अनुपस्थित / देवेंद्र

Gadya Kosh से
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इतवार का दिन था। कुलपति आवास, बगल में चीफ़ प्रॉक्टर का ऑफ़िस। सामने दूर तक फैला मैदान। आम तौर पर छुट्टी वाले दिन इधर सन्नाटा रहता है। सुबह-सवेरे तो कत्तई. लेकिन आज का मौसम बदला-बदला-सा है। विश्वविद्यालय कैम्पस का वह एक कोना सुबह से ही नहा-धोकर एकदम टाइट, चहलक़दमी कर रहा है।

हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की पाँच सीटों पर इंटरव्यू होने वाला है। सुबह से ही रिक्शे और ऑटो, कुलपति आवास का पता पूछते हुए इधर चले आ रहे हैं। पूरी बारात। देखो किसकी लॉटरी खुलती है। डेढ़ सौ से कम संख्या नहीं होगी। सालों भटकते-भागते वही चेहरे। अक्सर एक-दूसरे के परिचित हो जाते हैं। छोटे-छोटे कई ग्रुप और बेतरतीब बातें-

"कुछ पता चला, कौन एक्सपर्ट है?"

"शायद पटना से कोई आ रहा है।"

"नहीं असंभव। पटना से कोई आता तो मुझे पता लग गया होता।"

"एक तो दिल्ली से ज़रूर कोई होगा।"

अनुमान और आशंकाओं से घिरे अलग-अलग टुकड़े और बातों का बेतरतीब सिलसिला-

"कुलपति कायस्थ हैं न! दिल्ली और चण्डीगढ़ के बीच कौन-कौन कायस्थ प्रोफे़सर हैं?"

"सिनहा लिखते हैं, कोई ज़रूरी नहीं कि कायस्थ ही हों। भूमिहार भी हो सकते हैं।"

"इंटरव्यू का समय नौ बजे से है। ग्यारह बजने को है। अभी तक कोई हलचल नहीं। कहीं चण्डीगढ़ की तरह स्थगित न कर दिया जाए."

"वहाँ तो कोर्ट ने 'स्टे' कर दिया था।"

"कोर्ट तो इस देश में मुसीबत हो गई है। ख़ुद तो कुछ करना नहीं। सही-ग़लत कुछ भी अगर हो रहा हो तो 'स्टे'।"

नीली बत्ती। शायद रजिस्ट्रार की गाड़ी है। बगल वाले कार्यालय का दरवाजा चपरासी खोल रहा है। मैदान में इधर-उधर बिखरे लोग तेज़ी से उस ओर भागे। शायद इंटरव्यू शुरू होने वाला है।

"पीछे हटिये। भीड़ लगाने से कोई फ़ायदा नहीं, एक-एक कर सबका नाम पुकारा जाएगा। बारी-बारी आकर अपने 'डॉक्यूमेंट' की जाँच करा लीजिए." चपरासी भीड़ को धक्का देते हुए पीछे धकेल रहा है, "बोरे में क्या है?" उसने अचरज से देखा-जैसे कोई मरा हुआ सूअर भूलकर बोरे को फाड़े दे रहा हो।

"पब्लिकेशन!" आगे बढ़े आ रहे लड़के ने चपरासी को समझाने की कोशिश की।

जैसे कोई तेज़ बदबू नाक में घुस आई हो-"छापाख़ाना खोले हैं क्या?" चपरासी ने कहा, "जाकर एक्सपर्ट लोगों को दिखाइएगा। अकेले आपका ही गिनने में साँझ हो जाएगी।"

पीछे खड़े लोग हँस पड़े, "इतना पब्लिकेशन!"

"उधर देखिए, दुबे जी भी चले आ रहे हैं" , किसी ने टोका।

दुबे जी! ए.पी.आई. के चक्रवर्ती सम्राट। कुल एक सौ चालीस किताबें। मिजोरम से मद्रास तक। कहीं भी हिन्दी का इंटरव्यू हो, दुबे जी मिल जाते हैं। ठिगना क़द, खल्वाट खोपड़ी, उदार और निस्पृह हँसी, दुबे जी को सब पहचानते हैं। "आइए-आइए! एक आपकी ही कमी थी।" और सब हँस पड़े। आदमी की फितरत ही ऐसी है कि श्मशान में भी हँसने का बहाना ढ़ूँढ़ लेता है।

यह सब चल ही रहा था तभी-

तभी एक जीप बहुत तेज़ रफ़्तार, विश्वविद्यालय को लगभग रौंदती, धूल उड़ाती आई और आकर तेज़ झटके के साथ रुक गई, "भागो! निकलो भागो यहाँ से। सबको यहाँ से भगाओ!"-जीप में से पाँच-सात मुस्टंडे उतर कर दबंग आवाज़ में चीख़ने लगे। वे लोग आसपास भीड़ लगाए कीड़ों-मकोड़ों को हिकारत से देख और धकिया रहे थे। -"हे, बंद कर साले!"-उनमें से एक जो दादा टाइप था, ऑफ़िस में घुसता चला गया। रजिस्ट्रार घबराकर खड़ा हो गया-"भाई साहब..." उसकी बोलती हलक में अटक गई थी।

