अनु मलिक होने के मायने / नवल किशोर व्यास

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अनु मलिक होने के मायने


संगीतकार अनु मलिक की ऊर्जा और काम करते रहने की ललक अचंभित करती है। इतने नये उम्दा युवा संगीतकारों के बीच भी अब तक संगीत देते रहने के उनकी कोशिश और खुद को हर एक से श्रेष्ठ साबित करने की अभिलाषा गजब है। अनु मलिक की इस बेमिसाल सकारात्मकता का ही परिणाम है कि इस ढलान पर भी उनके कम्पोज किये गए गाने मोह मोह के धागे की गायिका मोनाली ठाकुर को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है। ये अनु की रचनात्मकता से ज्यादा काम के लिए उनकी श्रद्धा और जज्बे की जीत है।

अनु मलिक अस्सी के दशक के उस दौर में फिल्म उद्योग में आये जब लक्ष्मी-प्यारे, बप्पी, कल्याण जी आनंद जी और आर डी बर्मन का जमाना था। अभी काम करने के जितने दस्तक-दरवाजे और अवसर उपलब्ध है, उस दौर में मिलना मुश्किल था। सुनते है कि उसने जुहू के बीच पर जॉगिंग करते और बाथरूम में बंद हुए निर्माताओं को अपने गाने जबरदस्ती सुनाए ताकि उसे काम मिल सके। सुभाष घई के पीछे निहायती बेशर्मी से पीछे पड़े तब जाकर यादें मिली। ये अनु का स्टाइल है। उसे काम मांगने में और खुद को सबसे श्रेष्ठ बताने में कोई शर्म नही आती। अनु ने अपना कोई नया ट्रेंड सेट नही किया जैसे कि आम तौर पर नए संगीतकार करते ही है बल्कि उस दौर के संगीतकारों की स्टाइल को ही अपना कर अपनी दुकान स्थापित करने की कोशिश की। स्थापित होने को कई बार करना पड़ता है, साधारण सी व्यावसायिक बात है, समझ सकते है पर हैरानी ये है कि वो आज तक यही करते रहे है। अपने से लगभग आधी उम्र और अनुभव के संगीतकार की स्टाइल भी हर दौर में कॉपी मारते रहे, धुनों की कॉपी तो खैर थोड़ी थोड़ी सभी ने ही की ही है, किसी ने कम तो किसी ने ज्यादा। अस्सी के दशक की फिल्म एक जान है हम फिल्म के संगीत का स्टाइल पूरा आर डी बर्मन का था। मिथुन का गाना जूली जूली यानी फिल्म जीते है शान से जैसी फिल्म में स्टाइल बप्पी लहरी का। मर्द, गंगा जमुना सरस्वती, सोहनी महिवाल और अनिल कपूर की आवारगी जैसी फिल्मो में स्टाइल लक्ष्मी-प्यारे की। सबका म्यूजिक थोडा-थोडा लेकर दुकान चलाते रहे। फिर आया नब्बे का दशक जिसमे उनसे काफी जूनियर आनंद मिलिंद, नदीम श्रवण और दिलीप सेन समीर सेन की चलताऊ स्टाइल का समीर के दिल-जिगर-नजर वाला दौर। इस दौर में भी खुद के अस्तित्व को जिन्दा रखने के लिए इसी गाडी को पकड़ अनु मलिक ने सर, फिर तेरी कहानी याद आई, तहलका, नाराज, विजयपथ जैसी बहुत सी फिल्मो का संगीत रचा। नदीम श्रवण दौर मद्धम हुआ तब केवल रहमान नाम के जादूगर की ही चर्चाये थी तो नदीम-श्रवण स्टाइल को छोड कर अशोका और यादें में रहमान जैसी कोशिश की। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की अक्स में विशाल भारद्वाज को पकड़ने की कोशिश की। टेक्नो प्रीतम युग में अगली और पगली, मान गए मुगल-ऐ-आजम और शूटआउट एट वडाला का म्यूजिक दिया। अभी की आयुष्मान की फिल्म जोर लगा के हइसा का गाना ये मोह मोह के धागे भी अभी के संगीतकारों के ट्रेंड का लग रहा है। एक और मजेदार बात, उसका स्टाइल कॉपी का कॉन्सेप्ट केवल फिल्मो तक नही रहा, नब्बे के शानदार इंडियन पॉप के युग मे भी उसने जो प्राइवेट अल्बम निकाले वो भी उस पॉप गुरु बिद्दू से प्रेरित थे। 


अनु संगीतकार के तौर तो कभी नहीं जमे पर जीवन के प्रति उनकी जिजीविषा और उत्साह ने हमेशा प्रेरित किया। अपनी सीमित प्रतिभा के बावजूद उसने खुद को किसी से कमतर नही समझा। आज भी कॉरप्रेट और मार्केटिंग वाले अनु से सकारात्मक एनर्जी ले सकते है। अपने आस पास, ऑफिस, पड़ोस में ऐसे बहुत लोग देखने को मिल  जाएंगे जिन्होंने अपनी प्रतिभा से ज्यादा उसकी मार्केटिंग कर खुद को जिन्दा रखा है। जे पी दत्ता की बोर्डर और रिफ्यूजी में अनु ज्यादा मुखर है जो उस दौर के संगीत से प्रेरित होने के बावजूद भी अपनी एक छाप लिए था। जे पी दत्ता ने नई फिल्म बनाने की घोषणा की है और शायद अनु मलिक का कुछ और बेहतर काम सुनने को मिले।