अन्न-दाता / कृश्न चन्दर

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(1) वो आदमी जिसके ज़मीर में काँटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)

8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला।

जनाब-ए-वाला।

कलकत्ता, हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा शहर है। हावड़ा पुल हिन्दोस्तान का सबसे अ’जीब-ओ-ग़रीब पुल है। बंगाली क़ौम हिन्दोस्तान की सबसे ज़हीन क़ौम है। कलकत्ता यूनीवर्सिटी हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी यूनीवर्सिटी है। कलकत्ता का सोनागाछी हिन्दोस्तान में तवाइफ़ों का सबसे बड़ा बाज़ार है। कलकत्ता का सुन्दर वन चीतों की सबसे बड़ी शिकारगाह है। कलकत्ता जूट का सबसे बड़ा मर्कज़ है। कलकत्ता की सबसे बढ़िया मिठाई का नाम ‘रशोगुल्ला’ है। कहते हैं एक तवाइफ़ ने ईजाद किया था। लेकिन शोमई क़िस्मत से वो उसे पेटैण्ट न करा सकी, क्योंकि उन दिनों हिन्दुस्तान में कोई ऐसा क़ानून मौजूद न था। इसीलिए वो तवाइफ़ अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी अय्याम में भीक माँगते मरी। एक अलग पार्सल में हुज़ूर पुरनूर की ज़याफ़त तबा के लिए दो सौ ‘रोशो गुल्ले’ भेज रहा हूँ। अगर उन्हें क़ीमे के साथ खाया जाए तो बहुत मज़ा देते हैं। मैंने ख़ुद तजुर्बा किया है।

मैं हूँ जनाब का अदना तरीन ख़ादिम

एफ़.बी.पटाख़ा

कौंसिल ममलकत साण्डोघास बराए कलकत्ता


9 अगस्त क्लाइव स्ट्रीट

जनाब-ए-वाला।

हुज़ूर पुरनूर की मँझली बेटी ने मुझसे सपेरे की बीन की फ़रमाइश की थी। आज शाम बाज़ार में मुझे एक सपेरा मिल गया। पच्चीस डालर देकर मैंने एक ख़ूबसूरत बीन ख़रीद ली है। ये बीन इस्फ़ंज की तरह हल्की और सुबुक इंदाम है। ये एक हिन्दुस्तानी फल से जिसे ‘लौकी’ कहते हैं, तैयार की जाती है। ये बीन बिल्कुल हाथ की बनी हुई है और इसे तैयार करते वक़्त किसी मशीन से काम नहीं लिया गया।

मैंने इस बीन पर पालिश कराया और उसे सागवान के एक ख़ुशनुमा बक्स में बन्द करके हुज़ूर पुर-नूर की मँझली बेटी एडिथ के लिए बतौर तोहफ़ा इरसाल कर रहा हूँ।

मैं हूँ जनाब का ख़ादिम

एफ़.बी. पटाख़ा


10 अगस्त

कलकत्ता में हमारे मुल्क की तरह राशनिंग नहीं है। ग़िज़ा के मुआ’मले में हर शख़्स को मुकम्मल शख़्सी आज़ादी है। वो बाज़ार से जितना अनाज चाहे ख़रीद ले कल ममलिकत टली के कौंसिल ने मुझे खाने पर मदऊ’ किया। छब्बीस क़िस्म के गोश्त के सालन थे। सब्ज़ियों और मीठी चीज़ों के दो दर्जन कोर्स तैयार किये गये थे। (निहायत उम्दा शराब थी) हमारे हाँ जैसा कि हुज़ूर अच्छी तरह जानते हैं प्याज़ तक की राशनिंग है. इस लिहाज़ से कलकत्ता के बाशिंदे बड़े ख़ुश-क़िस्मत हैं। खाने पर एक हिन्दुस्तानी इंजिनियर भी मदऊ’ थे। ये इंजिनियर हमारे मुल्क का ता’लीम याफ़ता है। बातों-बातों में उसने ज़िक्र किया कि कलकत्ता में क़हत पड़ा हुआ है। इस पर टली का कौंसिल क़हक़हा मार कर हँसने लगा और मुझे भी उस हंसी में शरीक होना पड़ा। दरअसल ये पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी भी बड़े जाहिल होते हैं। किताबी इल्म से क़त-ए-नज़र उन्हें अपने मुल्क की सही हालत का कोई अंदाज़ा नहीं।

हिन्दोस्तान की दो तिहाई आबादी दिन रात ग़ल्ला और बच्चे पैदा करने में मसरूफ़ रहती है। इसलिए यहां पर ग़ल्ले और बच्चों की कमी कभी नहीं होने पाती, बल्कि जंग से पेशतर तो बहुत सा ग़ल्ला दिसावर को जाता था और बच्चे क़ुली बना कर जुनूबी अफ़्रीक़ा भेज दिये जाते थे। अब एक अ’र्से से क़ुलियों का बाहर भेजना बंद कर दिया गया है और हिन्दुस्तानी सूबों को ‘होम रूल’ दे दिया गया है। मुझे ये हिन्दुस्तानी इंजिनियर तो कोई एजिटेटर क़िस्म का ख़तरनाक आदमी मा’लूम होता था। उसके चले जाने के बाद मैंने मोसीसियो झ़ां झां त्रेप टली के कौंसिल से उसका तज़्किरा छेड़ा तो मोसियो झ़ां झां त्रेप टली ने बड़े ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बाद ये राय दी कि हिन्दुस्तानी अपने मुल्क पर हुकूमत की क़तअन अहलियत नहीं रखता। चूँकि मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक ख़ास मर्तबा हासिल है। इसलिए मैं उनकी राय वक़ीअ’ समझता हूँ।

मैं हूँ जनाब का ख़ादिम

एफ़.बी.पी.


11 अगस्त

आज सुबह बोलपोर से वापस आया हूँ। वहां डाक्टर टैगोर का शांति निकेतन देखा। कहने को तो ये एक यूनीवर्सिटी है। लेकिन पढ़ाई का ये आलम है कि तालिब इल्मों को बैठने के लिए एक बेंच नहीं। उस्ताद और तालिब-इल्म सब ही दरख़्तों के नीचे आलती-पालती मारे बैठे रहते हैं और ख़ुदा जाने कुछ पढ़ते भी हैं या यूँही ऊँघते हैं। मैं वहां से बहुत जल्द आया क्योंकि धूप बहुत तेज़ थी और ऊपर दरख़्तों की शाख़ों पर चिड़ियां शोर मचा रही थीं।

फ़.ब.प.


12 अगस्त

आज चीनी कौंसिल के हाँ लंच पर फिर किसी ने कहा कि कलकत्ता में सख़्त क़हत पड़ा हुआ है। लेकिन वसूक़ से कुछ न कह सका कि असल माजरा किया है। हम सब लोग हुकूमत बंगाल के ऐ’लान का इंतिज़ार कर रहे हैं। ऐ’लान के जारी होते ही हुज़ूर को मज़ीद हालात से मुत्तला करूँगा। बैग में हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी एडिथ के लिए एक जूती भी इर्साल कर रहा हूँ। ये जूती सब्ज़-रंग के साँप की जिल्द से बनाई गई है। सब्ज़-रंग के साँप बर्मा में बहुत होते हैं, उम्मीद है कि जब बर्मा दुबारा हुकूमत इंग्लिशिया की अ’मलदारी में आ जाएगा तो उन जूतों की तिजारत को बहुत फ़रोग़ हासिल हो सकेगा।

मैं हूँ जनाब का वग़ैरा वग़ैरा

एफ़.बी.पी.


13 अगस्त

आज हमारे सिफ़ारत ख़ाने के बाहर दो औरतों की लाशें पाई गई हैं। हड्डियों का ढांचा मा’लूम होती थीं। शायद ‘सुखिया’ की बीमारी में मुब्तला थीं इधर बंगाल में और ग़ालिबन सारे हिन्दोस्तान में सुखिया की बीमारी फैली हुई है। इस आ’रिज़े में इन्सान घुलता जाता है और आख़िर में सूख कर हड्डियों का ढांचा हो कर मर जाता है। ये बड़ी ख़ौफ़नाक बीमारी है लेकिन अभी तक इसका कोई शाफ़ी ईलाज दरियाफ्त नहीं हुआ। कुनैन कसरत से मुफ़्त तक़सीम की जा रही है। लेकिन कुनैन मैग्नीशिया या किसी और मग़रिबी दवा से इस आ’रिज़े की शिद्दत में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दरअसल एशियाई बीमारियों को नौईयत मग़रिबी अमराज़ से मुख़्तलिफ़ है। बहुत मुख़्तलिफ़ है, ये इख्तिलाफ़ इस मफ़रुज़े का बदीही सबूत है कि एशियाई और मग़रिबी दो मुख़्तलिफ़ इन्सान हैं।

हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के बासठवीं जन्म-दिन की ख़ुशी में बुध का एक मरमर का बुत इर्साल कर रहा हूँ। इसे मैंने पांसो डालर में ख़रीदा है। ये महाराजा बन्धूसार के ज़माने का है और मुक़द्दस राहिब ख़ाने की ज़ीनत था। हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के मुलाक़ातियों के कमरे में ख़ूब सजेगा।

मुकर्रर अ’र्ज़ है कि सिफ़ारत ख़ाने के बाहर पड़ी हुई लाशों में एक बच्चा भी था जो अपनी मुर्दा माँ से दूध चूसने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मैंने उसे हस्पताल भिजवा दिया है।

हुज़ूर पुरनूर का ग़ुलाम

एफ़.बी.पी


14 अगस्त

डाक्टर ने बच्चे को हस्पताल में दाख़िल करने से इनकार कर दिया है। बच्चा अभी सिफ़ारत ख़ाना में है। समझ में नहीं आता क्या करूँ। हुज़ूर पुरनूर की हिदायत का इंतिज़ार है। टली के कौंसिल ने मश्वरा दिया है कि इस बच्चे को जहां से पाया था, वहीं छोड़ दूं। लेकिन मैंने ये मुनासिब न समझा कि अपने हुकूमत के सदर से मश्वरा किए बग़ैर कोई ऐसा इक़दामकरूँ जिसके सियासी नताइज भी न जाने कितने मोहलिक साबित हों।

एफ़.बी.पी


16 अगस्त

आज सिफ़ारत ख़ाने के बाहर फिर लाशें पाई गईं। ये सब लोग उसी बीमारी का शिकार मालूम होते थे जिसका मैं अपने गुज़िश्ता मकतूबात में ज़िक्र कर चुका हूँ। मैंने बच्चे को इन्ही लाशों में चुपके से रख दिया है और पुलिस को टेलीफ़ोन कर दिया है कि वो उन्हें स्फार ख़ाने की सीढ़ियों से उठाने का बंदोबस्त करे। उम्मीद है आज शाम तक सब लाशें उठ जाएँगी।

एफ़.बी.पी


17 अगस्त

कलकत्ता के अंग्रेज़ी अख़बार ‘स्टेट्समैन’ ने अपने इफ़्तिताहिया में आज इस अमर का ऐलान किया है कि कलकत्ता में सख़्त क़हत फैला हुआ है। ये अख़बार चंद रोज़ से क़हत ज़दगान की तसावीर भी शाये कर रहा है। अभी तक वसूक़ से नहीं कहा जा सकता कि ये फ़ोटो असली हैं या नक़ली। बज़ाहिर तो ये फ़ोटो सुखिया की बीमारी के प्राणियों के मा’लूम होते हैं। लेकिन तमाम ग़ैर मुल्की कौंसिल अपनी राय ‘महफ़ूज़’ रख रहे हैं।

एफ़.बी.पी


20 अगस्त

सुखिया की बीमारी के मरीज़ों को अब हस्पताल में दाख़िल करने की इजाज़त मिल गई है। कहा जाता है कि सिर्फ़ कलकत्ता में रोज़ दो ढाई सौ आदमी इस बीमारी का शिकार हो जाते हैं। और अब ये बीमारी एक वबा की सूरत इख़्तियार कर गई है। डाक्टर लोग बहुत परेशान हैं क्योंकि कुनैन खिलाने से कोई फ़ायदा नहीं होता। मर्ज़ में किसी तरह की कमी नहीं होती। हाज़मे का मिक्सचर मैग्नीशिया मिक्सचर और टिंक्चर आयोडीन पूरा ब्रिटिश फार्माकोपिया बेकार है। चंद मरीज़ों का ख़ून लेकर मग़रिबी साईंसदानों के पास बग़रज़ तहक़ीक़ भेजा जा रहा है और ऐन-मुमकिन है कि किसी ग़ैरमा’मूली मग़रिबी एक्सपर्ट की ख़िदमात भी हासिल की जायें या एक रॉयल कमीशन बिठा दिया जाये जो चार पाँच साल में अच्छी तरह छानबीन कर के इस अमर के मुता’ल्लिक़ अपनी रिपोर्ट हुकूमत को पेश करे । अल-ग़रज़ उन ग़रीब मरीज़ों को बचाने के लिए हर मुम्किन कोशिश की जा रही है। शद-ओ-मद के साथ ऐलान किया गया है कि सारे बंगाल में क़हत का दौर-दौरा है और हज़ारों आदमी हर हफ़्ते ग़िज़ा की कमी की वजह से मर जाते हैं। लेकिन हमारी नौकरानी (जो ख़ुद बंगालन है) का ख़्याल है कि ये अख़बारची झूट बोलते हैं। जब वो बाज़ार में चीज़ें ख़रीदने जाती है तो उसे हर चीज़ मिल जाती है। दाम बे-शक बढ़ गये हैं। लेकिन ये महंगाई तो जंग की वजह से नागुज़ीर है।

एफ़.बी.पी.


