अन्धेरे के विरुद्ध रोशनी के चन्द क़तरे / सुरेन्द्र स्निग्ध

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नए संदर्भ में बाजारवाद वैश्वीकरण का ही बदला हुआ रूप है। वैश्वीकरण की अवधारणा वैश्विक परिदृश्य में समाजवादी व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के रूप में आक्रामक हुई। बाजारवाद मुनाफा कमाने का प्रक्षेत्र हुआ करता है, जिसमें तमाम धूर्तताएँ, छल-छद्म इत्यादि अमानवीय सरोकारों के साथ मनुष्य के शोषण पर आधारित है। विकासशील और अविकसित या अर्धविकसित देशों पर अमेरिकी प्रभुत्ववाद की पकड़ का नाम बाज़ारवाद है। भारतीय संदर्भ में 1980 ई० में ही तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की पूँजी को भारतीय विकास की गतिशीलता के लिए आवश्यक माना और भारतीय बाजार का दरवाज़ा और सारी खिड़कियाँ इनके लिए खोल दिए गए। जो दुष्परिणाम सामने हैं वह सर्वविदित है कि इस विदेशी पूंजी की आँधी में देशी पूंजी धराशाई हो गई और यहाँ की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों पर अमेरिकी प्रभुत्ववाद हावी हो गया।

इस बाजारवाद ने पूरी व्यवस्था को बदल दिया है और हमारे सामने कई तरह के नए संकट खड़े कर दिए। स्वाभाविक है कि भाषा और साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और कई तरह के नए संकट यहाँ भी पैदा हुए। भारतीय सामाजिक जीवन में जिस तरह के सांस्कृतिक बदलाव आए हैं, उस तरह के बदलाव का साहित्य और संस्कृति के अन्य रूपों में आना एकदम स्वाभाविक है। इस बाजारवाद ने हिन्दी भाषा के जातीय स्वरूप के सामने गहरा संकट पैदा किया है। बाजार हमेशा ही अपनी सुविधा और मुनाफे को ध्यान में रखकर भाषा में परिवर्त्तन करता है। यह कारोबारी भाषा किसी भी तरह की क्लासिकी या भाषा के जातीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करती। अखबारों, इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों, विज्ञापनों की भाषा, सीरियल्स के संवादों की भाषा, साइबर और मोबाइलों की भाषा एकदम बदली हुई और विजातीय हो गई है। साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और आज के रचनाकार इस संकट से जूझ रहे हैं और अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा के नए रूप की तलाश कर रहे हैं।

मौजूदा दौर की हिन्दी कहानियाँ, हिन्दी उपन्यास और हिन्दी कविताओं पर एक नजर दौड़ाने की जरूरत है। नए कथाकार अपनी कथा-भाषा में नक़ली चमक-दमक पैदा कर रहे हैं जो चमक-दमक बाज़ार के औसत प्रॉडक्ट के रैपरों पर होती है। एक सिरे से इन कहानियों में से संवेदना और विचार विलुप्त नज़र आ रहे हैं। याद कीजिए, रैंप पर कैटवॉक करती हुई मॉडल्स के कपड़े या विचारविहीन फिल्मों में आइटम सांग पर डांस करते अभिनेत्रियों की देह पर कपड़े। ये कपड़े-चमक-दमक वाले कपड़े-शरीर के अंगों को छिपाने के लिए नहीं बल्कि उसे और भी उत्तेजक ढंग से दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने के लिए होते हैं। आज के युवा कथाकारों की भाषा ऐसी ही है। यह अपराध, सैक्स की विकृतियों और नृशंसताओं को ग्लैमराइज करती सी लगती है। हिन्दी उपन्यासों में ये प्रवृतियाँ इधर दिखाई पड़ने लगी हैं। कविताओं में तो यह और भी अधिक हैं।