"अपने बाप को बता दे, इंटरव्यू का नाटक किया तो खोपड़ी तोड़ दूँगा। पाँच जगहें और इतनी भीड़ जमा कर रखे हो। नौकरी कहाँ है बे। कुलपति साला पूरे देश को जुटाकर यहाँ मुजरा करा रहा है।" वह आदमी ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था।

किसी ने फ़ोन कर दिया है शायद। पुलिस के कुछ सिपाही, दारोगा और साथ में चीफ़ प्रॉक्टर भी है, सब लगभग दौड़ते हुए इधर ही चले आ रहे हैं।

"क्या बात है?" जीप वालों की ओर बढ़ते हुए चीफ़ प्रॉक्टर ने उस दादा टाइप आदमी से कहा-"आप लोग रोज़-रोज़ यहाँ उपद्रव कर रहे हैं। जो भी बात करनी है आपको, ऑफ़िस में आकर करिए. प्रमोद जी,"-चीफ़ प्रॉक्टर ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा-"आप इन लोगों को लेकर जाइए यहाँ से। आपके मारे तो नौकरी करनी मुश्किल हो गई है।"

प्रमोद जी! यानी शहर में कुख्यात माफिया गुण्डा प्रमोद चाकसे-"सर, देखिए मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ। अगर आपको दिक़्क़त है तो छुट्टी पर चले जाइए! लेकिन यह इंटरव्यू नहीं होगा।"

प्रमोद चाकसे। नाटा क़द, साँवला बदन। गठीला और कसा हुआ। उभरी आँखें।

अब तक जो भीड़ उपद्रव और मारपीट से डरकर तितर-बितर हो गई थी, धीरे-धीरे दारोगा और चीफ़ प्रॉक्टर के इर्द-गिर्द जमा होने लगी। चाकसे ने आखि़री बार फ़ैसला सुनाते हुए ऐलान किया, "अव्वल तो यहाँ इंटरव्यू होगा ही नहीं और अगर होगा भी तो इस शर्त पर कि मध्य प्रदेश से बाहर के जितने कैंडीडेट हैं, उन सबको हटाकर।"

चीफ़ प्रॉक्टर साहब रजिस्ट्रार से कुछ बुदबुदा रहे थे। दारोगा चाकसे के पीछे खड़ा था।

सौ से ज़्यादा लोग इंटरव्यू देने वाले हैं। चीफ़ प्रॉक्टर, रजिस्ट्रार और यह दारोगा भी है, साथ में इतने पुलिस वाले। ये पाँच-सात लोग क्या कर लेंगे-अरुण ने सोचा-यह तो सरेआम गुण्डागर्दी है। उम्मीद के क़रीब खड़ा आदमी सबसे पहले अन्याय के खि़लाफ़ मुखर होता है। उसने चीफ़ प्रॉक्टर को सम्बोधित करते हुए कहा, "अगर यही सब होना है तो आप मध्य प्रदेश के बाहर विज्ञापन ही क्यों देते हो? दो हज़ार रुपए का ड्राफ्ट, देश भर की फोटोकॉपी, किराया भाड़ा और समय की बर्बादी।"

चाकसे के सामने हर आदमी, चाहे कुलपति हो या रजिस्ट्रार, चीफ़ प्रॉक्टर और प्रोफ़ेसरों की तो कोई औकात ही नहीं, सब सिर्फ़ सुनते हैं। ये जो सामने चीफ़ प्रॉक्टर हैं, इन्होंने उसे बी.ए और एम.ए. में पढ़ाया है। गुण्डे, बदमाश लड़कों से पैर छुबाने की आदत। चाकसे का घर आना-जाना था। -"चाकसे तुम कुछ मेरे लिए नहीं सोचते।"-एक दिन उन्होंने गुरु दक्षिणा की माँग की। प्रमोद चाकसे ने पुराने वाले कुलपति को हड़काकर इन्हें चीफ़ प्रॉक्टर बनवाया था। सारा विश्वविद्यालय जानता है कि चाकसे आधे दिमाग़ का आदमी है। कब खोपड़ी गरम हो जाय, कोई भरोसा नहीं। गुस्से में उसकी आँखें सिकुड़ने लगती हैं-"कहाँ से आया है बे?"-उसने अरुण को घूरते हुए पूछा।