25 अगस्त

आज सियासी हलक़ों ने क़हत की तर्दीद कर दी है। बंगाल असैंबली ने जिसमें हिन्दुस्तानी मेम्बरों और वुज़रा की कसरत है। आज ऐलान कर दिया है कि कलकत्ता और बंगाल का इलाक़ा ‘क़हतज़दा इलाक़ा’ क़रार नहीं दिया जा सकता। इसका ये मतलब भी है कि बंगाल में फ़िलहाल राशनिंग न होगा। ये ख़बर सुनकर ग़ैर मुल्की कौंसिलों के दिल में इत्मिनान की एक लहर दौड़ गई। अगर बंगाल क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया जाता तो ज़रूर राशनिंग का फ़िल-फ़ौर नफ़ाज़ न होता और मेरा मतलब है कि अगर राशनिंग का नफ़ाज़ होता तो उसका असर हम लोगों पर भी पड़ता। मोसियोसी ग़ल जो फ़्रैंच कौंसिल में कल ही मुझसे कह रहे थे कि ऐन-मुमकिन है कि राशनिंग हो जाये। इसलिए तुम अभी से शराब का बंदोबस्त कर लो। मैं चन्दर नगर से फ़्रांसीसी शराब मंगवाने का इरादा कर रहा हूँ। सुना है कि चन्दर नगर में कई सौ साल पुरानी शराब भी दस्तयाब होती है। बल्कि अक्सर शराबें तो इन्क़िलाब-ए-फ़्रांस से भी पहले की हैं। अगर हुज़ूर पुरनूर मुत्तला फ़रमाएं तो चंद बोतलें चखने के लिए भेज दूं।

फ.ब.प


28 अगस्त

कल एक अ’जीब वाक़िया पेश आया। मैंने न्यूमार्केट से अपनी सबसे छोटी बहन के लिए चंद खिलौने ख़रीदे। उनमें एक फ़ेनी की गुड़िया बहुत ही हसीन थी और मारिया को बहुत पसंद थी। मैंने डेढ़ डॉलर देकर वो गुड़िया भी ख़रीद ली और मारिया को उंगली से लगाए बाहर आगया। कार में बैठने को था कि एक अधेड़ उम्र की बंगाली औरत ने मेरा कोट पकड़ कर मुझे बंगाली ज़बान में कुछ कहा।

मैंने उससे अपना दामन छुड़ा लिया और कार में बैठ कर अपने बंगाली शोफ़र से पूछा, “ये क्या चाहती है?”

ड्राईवर बंगाली औरत से बात करने लगा। उस औरत ने जवाब देते हुए अपनी लड़की की तरफ़ इशारा किया जिसे वो अपने शाने से लगाए खड़ी थी। बड़ी-बड़ी मोटी आँखों वाली ज़र्द-ज़र्द बच्ची बिल्कुल चीनी की गुड़िया मा’लूम होती थी और मारिया की तरफ़ घूर घूर कर देख रही थी।

फिर बंगाली औरत ने तेज़ी से कुछ कहा। बंगाली ड्राईवर ने उसी सुरअ’त से जवाब दिया।

“क्या कहती है ये?” मैंने पूछा।

ड्राईवर ने उस औरत की हथेली पर चंद सिक्के रखे और कार आगे बढ़ाई। कार चलाते-चलाते बोला,

“हुज़ूर ये अपनी बच्ची को बेचना चाहती थी, डेढ़ रुपये में।”

“डेढ़ रुपये में, या’नी निस्फ़ डॉलर में?” मैंने हैरान हो कर पूछा।

“अरे निस्फ़ डॉलर में तो चीनी की गुड़िया भी नहीं आती?”

“आजकल निस्फ़ डॉलर में बल्कि इससे भी कम क़ीमत पर एक बंगाली बच्ची मिल सकती है...!”

मैं हैरत से अपने ड्राईवर को तकता रह गया।

उस वक़्त मुझे अपने वतन की तारीख़ का वो बाब याद आया। जब हमारे आबा-ओ-अजदाद अफ़्रीक़ा से हब्शियों को ज़बरदस्ती जहाज़ में लाद कर अपने मुल्क में ले आते थे और मंडियों में ग़ुलामों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करते थे। उन दिनों एक मा’मूली से मा’मूली हब्शी भी पच्चीस-तीस डालर से कम में न बिकता था। ओफ़्फ़ो, किस क़दर ग़लती हुई। हमारे बुज़ुर्ग अगर अफ़्रीक़ा के बजाय हिन्दुस्तान का रुख करते तो बहुत सस्ते दामों ग़ुलाम हासिल कर सकते थे। हब्शियों के बजाय अगर वो हिंदुस्तानियों की तिजारत करते तो लाखों डॉलर की बचत हो जाती। एक हिन्दुस्तानी लड़की सिर्फ़ निस्फ़ डॉलर में! और हिन्दोस्तान की भी आबादी चालीस करोड़ है। गोया बीस करोड़ डॉलर में हम पूरे हिन्दुस्तान की आबादी को ख़रीद सकते थे। ज़रा ख़्याल तो फ़रमाईए कि बीस करोड़ डॉलर होते ही कितने हैं। इससे ज़्यादा रक़म तो हमारे वतन में एक यूनीवर्सिटी क़ायम करने में सर्फ़ हो जाती है।

अगर हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को ये पसंद हो तो मैं एक दर्जन बंगाली लड़कियां ख़रीद कर बज़रीया हवाई जहाज़ पार्सल कर दूं! तब शोफ़र ने बताया कि आजकल ‘सोना गाची’ जहां कलकत्ता की तवाइफ़ें रहती हैं। इस क़िस्म की बुरदाफ़रोशी का अड्डा है। सैकड़ों की तादाद में लड़कियां शब-ओ-रोज़ फ़रोख़्त की जा रही हैं।

लड़कियों के वालदैन फ़रोख़्त करते हैं और रंडियां खरीदती हैं। आम नर्ख़ सवा रुपया है। लेकिन अगर बच्ची क़बूलसूरत हो तो चार पाँच बल्कि दस रुपये भी मिल जाते हैं। चावल आजकल बाज़ार में साठ सत्तर रुपये फ़ी मन मिलता है। इस हिसाब से अगर एक कुन्बा अपनी दो बच्चियां भी फ़रोख़्त कर दे तो कम अज़ कम आठ दस दिन और ज़िंदगी का धंदा किया जा सकता है और औसतन बंगाली कुन्बे में लड़कियों की तादाद दो से ज़्यादा होती है।

कल मेयर आफ़ कलकत्ता ने शाम के खाने पर मदऊ’ किया है। वहां यक़ीनन बहुत ही दिलचस्प बातें सुनने में आयेंगी ।

फ. ब.प


29 अगस्त

मेयर आफ़ कलकत्ता का ख़्याल है कि बंगाल में शदीद क़हत है और हालत बेहद ख़तरनाकहै। उसने मुझसे अपील की कि मैं अपनी हुकूमत को बंगाल की मदद के लिए आमादा करूँ। मैंने उसे अपनी हुकूमत की हमदर्दी का यक़ीन दिलाया। लेकिन ये अमर भी इस पर वाज़िह कर दिया कि ये क़हत हिन्दोस्तान का अंदरूनी मसला है और हमारी हुकूमत किसी दूसरी क़ौम के मुआ’मलात में दख़ल देना नहीं चाहती। हम सच्चे जमहूरीयत पसंद हैं और कोई सच्चा जमहूरीया आपकी आज़ादी को सल्ब करना नहीं चाहता। हर हिन्दुस्तानी को जीने या मरने का इख़्तियार है। ये एक शख़्सी या ज़्यादा से ज़्यादा एक क़ौमी मसला है और इस की नौईयत बैन-उल-अक़वामी नहीं। इस मौक़ा पर मोसियो झ़ां झां त्रेप भी बहस में शामिल हो गये और कहने लगे।

जब आपकी असैंबली ने बंगाल को क़हतज़दा इलाक़ा FAMINE AREA ही नहीं क़रार दिया तो इस सूरत में आप दूसरी हुकूमतों से मदद क्योंकर तलब कर सकते हैं। इस पर मेयर आफ़ कलकत्ता ख़ामोश हो गये और रस गुल्ले खाने लगे।

फ.ब.प


30 अगस्त

मिस्टर एमरी ने जो बर्तानवी वज़ीर हिंद हैं। हाऊस आफ़ कॉमन्ज़ में एक बयान देते हुए फ़रमाया कि हिन्दुस्तान में आबादी का तनासुब ग़िज़ाई ए’तबार से हौसलाशिकन है। हिन्दुस्तान की आबादी में डेढ़ सौ गुना इज़ाफ़ा हुआ है। दर हाल ये कि ज़मीनी पैदावार बहुत कम बढ़ी है। इस पर तुर्रा ये कि हिन्दुस्तानी बहुत खाते हैं।

ये तो हुज़ूर मैंने भी आज़माया है कि हिन्दुस्तानी लोग दिन में दोबार बल्कि अक्सर हालतों में सिर्फ़ एक-बार खाना खाते हैं। लेकिन इस क़दर खाते हैं कि हम मग़रिबी लोग दिन में पाँच बार भी इस क़दर नहीं खा सकते। मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में शरह अमवात के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यहां के लोगों का पेटू पन है। ये लोग इतना खाते हैं कि अक्सर हालतों में तो पेट फट जाता है और वो जहन्नुम वासिल हो जाते हैं। चुनांचे मिसल मशहूर है कि हिन्दुस्तानी कभी मुँहफट नहीं होता लेकिन पेट फट ज़रूर होता है बल्कि अक्सर हालतों में तली फट भी पाया। नीज़ ये अमर भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि हिंदुस्तानियों और चूहों की शरह पैदाइश दुनिया में सबसे ज़्यादा है और अक्सर हालतों में इन दोनों में इम्तियाज़ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। वो जितनी जल्दी पैदा होते हैं उतनी जल्दी मर जाते हैं। अगर चूहों को प्लेग होती है तो हिंदुस्तानियों को सुखिया बल्कि उ’मूमन प्लेग और सुखिया दोनों लाहक़ हो जाती हैं। बहर हाल जब तक चूहे अपने बिल में रहें और दुनिया को परेशान न करें, हमें उनके निजी मुआ’मलात में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं।

