अन्या से अनन्या / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1

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उपन्यास उद्धरण

अपने जीवन के एक-एक परतों को इस पुस्तक में उन्होंने उधेड़ कर रख दिया। यह उनके सच कहने का साहस ही है जो वे इस बेबाकी से सारी बात कह गईं। अपने उस अधेड़ उम्र के प्रेमी से कैसे मिली?

“बाइस वर्ष की थी। आंखों का इलाज कराने एक रोगी के रूप में उनके पास गई थी। वे मेरी आंखों में ही खो गए। दो लड़के और तीन लड़कियों के पिता, चालीस से ऊपर की उम्र। जिस राह पर मैं चल पड़ी, वह ग़लत-सही जो भी हो पर वहां से वापस मुड़ना सम्भव नहीं।”

“हमारे मिलने का कारण केवल देह नहीं...पर हम देह से अलग भी तो नहीं हो पा रहे थे। मुझे शादी नहीं करनी, मैं किसी और पुरुष के बारे में सोच भी नहीं सकती। सात फेरों के बिना भी तुम मेरे हो। प्यार दिमाग से नहीं हृदय से किया जाता है। और हृदय से यदि हम कुछ करते हैं तो ज़्यादा सोचने-समझने की ज़रूरत नहीं।”

इस तरह के संबंध और प्रेम का नतीज़ा क्या हुआ?

“शान्ता ने सम्बन्ध तोड़ लिया, गीता नाराज़ रहने लगी थी। सहेलियां मुंह चुराने लगी थीं।”

पर क्या इस रिश्ते को सामाजिक स्वीकृति मिली या मिलती? खुद ही तो कहती हैं,

“हम अपने आप को बहलाते फुसलाते बिना यह समझे कि ऐसे रिश्तों को दुनिया अपनी नज़र, अपने पैमाने, अपनी परम्परा से तौला करती है। दुनिया की नज़र में पति-पत्नी के अलावा औरत-मर्द का हर रिश्ता, नापाक है, ग़लत है।”

खुद ही प्रश्न खड़ी करती है ...

“मैं क्या लगती थी डॉक्टर साहब की? प्रियतमा, मिस्ट्रेस, शायद आधी पत्नी, पूरी पत्नी तो मैं कभी नहीं बन सकती, क्योंकि एक पत्नी पहले से मौजूद थी। बीस सालों से उनके साथ थी .. किस रूप में? इस रिश्ते को नाम नहीं दे पाऊंगी।”

“प्रेम करने वाली स्त्री पत्नी, मां, बहन, कुछ भी हो सकती है, फिर सीधे-सीधे उसे रखैल कहो ना।”

रखैल, ... यह भी कहना सही होगा क्या? उनसे ही सुनिए ..

“मैं तो खुद कमाती थी। स्वावलम्बी थी, एक आत्मनिर्भर संघर्षशील महिला थी।”

पिता को उनके जिगरी दोस्त और समधी ने जहर देकर मार डाला। पिता की मृत्यु (हत्या) के बाद परिवार पर आर्थिक संकट मंडराने लगते हैं। पढ़ाई छुड़वा दिया जाता है। वहां से इस लेखिका ने सीढ़ी दर सीढ़ी जीवन के मार्ग को प्रशस्त किया और कलकत्ते के पुरुष वर्चस्व वाले व्यावसायिक समाज में एक सफल उद्योगपति होने का रुतवा हासिल किया, कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स की अध्यक्ष बनीं। अनेकों उपन्यासें लिखीं, स्त्री के शोषण, मनोविज्ञान और मुक्ति के संघर्ष पर विचारोत्तेजक लेखन किया, ... यह उनके चरित्र का एक पक्ष है, ... तो दूसरा पक्ष है ... एक अविवाहित स्त्री, विवाहित डॉक्टर को पागलपन की हद तक प्रेम करना, जो पांच बच्चों का पिता है। इच्छा से गर्भपात कराती है, डॉक्टर पर आश्रित नहीं है, इसलिए “रखैल” का सांचा भी तोड़ती नज़र आती है।

“मैंने स्क्रैच से ज़िन्दगी शुरु की। बचपन एक बड़ी वाहियात-सी ज़िन्दगी थी। फुटपाथ खेल का मैदान था। सुधारवादी, आदर्शवादी, गांधीवादी पिता, सदा द्वन्द्व से घिरी मां, कभी परम्परा, कभी आधुनिकता के बीच झूलते हम बच्चे। अनाथ बचपन था। अम्मा ने कभी गोद में लेकर चूमा नहीं। मां से अधिक दाई मां से प्यार मिला। पड़ोस के खेदरवा से दोस्ती हुई। आत्मसम्मान की कमी ने ज़िन्दगी भर पीछा किया। ग़रीबी ने हसरतें पूरी नहीं होने दी। काला रंग का ताना सुनना पड़ता। विद्रोही स्वभाव हो गया।”

