अनहद नाद / भाग-22 / प्रताप सहगल

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अगले ही दिन सुमन को फैक्टरी से छुट्टी होते ही शिवा ने पकड़ लिया-”चलो!”

“कहाँ?”

“कहीं भी, घूमते हैं। बैठो साइकिल पर।”

“पहले घर जाना है, फिर कॉलिज, तुम्हें कॉलिज नहीं जाना...दफ्तर से भी छुट्टी की है क्या?”

“बैठो, चलो...घर संदेसा भेज दो किसी के हाथ।”

“अच्छा चलो...देखा जाएगा।” कहकर सुमन साइकिल के डंडे पर बैठ गई।

शिवा उसे पंजाबी बाग के एक पार्क में ले गया। हलका-हलका अँधेरा घिरने लगा था-”यहाँ क्यों आए हो?”

“बैठते हैं।”

“यहीं तो वह रहता है।”

“वह कौन?”

“वही गुंडा...जस्सी...मुझे उससे बड़ा डर लगता है।”

“क्यों...?” शिवा ने अर्थ-भर लहजे में पूछा।

“गुंडा है। गुंडों से डरना ही ठीक।”

“यहीं बैठो...मैं नहीं डरता।” कहकर शिवा ने साइकिल एक कोने में खड़ी की और फूलों की एक क्यारी के पास बैठ गया। मजबूरन सुमन को भी बैठना पड़ा।

“उसने देख लिया न तो यहीं हल्ला करेगा। तमाशा होगा।” शिवा को जस्सी की बताई हुई बातें कुछ-कुछ सच लगने लगीं। बोला-”कल कॉलिज नहीं गईं?”

“तबीयत ठीक नहीं थी।”

“या जस्सी का डर था?” तन्ज़ के साथ शिवा ने कहा।

“आज तो जाती!” थोड़ी देर खामोशी रही। शिवा ही बोला-”कल जस्सी मुझे मिला था।”

“झगड़ा हुआ?”

“नहीं, उसने मुझे बहुत सारी बातें बताईं।”

“कैसी बातें?” सुमन ने संशकित होकर पूछा।

“यही कि तुम उससे भी प्यार करने लगी थीं और...”

“नहीं...कभी नहीं...मैंने ज़िन्दगी में तुम्हें छोड़ और किसी को प्यार नहीं किया।” शिवा को लगा, सुमन उसके साथ भी खेल खेल रही है। अँधेरा गहरा होने लगा था। सुमन ने शिवा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा-”तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है?’?

“लोग तुम्हारे बारे में तरह-तरह की बातें क्यों करते हैं?”

“कौन करता है?”

“चावला, श्रीचन्द, आर्य, जस्सी और भी कई लोग।”

सुमन ने शिवा के और भी करीब होते हुए कहा-”मैं बुरी लड़की हूँ न! मुझे छोड़ दो।”

शिव थोड़ा सकपका गया-”नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था।”

“और क्या...फलाँ-फलाँ ने कहा और तुमने मान लिया। किसी ने कभी कुछ देखा भी है...तुमन खुद अपनी आँखों से कभी कुछ देखा है?”

“देखा तो नहीं, पर...”