ग़िज़ाई महकमे के मैंबर हालात की जांच पड़ताल के लिए तशरीफ़ लाये हैं। बंगाली हलक़ों में ये उम्मीद ज़ाहिर की जा रही है कि ऑनरेबेल मैंबर पर अब ये वाज़ह हो जाएगा कि बंगाल में वाक़ई क़हत है और शरह अमवात के बढ़ने का सबब बंगालियों कि अनारकिस्टाना हरकात नहीं बल्कि ग़िज़ाई बोहरान है।

फ.ब.प


20 सितंबर

ऑनरेबल मैंबर तहक़ीक़ात के बाद वापस चले गये हैं। सुना है, वहां हुज़ूर वायसराय बहादुर से मुलाक़ात करेंगे और अपनी तजावीज़ उनके सामने रखेंगे।


25 सितंबर

लंदन के अंग्रेज़ी अख़बारों की इत्तिला के मुताबिक़ हर-रोज़ कलकत्ता की गलियों और सड़कों, फ़ुटपाथों पर लोग मर जाते हैं। बहरहाल ये सब अख़बारी इत्तिलाएं हैं। सरकारी तौर पर इस बात का कोई सबूत नहीं कि बंगाल में क़हत है। सब परेशान हैं। चीनी कौंसिल कल मुझसे कह रहा था कि वो बंगाल के फ़ाक़ा कशों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोलना चाहता है। लेकिन उसकी समझ में नहीं आता कि वो क्या करे और क्या न करे। कोई कहता है कि क़हत है कोई कहता है क़हत नहीं है। मैंने उसे समझाया, बेवक़ूफ़ न बनो। इस वक़्त तक हमारे पास मुसद्दिक़ा इत्तिला यही है कि ग़िज़ाई बोहरान इसलिए है कि हिन्दुस्तानी बहुत ज़्यादा खाते हैं। अब तुम उन लोगों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोल कर गोया उनके पेटूपन को और शह दोगे। ये हिमाक़त नहीं तो और क्या है। लेकिन चीनी कौंसिल मेरी तशरीहात से ग़ैर मुतमइन मा’लूम होता था।

फ.ब.प


28 सितंबर

दिल्ली में ग़िज़ाई मसले पर ग़ौर करने के लिए एक कान्फ़्रैंस बुलाई जा रही है। आज फिर यहां कई सौ लोग सुखिया से मर गये। ये भी ख़बर आई है कि मुख़्तलिफ़ सुबाई हुकूमतों ने रिआ’या में अनाज तक़सीम करने की जो स्कीम बनाई है। उससे इन्होंने कई लाख रुपये का मुनाफ़ा हासिल किया है। इस में बंगाल की हुकूमत भी शामिल है।

फ.ब.प


20 अक्तूबर

कल ग्रांड होटल में ‘यौम-ए-बंगाल’ मनाया गया। कलकत्ता के यूरोपियन उमरा-ओ- शुरफ़ा के इ’लावा हुक्काम आला, शहर के बड़े सेठ और महाराजे भी इस दिलचस्प तफ़रीह में शरीक थे। डांस का इंतिज़ाम खासतौर पर अच्छा था। मैंने मिसिज़ ज्योलेट त्रेप के साथ दो मर्तबा डांस किया (मिसिज़ त्रेप के मुँह से लहसुन की बू आती थी। न जाने क्यों? मिसिज़ त्रेप से मा’लूम हुआ कि इस सहन माहताबी के मौक़ा पर यौम-ए-बंगाल के सिलसिले में नौ लाख रुपया इकट्ठा हुआ है। मिसिज़ त्रेप बार-बार चांद की ख़ूबसूरत और रात की स्याह मुलाइमत का ज़िक्र कर रही थीं और उनके मुँह से लहसुन के भपारे उठ रहे थे। जब मुझे उनके साथ दुबारा डांस करना पड़ा तो मेरा जी चाहता था कि उनके मुँह पर लाईसोल या फ़ीनाइल छिड़क कर डांस करूँ। लेकिन फिर ख़्याल आया कि मिसिज़ ज्योलेट त्रेप मोसियो झां झां त्रेप की बावक़ार बीवी हैं और मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक क़ाबिल-ए-रश्क मर्तबा हासिल है।

हिन्दुस्तानी ख़वातीन में मिस स्नेह से तआ’रुफ़ हुआ। बड़ी क़बूलसूरत है और बेहद अच्छा नाचती है।

फ.ब.प


26 अक्तूबर

मिस्टर मुंशी हुकूमत बंबई के एक साबिक़ वज़ीर का अंदाज़ा है कि बंगाली में हर हफ़्ते क़रीबन एक लाख अफ़राद क़हत का शिकार हो रहे हैं। लेकिन ये सरकारी इत्तिला नहीं है। कौंसिल ख़ाने के बाहर आज फिर चंद लाशें पाई गईं। शोफ़र ने बताया कि ये एक पूरा ख़ानदान था जो देहात से रोटी की तलाश में कलकत्ता आया था। परसों भी इसी तरह मैंने एक मुग़न्नी की लाश देखी थी। एक हाथ में वो अपनी सितार पकड़े हुए था और दूसरे हाथ में लकड़ी का एक झुनझुना, समझ नहीं आया। इसका क्या मतलब था। बेचारे चूहे किस तरह चुप-चाप मर जाते हैं और ज़बान से उफ़ तक भी नहीं करते। मैंने हिंदुस्तानियों से ज़्यादा शरीफ़ चूहे दुनिया में और कहीं नहीं देखे। अगर अम्न पसंदी के लिए नोबल प्राइज़ किसी क़ौम को मिल सकता है तो वो हिन्दुस्तानी हैं। या’नी लाखों की तादाद में भूके मर जाते हैं लेकिन ज़बान पर एक कलमा-ए-शिकायत नहीं लाएँगे। सिर्फ़ बे-रूह, बे-नूर आँखों से आसमान की तरफ़ ताकते हैं। गोया कह रहे हों, अन्न-दाता, अन्न-दाता।! कल रात फिर मुझे उस मुग़न्नी की ख़ामोश शिकायत से मा’मूर, जामिद-ओ-साकित पथरीली बे-नूर सी निगाहें परेशान करती रहीं।

फ.ब.प


5 नवंबर

नए हुज़ूर वायसराय बहादुर तशरीफ़ लाये हैं। सुना है कि उन्होंने फ़ौज को क़हतज़दा लोगों की इमदाद पर मा’मूर किया है और जो लोग कलकत्ता के गली कुचों में मरने के आ’दी हो चुके हैं। उनके लिए बाहर मुज़ाफ़ात में मर्कज़ खोल दिये गये हैं। जहां उनकी आसाइश के लिए सब सामान बहम पहुंचाया जाएगा।

फ.ब.प


10 नवंबर

मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि ये ऐन-मुमकिन है कि बंगाल में वाक़ई क़हत हो और सुखिया बीमारी की इत्तिलाएं ग़लत हों। ग़ैर मुल्की कौंसिल ख़ानों में इस रिमार्क से हलचल मच गई है। ममलिकत गोबिया, लोबिया और मटरस्लोवकिया को कौंसिलों का ख़्याल है कि मोसियो झ़ां झां त्रेप का ये जुमला किसी आने वाली ख़ौफ़नाक जंग का पेश-ख़ेमा है। योरोपी और एशियाई मुल्कों से भागे हुए लोगों में आजकल हिन्दुस्तान में मुक़ीम हैं । वायसराय की स्कीम के मुता’ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ शुबहात पैदा हुए हैं। वो लोग सोच रहे हैं। अगर बंगाल वाक़ई क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया गया तो उनके अलाउंस का क्या बनेगा? वो लोग कहाँ जायेंगे? मैं हुज़ूर पुरनूर की तवज्जा उस सियासी उलझन की तरफ़ दिलाना चाहता हूँ, वायसराय बहादुर के ऐलान से पैदा हो गई है। मग़रिब के मुल्कों के रिफ्यूजियों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त के लिए क्या हमें सीना-सिपर हो कर न लड़ना चाहिए। मग़रिबी तहज़ीब कल्चर और तमद्दुन के क्या तक़ाज़े हैं। आज़ादी और जमहूरीयत को बरक़रार रखने के लिए हमें क्या क़दम उठाना चाहिए। मैं इस सिलसिले में हुज़ूर पुरनूर के अहकाम का मुंतज़िर हूँ।

फ.ब.प


25 नवंबर

मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत नहीं है। मोसियो फां फां फुंग चीनी कौंसिल का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत है। मैं शर्मिंदा हूँ कि हुज़ूर ने मुझे जिस काम के लिए कलकत्ता के कौंसिल ख़ाने में तयनात किया था वो काम मैं गुज़िश्ता तीन माह में भी पूरा न कर सका। मेरे पास इस अमर की एक भी मुसद्दिक़ा इत्तिला नहीं है कि बंगाल में क़हत है या नहीं है। तीन माह की मुसलसल काविश के बाद भी मुझे ये मा’लूम न हो सका कि सही डिप्लोमैटिक पोज़ीशन क्या है। मैं इस सवाल का जवाब देने से क़ासिर हूँ, शर्मिंदाहूँ। माफ़ी चाहता हूँ।

नीज़ अ’र्ज़ है कि हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को मुझसे और मुझे हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से इश्क़ है। इसलिए क्या ये बेहतर न होगा कि हुज़ूर पुरनूर मुझे कलकत्ता के सिफ़ारत ख़ाने से वापस बुला लें और मेरी शादी अपनी बेटी मतलब है... हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से कर दें और हुज़ूर पुरनूर मुझे किसी मुमताज़ सिफ़ारत ख़ाने में सफ़ीर-ए-आला का मर्तबा बख़्श दें? इस नवाज़िश के लिए मैं हुज़ूर पुरनूर का ता क़यामत शुक्रगुज़ार हूँगा।

एडिथ के लिए एक नीलम की अँगूठी इर्साल कर रहा हूँ। उसे महाराजा अशोक की बेटी पहना करती थी।

मैं हूँ जनाब का हक़ीर तरीन ख़ादिम

एफ़.बी.पटाखा

कौंसिल ममलिकत सांडोघास बराए कलकत्ता


(2)

वो आदमी जो मर चुका है

सुबह नाशते पर जब उसने अख़बार खोला तो उसने बंगाल के फ़ाक़ाकशों की तसावीर देखीं जो सड़कों पर, दरख़्तों के नीचे, गलियों में, खेतों में बाज़ारों में, घरों में हज़ारों की तादाद में मर रहे थे। आमलेट खातेखाते उसने सोचा कि इन ग़रीबों की इमदाद किस तरह मुम्किन है। ये ग़रीब जो नाउम्मीदी की मंज़िल से आगे जा चुके हैं और मौत की बोहरानी कैफ़ियत से हमकनार हैं। उन्हें ज़िंदगी की तरफ़ वापस लाना, ज़िंदगी की सऊ’बतों से दुबारा आश्ना करना, उनसे हमदर्दी नहीं दुश्मनी होगी।