इतना कुछ करना एक मारवाड़ी लड़की के लिए कम साहस की बात नहीं थी। एम.ए.. पी-एच.डी. (दर्शनशास्त्र)। हॉलीवुड से ब्यूटी थेरापी का कोर्स, कलकत्ते में ब्यूटी पार्लर, फिर चमड़े के निर्यात का स्वतंत्र व्यवसाय। इंडिया टुडे में फोटो छपती है ... बहुत डायनमिक महिला है। सात उपन्यास, छह काव्य-संग्रह, चिंतन पर पुस्तकें, दो पुस्तकों का अनुवाद किया।

इतने के बाद भी क्या हुआ कि कहना पड़ा ** “मेरी कोई पहचान नहीं” ... ** “मैं भीतर ही भीतर सलाद की तरह कटती जा रही थी।”

कारण उनके ही द्वारा सुनिए ..

“मैं सधवा नहीं, क्योंकि मेरी शादी नहीं हुई, मैं विधवा नहीं ... क्योंकि कोई दिवंगत पति नहीं, मैं कोठे पर बैठी हुई रंडी भी नहीं...क्योंकि मैं अपनी देह का व्यापार नहीं करती।’’

स्वेच्छा से एक जीवन वरण करने वाले की इस स्थिति के बारे में उनका कहना है,

“आवारगी को समाज स्वीकार कर लेता है। मगर अविवाहित रहकर एक विवाहित पुरुष, पांच बच्चों के पिता के साथ टंगे रहना, भला यह भी कोई बात हुई?”

तभी तो बीमार डॉक्टर को इलाज के लिए अमेरिका ले जाते वक़्त उसकी पत्नी से एयरपोर्ट पर सुनना पड़ता है --- आप जैसे इन्हें लेकर जा रही हैं, वैसे ही ले भी आइएगा। ये मेरी अमानत हैं, मेरा सुहाग, मेरे बच्चों के पिता ...

पूछना चाहती है

“... और मेरे?” पूछ नहीं पाती। मन में कहती है --- “पच्चीस सालों के सम्बन्ध के बावज़ूद डॉक्टर साहब मेरे कुछ नहीं लगते?”

सच्चाई आत्मकथा की सबसे पहले और अंतिम शर्त है। आत्मकथा लेखन साहस का काम है। प्रभा जी के साहस की दाद देनी होगी। जब वे यह बोल्ड और निर्भीक आत्मस्वीकृति के रूप में आत्मकथा लिख रही थीं, तब वो कलकत्ते की एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सफल व्यापारी और अविवाहित महिला थीं। बहुत ही कम लोग होंगे जो खुले आम समाज के सामने आकर अपनी कमज़ोरी को स्वीकार कर ले। जहां एक ओर उन्हें प्रशंसा मिली वहीं दूसरी ओर “बेशर्म और निर्लज्ज स्त्री द्वारा अपने आपको चौराहे पर नंगा करने की कुत्सित बेशर्मी” का नाम भी इसे दिया गया।

“वैसे आत्मकथा लिखना तो स्ट्रीप्टीस का नाच है। आप चौराहे पर एक-एक कर कपड़े उतारते जाते हैं। दर्शक-वृन्द अपना निर्णय लेने में स्वतन्त्र हैं। उनका मन, वे इस नाच को देखें या फिर पलटकर चले जाएं।”

यह पूरी किताब तल्ख हक़ीक़तों का बयान है –

“मर्द हमेशा औरत को रुलाता है, ऑल मेन आर बास्टर्ड। वैसे इन मर्दों को पैदा हम औरतों ने ही किया है, नौ मिनट का सुख ... और नौ महीने का पेट ...”

फिर ऐसा क्या था कि उस डॉक्टर से ऐसा सम्बन्ध बना।

देह का आकर्षण?

“देह तो हर जगह उपलब्ध है। कहीं भी, किसी भी कोने में।”

मन का लगाव? प्रेम?

“हां...नहीं...वैसे सब कुछ देह से शुरु होता है।”

फिर???

“एक दिन प्रेम के मीठे से भी मन भर जाता है। बची रहती है – एक रुग्ण निर्भरता, डॉक्टर साहब मेरे लिए सुरक्षा के प्रतीक थे। एक बरगद की छांव। ऐसा लगता है स्त्री होना मात्र पाप है, एक हीन स्थिति है, गुलामों का जत्था है जो बिना मालिक के जी नहीं पाएगा।”

क्या यह पुस्तक एक प्रेम और प्रेम की कथा भर है? शायद नहीं। इसका लक्ष्य है न्याय। स्त्रियों को मिले सामाजिक न्याय।

“प्यार या तो जल्दी होता है, यानी बिना सोचे समझे या फिर हम ताउम्र दूसरे व्यक्ति को तौलते रह जाते हैं।”