"दादा, बनारस से अरुण नाम है।" पीछे से किसी ने कुण्डली खोली।

साथ वालों को इशारा समझ में आ गया, "इसकी वल्दियत ठीक करो। इसके नाम रजिस्ट्री करानी है।"-एक तेज़ का चाँटा अरुण की कनपटी पर पड़ा। बचपन के दिन थे। एक बार गाँव के ट्यूबवेल पर जिज्ञासावश डरते-डरते उसने चार सौ चालीस वोल्ट के नंगे तार को छू दिया था। ऐसा ही झटका लगा था। आँखों के सामने अँधेरा और अंधेरे में तैरती नीली-पीली लकीरें।

सामने दारोगा, चार-छः कांस्टेबल, चीफ़ प्रॉक्टर और रजिस्ट्रार। आसपास खड़ी भीड़ में दहशत फैल गई. लोग दूर-दूर फैलते गए. अब वह अकेला था। किसी ने धक्का देकर उसे ज़मीन पर गिरा दिया। किसी दूसरे ने बेरहमी से बाँह मरोड़ रखी थी। फिर एक साथ कई सारे लात और घूँसे। कंधे पर लटका बैग हवा में उछल रहा था-देखो, देखो। ये मार्कशीटें हैं। 'हिंदी कविता में जनवादी परंपरा और प्रगतिशील धारा' यह थीसिस और ढेर सारे ए.पी.आई.। सब कुछ चिन्दी-चिन्दी।

रजिस्ट्रार ऑफ़िस के दो-तीन बाबू और चीफ़ प्रॉक्टर प्रमोद चाकसे को समझाने की कोशिश कर रहे हैं-"आप रोकिए, भाई साहब! यह सब क्या है? कल अख़बार वाले लिखेंगे। विश्वविद्यालय की छीछालेदर।"

कांस्टेबलों की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। इतने बड़े-बड़े और पढ़े-लिखे लोगों की यह कौन-सी भाषा का संवाद चल रहा है। दारोगा ज़रूर उन मार रहे लड़कों को खींच रहा है-"आप लोग इंटरव्यू देने बाहर नहीं जाते हैं क्या? यह भी कोई बात है। बाहर से आए लड़के को...आप लोग यह क्या कर रहे हैं?"

दारोगा एक को पकड़ता तो दूसरा उसके हाथ से छूट जा रहा था। बस पाँच-सात मिनट लगा होगा, अरुण लगभग निर्जीव मांस पिंड की तरह ज़मीन पर धूल में खो गया था। बड़ी मुश्किल से पुलिस वालों ने उसे झाड़ पोंछकर उठाया। उसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। होंठ फट गए थे। नाक और कान से ख़ून बह रहा था। शोर सुनकर कुलपति ऑफ़िस से तीन-चार लोग बाहर निकल आए थे। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था। दारोगा अरुण को सहारा देकर थामे हुए था। एक सिपाही फटे, चिथड़े काग़ज़ों को बटोरते हुए झोले में डाल रहा था। -"सर, मुझे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। पानी! सर मुझे बहुत तेज़ प्यास लगी है।" अरुण ने दारोगा से कहा।

"यह सब क्या हो रहा है?"-कुलपति ने रजिस्ट्रार से पूछा। -"सर, प्रमोद चाकसे था।" रजिस्ट्रार ने बताया।

"था नहीं, यहीं हूँ।" प्रमोद चाकसे ने कुलपति के सामने आकर हेकड़ी के अंदाज़ में कहा, "इंटरव्यू कराओगे? करा लो। अब यहाँ यही सब होगा और आगे से कोई लड़का नहीं, तुम लोगों की थुराई होगी।"

"आप गुण्डागर्दी करेंगे?" कुलपति का गुस्सा अक्षम और असमर्थ लड़खड़ा रहा था।

"गुण्डागर्दी!" चाकसे की आँखें दुबारा सिकुड़ने लगी थीं। चीफ़ प्रॉक्टर बीच में आकर खड़ा हो गया। चाकसे ने उन्हें एक ओर हटाते हुए कुलपति से कहा, "छः महीने से तुम यहाँ इंटरव्यू ही करा रहे हो। रंडीबाजी का रेट खोल रखे हो। सारी फेकल्टी दिल्ली के लड़कों से भर गई. देश के सारे विद्वान वहीं बस गए हैं तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो? वहीं जाओ. ...जिस भाषा को समझोगे कुलपति, हम उसी भाषा में बात करेंगे। आज से कैम्पस में अगर कोई बाहरी आया तो यही गत होगी। सिर्फ़ मध्य प्रदेश। सोच लो।"

कुलपति पिछले साल दिल्ली से आए थे। धर्मनिरपेक्ष सरकार के प्रगतिशील ख़यालों वाले विद्वान व्यक्ति हैं। सरकार बदलते ही भारतीय संस्कृति और वैदिक परंपरा में विज्ञान की जड़ें तलाशने लगे हैं। पहले चाहे जो कुलपति रहा हो, विश्वविद्यालय में कंस्ट्रक्शन के सारे काम प्रमोद चाकसे ही कराता रहा है।