“यह सब लोग मेरे पीछे पड़े हैं शिवा! इस समाज में ग़रीब लड़की का रहना मुश्किल है। काम करती हूँ। ईमानदारी की रोटी खाती हूँ। बस।” सुमन जानती थीं कि वह झूठ बोल रही है। वह जानती थी कि वह जगह-जगह भटककर थक चुकी है और एक स्थिरता हासिल करने के लिए ही शिवा के पास लौटी है। वह सचमुच शिवा से प्यार करती है और जो कुछ भी खराब उसके साथ घटा है, क्या ज़रूरी है कि वह सब बताकर शिवा को परेशान करे। वह तो उसे खुश देखना चाहती है। वह भ्रम में भी जीता है तो क्या! छलावे में भी खुशी मिलती हो तो उसे छलावे में ही भलाई है। ऐसे सच का क्या लाभ जो दो दिलों को तोड़ दे, उन्हें दूर कर दे। नहीं, वह तो सब शिवा को कभी भी नहीं बताएगी, जो बताने लायक नहीं। फिर भी शिवा उसे छोड़ दे तो उसकी मर्ज़ी। सुमन के पास अपने तर्क थे। शिवा दुविधा में था। तभी उसके अन्दर सोया हुआ समाज-सुधारक जाग उठा। वह अपने तर्क देने लगा-‘सुमन अच्छी लड़की है। उससे कुछ बुरा हुआ भी है तो उसका अपराधी यह समाज है। यहाँ तो वेश्या तक को अपना गृहस्थ शुरू करने का अधिकार है। सुमन तो हालात की मारी है। उससे कुछ बुरा कर्म हुआ भी है, तो भी मैं उसे स्वीकार करूँगा। मैं ऐसा नहीं करता तो फिर मुझमें और जस्सी में फर्क ही क्या है...मैंने अपनी आँखों से देखा ही क्या है...और फिर क्या कमला से मेरे संबंध नैतिक हैं? क्या ठीक भी है। वो ठीक है तो सुमन भी ठीक है...’ यह सोचकर उसने कहा-”सुमन! हम दोनों की जुदाई का समय कैसे कटा, उसे छोड़ो। मेरे लिए तुम जैसी पहले थी. वैसी ही अब भी हो। जस्सी ने अब तुम्हारी तरफ आँख फोड़ दूँगा।”

“गुस्सा नहीं...।” कहकर सुमन शिवा के साथ सटकर बैठ गई। दोनों बड़ी देर खामोश बैठे आसमान में छिटकते तारों को देखते रहे। फिर अचानक सुमन ने गाना शुरू कर दिया : ‘हम तुमसे जुदा होके, मर जाएँगे रो-रो के’।

साहिल और शिवा की दोस्ती बदस्तूर जारी थी। कमला अतिरिक्त रूप से सतर्क रहने लगी थी। वह प्रकटतः तो साहिल की तरफ ही अपनी तवज्जह रखती, लेकिन चाय वगैरह देते समय शिवा की उँगली अपने हाथ से हलका-सा दबाकर अपने प्यार का संकेत दे देती।

शिवा ने सुमन से अपनी सारी प्रेम कहानी साहिल को सुनाई और मिलने के लिए कोई उपयुक्त-सी जगह न होने की दिक्कत भी उसके सामने रखी।

“यही बुला लो।” साहिल ने छूटते ही कहा, “यह यार क्या अचार डालने के लिए है?”

शिवा के मन में यह आशंका थी कि सुमन को वहाँ बुलाने का कला पर क्या प्रभाव पड़ेगा। थोड़ी उधेड़बुन तो रही, पर शिवा ने सुमन को साहिल के घर बुला ही लिया।

छुट्टी का दिन था। शाम का वक्त। सुमन ने बालों में प्लास्टिक का फूल लगा रखा था। हलका-सा मेकअप। एकदम तरोताज़ा लग रही थी। उसके आते ही शिवा ने साहिल और कमला से उसका परिचय करवाया। कमला ने मोढ़ा ला दिया।

साहिल और शिवा एक ही चारपाई पर बैठे थे। कमरे में एक ही चारपाई थी। अक्सर उसी पर बैठते, एक-दूसरे का कलाम सुनते। राय देते। दुःख-सुख बाँटते। थोड़ी देर में चाय बनी। साहिल ने सुमन की तारीफ की। कमला के पास और कोई रास्ता नहीं था। उसने भी तारीफ की। चाय खत्म होते न होते साहिल ने कमला से कहा-”चलो गुले-गुलज़ार, ज़रा मार-पीट चलते हैं।”

