देख तो ले।”

इसके लिए शिवा मना नहीं कर सका। अविनाश शिवा को मंदिर के अंदर ले आया। शिवा पहली बार ही आया था। छोटा-सा मंदिर था। रोहतक के बड़े मंदिर के मुकाबले में तो बहुत ही छोटा। हाँ, जिस मंदिर में उसने शिवरात्रि को गणेश की प्रतिमा पर चूहों को चढ़ते देखा था, उससे भी छोटा। इस मंदिर में एक ओर शिवलिंग था तथा दूसरी ओर हनुमान की प्रतिमा। लाल।

“तू ही देख और बता, यहाँ कोई गड़बड़ी हो सकती है?” शिवा क्या जवाब दे। अविनाश ही बोलता रहा, “मैं जानता हूँ, तू समाजी है। साहिल ने तुझे बता ही दिया होगा कि हमारी शुद्धि आर्य समाज में ही हुई थी। आर्य समाज बस शुद्धि करती है, रोटी नहीं देती, और इस्लाम से भी मुझे क्या मिला? नमाज़ अदा करते-करते कमर झुक गई, दुआ माँगते-माँगते हाथ थक गए, पर दो वक्त की रोटी वहाँ भी नहीं मिली। यह शिवलिंग और यह हनुमान मुझे दो वक्त की रोटी तो देते हैं।”

शिवा के सामने जैसे एक बहुत बड़ा रहस्य खुला गया। धर्म को रोटी के साथ नहीं जोड़ा गया तो वह धर्म चाहे कितना ही महान क्यों न हो, जल्दी ही इतिहास की बात बन जाएगा। शिवा यह भी सोचने लगा कि मूर्ति, पीपल या जनेऊ जैसे बारही प्रतीकों का नाम ही धर्म है क्या?