राजधानी के बाद यह प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा शहर था। उद्योगों को देखते हुए कुछ लोग इसे ही मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहते हैं। कंस्ट्रक्शन की दुनिया में चाकसे की सल्तनत बहुत बड़ी न थी। विश्वविद्यालय भर से उसका काम चल जाता था। बाहरी दुनिया में उसकी कोई दिलचस्पी भी नहीं थी और बाहर का कोई, चाहे वह जितना बड़ा और रसूख वाला हो, चाकसे ने इस विश्वविद्यालय की ओर उसे देखने नहीं दिया।

कुलपति लोग तो कहीं न कहीं बाहर से ही आया करते, लेकिन विश्वविद्यालय का अपना 'लोकल' रंग था। कर्मचारी संघ, शिक्षक संघ, सत्ता पार्टी और विपक्ष के स्थानीय नेता। लेकिन यह भी एक अजीब विडंबना कि विश्वविद्यालय की स्थानीयता का प्रतीक प्रमोद चाकसे, जो खु़द महाराश्ट्रियन था। बारह-पंद्रह साल पहले उसकी बंबई उजड़ गई. चाकसे ने तब सब कुछ, माँ-बाप, घर-द्वार छोड़कर अपनी ब्याहता प्रेमिका के इस शहर में रहने और रुकने का ठिकाना खोजते हुए, इस विश्वविद्यालय में दाखि़ला ले लिया था। जहाँ जान, वहीं जहान! अब यही उसके 'जान' का शहर था और यह विश्वविद्यालय उसका 'जहान' । पिछले दस सालों से छात्रसंघ पर उसका दबदबा बना हुआ था।

पिछले साल दिल्ली से आए इस नए कुलपति ने सारे ठेके रुकवा कर जायसवाल कंस्ट्रक्शन कंपनी को दे दिया था। शराब का बहुत बड़ा कारोबारी जायसवाल ग़ाज़ियाबाद का बहुत बड़ा बिल्डर है। उसकी अपनी कंस्ट्रक्शन कंपनी थी। कुलपति का फाइनेंसर वही था। कुल पाँच करोड़ रुपए की डिमांड थी। प्रोफ़ेसरों के पास इतना पैसा कहाँ होता है। तीन बार से इनका नाम वाइस चांसलर के लिए उछलता और हर बार रह जाता। साला पी.डब्ल्यू.डी. में इंजीनियर था, उसी ने मनोहर जायसवाल से भेंट करायी। ज्योतिशी ने कह रखा था। हाथ की लकीरें रंग लाईं। इस तरह ये कुलपति बन सके.

ज्वाइन करने के बाद अपनी पहली मीटिंग में ही कुलपति ने प्रोफ़ेसरों से कहा था कि "बड़े सपने ही आदमी को बड़ा बनाते हैं। इस विश्वविद्यालय को एशिया का सबसे भव्य और बड़ा विश्वविद्यालय बनाना है। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि पैसे की कोई कमी नहीं होने दूँगा। आप लोग प्रोजेक्ट बनाइए. हर विभाग में राश्ट्रीय और अंतरराश्ट्रीय सेमीनार। पढ़ाई-लिखाई में कोई कोताही मुझे पसंद नहीं। प्रोफ़ेशनल कोर्सेज का ज़माना है। हमें बाज़ार को समझना होगा। घिसी-पिटी लीक से हटकर आप लोग पाठ्यक्रमों में बदलाव लाइए." और सबसे अंत में, थोड़ा रुककर उन्होंने बड़ी पते की बात कही-"हमें सारे विभागों में ख़ाली पड़े पदों पर नियुक्ति करनी है। लड़के इतनी फीस देते हैं, गेस्ट फेकल्टी से पढ़ने के लिए नही।" और थोड़े ही दिनों बाद विश्वविद्यालय बदलने लगा। 'डिजिटल लाइब्रेरी' का पहला बजट यू.जी.सी. ने पचास करोड़ का दिया था। जिन ऑफ़िसों में बाबा आदम के ज़माने वाले जंग लगे हिलते, काँपते, खड़खड़ टाइप राइटर पड़े रहते थे, वहीं अब क़तार के क़तार कम्प्यूटर। मोटे चश्मे वाले थुलथुल बड़े बाबू लार टपकती ललचाई आँखों से देख रहे थे-जीन्स, टी-शर्ट वाली हाय-हलो छाप लड़कियाँ सब कुछ ऑपरेट करने लगीं। बूढ़े और बुजुर्ग प्रोफ़ेसर इस नए दृश्य में भौंचक और भकुवाये हुए थे। खस्ताहाल दीवारों को तोड़कर नई-नई छतें। वाया जायसवाल अब यह विश्वविद्यालय यू.जी.सी. से सीधे जुड़ गया था। पैसे की कोई कमी वास्तव में न थी। यह विश्वविद्यालय का जायसवाल युग था।