“मारपीट!” सुमन ने पूछा।

शिवा और साहिल दोनों हँस दिए। शिवा ने ही कहा-”हाँ, इनकी माँ मार्किट को मार-पीट ही बोलती हैं।”

शब्द की व्युत्पत्ति सुनकर सुमन भी हलका-सा मुस्करा दी।

कमला जैसे बैठी थी, वैसे ही साहिल के साथ चल दी। बाहर से उन्होंने ताला लगा दिया। कमरे में शिवा और सुमन। बस अकेले।

शिवा अभी भी चारपाई पर ही बैठा था। इसी चारपाई पर बैठकर उसने अपनी कई कविताएँ साहिल को सुनाई थीं। साहिल ने उसे अपनी कई ग़ज़लें और नज़्में। कमरे में खामोशी अपनी औपचारिकता के साथ व्याप्त थी। शिवा को लगा, जैसे वे किसी शोक-सभा में हैं। दो मिनट का मौन।

मौन तोड़ा शिवा ने ही-”वहीं बैठी रहोगी?”

सुमन बिना कुछ कहे चारपाई पर आ गई।

“देखो मेरे यार को! है न मज़ेदार...बिना कहे ही सब समझता है।” कहकर शिवा ने सुमन के कंधे पर हाथ रखा-”बड़े दिनों...दिनों क्या...सालों बाद तुमसे इस तरह मिलने का मौका मिला है...कैसा लगता है?”

“मैं तो न जाने कब से मिलना चाहती थी...पर यह ज़ालिम ज़माना...”

शिवा को यह भाषा कुछ अच्छी नहीं लगती थी, पर सुमन के पास ऐसी ही भाषा थी। कुछ फिल्मी गीत थे। शिवा ने कहा-”तुम साथ दो तो ज़माने से लड़ना क्या मुश्किल है।”

मैं तो तुम्हारे साथ हूँ।” कहते हुए सुमन चारपाई पर लेट गई। साथ ही शिवा को भी खींच लिया। दोनों के बदन टकराए। दोनों की टाँगें एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था हुईं, लेकिन शिवा की नसों में जैसे बर्फ की धारा बह रही थी। समाज-सुधारक बार-बार उसके मन के कपाट खटखटा रहा था-‘हाँ-हाँ, मुझे याद है। मुझे वो सब सुमन के साथ नहीं करना, जो औरों ने किया है। मैंने भी वही किया तो फिर मुझमें और औरों में फर्क ही क्या रहा।’

“मुझसे नाराज़ हो?” सुमन ने शिवा को बाँहों में कसते हुए पूछा।

“नहीं।”

“तो चुप क्यों हो?”

“सोच रहा हूँ।”

“क्या?”

“यही कि सच और झूठ के बीच कितना फासला होता है?”

“सर्फ चार अंगुल का।”

“कहने को तो यह ठीक है, पर यह चार अंगुल का फासला हमेशा ठीक जानकारी देता है?”

“तुम्हें अभी भी मुझ पर शक है?”

“नहीं।”

“फिर ऐसी बात क्यों करते हो?” कहते हुए सुमन ने शिवा के होंठें पर हाथ रख दिया।

“पुरुष हूँ न!”

“शक्की तो औरत ज़्यादा होती है!”

“वो तुम जानो।”

“मेरे मन में कोई शक नहीं है।” कहकर सुमन शिवा से लिपट गई।

कितना ही देर तक वे दोनों लिपटे रहे। इस बीच शिवा ने न जाने क्या-क्या सोच डाला। सुमन ने न जाने अपने अंतर को कितना मथा। दोनों के बीच बर्फ की मोटी दीवार अब भी मौजूद थी। शिवा ने उसे पिघलाने की कोशिश भी नहीं की। लगभग एक घंटे बाद ताला खुलने की आवाज़ ने दोनों को व्यवस्थित कर दिया। मन से दोनों ही अपने-अपने कारणों से अव्यवस्थित थे। अंदर घुसते ही कमला ने बड़ी भेदक दृष्टि से शिवा को देखा, फिर सुमन को और बिना कुछ कहे रसोई में चली गई।