इस बाजारवाद के चलते ही अन्य कला रूपों जैसे संगीत, नृत्य, पेंटिंग और नाटकों में विकृतियाँ आई हैं। संगीत के क्षेत्र में फ्यूजन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पेंटिंग में अमूर्तन और चटक रंगों का प्रयोग शारीरिक अवयवों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने वाली आकृतियाँ इस बाजारवाद के प्रभाव के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। ऐसा नहीं है कि यह प्रभाव सिर्फ हिन्दी साहित्य पर पड़ा है, अंग्रेजी में शोभा डे, खुशवंत सिंह, चेतन भगत और कई ऐसे नाम हैं जो चमकीले प्रॉडक्ट की तरह से सस्ता मनोरंजन करने के लिए लिखते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अरविंद अडिग, सिद्धार्थ चौधरी जैसे युवा रचनाकार भी हैं जो इस बाजारवाद के कारण पूँजी के दौर में शामिल पात्रों की मनोरंजक और विश्वसनीय तस्वीर पेश कर रहे हैं। हिन्दी के सुरेन्द्र वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, कवियों में अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल और भी कई राग-भोपाली वाले कवि इस बाजार रूपी माल को दबाकर भाववादी और विचारहीन रचनाओं को परोस रहे हैं। प्रकारांतर से ऐसे रचनाकार अमेरिकी पूंजीवाद या यूँ कहें कि इस बाजार के समर्थन में खड़े हैं। इनकी रचनाओं में जन और जनसंघर्ष दोनों की अनुपस्थित हैं। जनसंघर्ष हमेशा ही पूंजीवाद के विरोध में विकसित होता है। संतोष की बात है कि मुट्ठी भर रचनाकार ही सही इस बाजारवाद के खिलाफ जनता के साथ एकजुट होने की संवेदना को अपनी रचनाओं में बचाए हुए हैं।

वास्ततिकता तो यह है कि उपभोक्तावादी प्रवृति बाजारवाद ही पैदा करती है। बाज़ारवाद जब आपके घर में बाजार घुसा हुआ हो और आपके जीवन के लिए उपयोगी सामग्री के चयन के लिए भी आपके पास अवसर नहीं हों, आपके पास जब कोई स्वतंत्र विकल्प न रह जाए तो आप क्या करेंगे? यह एक ऐसा संकट है जिससे सामान्य आदमी मुक्त नहीं हो पा रहा है तो साहित्य के पास फिर क्या उपाय रह जाता है इससे मुक्ति का? पिछले दिनों ऐसा देखा गया है कि तमाम राजनीतिक विकल्प की बात करने वाले रचनाकार सत्ता के गलियारे में चक्कर लगाते से दिखाई पड़ते रहे। यह सत्ता अंततः और पूर्णतः जनता और जनतंत्र के विरोध पर टिकी हुई है।

पिछले दिनों एक प्रदेश के आदिवासी जब अपने जल, जंगल और जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्हें माओवादी, नक्सलवादी और राष्ट्रद्रोही साबित करने में यह व्यवस्था लगी हुई थी और लगी हुई है। एक ओर हजारों आदिवासी पुलिस की गोलियों के शिकार हो रहे थे, वहीं व्यवस्था के बड़े पुलिस कप्तान, संयोग से जो बड़े (?) कवि भी हैं और आदिवासियों के सफाए की ग्रीनहंट जैसी परिकल्पना जिनकी मानसिक उपज थी, वे हिन्दी पट्टी के सभी महत्वपूर्ण और प्रगतिशील कवियों को राजधानी में बुलवाकर गोष्ठियाँ करवा रहे थे। निर्लज्जतापूर्वक अपने को प्रगतिशील, क्रांतिकारी और जनवादी कहने वाले कवि इसमें शामिल भी हो रहे थे। यह तो है आज के रचनाकारों का मूल्य। फिर साहित्य के मूल्य की बात अलग से करना निरर्थक जैसा लग रहा है।

जैसा निवेदन किया जा चुका है मूल्यों के इन संकटों के बीच भी जनता ने और जनपक्षधर लेखकों ने अब भी संघर्ष के त्तत्व बचा रखे हैं। साहित्य को ये सारी प्रवृत्तियाँ प्रभावित करती हैं। आदिवासियों के जीवन पर लिखे गए कुछ उपन्यास इन्हीं बातों की ओर अंगित करते हैं। अरुंधति राय हिन्दी की लेखिका महुआ माजी या रणेन्द्र द्वारा लिखित ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ ऐसी आशाओं की छोटी- छोटी लड़ियाँ हैं। बाजारवाद सस्ता मनोरंजन परोसता है उपभोक्ताओं के सामने। सस्ता मनोरंजन वैज्ञानिक विचारधारा को बाधित करता है।

विचारधारा का अर्थ है शोषण पर आधारित व्यवस्था को बदलने की संकल्पना। इस निष्पत्ति के साथ आज हिन्दी साहित्य, इसके पाठक और पाठकीयता के द्वन्द्व से मुक्त हो सकता है। जब अंधकार अत्यंत घना और सांद्र होता जाए तो चिराग जलाने की जरूरत महसूस की जानी चाहिए।