उसने जल्दी में अख़बार का वर्क़ उल्टा और तोस पर मुरब्बा लगा कर खाने लगा तोस नर्म-गर्म और कुरकुरा था और मुरब्बे की मिठास और उसकी हल्की सी तुर्शी ने उसके ज़ायक़े को और भी निखार दिया था। जैसे ग़ाज़े का ग़ुबार औरत के हुस्न को निखार देता है। यकायक उसे स्नेह का ख़्याल आया। स्नेह अभी तक न आई थी। गो उसने वा’दा किया था कि वो सुबह के नाशते पर उसके साथ मौजूद होगी। सो रही होगी बेचारी अब क्या वक़्त होगा। उसने अपनी सोने की घड़ी से पूछा जो उसकी गोरी कलाई में जिस पर स्याह बालों की एक हल्की सी रेशमीं लाईन थी। एक स्याह रेशमी फीते से बंधी थी। घड़ी, क़मीज़ के बटन और टाई का पिन, यही तीन ज़ेवर मर्द पहन सकता है और औरतों को देखिए कि जिस्म को ज़ेवर से ढक लेती। कान के लिए ज़ेवर, पांव के लिए ज़ेवर, कमर के लिए ज़ेवर, नाक के लिए ज़ेवर, सर के लिए ज़ेवर, गले के लिए ज़ेवर, बाहोँ के लिए ज़ेवर और मर्द बेचारे के लिए सिर्फ़ तीन ज़ेवर बल्कि दो ही समझिए क्योंकि टाई का पिन अब फ़ैशन से बाहर होता जा रहा है। न जाने मर्दों को ज़्यादा ज़ेवर पहनने से क्यों मना किया गया है। यही सोचते-सोचते वो दलिया खाने लगा। दलिये से इलायची की महक उठ रही थी। उसके नथुने, उसके पाकीज़ा तअ’त्तुर से मुसफ्फ़ा हो गये और यकायक उसके नथनों में गुज़िश्ता रात के इत्र की ख़ुशबू ताज़ा हो गई। वो इत्र जो स्नेह ने अपनी साड़ी, अपने बालों में लगा रखा था। गुज़िश्ता रात का दिलफ़रेब रक़्स उसकी आँखों के आगे घूमता गया। ग्रांड होटल में नाच हमेशा अच्छा होता है। उसका और स्नेह का जोड़ा कितना अच्छा है। सारे हाल की निगाहें उन पर जमी हुई थीं। दोनों कानों में गोल गोल तिलाई आवेज़े पहने हुए थी जो उसकी लवों को छुपा रहे थे। होंटों पर जवानी का तबस्सुम और मैक्सफैक्टर की लाली का मो’जिज़ा और सीने के सुमन ज़ारों पर मोतियों की माला चमकती, दमकती, लचकती नागिन की तरह सौ बल खाती हुई। रम्बा नाच कोई स्नेह से सीखे, उसके जिस्म की रवानी और रेशमी बनारसी साड़ी का पुरशोर बहाव जैसे समुंदर की लहरें चाँदनी-रात में साहिल से अठखेलियाँ कर रही हों। लहर आगे आती है। साहिल को छू कर वापस चली जाती है। मद्धम सी सरसराहाट पैदा होती है और चली जाती है। शोर मद्धम हो जाता है। शोर क़रीब आ जाता है। आहिस्ता-आहिस्ता लहर चांदनी में नहाए हुए साहिल को चूम रही है।

स्नेह के लब नीम-वा थे जिनमें दाँतों की लड़ी सपेद मोतियों की माला की तरह लरज़ती नज़र आती थी... यकायक वहां की बिजली बुझ गई और वो स्नेह से होंट से होंट मिलाए, जिस्म से जिस्म लगाए आँखें बंद किए रक़्स के ताल पर नाचते रहे। उन सुरों की मद्धम सी रवानी, वो रसीला मीठा तमोन रवाँ-दवाँ, रवाँ-दवाँ मौत की सी पाकीज़गी। नींद और ख़ुमार और नशा जैसे जिस्म न हो, जैसे ज़िंदगी न हो, जैसे तू न हो, जैसे में न हूँ, सिर्फ़ एक बोसा हो। सिर्फ़ एक गीत हो। इक लहर हो। रवाँ-दवाँ, रवाँ-दवाँ... उसने सेब के क़त्ले किए और कांटे से उठा कर खाने लगा। प्याली में चाय उंडेलते हुए उसने सोचा स्नेह का जिस्म कितना ख़ूबसूरत है। उसकी रूह कितनी हसीन है। उसका दिमाग़ किस क़दर खोखला है। उसे पुरमग़्ज़ औरतें बिलकुल पसंद न थीं।

जब देखो इश्तिराकीयत, साम्राजियत और मार्क्सियत पर बहस कर रही हैं। आज़ादी तालीम-ए-निस्वाँ, नौकरी, ये नई औरत, औरत नहीं फ़लसफ़े की किताब है। भई ऐसी औरत से मिलने या शादी करने की बजाय तो यही बेहतर है कि आदमी अरस्तू पढ़ा करे। उसने बेक़रार हो कर एक-बार फिर घड़ी पर निगाह डाली। स्नेह अभी तक न आती थी। चर्चिल और स्टालिन और रूज़वेल्ट तहरान में दुनिया का नक़्शा बदल रहे थे और बंगाल में लाखों आदमी भूक से मर रहे थे। दुनिया को अतलांतिक चार्टर दिया जा रहा था और बंगाल में चावल का एक दाना भी न था। उसे हिन्दोस्तान की ग़ुर्बत पर इतना तरस आया कि उसकी आँखों में आँसू भर आये। हम ग़रीब हैं बेबस हैं नादार हैं। मजबूर हैं। हमारे घर का वही हाल है जो मीर के घर का हाल था। जिसका ज़िक्र इन्होंने चौथी जमात में पढ़ा था और जो हर वक़्त फ़र्याद करता रहता था। जिसकी दीवारें सिली सिली और गिरी हुई थीं और जिसकी छत हमेशा टपक-टपक कर रोती रहती थी। उसने सोचा हिन्दुस्तान भी हमेशा रोता रहता है। कभी रोटी नहीं मिलती, कभी कपड़ा नहीं मिलता। कभी बारिश नहीं होती। कभी वबा फैल जाती है। अब बंगाल के बेटों को देखो, हड्डियों के ढाँचे आँखों में अबदी अफ़्सुर्दगी, लबों पर भिकारी की सदा, रोटी, चावल का एक दाना, यकायक चाय का घूँट उसे अपने हलक़ में तल्ख़ महसूस हुआ और उसने सोचा कि वो ज़रूर अपने हम वतनों की मदद करेगा। वो चंदा इकट्ठा करेगा। दौरा, जलसे, वालंटियर, चंदा, अनाज और ज़िंदगी की एक लहर मुल्क में इस सिरे से दूसरे सिरे तक फैल जाएगी। बर्क़ी रौ की तरह। यकायक उसने अपना नाम जली सुर्ख़ीयों में देखा। मुल्क का हर अख़बार उसकी ख़िदमात को सराह रहा था और ख़ुद, इस अख़बार में जिसे वो अब पढ़ रहा था। उसे अपनी तस्वीर झाँकती नज़र आई, खद्दर का लिबास और जवाहर लाल जैकेट और हाँ वैसी ही ख़ूबसूरत मुस्कुराहट, हाँ बस ये ठीक है। उसने बैरे को आवाज़ दी उसे एक और आमलेट लाने को कहा।

आज से वो अपनी ज़िंदगी बदल डालेगा। अपनी हयात का हर लम्हा उन भूके नंगे, प्यासे, मरते हुए हम वतनों की ख़िदमत में सर्फ़ कर देगा। वो अपनी जान भी उनके लिए क़ुर्बान कर देगा। यकायक उसने अपने आपको फांसी की कोठरी में बंद देखा, वो फांसी के तख़्ते की तरफ़ ले जाया जा रहा था। उसके गले में फांसी का फंदा था। जल्लाद ने चेहरे पर ग़लाफ़ उढ़ा दिया और उसने उस खुरदुरे मोटे ग़लाफ़ के अंदर से चिल्ला कर कहा,

“मैं मर रहा हूँ। अपने भूके प्यासे नंगे वतन के लिए”, ये सोच कर उसकी आँखों में आँसू फिर भर आये और दो एक ग़र्म-गर्म नमकीन बूँदें चाय की प्याली में भी गिर पड़ीं और उसने रूमाल से अपने आँसू पोंछ डाले। यकायक एक कार पोर्च में रुकी और मोटर का पट खोल कर स्नेह मुस्कुराती हुई सीढ़ियों पर चढ़ती हुई ,दरवाज़ा खोल कर अंदर आती हुई, उसे हेलो कहती हुई। उसने गले में बाँहें डाल कर उसके रुख़्सार को फूल की तरह अपने इत्र-बेज़ होंटों से चूमती हुई नज़र आई, बिजली, गर्मी, रोशनी, मसर्रत सब कुछ एक तबस्सुम में था और फिर ज़हर, स्नेह की आँखों में ज़हर था। उसकी ज़ुल्फ़ों में ज़हर था। उसकी मद्धम हल्की सांस की हर जुंबिश में ज़हर था। वो अजंता की तस्वीर थी, जिसके ख़द-ओ-ख़ाल तसव्वुर ने ज़हर से उभारे थे।

उसने पूछा, “नाशता करोगी?”

“नहीं, मैं नाशता कर के आई हूँ”, फिर स्नेह ने उसकी पलकों में आँसू छलकते देख बोली, “तुम आज उदास क्यों हो?”

वो बोला, “कुछ नहीं। यूंही बंगाल के फ़ाक़ा कशों का हाल पढ़ रहा था। स्नेह, हमें बंगाल के लिए कुछ करना चाहिए।”

“Door Darlings” स्नेह ने आह भर कर और जेबी आईने की मदद से अपने होंटों की सुर्ख़ी ठीक करते हुए कहा, “हम लोग उनके लिए क्या कर सकते हैं। मासिवा इसके कि उनकी रूहों के लिए परमात्मा से शांति मांगें।”

“कॉन्वेंट की ता’लीम है न आख़िर?” उसने अपने ख़ूबसूरत सपेद दाँतों की नुमाइश करते हुए कहा।

वो सोच कर बोला, “हमें एक... रेसोल्यूशन भी पास करना चाहिए।”

“वो क्या होता है?”

स्नेह ने निहायत मा’सूमाना अंदाज़ में पूछा और अपनी साड़ी का पल्लू दुरुस्त करने लगी।

“अब ये तो मुझे ठीक तरह से मालूम नहीं।” वो बोला, “इतना ज़रूर जानता हूँ कि जब कभी मुल्क पर कोई आफ़त आती है। रेसोल्यूशन ज़रूर पास किया जाता है। सुना है रेसोल्यूशन पास कर देने सब काम ख़ुद ब ख़ुद ठीक हो जाता है... मेरा ख़्याल है। बस अभी टेलीफ़ोन कर के शहर के किसी रहनुमा से दब्बाग़ फ़न के बारे में पूछता हूँ।”

“रहने भी दो डार्लिंग!” स्नेह ने मुस्कुरा कर कहा।

“देखो, जूड़े में फूल ठीक सजा है?”

उसने नीलराज की नाज़ुक डंडी को जूड़े के अंदर थोड़ा सा दबा दिया।

“बेहद प्यारा फूल है, नीला जैसे कृष्ण का जिस्म, जैसे नाग का फन। जैसे ज़हर का रंग!”

फिर सोच कर बोला, “नहीं कुछ भी हो। रेसोल्यूशन ज़रूर पास होना चाहिए। मैं अभी टेलीफ़ोन करता हूँ।”

स्नेह ने उसे अपने हाथ की एक हल्की सी जुंबिश से रोक लिया। गुदाज़ उंगलियों का लम्स एक रेशमी रौ की तरह उसके जिस्म की रगों और उरूक़ में फैलता गया। रवाँ-दवाँ। रवाँ-दवाँ... उस लहर ने उसे बिल्कुल बेबस कर दिया और वो साहिल की तरह बे-हिस-ओ-हरकत हो गया।

“आख़िरी रम्बा कितना अच्छा था!” स्नेह ने उसे याद दिलाते हुए कहा।

और उसके ज़ेह्न में फिर च्योंटियाँ सी रेंगने लगीं। बंगाली फ़ाक़ा मस्तों की क़तार में अंदर घुसती चली आ रही थीं। वो उन्हें बाहर निकालने की कोशिश में कामयाब हुआ। बोला, “मैं कहता हूँ स्नेह, रेसोल्यूशन पास करने के बाद हमें क्या करना चाहिए। मेरे ख़्याल में उसके बाद हमें क़हतज़दा इलाक़े का दौरा करना चाहिए, क्यों?”

“बहुत दिमाग़ी मेहनत से काम ले रहे हो इस वक़्त।” स्नेह ने क़दरे तश्ववीशनाक लहजे में कहा।

“बीमार हो जाओगे! जाने दो। वो बेचारे तो मर रहे हैं। उन्हें आराम से मरने दो, तुम क्यों मुफ़्त में परेशान होते हो?”

“क़हतज़दा इ’लाक़े का दौरा करूँगा। ये ठीक है। स्नेह, तुम भी साथ चलोगी न?

“कहाँ?”

“बंगाल के देहात में।”

“ज़रूर...मगर वहां किस होटल में ठहरेंगे?”