अनूपलाल के साथ शिवा की चर्चाओं और बहसों का असर दोनों पर यूँ हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए। दोनों के बीच जो रिश्ता विकसित हो रहा था, वह न तो पूरी तरह से एक गुरु और शिष्य का रिश्ता था और ना ही पूरी तरह से दोस्ती का। दोनों का संवाद दोस्ताना अंदाज़ में होने लगा था, पर शिवा अनूपलाल को अकेले और सार्वजनिक रूप से भी एक गुरु का सम्मान देता। इसके बावजूद इस रिश्ते को कोई निश्चित संज्ञा देना मुमकिन नहीं था। हाँ, कक्षा के दूसरे छात्रों को कई बार ईर्ष्या होती कि अनूपलाल शिवा की बातों को ही महत्व क्यों देते हैं। यहाँ तक कि जिस दिन शिव कक्षा में नहीं होता, अनूपलाल कह देते-”आज पढ़ाने का आनंद नहीं आ रहा।” जल्दी ही क्लास छोड़ देते। शिवा को पता चलता तो उसके अहं की बड़ी तुष्टि होती। दरअसल अनूपलाल और शिवा के बीच कोई-न-कोई बहस छिड़ ही जाती थी और एक जीवन्तता पूरे माहौल को घेर लेती। कई बार कोई दूसरा छात्र यह भी कह देता-”सर, इस बहस में उलझे रहेंगे तो कोर्स खत्म नहीं होगा।” “आई एक हेअर नॉट टू फिनिश योर कोर्स ओनली...आई हैव टू एजुकेट यू...एजुकेशन डजंट मीन फिनिशिंग द कोर्स...।” और फिर वे शिक्षा क्या है? इसका मकसद क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है? जैसे प्रश्नों पर एक लंबा भाषण दे देते। इसलिए बाद में सभी ने इस डर से कुछ कहना ही छोड़ दिया कि कुछ कहा नहीं, भाषण पिला नहीं और कोर्स फिर छूट जाएगा।

अनूपलाल की पारिवारिक ज़िन्दगी अस्तव्यस्त थी। पत्नी एक स्कूल में पढ़ाती थी। एक बच्चा, बहुत सुंदर। झगड़े की वजहें छोटी-छोटी होतीं, पर असली कारण शायद अनूपलाल के स्वभाव का रोमानीपन था। पत्नी शर्मिला के पास अपने कारण थे। दोनों के कारण धीरे-धीरे शिवा के सामने भी खुले। शिवा के लिए पति-पत्नी के संबंधों का यह एक नया संसार था। उसने तो घर में अपनी माँ और पिता को देखा था। पिता कमाने में लगे रहते थे। माँ घर के काम में। दोनों में जो संवाद होता वह सब्ज़ी क्या बनेगी? किसकी शादी में जाना है या नहीं? किस रिश्तेदार के साथ क्या रिश्ता रखना है? या फिर किस बच्चे के पास किस चीज़ की कमी है? शिवा ने अपने माँ-बाप को कभी भी गझड़ते हुए नहीं देखा था। कभी माँ ऊँचा बोलती तो पिता चुप। पिता ऊँचा बोलते तो माँ चुप। बस। यही रिश्ता शिवा की रगों में बसा हुआ था। स्थितियाँ भले ही अलग-अलग हों, छवि एक ही उभरती। ऐसी मानसिकता लिए बड़े हुए शिवा के लिए अनूपलाल और शर्मिला के संबंध सचमुच एक नई दुनिया थे। किसी भी बात पर तुनक जाना। झगड़ना, मार-पीट, गाली-गलौज, कुछ भी।