जायसवाल यहाँ कभी-कभार ही आता था। जब भी आता, उसकी अपनी अलग व्यवस्था होती। डीन और विभागाध्यक्ष मिलने के लिए लाइन लगाए रहते। वहीं तय होता कि किस विभाग में सेमीनार होना है। सेमीनार का विशय क्या होगा? किस विभाग में कब तक इंटरव्यू हो जाना चाहिए, ग़ाज़ियाबाद के नामी बिल्डर, शराब के कारोबारी मनोहर जायसवाल, जो तीन साल में भी हाईस्कूल पास नहीं कर सका था, सारा कुछ तय कर रहा था। एक बार जब वह अपने बचपन, माँ की ग़रीबी और बहन की बीमारी के क़िस्से सुना रहा था तो हिन्दी के एक प्रोफे़सर ने उनसे उनकी जीवनी लिखने की इच्छा जताई, "नई पीढ़ी के लिए बहुत प्रेरणा देगी सर!"

प्रमोद चाकसे की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह यही जानता था कि कुलपति लोगों की नियुक्ति सर्च कमेटी द्वारा सुझाये गए नामों में से होती है। ये लोग अपने विशय के विद्वान और ढेर सारे बवालों से दूर रहते हैं। आदर्शवादी और कायर। यह कुलपति तो जायसवाल के लिए बिछा रहता है। कट्टा, कारतूस, मार-पीट, गाली-गलौज, गुण्डागर्दी के पुराने चोंचले वाला प्रमोद चाकसे पड़ा-पड़ा देख रहा था-विश्वविद्यालय की दुनिया बदल रही थी। यह नई दुनिया जायसवाल के साथ क़दम मिलाकर चल रही है। विश्वविद्यालय चल रहा है। चाकसे की जगह दिन-ब-दिन सिमटती जा रही थी। कुलपति को लेकर उसे कोई भ्रम न था। वह अच्छी तरह तड़ चुका था। वह देख रहा था कि प्रोफ़ेसरों और विभागाध्यक्षों की मर्जी के बग़ैर दिल्ली के लड़के धड़ाधड़ विश्वविद्यालय में असिस्टेंट और एसोसिएट प्रोफ़ेसर बनते चले आ रहे हैं। अब तो हद हो रही है। कुछ न कुछ ज़रूर करना पड़ेगा-उसने सोचा।

"कुछ करिए भाई!" चाकसे पर साथ वाले लड़कों का दबाव बढ़ता जा रहा था।

परसों रात को प्रमोद चाकसे अंग्रेज़ी के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर कुलकर्णी के घर गया-"यह सब क्या हो रहा है सर?" पैर छूते हुए चाकसे ने पूछा। कुलकुर्णी साहब आटर््स फैकल्टी के डीन भी हैं। रात के ग्यारह बज रहे थे, उनके सोने का समय हो रहा था।

"सर, आपके विभाग में आठ जगहें थीं। मनोज दस साल से गेस्ट फेकल्टी पढ़ा रहा था। आज के ज़माने में पन्द्रह हज़ार रुपया। आपका शोध छात्र था। आप लोगों ने उसे भी बाहर कर दिया?" कुलकर्णी साहब की पत्नी भी आकर ड्राइंग रूम में बैठ गईं-"कम से कम एक नियुक्ति तो आप कर ही सकते थे।"-पत्नी ने कहा।

बाहर लॉन में अँधेरा सन्नाटा था। बाहर दूर-दूर तक फैली गाढ़ी रात की सिसकी ड्राइंग रूम में भरती जा रही है। दरवाज़ा उढ़काते हुए कुलकर्णी सर ने लंबी साँस ली, "कुछ नहीं हो सकता चाकसे। जायसवाल को तो तुम जानते ही हो। यह सारी लिस्ट उसी की थी। मनोज के लिए मैंने कुलपति के सामने हाथ तक जोड़े। दो साल बचा है। अब तो लगता है अपनी नौकरी ही कर ले जाएँ, यही बहुत है।"

"सर, आप डीन हैं। कुलपति आपका क्या कर लेगा। आप बोर्ड में थे। दस्तखत नहीं करना चाहिए था।"