होटल का ज़िक्र सुनकर उसने अपनी तजवीज़ को वहीं अपने ज़ेह्न में क़त्ल कर डाला और क़ब्र खोद कर वहीं अंदर दफ़ना दिया। ख़ुदा जाने उसका ज़ेह्न इस क़िस्म की कितनी नापुख़्ता तमन्नाओं और आरज़ुओं का क़ब्रिस्तान बन चुका है।

वो बच्चे की तरह रूठा हुआ था, अपनी ज़िंदगी से बेज़ार। स्नेह ने कहा, “मैं तुम्हें बताऊं। एक शानदार नाच पार्टी हो जाये। ग्रांड में। दो रुपया फ़ी टिकट और शराब के पैसे अलग रहे और जो रक़म इस तरह इकट्ठी हो जाये वो बंगाल रीलीफ़ फ़ंड में....!”

“अरे रररे...” उसने कुर्सी से उछल कर स्नेह को अपने गले लगाया। “ए जान-ए-तमन्ना, तुम्हारी रूह कितनी हसीन है।”

“जब ही तुमने कल रात आख़िरी रम्बा के बाद मुझसे शादी की दरख़ास्त की थी।” स्नेह ने हंसकर कहा।

“और तुमने क्या जवाब दिया था”? उसने पूछा।

“मैंने इनकार कर दिया था।” स्नेह ने शर्माते हुए कहा।

“बहुत अच्छा किया।” वो बोला, “मैं उस वक़्त शराब के नशे में था।”

कार, ज्योति राम, मेवनी राम, प्योनी राम भोंदू मल तंबाकू फ़रोश की दूकान पर रुकी, सामने ग्रांड होटल की इमारत थी। किसी मुग़लई मक़बरे की तरह वसीअ’ और पुरशिकोह!

उसने कहा, “तुम्हारे लिए कौन से सिगरेट ले लूं !”

“रोज़। मुझे उसकी ख़ुशबू पसंद है।” स्नेह ने कहा।

“अमि दो दिन खेते पाई नी कीछू खेते दाओ।”

एक बंगाली लड़का धोती पहने हुए भीक मांग रहा था। उसके साथ एक छोटी सी लड़की थी। मैली कुचैली, ख़ाक में अटी हुई, आँखें ग़लीज़ और आध मुंदी, स्नेह ने कराहियत से मुँह फेर लिया।

“मेम साइब, एकटापोए शादाओ।” लड़का गिड़गिड़ा रहा था।

“तो मैं रोज़ ही ले आता हूँ।” ये कह कर वो जीवनी राम, मेवनी राम, बयोनी राम, भोंदूमल तंबाकू फ़रोश की दूकान के अंदर ग़ायब हो गया।

स्नेह कार में बैठी लेकिन बंगाल की भूकी मक्खियां उस के दिमाग़ में भिनभिनाती रहीं। मेमसाहब... मेमसाहब.... मेमसाहब। मेमसाहब ने दो एक-बार उन्हें झिड़क दिया। लेकिन भूक झिड़कने से कहाँ दूर होती है। वो और भी क़रीब आ जाती है। लड़की ने डरते-डरते अपने नन्हे-नन्हे हाथ स्नेह की साड़ी से लगा दिये।और उसका पल्लू पकड़ कर लजाजत से कहने लगी,

“मेमसाहब... मेमसाहब... मेम साइब बोर्ड खीदे पीछ की छोदा।”

स्नेह अब बिल्कुल ज़च हो गई थी। उसने जल्दी से पल्लू छुड़ा लिया। इतने में वो आ गया। स्नेह बोली, “ये गदागर क्यों इस क़दर परेशान करते हैं। कारपोरेशन कोई इंतिज़ाम नहीं कर सकती है क्या?... जब से तुम दूकान के अंदर दाख़िल हुए हो... ये...!”

उसने गदागर लड़के को ज़ोर से चपत लगाया और कार घबरा कर ग्रांड होटल के पोर्च में ले आया।

बंगाली लड़की जो एक झटके के साथ दूर जा पड़ी थी। वहीं फ़र्श-ए-ख़ाक पर कराहने लगी। लड़के ने छोटी बहन को उठाने की कोशिश करते हुए कहा, “तमार को थाऊ लागे ने तो।”

लड़की सिसकने लगी.....

नाच उ’रूज पर था।

स्नेह और वो एक मेज़ के किनारे बैठे हुए थे।

स्नेह ने पूछा, “कितने रुपये इकट्ठे हुए?”

“साढे़ छः हज़ार।”

“अभी तो नाच उ’रूज पर है। सुबह चार बजे तक...”

“नौ हज़ार रुपया हो जाएगा।” वो बोला।

“आज तुमने बहुत काम किया है!” स्नेह ने उसकी उंगलियों को छू कर कहा।

“क्या पियोगी?”

“तुम क्या पियोगे?”

“जिन और सोडा।”

स्नेह बोली, “बैरा! साहिब के लिए एक लार्ज जिन लाओ और सोडा।”

“नाचते-नाचते और पीते-पीते परेशान हो गई हूँ।”

“अपने वतन की ख़ातिर सब कुछ करना पड़ता है डार्लिंग।” उसने स्नेह को तसल्ली देते हुए कहा।

“ओह, मुझे इम्पीरियलिस्म से किस क़दर नफ़रत है।” स्नेह ने पुर ख़ुलूस लहजे में कहा।

“बैरा, मेरे लिए एक ‘वर्जिन’ लाओ।”

बैरे ने ‘वर्जिन’ का जाम लाकर सामने रख दिया। जिनकी सपेदी में वरमोथ की लाली इस तरह नज़र आती थी जैसे स्नेह के अंबरीं चेहरे पर उसके लब-ए-लालीं। स्नेह ने जाम हिलाया और कॉकटेल का रंग शफ़क़ी हो गया। स्नेह ने जाम उठाया और बिजली की रोशनी ने उसके जाम में घुल कर याक़ूत की सी चमक पैदा कर दी। याक़ूत स्नेह की उंगलियों में थर्रा रहा था। याक़ूत जो ख़ून की तरह सुर्ख़ था।

नाच उ’रूज पर था और वो और स्नेह नाच रहे थे। एक गति, एक ताल एक लय, समुंदर दूर... बहुत दूर... कहीं नीचे चला गया था। और ज़मीन गुम हो गई थी। और वो हवा में उड़ रहे थे। और स्नेह का चेहरा उसके कंधे पर था और स्नेह के बालों में बसी हुई ख़ुशबू उसे बुला रही थी। बाल बनाने का अंदाज़ कोई स्नेह से सीखे। ये आम हिन्दुस्तानी लड़कियां तो बीच में से या एक तरफ़ मांग निकाल लेती और तेल चपड़ कर बालों में कंघी कर लेती हैं। बहुत हुआ तो दो चोटियां कर डालीं और अपनी दानिस्त में फ़ैशन की शहज़ादी बन बैठीं मगर ये स्नेह ही जानती है कि बालों की एक अलग हस्ती होती है। उनका अपना हुस्न होता है। उनकी मश्शातगी औरत की निसाइयत की मे’राज है जैसे कोई मुसव्विर सादा तख़्ते पर हुस्न की नाज़ुक ख़ुतूत खींचता है। इसी तरह स्नेह भी अपने बाल सँवारती थी। कभी उसके बाल कंवल के फूल बन जाते कभी कानों पर नागिन के फन। वो कभी चांद का हाला हो जाते कभी इन बालों में हिमालय की वादीयों के से नशेब-ओ-फ़राज़ पैदा हो जाते। स्नेह अपने बालों की आराइश में ऐसे जमालियाती ज़ौक़ और जौदत तबा का सबूत देती थी कि मा’लूम होता था, स्नेह की अक़्ल उसके दिमाग़ में नहीं, उसके बालों में है...!

नाच उ’रूज पर था और ये बाल उसके रुख़्सारों से मस हो रहे थे। उसके रग-ओ-पै में रक़्स की रवानी थी और नथनों में इस ख़ुशबू का तअ’त्तुर उसका जिस्म और स्नेह का जिस्म पिघल कर एक हो गए थे और एक शोले की तरह साज़ की धुन पर लहरा रहे थे। एक शोला, एक फन, एक ज़हर...एक लहर...लहरें...लहरें,हल्की-हल्की, गर्म मदुर सी लहरें साहिल को चूमती हुई। लोरियाँ देकर थपक थपक कर सुलाती हुई सो जाओ मौत में ज़िंदगी है। हरकत न करो। सुकून में ज़िंदगी है। आज़ादी न तलब करो। गु़लामी ही ज़िंदगी है। चारों तरफ़ हाल में एक मीठा सा ज़हर बसा हुआ था। शराब में... औरत में... नाच में... स्नेह के नीले साये में। उसके पुरअसरार तबस्सुम में, उसके नीम वा लबों के अंदर काँपती हुई मोतियों की लड़ी में, ज़हर... ज़हर और नींद और स्नेह के आहिस्ता से खुलते हुए, बंद होते हुए लब, और नग़मे का ज़हर, सो जाओ...सो जाओ...सो जाओ । ... यकायक हाल में बिजली बुझ गई और वो स्नेह के होंटों से होंट मिलाए, उसके जिस्म से जिस्म लगाए। मद्धम-मद्धम धीमे-धीमे हौले नाच के झूले में गहरे, गुदाज़, गर्म आग़ोश में खो गया। बह गया। सो गया, मर गया।


(3)

वो आदमी जो अभी ज़िंदा है

.... मैं मर चुका हूँ? मैं ज़िंदा हूँ?... मेरी फटी-फटी बे-नूर बे-बसर आँखें आसमान की पहनाइयों में किसे ढूंढ रही हैं? आओ पल भर के लिए इस कौंसिल ख़ाने की सीढ़ियों पर बैठ जाओ और मेरी दास्तान सुनते जाओ। जब तक पुलिस, सेवा समिति, या अंजुमन ख़ुद्दाम-उल-मुस्लिमीन मेरी लाश को यहां से उठा न ले जायें। तुम मेरी दास्तान सुन लो। नफ़रत से मुँह फेरो। मैं भी तुम्हारी तरह गोश्त-पोस्त का बना हुआ इन्सान हूँ। ये सच्च है कि अब मेरे जिस्म पर गोश्त कम और पोस्त ज़्यादा नज़र आता है और इसमें भी सड़ान्द पैदा हो रही है और नाक से पानी के बुलबुले से उठ रहे हैं। लेकिन ये तो साईंस का एक मा’मूली सा अम्लीया है। तुम्हारे जिस्म और मेरे जिस्म में सिर्फ़ इतना फ़र्क़ है कि मेरे दिल की हरकत बंद हो गई है। दिमाग़ ने काम करने से इनकार कर दिया है और पेट अभी तक भूका है। या’नी अब भी इस क़दर भूका है कि मैं सोचता हूँ, अगर तुम चावल का एक ही दाना मेरे पेट में पहुंचा दो तो वो फिर से काम शुरू कर देगा। आज़मा कर देख लो। किधर चले। ठहरो, ठहरो, ठहरो न जाओ। मैं तो यूंही मज़ाक़ कर रहा था। तुम घबरा गये कि कलकत्ता के मुर्दे भी भीक मांगते हैं? ख़ुदा के लिए न जाओ मेरी दास्तान सुन लो। हाँ-हाँ इस चावल के दाने को अपनी मुट्ठी में सँभाल कर रखो। मैं अब तुमसे भीक नहीं तलब करूँगा। क्योंकि मेरा जिस्म अब गल चुका है। इसे चावल की दाने की ज़रूरत नहीं रही। अब ये ख़ुद एक दिन चावल का दाना बन जाएगा। नर्म-नर्म गुदाज़ मिट्टी में जिसके हर मुसाम में नदी का पानी रचा होगा। ये जिस्म घुल जाएगा। अपने अंदर धान की पनीरी उगते हुए देखेगा और फिर ये एक दिन पानी की पतली तह से ऊपर सर निकाल कर अपने सब्ज़ सब्ज़ ख़ोशों को हवा में लहराएगा, मुस्कुराएगा, हँसेगा, खिलखिलाएगा। किरनों से खेलेगा। चांदनी में नहाएगा। परिंदों के चहचहों और ख़ुन्क हवा के झोंकों के शहद आगीं बोसों से इसकी हयात के बंद बंद में एक नई रा’नाई एक नया हुस्न, एक नया नग़मा पैदा होगा। चावल का एक दाना होगा। सदफ़ के मोती की तरह उजला, मा’सूम और ख़ूबसूरत... आज मैं तुमसे एक राज़ की बात कहता हूँ। दुनिया का सबसे बड़ा राज़, वो राज़ जो तुम्हें एक मुर्दा ही बता सकता है और वो ये है कि ख़ुदा से दुआ करो। वो तुम्हें इन्सान न बनाए। चावल का एक दाना बना दे। गो ज़िंदगी इन्सान में भी है और चावल के दाने में भी। लेकिन जो ज़िंदगी चावल के दाने में है। वो इन्सान की ज़िंदगी से कहीं बेहतर है। ख़ूबसूरत है। पाक है और इन्सान के पास भी इस ज़िंदगी के सिवा और है क्या।