पहले-पहल तो शिवा कुछ भौचक-सा हुआ कि वे दोनों इतनी छोटी और नीच हरकतें करते हैं। उसे बड़ी हैरानी हुई थी। उसने प्रश्न भी उठाया था। पुरुष और नारी की समानता का प्रश्न, जिसे अनूपलाल ने ‘बकवास’ कहकर उड़ा दिया। यह सोचकर कि फिर कभी सही, वह चुप हो गया।

कॉलिज के साथ-साथ कॉलिज से बाहर भी शिवा की सक्रियता बढ़ रही थी। कुछ युवा लोगों ने मिलकर एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था की नींव डाली। संस्था का नाम रखा ‘कम टुगैदर’। पहले वाला शिवा होता तो संस्था का नाम अंग्रेज़ी में रखे जाने का विरोध करते हुए संस्था ही छोड़ देता। अनूपलाल के संपर्क में आने और डॉ. राव से प्रशंसा पाने के बाद अंग्रेज़ी के प्रति भी शिवा का रुझान बढ़ा था। उसने इतना ही कहा, “नाम हिन्दी में नहीं हो सकता है?” “क्या फर्क पड़ता है भाषा से। यह नाम ज़रा कैची लगता है।” राकेश जैन ने कहा। राकेश जैन ही ‘कम टुगैदर’ का महासचिव बना। शिवा को प्रचार मंत्री बनाया गया। शिवा को जैसे एक सामाजिक पहचान मिली थी। वह प्रसन्न था। ‘कम टुगैदर’ के उद्देश्यों को उसने ध्यान से पढ़ा और उसका कवि कुलबुलाने लगा। इससे पहले उसने या तो सुमन के वियोग में कुछ गीत लिखे थे, या चीनी आक्रमण के समय प्रयाण-गीत या फिर कुछ कविताएँ उसने साहिल के संपर्क में आने के बाद लिखी थीं। इस बार उसने ‘कम टुगैदर’ के लिए शीर्ष-गीत की रचना की-‘निकल रही है एक संस्था, समय की सीमाओं को छूकर-कम टुगैदर-कम टुगैदर’। गीत संस्था की एक बैठक में पढ़ा गया। उसे भरपूर प्रशंसा मिली और राकेश जैन के प्रस्ताव पर ही इसे संस्था का ‘मुख-गीत’ मान लिया गया। संस्था के किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत से पहले यही गीत सभी सदस्य मिलकर गाते। उत्साहित होते और उत्साहित करते। शिवा के कवि के लिए यह पहली सामाजिक स्वीकृति थी।

शिवा की लेखकीय प्रतिभा को कॉलिज में भी स्वीकृति मिली। उसे कॉलिज की पत्रिका का संपादक बना दिया गया। यों भी यह कॉलिज की अनेक गतिविधियों में सक्रिय रहता। हालाँकि सांध्य कॉलिज होने की वजह से गतिविधियाँ कम ही होती थीं, लेकिन शिवा सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यक्रमों एवं बहस-मुबाहिसों में न सिर्फ होने लगा, कुछ इनाम-इकराम भी पाने लगा।

कॉलिज का एक छात्र-वर्ग राजनीतिक रूप से अत्यन्त सक्रिय था। उन्होंने छात्र-दल बनाकर कॉलिज में छात्र-संघ स्थापित करने की माँग की। दिन के अधिकांश कॉलिजों में तो छात्र-संघ काम कर रहे थे, लेकिन सांध्य कॉलिज में ऐसी कोई परंपरा नहीं थी और फिर सांध्य कॉलिज दिल्ली में थे ही कितने। कॉलिज में चल रहे छात्र-आन्दोलन की बागडोर हरीश धवन के हाथ में थी। उन्होंने शिवा को भी साग्रह अपने साथ जोड़ा। शिवा को अपने स्कूल के दिन याद आ गए। वहाँ भी वह कितना लोकप्रिय और एक तरह से अपरिहार्य बन गया था। क्या वही स्थिति कॉलिज में भी आने वाली है? छात्र-आन्दोलन के दबाव में कॉलिज के प्रिंसिपल डॉ. धनुर्धर ने छात्र-संघ बनाना स्वीकार कर लिया। तुरन्त तदर्थ समिति बनी। शिवा उसमें था। संविधान समिति बनी। शिवा उसमें भी था। चुनाव हुए। शिवा हरीश धवन के साथ था। हरीश धनव छात्र-संघ का प्रथम अध्यक्ष चुन लिया गया। शिवा कार्य-समिति में आ गया।