"अब वह बात न रही चाकसे। शिक्षक संघ होता था। कर्मचारी संघ था और तो और तुम्हारा छात्र संघ था। कुलपति लोग दब कर रहते थे। अधिकार की ऐसी निर्लज्ज पिपासा नहीं होती थी। अब कुछ नहीं। हर पद का रेट तय है। जायसवाल जैसे लोग फाइनेंसर हो गए हैं। किसी प्रोफ़ेसर के पास कहाँ पैसा धरा है। दलाल लोग कुलपति होने लगे हैं। राजनीति विभाग में सेमीनार था। बड़े-बड़े विद्वानों के बीच जायसवाल दीप प्रज्वलन कर रहा था। लड़कियाँ स्वागत गान गा रही थीं। कुलपति ने गुलदस्ता देकर शॉल ओढ़ाया। सेमीनार का सारा पैसा जायसवाल की वजह से यू.जी.सी. ने दिया था। दस साल पहले ग़ाजियाबाद के आर.टी.ओ. ऑफ़िस में दलाली का इसका धंधा था। लेकिन आज।"

परसों रात डीन कुलकर्णी साहब के घर से लौटते हुए प्रमोद चाकसे पहली बार गंभीर और डरा हुआ था। उसे जायसवाल की पकड़ और पहुँच का अंदाज़ा था। लेकिन अब तो बचने और छिपने का सारा कोना सिमटता जा रहा है। उसी रात उसकी भेंट चीफ़ प्रॉक्टर से भी हुई—"देखो चाकसे, मुझे नौकरी करनी है। मेरे हाथ बंधे हुए हैं। तुम्हारी समझ से अगर कुछ ग़लत हो रहा है तो तुम्हें ही कुछ करना होगा।"

इंटरव्यू की उस सुबह चाकसे और उसके गुण्डों ने जो कुछ किया, उसकी जानकारी शहर के एस.पी. को पहले से थी। चीफ़ प्रॉक्टर और डीन सबको इधर-उधर से कुछ अंदाज़ा था। यह बात किसी को पसंद न थी कि असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पर सारी नियुक्तियाँ बाहर के लड़कों की हो रही हैं।

हालाँकि रजिस्ट्रार ने कुलपति को रात में ही सावधान कर दिया था, लेकिन उन्होंने बात को गंभीरता से नहीं लिया। मनोहर जायसवाल का भरोसा था, कुलपति ने प्रमोद चाकसे को कभी बहुत महत्त्व नहीं दिया। उनकी रूटीन में था, रोज़ रात को फु़र्सत पाकर वह जायसवाल सर से ज़रूर बात करते। छोटी-मोटी बातें इसी दौरान निबट जाया करती थीं। आज आबकारी विभाग वालों ने छापा मारकर जायसवाल की तीन दुकानें 'सीज' कर दी थी। आजकल मौसम में अजीब क़िस्म की ख़ुश्की और उलझन भर गई है। जायसवाल कुछ-कुछ झुँझलाया हुआ था। उसने बेमन से ही फ़ोन उठाया, ' हाँ, कुलपति साहब। "

"कुछ ख़ास नहीं, बस यूँ ही हालचाल" कुलपति ने पूछा-"आप कहीं व्यस्त तो नहीं हैं?"

"नहीं, घर में ही हूँ। फ़ुर्सत से। कल तो आपके यहाँ हिन्दी का इंटरव्यू है"-जायसवाल ने कुलपति को आश्वस्त करते हुए पूछा।

"हाँ, उसी सिलसिले में कुछ बात थी। इलाहाबाद के प्रोफ़ेसर तिवारी जी, हमारे बचपन के मित्र हैं। कई अहसान हैं उनके मेरे ऊपर। उनका भांजा है। बहुत तेज़ और विनम्र। तिवारी जी ने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा है। उन्होंने पहली बार किसी के सामने मुँह खोला है। लड़के को मैं भी जानता हूँ।"

"कुलपति जी, यह सब न करिए. देखिए, पहले ही तय हो चुका था। विश्वविद्यालय का कंस्ट्रक्शन और नियुक्तियाँ मेरी होंगी। आपको क्या लगता है कि ये सब मेरे घर के लड़के हैं। यू.जी.सी. से लेकर मानव संसाधन मंत्रालय, राजभवन और मंत्री, मुख्यमंत्री सबको मैनेज करना पड़ता है। मेरा अपना कोई इंटरेस्ट नहीं है। अगर ऐसा है तो कहिए, मैं सबको मना कर देता हूँ।"

"देखिए, यह मेरे सामने नैतिक संकट है। इतनी नियुक्तियाँ हैं। मैं सिर्फ़ एक के लिए कह रहा हूँ।" कुलपति साहब ने जायसवाल सर को समझाने और मनाने की कोशिश की।

"मैं साफ आदमी हूँ और मुझे पढ़े-लिखे आप जैसे विद्वानों की यह अड़बड़-तड़बड़ पसन्द नहीं।"-जायसवाल ने झुँझलाकर फ़ोन रख दिया।

थोड़ी देर बाद जायसवाल ने कुलपति को अपनी ओर से फ़ोन लगाया-"आप क्या नाम बता रहे थे? प्रोफ़ेसर तिवारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हैं न!"