इन्सान की जायदाद उसका जिस्म, उसका बाग़ उसका घर नहीं। बल्कि यही उसकी ज़िंदगी है। उसका अपना आप, वो इन सब चीज़ों को अपने लिए इस्तिमाल करता है अपने जिस्म को, अपनी ज़मीन को, अपने घर को उसके दिल में चंद तस्वीरें होती हैं। चंद ख़्याल आग के चंद अँगारे एक मुस्कुराहट वो इन ही पर जीता है और जब मर जाता है तो सिर्फ़ उन्हें अपने साथ ले जाता है।

चावल के दाने की ज़िंदगी तुम देख चुके। अब आओ मैं तुम्हें अपनी ज़िंदगी दिखाऊँ ,नफ़रत से मुँह न फेर लो। क्या हुआ? अगर मेरा जिस्म मुर्दा है। मेरी रूह तो ज़िंदा है मेरी रूह तो बेदार है और बेशतर उसके कि वो भी सो जाये, वो तुम्हें उन चंद दिनों की कहानी सुनाना चाहती है। जब रूह जिस्म एक साथ चलते फिरते नाचते गाते हंसते बोलते थे। रूह और जिस्म, दो में मज़ा है, दो में हरकत है, दो में ज़िंदगी है, दो में तख़लीक़ है। जब धरती और पानी मिलते हैं तो चावल का दाना पैदा होता है।

जब औरत और मर्द मिलते हैं तो एक ख़ूबसूरत हँसता हुआ बच्चा ज़हूर में आता है। जब रूह और जिस्म मिलते हैं तो ज़िंदगी पैदा होती है और जब रूह अलग होती है तो उसमें धुआँ उठता है। अगर ग़ौर से देखोगे तो तुम्हें इस धुंए में मेरे माज़ी की तसावीर लरज़ती, दमकती, गुम होती हुई नज़र आयेंगी ...ये तजल्ली क्या थी। ...ये मेरी बीवी की मुस्कुराहट थी...ये मेरी बीवी है... शर्माओ नहीं सामने आ जाओ, ए जान-ए-तमन्ना?...उसे देखा आपने? ये साँवली सलोनी मूरत ये घने बाल कमर तक लहराते हुए। ये शर्मीला तबस्सुम। ये झुकी-झुकी हैरान हैरान आँखें। ये आज से तीन साल पहले की लड़की है। जब मैंने उसे इत्ता पारा के साहिली गांव में समुंदर के किनारे दोपहर की सोई हुई फ़िज़ा में देखा था...मैं उन दिनों इजात क़स्बे में ज़मींदार की लड़की को सितार सिखाता था और यहां इत्ता पारा में दो दिन की छुट्टी लेकर अपनी बड़ी मौसी से मिलने के लिए आया था। ये ख़ामोश गांव समुंदर के किनारे बाँसों के झुण्ड और नारीयल के दरख़्तों से घिरा हुआ अपनी उदासी में गुम था। न जाने हमारे बंगाली गांव में इतनी उदासी कहाँ से आ जाती है। बाँस के छप्परों के अंदर अंधेरा है। सीलन है। बाँस की हांडियों में चावल दबे पड़े हैं। मछली की बू है। तालाब का पानी काई से सब्ज़ है। धान के खेतों में पानी ठहरा हुआ है। नारियल का दरख़्त एक नुकीली बरछी की तरह आसमान के सीने में गहरा घाव डाले खड़ा है। हर जगह, हर वक़्त दर्द का एहसास है। ठहराव का एहसास है। हुज्न का एहसास है। सुकून,जुमूद और मौत का एहसास है। ये उदासी जो तुम हमारी मुहब्बत, हमारे समाज ,हमारे अदब और नग़मे में देखते हो। ये उदासी हमारे गांव से शुरू होती है और फिर सारी धरती पर फैल जाती है। जब मैंने उसे पहले-पहल देखा तो ये मुझे एक जल-परी की तरह हसीन नज़र आई। ये उस वक़्त पानी में तैर रही थी और मैं साहिल की रेत पर टहल रहा था और एक नई धुन में सोच रहा था। यकायक मेरे कानों में एक शीरीं निस्वानी आवाज़ सुनाई दी।

“परे हट जाओ, मैं किनारे पर आना चाहती हूँ।”

मैंने देखा आवाज़ समुंदर में से आ रही थी। लाँबे रेशमीं घने बाल और जल-परी का चेहरा। हँसता हुआ। मुस्कुराता हुआ और दूर परे उफ़ुक़ पर एक कश्ती, जिसका मटियाला बादबान धूप में सोने के पत्रे की तरह चमकता नज़र आ रहा था।

मैंने कहा, “क्या तुम सात-समुंदर पार से आई हो?”

वो हंसकर बोली, “नहीं मैं तो इसी गांव में रहती हूँ। वो कशती मेरे बाप की है। वो मछलियाँ पकड़ रहा है। मैं उसके लिए खाना लाई हूँ... ज़रा देखकर चलो। तुम्हारे क़रीब नारीयल के तने के पास खाना रखा है और वहां मेरी साड़ी भी है।”

ये कह कर उसने पानी में एक डुबकी लगाई और फिर लहरों में फूटते हुए बुलबलों की अफ़्शां सी नहाती हुई किनारे के क़रीब आगई। बोली, “परे हट जाओ और वो धोती मुझे देदो।”

मैंने कहा, “एक शर्त पर।”

“क्या है?”

“मैं भी मछली भात खाऊंगा। बहुत भूक लगी है।”

वो हंसी और फिर सन्न से एक तीर की तरह पानी के सीने को चीरती हुई दूर चली गई। जहां उसके चारों तरफ़ सूरज की किरनों ने पानी में तिलाई जाल बुन रखा था और उसका नाज़ुक छरेरा सुबुक इंदाम जिस्म इक नई कश्ती की तरह उन पानियों में घूमता नज़र आया। फिर वो घूमी और सीधी किनारे को हो ली। लेकिन अब हौले-हौले आ रही थी। आहिस्ता-आहिस्ता, डगमग डगमग...

मैंने पूछा, “क्या हुआ है तुम्हें?”

बोली, “आजकल भात बहुत महंगा है। रुपये का दो सेर है। मैं तुम्हें भात नहीं खिला सकती।”

“फिर, मैं क्या करूँ। मुझे तो भूक...”

“समुंदर का पानी पियो।” उसने शोख़ी से कहा और फिर एक डुबकी लगाई।

जब वो मेरी बीवी बन कर मेरे घर आई तो भात रुपये का दो सेर था और मेरी तनख़्वाह पच्चास रुपये माहाना थी। ब्याह से पहले मुझे ख़ुद सुबह उठकर भात पकाना पड़ता था। क्योंकि ज़मींदार की बेटी स्कूल जाती थी और मुझे अल-स्सुबह उसे सितार सिखाने के लिए जाना पड़ता था। शाम को भी उसे दो घंटे तक रियाज़ कराता था। दिन में भी ज़मींदार बुला लेता था।

“सितार सुनाओ जी। जी बहुत उदास है!”

फिर ये नन्ही सी बच्ची हमारे हाँ आ गई... इधर आओ बेटा... हाँ मुस्कुरा दो। हंस पड़ो। इनसे कह दो में बिल्कुल मा’सूम हूँ, अंजान हूँ, मेरी उम्र दो साल की भी नहीं और मुझे झुनझुना बजाते, गुड़िया से खेलने और माँ की छाती से लग कर दूध पीने और दूध पीते पीते उसके सीने से अपने नन्हे-मुन्ने हाथ चिमटाये उस गुदाज़ आग़ोश में सो जाने का बहुत शौक़ है। मैं इतनी पाकीज़ा हूँ कि ख़ुद बोल भी नहीं सकती। बात भी नहीं करती, सिर्फ़ मटर-मटर तकती हूँ। उस आसमान की तरफ़ जिस मालिक ने मुझे इस ज़मीन पर भेजा है कि मैं अपने बाप के दिल में इन्सानी मसर्रत की किरण बन कर रहूं और बाँस की सिली सिली छपरिया में ख़ुशी का गीत बन कर घर के आँगन को अपनी हंसी के राग से भर दूं... मुस्कुरा दो बेटा...!

हाँ, तो जब ये नन्ही सी बच्ची पैदा हुई। उस वक़्त भात रुपये का एक सेर था। लेकिन हम लोग इस पर भी ख़ुदा का शुक्र बजा लाते थे। जिसने चावल के दाने बनाए और ज़मींदार के पांव चूमते थे, जिसने हमें चावल के दाने खिलाए और सच्च बात तो ये है कि बनाने और खाने के बीच में जो चीज़ हाइल है, वो बजा-ए-ख़ुद एक पूरी तारीख़ है। इन्सानी ज़िंदगी के हज़ारों साल की दास्तान है। इस की तहज़ीब-ओ-तमद्दुन, मज़हब औहाम फ़लसफ़ा और अदब की तफ़सीर है। बनाना और खाना बहुत सहल अलफ़ाज़ हैं। लेकिन ज़रा इस गहरी ख़लीज को भी देखिए जो इन दो लफ़्ज़ों के दरमियान हाइल है।

भात रुपये का एक सेर था।

फिर भात रुपये का तीन पाव हुआ।

फिर भात रुपये का आध सेर हुआ।

फिर भात रुपये का एक पाव हुआ।

और... फिर भात मा’दूम हो गया।

फिर दरख़्तों पर से आम, जामुन, कटहल, शरीफ़े, केले ख़त्म हो गय,। ताड़ी ख़त्म। साग सब्ज़ी ख़त्म। मछली ख़त्म। नारीयल ख़त्म। कहते हैं। ज़मींदार के पास मनों अनाज था और बनिये के पास भी। लेकिन कहाँ था, किस जगह था। किसी को मा’लूम न था। अनाज हासिल करने की सब तदबीरें रायगां गयीं। गिड़गिड़ाना, मिन्नतें करना। ख़ुदा से दुआ माँगना। ख़ुदा को धमकी देना, सब कुछ ख़त्म हो गया। सिर्फ़ अल्लाह का नाम बाक़ी था या ज़मींदार और बनिये का घर।

अनाज की गिरानी देखकर ज़मींदार ने मेरा सितार सिखाना बंद कर दिया। जब लोग भूके मर रहे हों उस वक़्त नग़मे की किसे सूझती है। पच्चास रुपये देकर सितार कौन सीखता है।

भूक, नाउम्मीदी और बिलकती हुई बच्ची!

मैंने अपनी बीवी से कहा, “हम कलकत्ता चलेंगे। वहां लाखों लोग बस्ते हैं। शायद वहां कोई काम चल जाये!”

“चलो कलकत्ता चलो!”

“चलो कलकत्ता चलो!” जैसे ये सदा सारे गांव वालों ने सुन ली । गांव की समाजी ज़िंदगी इक बंद की तरह मज़बूत होती है। यका-य़क “चलो कलकत्ता चलो” की सदा ने इस बंद का एक किनारा तोड़ दिया और सारा गांव इस सुराख़ के रास्ता से बह निकला। “चलो कलकत्ता चलो।”... हर लब पर यही सदा थी... “चलो कलकत्ता चलो...!”

