अनिरुद्ध प्रसाद विमल की साहित्य साधना / राहुल शिवाय

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बाँका जिला के मिर्जापुर चंगेरी गाँव में 20 नवम्वर 1950 ई0 को जन्मे अनिरुद्ध प्रसाद विमल साहित्य की सभी विधाओं में सृजनरत एक ऐसे रचनाकार हैं जिनका आरंभ से ही साहित्य समारोह, संपादन से लेकर रंगमंच-निर्देशन-लेखन तक से गहरा सरोकार रहा है। इनका साहित्य में आना रंगमंच से हुआ। गीत गुनगुनाते थे, कविता की पंक्तियाँ जोड़ते थे, तब ये मात्र तेरह वर्ष के थे। इनके पिता स्व0 चक्रधर प्रसाद यादव नाट्य रंगमंच के चक्रवर्ती कलाकार थे। निश्चय ही इनके मन पर इसका प्रभाव पड़ा और इन्होंने 1967 से 1977 तक उन्नीस नाटकों की रचना की और गाँव में उन सभी नाटकों का मंचन भी किया। गाँव में यह नाटकों का ‘विमल युग’ ही था जिसे आज भी गाँव के लोग श्रद्धा से याद करते हैं। इनका प्रसिद्ध नाटक ‘पागल विद्रोही’ 1977 में प्रकाशित हुआ। इस नाटक की प्रसिद्धि का ही प्रमाण है कि वे अपने पूरे क्षेत्र में आज भी ‘विद्रोही’ उपनाम से ख्यात हैं।

1979 के नवम्वर माह में ‘समय साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना के साथ संस्था का पहला महाधिवेशन अचार्य आनन्दशंकर माधवन की अध्यक्षता में संपन्न कर ये सीधे कविता की ओर मुड़ गये।‘विमल विद्रोही’ के नाम से ‘रचना’ मासिक पत्रिका का संपादन भी इसी वर्ष से आरंभ किया और राष्ट्रीय स्तर के लेखकों के संपर्क में आए। 1983 में ‘अंधेरी घाटियों के बीच’ कविता संग्रह का प्रकाशन हुआ जिसकी चर्चा/समीक्षा विद्वान समीक्षक डाॅ0 रामदरश मिश्र ने उस समय के राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध पत्रिका’ सप्ताहिक हिन्दुस्तान में किया। हालावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन से लेकर ढेर सारे विद्वान समीक्षक, साहित्यकारों ने अपनी आशंसा भेजकर इनकी काव्य प्रतिभा की सराहना की। और तब से लेकर आजतक अपने पैंसठ वर्ष की उम्र में भी वे निरन्तर सृजनरत हैं।

‘पागल विद्रोही’ नाटक के पाँचवें संस्करण की भूमिका में डाॅ0 अमरेन्द्र ने इनके विषय में लिखा है-‘‘अनिरुद्ध प्रसाद विमल साहित्य में ऐसे रचनाकार की संज्ञा है, जिनकी पहली प्रतिबद्धता विधायक रचना के सृजन से है, फिर बचे समय में साहित्य की उस भूमि को उर्वरा देना, जो नई पीढ़ी के सृजन को त्वरा देता है।यह साहित्यकार जीवन के साहित्य में विश्वास ही नहीं करता, बल्कि जन से सीधे जुड़कर उसकी चेतना उध्र्वगामी बनाने में भी विश्वास करता है। लोकमंगल और जीवन मूल्यों की हिफाजत अनिरुद्ध प्रसाद विमल के साहित्य की शिराओं का रक्त प्रवाह है और यही कारण है की आधारशिला रखी। ‘आपकी सुनीता’ संग्रह की कहानियाँ शुद्ध कहानियों के ही प्रतिमान है। एक जनकवि के रुप में विमल ने जहाँ जीवन की पीड़ाओं को समेटने की अद्भुत कोशिश की है, वहीं इनकी उन कविताओं में काव्य के वे उदात्त गुण भी अपनी पूरी दिव्यता के साथ समाहित हैं। श्रेष्ठ कविता के लिए जिस उदात्त कल्पना की जरुरत कवि को होती है वह कवि विमल के पास हैं। जिसकी छटा ‘विमल’ के अंगिका गीति प्रबन्ध ‘कागा की संदेश उचारै’ में भी सघनता के साथ देखी जा सकती है। इस बात को हम नाटककार विमल की नाट्य-कृति ‘पागल विद्रोही’, ‘मुखिया मंगनीलाल’,‘सांप नाटक’ से भी समझ सकते हैं’’।

तीन-चार वर्षो से ये लगातार अपनी मातृभाषा अंगिका की सेवा में लगे हैं। अंगिका में पत्रिका की कमी को महसूस करते हुए इन्होंने ‘अंगधात्री’ त्रैमासिकी का नियमित प्रकाशन आरंभ किया है। जबकि इसके पूर्व तेइस वर्षों से हिन्दी में ‘समय त्रैमासिक’ का भी संपादन कार्य कर रहे हैं।

अबतक इनकी हिन्दी में 7 और अंगिका में 10 महत्वपूर्ण प्रस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिसमें नाटक, कहानी, उपन्यास, काव्य, दोहे और गीत विधा को रचनाकार विमल ने प्रमुखता से लिया है।

अंगिका में कहानी संग्रह ‘चानो’, उपन्यास ‘जैवा दी और प्रगीत प्रबंध काव्य ‘कागा की संदेश उचारै, नाटक ‘सांप’ और कविता संग्रह ‘आग राग’ ने इनको अंगिका का प्रतीक पुरुष बना दिया है। ‘कागा की संदेश उचारै’ प्राचीन हिन्दी के ‘संदेश रासक’, विद्यापति की पदावली, सूर के विप्रलम्भ्क गीत और आधुनिक युग में धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ की परंपरा का पुर्णोद्धार और विकास भी है।डाॅ0 मुचकुन्द शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि-‘यह अद्भूत, अलाैिकक, सार्वभौम काव्य सृजन है। ऐसी रचना शताब्दियों के बाद रची जाती है। यह सुपूर्ण भारतीय वाड्मय के बीच उल्लेख्य कृति है। घनानन्द के बाद हिन्दी तक में प्रेम की ऐसी पीर अन्यत्र अनुपलब्ध है। ‘चानो’ कहानी संग्रह और ‘जैवा दी’ उपन्यास ने अनिरुद्ध प्रसाद विमल को प्रेमचन्द और रेणु से आगे का रचनाकार सिद्ध कर दिया है। ऐसी रचना अंगिका में तो नहीं ही है, हिन्दी में भी दुर्लभ है। अंत में इतना ही कहूँगा कि-

‘विमल’ अंग के पूत हैं, अनगिन हैं अवदान।
शब्दों में संभव नहीं, हे शिवाय सम्मान।।