"हाँ, बहुत सज्जन आदमी हैं। कभी किसी के सामने मुँह नहीं खोलते। यह मेरे सामने बहुत बड़ा धर्म संकट है।" कुलपति ने लगभग रिरियाते हुए अपनी बात समझाने की आखि़री कोशिश की।

"क्या नाम है लड़के को? शायद मैंने कहीं सुन रखा है। दिल्ली के किसी कॉलेज में आया था।" जायसवाल ने अपने अनुमान को खुजलाते हुए कहा।

"अरुण कुमार! बहुत तेज़ लड़का है। बनारस से पीएच.डी. की है। इसकी कविताएँ बड़ी-बड़ी और प्रतिश्ठित प्रत्रिकाओं में छपती रहती हैं।" कुलपति ने शराब के बड़े कारोबारी और ग़ाज़ियाबाद के बड़े बिल्डर मनोहर जायसवाल को बनारस विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और हिन्दी कविता का महत्त्व समझा और सुना रहे थे-"इसकी नियुक्ति से विश्वविद्यालय का सम्मान ही बढ़ेगा।"

जायसवाल चुपचाप सुनता और धीरे-धीरे बुदबुदाता रहा-"बनारस से अरुण कुमार।"

इंटरव्यू के पहले प्रमोद चाकसे ने कुलपति आवास के सामने दारोगा, चीफ़ प्रॉक्टर, रजिस्ट्रार और इंटरव्यू देने आए सैकड़ों लोगों के सामने जो क्रूर और दर्दनाक नाटक खेला था, वह ग़ाज़ियाबाद के शराब व्यवसायी जायसवाल के हाथों उछाले हुए क्षेपक का एक्सटेंशन था। यह संयोग ही था कि उस रात जायसवाल कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक मनोहर जायसवाल और लगभग अप्रासंगिक होते जा रहे प्रमोद चाकसे ने एक साथ सोचा था कि-कुलपति को उसकी औकात बतानी ज़रूरी है और यह सारा कुछ घटित हो गया।

दारोगा बड़ी मुश्किल से अरुण को बचा पाया था। वर्दी के बाहर इस समय वह एक भले आदमी की तरह अरुण की धूल में लिथड़ी पड़ी घायल देह को झाड़-पोंछ रहा था, "यहाँ इतने लोगों के बीच आपको उन गुण्डों से बोलने की क्या ज़रूरत थी?"

"कहाँ से आए हो भाई?" कांस्टेबल ने दया भाव से अरुण को देखते हुए पूछा।

अरुण के होंठ फट गए थे। बार-बार मुँह में भर जा रहे ख़ून को वह थूक रहा था, "बनारस से।" उसने रिरियाती काँपती आँखों से दारोगा और कांस्टेबल को देखते हुए कहा, "मुझे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है।"

थोड़ी देर पहले जहाँ इंटरव्यू देने वालों की भीड़ थी, वहाँ दूर-दूर तक सन्नाटा और अनिश्चित हादसों का भय पसर गया था। एक तरफ़ कुलपति, रजिस्ट्रार और चीफ़ प्रॉक्टर खड़े थे और दूसरी ओर प्रमोद चाकसे।

"उधर दो-तीन लोग कौन खड़े हैं भाई?"

"पता नहीं। एक्सपर्ट हों शायद।"

कुलपति ने रजिस्ट्रार से कहा, "इस तरह गुण्डागर्दी मुझे पसंद नहीं। एक्सपर्ट लोगों का बिल बनवा दीजिए. अब इंटरव्यू संभव नहीं।"

अरुण इस हादसे का तमाशा नहीं बनना चाहता था। बचपन में उसने भूतों-प्रेतों के ढेर सारे डरावने सपने देखे थे। सपने ईश्वर की रहस्यमयी दुनिया के छोटे-छोटे कोलाज होते हैं, जिन्हें सोये में हम देखा करते हैं, लेकिन आज जो उसने देखा वह उजाले का अनुभव था। हादसे या अनुभव यथार्थ नहीं होते। वह इस अनुभव में से सदा-सदा के लिए अनुपस्थित होकर अपने समय के यथार्थ में खो जाना चाहता था।

क्लीनिक में डॉक्टर ने उससे कहा, "हमें रपट की कॉपी चाहिए. पहले आप थाने जाएँ। तभी हम पट्टी कर सकते हैं।"

दारोगा ने कुछ-कुछ लाचार और झुंझलाई दृश्टि से अरुण को देखते हुए कहा-"अगर आप चाहें तो मैं रपट दर्ज करा दूँगा।"

अरुण ने डॉक्टर को बताया-"आप लिख दीजिए सड़क पर चलते-चलते हवा से टकरा गया था मैं। इस शहर में किसी से मेरी कोई जान-पहचान नहीं है। क्यों कोई मारपीट करेगा?"