सैकड़ों, हज़ारों आदमी इस सड़क पर चल रहे थे। ये सड़क जो कलकत्ता के मुज़ाफ़ात में से बंगाल के दूर-दूर फैले हुए गांव में से घूमती हुई आ रही थी। ये सड़क जो इन इन्सानों के लिए शह-ए-रग की तरह थी।

चलो कलकत्ता चलो... च्योंटियाँ रेंग रही थीं। ख़ाक-ओ-ख़ून में अटी हुई लिथड़ी हुई और कलकत्ता की लाश की तरफ़ जा रही थीं। हज़ारों, लाखों की तादाद में और उस क़ाफ़िले के ऊपर गिद्ध घूम रहे थे। और सारी फ़िज़ा में मुर्दा गोश्त की बू थी, चीख़ें थीं। फ़िज़ा में, आहो बुका और आँसूओं की सिलन और लाशें जो सड़क पर ताऊ’न ज़दा चूहों की तरह बिखरी पड़ी थीं, लाशें जिन्हें गिद्धों ने खा लिया था और अब उनकी हड्डियां धूप में चमकती नज़र आती थीं। लाशें जिन्हें गीदड़ों ने खा लिया था। लाशें जिन्हें कुत्ते अभी तक खा रहे थे। लेकिन च्योंटियाँ आगे बढ़ती जा रही थीं। ये च्योंटियाँ बंगाल के हर हिस्से से बढ़ती चली आ रही थीं और उनके ज़ेह्न में कलकत्ता की लाश थी। कोई किसी का पुरसान-ए-हाल कैसे होता। इन लाखों आदमियों में से हर शख़्स अपने लिए लड़ रहा था। जी रहा था, मर रहा था। मौत का एक वक़्त मुक़र्रर है। शायद ऐसा ही होना था। उन लोगों की मौत इसी तरह लिखी थी। इन हज़ारों लाखों च्योंटियों की मौत, पेट में भूक का दोज़ख़ और आँखों में यासियत की मुहीब तारीकी लिये। ये इन्सानी च्योंटियाँ अपने बोझल क़दमों से सड़क पर चल रही थीं। लड़ रही थीं, कराह रही थीं, मर रही थीं। काश इन इन्सानों में च्योंटियों का सा ही नज़्म-ओ-नसक़ होता तो भी ये सूरत-ए-हाल न होती। च्योंटियाँ और चूहे भी इस बुरी तरह नहीं मरते।

रास्ते में कहीं कहीं ख़ैरात भी मिल जाती थी। हिंदू हिंदूओं को और मुसलमान मुसलमानों को ख़ैरात देते थे। लेकिन ख़ैरात से कब किसी का पेट भरता है। ख़ैरात तो ज़िंदगी अ’ता नहीं करती। ख़ैरात हमेशा धोका देती है। ख़ैरात करने वाले को भी और ख़ैरात लेने वाले को भी। हमें भी ख़ैरात मिली और एक दिन एक सालिम नारियल हाथ लग गया। बच्ची कब से दूध के लिए चिल्ला रही थी और माँ की छातियां उस धरती की तरह थीं जिस पर मुद्दत से पानी की एक बूँद बरसी हो। उसका फूल सा जिस्म झुलस गया था। वो बार-बार बच्ची को पुचकारने के लिए उसके हाथ में झुनझुना दे देती। बच्ची को ये झुनझुना बहुत पसंद था। वो उसे हर वक़्त कलेजे से लगाए रखती। इस वक़्त भी वो इस झुनझुने को ज़ोर से अपनी मुट्ठी में दबाए अपनी माँ के शाने से लगी बिलक रही थी और रोये जाती थी। जैसे कोई बेबस ज़ख़्मी जानवर बराबर चीख़े जाता है और जब तक उसे मौत नहीं आती बराबर उसी तरह, उसी अंदाज़ में, उसी लय में बैन किए जाता है...लेकिन अच्छा हुआ ऐन उसी रोज़ हमें एक सालिम नारियल मिल गया। नारियल का दूध हमने बच्ची को पिलाया और नारियल हम दोनों ने खाया। ऐसा मा’लूम हुआ जैसे सारा जहां जी उठा हो।

अब किसी के पास कुछ न था। सब तिजारत ख़त्म हो चुकी थी सिर्फ़ गोश्त-पोस्त की तिजारत हो रही थी। उसके ताजिर शुमाली हिंद से आते थे। उनमें यतीम ख़ानों के मैनेजर थे। जिन्हें यतीमों की तलाश थी। माँ बाप अपने नन्हे-मुन्ने बच्चे और छोटे-छोटे लड़के उनके हवाले कर के उन्हें यतीम बना रहे थे। दरअसल ग़ुर्बत ही तो यतीम पैदा करती है। माँ-बाप का ज़िंदा रहना या मर जाना एक ख़ुदाई अमर है। उन ताजिरों में विध्वा आश्रमों के कारकुन भी थे और ख़ालिस ताजिर जो हर किस्म की अख़लाक़ी मज़हबी, तमद्दुनी रियाकारी से अलग हो कर ख़ालिस तिजारत करते थे। नौजवान लड़कियां, बकरियों की तरह टटोली जाती थी।

माल अच्छा है।

रंग काला है।

ज़रा दुबली है।

मुँह पर चेचक है।

अरे इसकी तो बिल्कुल हड्डियां निकल आई हैं।

चलो। ख़ैर, ठीक है।

दस रुपये दे दो।

ख़ाविंद बीवीयों को, माएं लड़कियों को, भाई बहनों को फ़रोख़्त कर रहे थे। ये वो लोग थे जो अगर खाते-पीते होते तो उन ताजिरों को जान से मार देने पर तैयार हो जाते। लेकिन अब यही लोग न सिर्फ उन्हीं बेच रहे थे बल्कि बेचते वक़्त ख़ुशामद भी करते थे। दूकानदार की तरह अपने माल की ता’रीफ़ करते, गिड़गिड़ाते, झगड़ा करते। एक एक पैसे के लिए मर रहे थे।

मज़हब, अख़लाक़ियात, मामता, ज़िंदगी के क़वी से क़वी तरीन जज़्बों के भी छिलके उतर गये थे और नंगी-भूकी प्यासी ख़ूँख़ार ज़िंदगी, मुँह फाड़े सामने खड़ी थी।

मेरी बीवी ने कहा, “हम भी अपनी बच्ची बेच दें।”

डरते-डरते, शर्मिंदा, मह्जूब सी हो कर उसने ये अलफ़ाज़ कहे और फिर फ़ौरन ही चुप हो गई। उसने कनखियों से मेरी तरफ़ देखा। जैसे वो अपने अलफ़ाज़ के ताज़ियानों का असर देख रही हो। उसकी निगाहों में एक ऐसा एहसास-ए-जुर्म था। जैसे उसने अपने हाथों से अपनी बच्ची का गला घोंट डाला हो। जैसे उसने अपने ख़ाविंद को नंगा कर के उसके बदन पर कोड़े लगा दिये हों। जैसे उसने ख़ुद अपने हाथों से फांसी का फंदा तैयार किया हो और अब उसकी दुबली पतली गर्दन उसमें लटक रही हो।

मुझे ये गिला नहीं कि वो क्यों मर गई। मरने को तो वो उसी वक़्त मर गई थी। जिस वक़्त उसने ये अलफ़ाज़ कहे थे। शायद उन अलफ़ाज़ के ज़बान तक आने से बहुत अर्सा पहले ही वो मर चुकी थी। लेकिन अब भी समझ में नहीं आता। मर कर भी समझ में नहीं आता। ग़ौर करने पर भी समझ में नहीं आता कि उसके मुँह से ये अलफ़ाज़ निकले , ये क्योंकर हुआ? किस भयानक क़ुव्वत ने उसकी मामता को मार दिया था। उसकी रूह को कुचल दिया था जैसा कि मैंने अभी कहा। मुझे उसके मरजाने का मुतलक़ अफ़सोस नहीं। अफ़सोस तो ये है कि उसकी मामता क्यों मर गई। वो मामता जिसे सब लाज़वाल कहते हैं... मुझे अच्छी तरह याद है। मैंने उस वक़्त अपनी बच्ची को छीन कर अपने सीने से लिपटा लिया था।

मैंने ख़शमगीं निगाहों से उसकी तरफ़ देखा लेकिन वो इस तरह लाता’ल्लुक़ी के अंदाज़ में मेरे ग़म-ओ-ग़ुस्से को नज़रअंदाज करती हुई, लंगड़ाती हुई, मेरे पीछे पीछे आ रही थी। कोल्हू के अंधे बैल की तरह। उसके परेशान बाल धूल में अटे हुए थे। जिस्म पर धोती तार-तार हो चुकी थी। दाएं पांव के ज़ख़्म से ख़ून रिस्ता था। और वो आँखें... हाय वो जल-परी कहाँ ग़ायब हो गई थी। वो समुंदर में तिलाई मछली की तरह तैरने वाली सुबुक इंदाम बंगाली दोशीज़ा वो फूल का सा हुस्न जिसमें ताज का मरमर, एलोरा के मंदिरों की रा’नाई और अशोक के कतबों की अबदीयत खुली हुई थी। आज किधर ग़ायब हो गया था। किसलिए ये हुस्न ये मामता। ये रूह इस सड़क पर इक रौंदी हुई लाश की तरह पड़ी थी। अगर ये सच्च है कि औरत एक ए’तिक़ाद है। एक मो’जिज़ा है, ज़िंदगी की सच्चाई है। उसकी मंज़िल उसका मुस्तक़बिल है तो मैं ये कह सकता हूँ कि ये ए’तिक़ाद, ये सच्चाई, ये मो’जिज़ा चावल के दाने से उगता है और इसके न होने से मर जाता है।

जल-परी ने मेरी गोद में दम तोड़ दिया। वो थकी माँदी, ख़ाक में अटी हुई उसी सड़क के किनारे सो गई। मेरी आग़ोश में, दो तीन हिचकियाँ लीं और सांस ग़ायब... न जाने मेरे एहसासात क्यों मुझे इस लम्हे की तरफ़ घसीट कर ले गये। जब मैंने पली बार उस के होंटों को चूमा था और उसकी महकी हुई सांस ने मुझे सुगंध राज के फूलों की याद दिला दी थी। उस वक़्त भी वही सुगंध राज के फूलों की महक तेज़ी से मेरे नथनों में घुसती चली आई और मेरी आँखों में आँसू आ गये और में उसके मुर्दा लबों की तरफ़ तकने लगा और मेरे आँसू, उसके लबों पर उसकी आँखों पर उसके रुख़्सारों पर गिरने लगे।

वो मेरी गोद में मरी पड़ी थी। जल-परी जो उन्नीस साल की उम्र में मर गई। ख़ाक में अटी हुई, नंगी भूकी प्यासी जल-परी चुड़ैल बन कर मर गई।

मुझे मौत से कोई शिकवा नहीं। अपने ख़ुदा से कोई शिकायत नहीं। ज़िंदगी से, सड़क पर गुज़रते हुए अंधे क़ाफ़िले से किसी से कोई भी शिकायत न थी। सिर्फ़ यही जी चाहता था कि वो इस तरह न मर जाती। मैं एक बंदे की तरह नहीं, एक दोस्त की तरह अपने ख़ुदाओं से पूछना चाहता हूँ। उसमें क्या बुराई थी। अगर वो ज़िंदा रहती, एक तबई उम्र बसर करती। उसका एक छोटा सा घर होता। उसके बाल-बचे होते। वो उनकी परवरिश करती। उसे अपने ख़ाविंद की मुहब्बत मयस्सर होती। एक आ’म औसत ज़िंदगी की छोटी-छोटी मसर्रतें, दुनिया करोड़ों ऐसे मामूली छोटे आदमियों से भरी पड़ी है जो ज़िंदगी से उन छोटी-छोटी मसर्रतों के सिवा और कुछ नहीं चाहते। न सल्तनत, न शोहरत फिर भी उसे ये छोटी छोटी ख़ुशियां हासिल न हुईं। वो क्यों इस तरह मर गई और अगर उसे मरना ही था तो वो साहिल समुंदर और नारियल के झुण्ड को देखकर ही मरती। ये कैसी मौत है कि हर तरफ़ वीरानी है और लाशें हैं और ख़ला है और आहो बुका है। सड़क की ख़ाक है और चुप-चाप चलते हुए क़दमों की चाप है और...और दूर कहीं कुत्ते रो रहे हैं।

