अनुकरणीय / नीरजा हेमेन्द्र

Gadya Kosh से
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दरवाजे की घंटी बजी। मैं समझ गयी कि वो होगी। वह प्रतिदिन ठीक इसी समय आती है। न कभी शीध्र न कभी विलम्ब। मैंने दरवाजा खोला। मेरी ओर देखकर एक हल्की-सी मुस्कराहट व अभिवादन के साथ अन्दर हाॅल में आ कर वह फर्श पर बैठ गयी तथा दुपट्टे से माथे पर छलछला आयी पसीने की बूँदों को पोछने लगी। उसे मेरे यहाँ कार्य करते हुए दो सप्ताह ही हुए हैं किन्तु उसकी कार्यकुशलता देख कर ऐसा लगता है, जैसे उसे काम करते हुए यहाँ अरसा हो गया हो। मंैने उसकी तरफ देखा वह काम में जुट चुकी थी। उसके चेहरे पर निश्चिन्तता के भाव थे। बड़े ही मनोवेग से वह घर की साफ-सफाई व रसाई के कार्यो को कर रही थी।

मुझे दो सप्ताह पूर्व का वो दिन याद आ गया जब वह काम पूछती हुई मेरे गेट पर खड़ी थी। मैले-से कपड़े, पसीने से लथ-पथ साँवला चेहरा, तीखे नाक-नक्श व औसत कद की चम्पा छत्तीसगढ़ के एक अत्यन्त पिछड़े गाँव का रहने वाली थी। उम्र यही कोई पैतीस वर्ष के आस-पास। संकोच के आवरण में लिपटी-सहमी रहने वाली चम्पा धीरे-धीरे मुझसे खुलने लगी थी। उसकी बातों से मुझे यह समझते देर न लगी कि उसका गाँव विकास की रोशनी से अत्यन्त दूर है। विकास पहँुचा भी है तो सिर्फ कागजों पर पहुँचा है आम आदमी तक नही।

उसने बताया कि, “लगभग तीन वर्ष पूर्व की बात है। गाँव में रोटी-रोजगार न मिलने के कारण उसका आदमी अपने साथ उसे व अपने दोनांे छोटे बच्चों के साथ लखनऊ आ गया था। यहाँ की बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों व पार्कों के निर्माण में दोनों को मजदूरी का कार्य मिल गया। दोनों मजदूरी करने लगे। मजदूरी के पैसों से उन्हें दो वक्त की रोटी मिलने लगी जो उनके गाँव मे रहते सम्भव न था। रोटी की समस्या दूर होते ही जि़न्दगी सुख से व्यतीत होने लगी, किन्तु भाग्य में कुछ और ही बदा था। एक दिन काम के दौरान हुई दुर्घटना में उसका आदमी चल बसा। पराया शहर, पराए लोग। वह यहाँ रहती भी तो किसके भरोसे पर। वह गाँव चली गयी। वहाँ वह पैसे-पैसे, दाने-दाने को मोहताज हो गयी। उस पिछड़े गाँव में उसके दोनांे बच्चों की परवरिश का बड़ा प्रश्न उसके समक्ष था। बच्चों की शिक्षा तो दूर की बात थी, उनकी बुनियादी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में वह स्वंय को अक्षम पा रही थी। कइ्र्र बार हमे भूखा सोना पड़ता था। मायके व ससुराल पक्ष से भी किसी ने सहारा नही दिया। सहारा कोई देता भी तो कैसे? उस गाँव में सभी अशिक्षा व निर्धनता से संघर्ष कर रहे थे। गाँव में जीवन यापन कठिन था व लोगों का शहरों की ओर पलायन जारी था।

गाँव में कुछ समय अत्यन्त संघर्ष व निर्धनता में व्यतीत करने के पश्चात् रोटी की तलाश उसे पुनः इस शहर में खींच लायीं। यद्यपि वह यहाँ अपने पति को खो चुकी है। उसे इस शहर से भय लगता है, किन्तु पेट की आग ने उसे इस शहर का दामन पुनः पकड़ने पर मजबूर कर दिया। बच्चों को माता-पिता के पास गाँव में छोड़ा व भाई के साथ काम की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकने लगी। भाई मजदूरी करने लगा। उसे मजदूरी करने में डर लगता, क्यों कि उसका आदमी मजदूरी करते हुए ही जान गवां बैठा था। वह दो चार घरों में काम कर के ही जो कुछ मिल जाता उसी से गुजर-बसर करने लगी। वह कहती कि जब बच्चे कुछ बड़े हो जायेंगे तथा वह कुछ पैसे जोड़ लेगी तब बच्चों को अपने पास ला कर रखेगी। उन्हे पढ़ा-लिखा कर अच्छा इन्सान बनायेगी। उसकी आँखों में कुछ अच्छा कर लेने का जज्बा व सपने तैरने लगते। मेरे घर का कार्य कर लेने के पश्चात् वह अन्य घरों में भी कार्य करने निकल पड़ती। उसे जीवन के संर्घषपूर्ण पथ पर अकेले चलता देख कर मुझे उससे सहानुभूति के साथ गर्व की भी अनुभूति होती। यद्यपि वह अशिक्षित थी, किन्तु अपने विचारों से वह किसी शिक्षित महिला से कम प्रतीत न होती, बल्कि कई मायनों में उनसे अधिक।

जहाँ पढ़ी-लिखी महिलायें भी यदा-कदा इन विषम परिस्थतियों में टूट जातीं, अवसाद का शिकार हो जातीं, वहीं चम्पा दुरूह परिस्थितियों में भी तुरन्त अपने आप को सम्हाल कर एक सकारात्मक सोच के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ रही है। वह जीवन का अर्थ व जीने की कला की शिक्षा देती हुई प्रतीत हो रही है। निर्धनता व सम्पन्नता की बाधाओं व सीमाओं से परे वह चलती चली जा रही है। चम्पा का अदम्य साहस व सशक्त व्यक्तित्व किसी को भी पे्ररित करने में सक्षम है।