"वैसे आप चाहें जो भी कहें, उन लोगों को आपके बारे में सब कुछ मालूम था।"

"कैसे?" अरुण ने आश्चर्य से दारोगा को देखा।

"आप बनारस से आए हैं। आपका नाम अरुण है।" दारोगा ने विश्वास पूर्वक देखते हुए कहा।

"मेरा क्या कसूर है? मुझे तो उनमें से किसी का नाम तक नहीं मालूम।" अरुण ने दारोगा को आश्चर्य से देखते हुए कहा।

"ढेर सारे लोगों को अपना कसूर नहीं मालूम पड़ता और वे हादसों के शिकार होते ही रहते हैं।" दारोगा ने कहा।

उसी समय एक कांस्टेबल मोटर साइकिल से आया और उसने दारोगा को बताया कि "इन्हें गेस्ट हाउस में लेकर चलें सर। कुलपति सर ने बुलाया है।"

"मैं अब कहीं नहीं जाना चाहता।" अरुण ने कहा। सामने हैण्डपंप पर तीन-चार आदमी और कुछ औरतें लगातार क्लीनिक के बाहर देख रही थीं। दो पुलिस वाले और एक चोट खाया लड़का। क्या माजरा है? उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा। लेकिन कुछ न कुछ तो ज़रूर होगा।

शायद पॉकेटमार हों या किसी की साइकिल चुराते पकड़ा गया हो।

गेस्ट हाउस में कुलपति तो नहीं थे, मामा जी थे। मामा प्रोफ़ेसर तिवारी! आज होने वाले इंटरव्यू के एक्सपर्ट!

"सब गुड़ गोबर हो गया। कोई जानने न पाये कि तुम मेरी जान-पहचान के हो।" मामा जी दरवाज़ा बंद करते हुए फुसफुसा रहे थे।

अरुण बिस्तर के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। सामने शीशे में उसे अपना चेहरा दिख रहा था। बेहतर सूजा और जगह-जगह से कटा-फटा चेहरा।

"सब कुछ मैंने तय कर लिया था। कुलपति साहब से बात हो चुकी थी। वह भी तैयार थे। तुम्हें वहाँ गुण्डों से भिड़ने की क्या ज़रूरत थी?" मामाजी के स्वर में गहरा अफसोस था-"सब किया-धरा चौपट!"

मैं अब किससे-किससे सफ़ाई दूँ? अरुण एक लंबी साँस खींच कर चुप लगा गया। -"कुलपति साहब ने मेरे सामने पूछा था। रजिस्ट्रार और चीफ़ प्रॉक्टर दोनों बता रहे थे कि तुमने उन्हें माँ-बहन की गालियाँ दी थीं।" मामा ने बताया।

अरुण ने सोचा, "काश, मैं उन्हें गाली भर दे पाता।"

"तुम जितनी जल्दी हो सके, गाड़ी या बस पकड़ कर शहर छोड़ दो और देखो, किसी से मेरे बारे में कुछ न बताना।" मामा ने कहा।

"मामा जी आपके पास कुछ पैसे हों तो दे दीजिए. उन लोगों ने मेरे पर्स छीन लिए हैं।" अरुण ने बेहद निस्पृह ढंग से कहा।

तंगी और मुसीबत के दिनों में भी उसने कभी किसी से उधार न माँगे थे।

"चार सौ रुपया तो किराया ही है।" मामा ने कहा "ये पाँच सौ रुपया रख लो। रास्ते में कुछ खा लेना।"

अरुण के निकलते ही मामा जी ने दरवाज़ा बंद कर लिया। कुद क़दम आगे जाने के बाद वह लौट आया। "मामा जी!" उसने धीरे से दरवाज़े पर दस्तक दी।

"क्या बात है? कुछ छूट गया है क्या?" मामा जी ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा।

"मामा जी. आप माँ या पिताजी से इस सबका कोई ज़िक्र न करिएगा। आप न बताइएगा कि आप यहाँ एक्सपर्ट थे, या मैं यहाँ इंटरव्यू देने आया था।"

"लेकिन तुम्हारे पिताजी को तो पता है। उन्होंने रात ही मुझे फ़ोन किया था।" मामा ने कहा।

"अब अगर फ़ोन आए तो आप बता दीजिएगा कि मैं वहाँ पहुँच न सका और अनुपस्थित हो गया था।"

वह तेजी से निकल गया।

इस समय एक भरे पूरे शहर और दूर तक फैले उचाट मैदान में वह अकेला चला जा रहा था। बस अड्डे और प्लेटफार्म पर तो बहुत भीड़ होगी। वह कहीं अकेले में, किसी पेड़ के नीचे, जहाँ कोई आदमी न हो, वहीं दूर तक बैठ कर वह अपनी घावों को सहलाना और रोना चाहता था। बचपन में वह छोटी-छोटी बातों पर अक्सर रोने लगता था। आखि़री बार वह कब रोया था, उसे याद नहीं आ रहा था।