मैंने उसे दफ़न नहीं किया। मैंने उसे जलाया भी नहीं, मैंने उसे वहीं सड़क के किनारे छोड़ दिया और अपनी बच्ची को अपनी छाती से चिमटाये आगे बढ़ गया।

अभी कलकत्ता दूर था और मेरी बच्ची भूकी थी। वो अब रो भी न सकती थी। उसके गले से आवाज़ न निकलती थी। वो बार-बार अपना मुँह ऐसे खोलती जैसे मछली जल से बाहर निकल कर पानी के घूँट के लिए अपने होंट वा करती है। हाय ये नन्ही सी जल-परी अपने छोटे से खिलौने को अपने सीने से चिमटाये एक घुलती हुई शम्मा की तरह मेरी आँखों के सामने ख़त्म हो रही थी। बुझ रही थी और चला जा रहा था। मेरे इर्द-गिर्द, आमने सामने आगे-पीछे और लोग भी थे, रवाँ-दवाँ मर्दों का क़ाफ़िला हर एक की अपनी दुनिया थी। लेकिन हर फ़र्द आ’ला मौत की वादी में गुज़र रहा था और आँखों में चेहरों पर, जिस्मों पर उसी मुहीब का साया मंडला रहा था जो इस वादी की ख़ालिक़ थी। मैं हाथ जोड़ कर दुआ मांगने लगा।

ए ख़ालिक़-ए-अर्ज़-ओ-समा इस मासूम बच्ची की तरफ़ देख क्या तेरे दरबार में इसके लिए दूध की एक बूँद भी नहीं। अन्न-दाता देख ये किस तरह बार-बार मुँह खोलती है। बेक़रार होती है और तड़प कर रह जाती है।

ऐ ख़ुदा वंद लायज़ाल, तू ने ख़ूबसूरत मौत बनाई है लेकिन ये मौत तो ख़ूबसूरत नहीं। ये मौत तो मा’सूम नहीं। ये मौत तो इस नन्ही सी जान के लायक़ नहीं।

सुन ले ए कायनात की पुर-असरार मख़फ़ी क़ुव्वत-ए-अज़ीम...ए ख़ुदाओं के ज़ालिम सदर-ए-आज़म ...तू इस ख़ूबसूरत कली को अभी से क्यों कुचल कर रख देना चाहता है। इसकी तमन्नाओं की दुनियाओं को देख समुंदर में बुलबलों की अफ़्शां सुबुक-ख़िराम कश्ती, एक नग़मा अपने मे’राज को पहुंचा हुआ नारीयल के झुण्ड में औरत और मर्द का पहला बोसा... कमीने, सिफ़ले, ज़लील! लेकिन न दुआ’एं काम आईं न गालियां और मेरी बच्ची भी मर गई। किस तरह तड़प-तड़प कर उसने जान दी। इस का कर्ब और ईज़ा वो मेरी इन पथरीली साकिन-ओ-जामिद, बे-नूर, बे-बसर आँखों से पूछो। वो दूध की एक बूँद के लिए मर गई वो बूँद जो न आसमान से बरसी न ज़मीन ने उगली, बे-हिस आसमान, बे-हिस ज़मीन और ये ज़ालिम सड़क।

मरने से कुछ अर्सा पहले मेरी बच्ची ने अपना प्यारा झुनझुना मुझे दे दिया। देखो अब भी मेरी मुट्ठी में दबा पड़ा है। ये अमानत उसने मेरे हवाले की थी। नहीं, नहीं ये झुनझुना उसने मुझे बख़्श दिया था। लापरवाही के साथ। एक ऐसे मा’सूमाना अंदाज़ में उसने उसे मेरे हवाले कर दिया था कि मुझे यक़ीन हो गया कि उसने मुझे बख़्श दिया। मुझे माफ़ कर दिया है। मुझे अपने लुतफ़-ओ-इनायत से मालामाल कर दिया है। उसने वो झुनझुना मेरे हाथ में दे दिया और फिर मेरी गोद में मर गई।

ये एक लकड़ी का झुनझुना है लेकिन मेरा ए’तिक़ाद है कि अगर वो क्लोपेट्रा होती तो अपनी मुहब्बत मुझे बख़्श देती। अगर विक्टोरिया होती तो अपनी सल्तनत मेरे सपुर्द कर देती। अगर मुमताज़ महल होती तो ताज-महल मेरे हवाले कर देती।

लेकिन वो एक ग़रीब नन्ही लड़की थी और उसके पास सिर्फ़ यही एक लकड़ी का छोटा सा झुनझुना था जो उसने अपने ग़रीब नादार अब्बा के हवाले कर दिया। तुम में से कौन ऐसा जौहरी है जो इस लकड़ी के झुनझुने की क़ीमत का अंदाज़ा कर सके। बड़े आदमियों की क़ुर्बानियों पर, वाह वाह करने वालो, ले जाओ इस लकड़ी के झुनझुने को, और इन्सानियत के इस मा’बद में रख दो। जो आज से हज़ारों साल बाद मेरी रूह तुम्हारे लिए ता’मीर करेगी।

आख़िर कलकत्ता आ गया, भूकी वीरान बस्ती, संगदिल बेरहम शहर। कहीं कोई ठिकाना नहीं। कहीं रोटी का लुक़मा तक नहीं, सियालदह स्टेशन, श्याम बाज़ार, बड़ा बाज़ार, हरीश रोड, ज़करिया स्ट्रीट, बूद बाज़ार, सोना गाची, न्यू मार्कीट, भवानीपुर कहीं चावल का एक दाना नहीं। कहीं वो निगाह नहीं जो इन्सान को इन्सान समझती है।

होटलों के बाहर भूके मरे पड़े हैं। झूटी पत्तलों में कुत्ते और इन्सान एक जगह खाना टटोल रहे हैं। कुत्ते और आदमी लड़ रहे हैं। एक मोटर फ़र्राटे से गुज़र जाती है।

नंगे बदन में पसलियाँ आहनी ज़ंजीरें मा’लूम होती हैं। उनके अंदर रूह को क्यों क़ैद कर रखा है। उसे उड़ जाने दो। इस मुहीब ज़िंदाँ ख़ाने का दरवाज़ा खोल दो ,एक मोटर फ़र्राटे से गुज़र जाती है।

लेकिन जिस्म रूह की फ़र्याद नहीं सुनता... माएं मर रही हैं। बच्चे भीक मांग रहे हैं। बीवी मर रही है। ख़ाविंद रिक्शा वाले साहिब की ख़ुशामद करता है। ये नौजवान औरत मादर-ज़ाद नंगी है। उसे ये पता नहीं वो जवान है, वो औरत है। वो सिर्फ़ ये जानती है कि वो भूकी है और ये कलकत्ता है। भूक ने हुस्न को भी ख़त्म कर दिया है।

मैं इस कौंसिल ख़ाने की सीढ़ियों पर मर रहा हूँ। बेहोश पड़ा हूँ। चंद लोग आते हैं। मेरे सिरहाने खड़े हो जाते हैं। ऐसा महसूस होता है गोया मुझे सर से लेकर पांव तक देख रहे हैं। फिर मेरे कानों में एक मद्धम सी आवाज़ आती है, जैसे कोई कह रहा है, “हरामी हिंदू होगा, जाने दो, आगे बढ़ो।”

वो आगे बढ़ जाते हैं। अंधेरा बढ़ जाता है।

फिर चंद लोग रुकते हैं। कोई मुझ से पूछ रहा है... “तुम कौन हो?”

मैं बमुश्किल अपने भारी पपोटे उठा कर आँखें खोल कर जवाब देता हूँ, “में एक आदमी हूँ, भूका हूँ।”

वो कहते हुए चले जाते हैं, “साला कोई मुसलमान मा’लूम होता है।”

भूक ने मज़हब को भी ख़त्म कर दिया है।

अब चारों तरफ़ अंधेरा है। मुकम्मल तारीकी, रोशनी की एक किरन भी नहीं, ख़ामोशी, गहरा सन्नाटा।

यकायक कलीसाओं में...मंदिरों में... इबादत ख़ानों में ख़ुशी की घंटियाँ बजने लगती हैं। सारी कायनात शीरीं आवाज़ों से मा’मूर हो जाती है।

एक अख़बार फ़रोश चिल्ल- चिल्ला कर कह रहा है,

“तहरान में बनी नौअ’ इन्सान के तीन बड़े रहनुमाओं का ऐलान, एक नई दुनिया की ता’मीर!”

एक नई दुनिया की ता’मीर!!

मेरी आँखें हैरत और मसर्रत से खुली की खुली रह जाती हैं। एहसासात पत्थर की तरह जामिद हो जाते हैं।

मेरी आँखें उस वक़्त से खुली की खुली हैं।

मैं सियासत दां नहीं हूँ। सितार बजाने वाला हूँ। हाकिम नहीं हूँ, हुक्म बजा लाने वाला हूँ। लेकिन शायद एक नादार मुग़न्नी को भी ये पूछने का हक़ है कि इस नई दुनिया की ता’मीर में क्या उन करोड़ों भूके नंगे आदमियों का भी हाथ होगा जो इस दुनिया में बस्ते हैं? मैं ये सवाल इसलिए पूछता हूँ कि मैं भी इन बड़े रहनुमाओं की नई दुनिया में रहना चाहता हूँ। मुझे भी फ़सताईयत जंग और ज़ुल्म से नफ़रत है और गो मैं सियासत दां नहीं हूँ लेकिन मुग़न्नी हो कर इतना ज़रूर जानता हूँ कि उदास नग़मे से उदासी ही पैदा होती है जो नग़मा ख़ुद उदास है, वो दूसरों को भी उदास कर देता है। जो आदमी ख़ुद ग़ुलाम है, वो दूसरों को भी ग़ुलाम बना देता है। दुनिया का हर छटा आदमी हिन्दुस्तानी है। ये ग़ैर मुम्किन है कि बाक़ी पाँच आदमी कर्ब की इस ज़ंजीर को महसूस न करते हों जो उनकी रूहों को चीर कर निकल रही है और एक हिन्दुस्तानी को दूसरे हिन्दुस्तानी से मिला देती है। जब तलक मेरी सितार का एक तार भी बे आहंग होता है उस वक़्त तक सारा नग़मा बे आहंग-ओ-बे रब्त रहता है। मैं सोचता हूँ, यही हाल इन्सानी समाज का भी है। जब तक दुनिया में एक शख़्स भी भूका है, ये दुनिया भूकी रहेगी। जब तक दुनिया में एक आदमी भी ग़ुलाम है, सब ग़ुलाम रहेंगे। जब तक दुनिया में एक आदमी भी मुफ़लिस है, सब मुफ़लिस रहेंगे।

इसीलिए मैं तुमसे ये सवाल पूछ रहा हूँ।

तुम मुझे मुर्दा न समझो...मुर्दा तुम हो...मैं ज़िंदा हूँ और अपनी फटी-फटी बे-नूर, बे-बसर आँखों से हमेशा तुमसे यही सवाल किया करूँगा, तुम्हारी रातों की नींद हराम कर दूंगा। तुम्हारा उठना-बैठना, सोना-जागना, चलना-फिरना सब दूभर हो जाएगा, तुम्हें मेरे सवाल का जवाब देना होगा। मैं उस वक़्त तक नहीं मर सकता, जब तक तुम मेरे सवाल का तसल्ली बख़्श जवाब न दोगे।

मैं ये सवाल इसलिए भी पूछ रहा हूँ क्योंकि मैंने जल-परी को बे गौर-ओ-कफ़न सड़क पर छोड़ दिया है और मेरे हाथ में लकड़ी का एक झुनझुना है।