हरीश धवन तथा तमाम दूसरे पदाधिकारी एवं सदस्यगण कहीं न कहीं नौकरी करते थे। छात्र-संघ में छात्र-सुलभ आक्रामकता एवं नौकरीपेशा लोगों के अनुशासन का मिला-जुला रूप रहता। सार्वजनिक मंचों पर बोलने का प्रशिक्षण शिवा को इसी छात्र-संघ की बैठकों में मिला। उसकी तार्किक वक्तृता की न केवल छात्र, बल्कि सलाहकार के रूप में उपस्थित शिक्षक भी प्रशंसा करने लगे। शिवा ने सोचा, अगली बार वह स्वयं ही अध्यक्ष का चुनाव लड़ेगा और कॉलिज का कायाकल्प कर देगा। छात्र-संघ बनने से पहले यूँ लगता था कि कॉलिज में छात्रों की कोई समस्या नहीं है, छात्र-संघ बनने के बाद लगने लगा था कि समस्याएँ ही समस्याएँ हैं और उनके उपचार ज़रूरी हैं।

कॉलिज में यों उसकी मित्रता सुरेश, वेद, नरेश, के.डी सिंह आदि कई छात्रों से थी। सुरेश से इसलिए गहरी छनती थी कि दोनों एक ही दफ्तर में थे। इधर शिवा का झुकाव गोपाल की तरफ ज़्यादा हो गया था। गोपाल कर्मपुरा में ही रहता था। शिवा सुदर्शन पार्क में। कॉलिज से घर लौटने की दिशा एक ही थी। दोनों के पास अपनी-अपनी साइकिलें थीं। दोनों ही अपनी-अपनी साइकिल पर सवार गप्पें लगाते घर पहुँचते। सड़कों पर ट्रैफिक कम रहता। रात नौ बजे के बाद तो सड़कें लगभग वीरान हो जाती थी। शिवा और गोपाल की निकटता बढ़ी। दोनों एक-दूसरे के सामने अपने-अपने भेद खोलने लगे। शिवा सुनता ज़्यादा, बोलता कम। वह गोपाल को उसके घर छोड़ने के बाद कई बार सुमन के घर की ओर निकल जाता। वहाँ से साहिल के घर चला जाता और देर रात ही लौटता। माँ अक्सर चौखट पर बैठी ऊँघती मिलती। खाना। फिर पढ़ना और फिर कहीं सपनों की दुनिया में खो जाना जैसे शिवा की दिनचर्या ही बन गई थी।



1965 का साल


पाकिस्तान ने भारत पर दूसरी बार हमला कर दिया था। सन् ‘62 की तरह से ही ब्लैक आउट के सायरन फिर बनजे लगे थे। खंदकें खुदने लगी थीं। ‘62 में चीन के हाथों भारत को जो अपमान झेलना पड़ा, उसे अभी तक कोई भी भूला नहीं था। पाकिस्तान के साथ लड़ाई का कारण कश्मीर ही था। लड़ाई सभी सरहदों पर होने लगी। तीन ही साल बाद दूसरी लड़ाई झेलना भारत जैसे देश के लिए आसान नहीं था। चीन की लड़ाई जवाहरलाल नेहरू को खा गई थी। अब देश के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे। ठिगने कद के संयमशील एवं कर्तव्यनिष्ठ लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर पूरा देश एकजुट खड़ा हो गया।