“हर हिन्दुस्तानी लड़की का बस एक वही शाश्वत सपना – कब वह लाल चुनरी ओढ़ेगी? कब उसकी सुहागरात होगी, कब कोई धीरे से उसके लाज भरे चेहरे को हथेलियों में भरकर चूम लेगा मेरी ज़िन्दगी में भी तो सब कुछ कितनी जल्दी घट गया मगर बिना किसी उत्सव के, बिना मेंहदी के, बिना सिन्दूर के।”

जीवन के ये सारे संघर्ष, सारे उथलपुथल सिखाते रहते हैं।

“हम औरतें प्रेम को जितनी गम्भीरता से लेती हैं, उतनी ही गम्भीरता से यदि अपना काम लेतीं तो अच्छा रहता, जितने आंसू डॉक्टर साहब के लिए गिरते हैं उससे बहुत कम पसीना भी यदि बहा सकूं तो पूरी दुनिया जीत लूंगी।”

“औरत की सारी स्वतन्त्रता उसके पर्स में निहित है।”

इस पुस्तक में अन्य अनेक चरित्र हैं जो अन्याय से पीड़ित हैं। अमेरिका के संदर्भ में उनकी बातें सुनिए –

“अमेरिकी औरतें भी हम भारतीय औरतों की तरह असहाय हैं। केवल पैंट पहनने और मेक‍अप करने से औरत सबल नहीं हो जाती। अमेरिका में भी औरतों को अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ रहा है।”

मन्नू भंडारी से मुलाक़ात का वाकया बताते हुए कहती हैं ... “साहित्य की दुनिया में जिनके क़दमों की छाप पर मैंने चलना चाहा वे भी कहां इन आंसुओं की नियति से मुक्त थीं? राजेन्द्र यादव को उन्होंने जीवन साथी के रूप में स्वीकारा था लेकिन शादी के बाद एक दिन मन्नू जी ने रोते-रोते अपने पति-परमेश्वर के कारनामे सुनाए। ऐसे दगाबाज़ आदमी पर मुझे बेहद गुस्सा आया था। ग़लत पुरुष के हाथ में पड़कर औरत कितनी असहाय हो जाती है।”

आत्मकथा में स्त्री के कई रूप सामने आते हैं।

“कोई जन्म से स्त्री नहीं होती, समाज उसे स्त्री बनाता है।”

“स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व को आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है।”

स्त्री की अनेक किस्म की चालाकियां अथवा रणनीतियां न सिर्फ़ इस पुस्तक में रेखांकित की गई हैं बल्कि जिस परिवार नामक संस्था को हम महान मानते हैं, पति-पत्नी के संबंध को उच्चकोटि का मानते हैं, वह संबंध किस कदर खोखला हो चुका है और अंदर से सड़ रहा है, यह भी दिखाया गया है।

“माना कि पत्नीत्व एक संस्था है और पुरुष के लिए इस संस्था को चुनौती देना संभव नहीं।”

“डॉक्टर साहब चाहते थे कि मैं उनके परिवार में घुल-मिल जाऊं, परिवार का हिस्सा बनूं, बच्चों की परवरिश में हाथ बटाऊं, लड़कियों को स्मार्ट बनाऊं। आश्चर्य की बात तो यह थी कि उनकी पत्नी भी यही चाहती थीं। अतः हमारे आपसी सम्बन्धों में अजीब तरह की उभयवादिता थी।”

स्वार्थों के कारण यह संबंध महान है और किस तरह और कब इस संबंध के बाहर बनाए संबंध, जिसे सारा समाज अस्वीकार कर रहा था, किसी हद तक स्वीकार करने लगता है। लेकिन अंत में हुआ क्या? मिला क्या?

“मेरे पास आने से लोग डरते हैं, मेरा यह संबंध लोगों को आतंकित करता है। स्त्री को ही सारे लांछन सहने पड़ते हैं। पुरुष को कोई कुछ नहीं कहता। सम्बन्ध दो व्यक्तियों का होता है। दोनों ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। नैतिकवादी होने की इनकी सारी चेष्टा एक ढोंग के अलावा और कुछ भी नहीं।”

“अजीब समाज है। यहां सिर्फ़ कुंआरी कन्याओं और पत्नियों की ज़रूरत है।”

“मैंने ज़िन्दगी के पच्चीस साल आप सबके पीछे गंवाए हैं। अब और भ्रम पालने से क्या होगा? यह तो बताइए कि आप या आपके परिवार का कौन मेरा अपना हुआ? लोग मुझे आपकी रखैल कहते हैं।”

स्त्री से सब लोग पाना चाहते हैं, उसे कोई देना नहीं चाहता। ‘अन्या से अनन्या’ से एक बात यह भी निकलती है कि स्त्री-पुरूष के प्रेम में वस्तुत: प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग करता है। पुरुष में देने का भाव नहीं होता।

“भारत से एक पुरुष मित्र का फोन आया है, डॉक्टर साहब ने अन्दर वाले कमरे में फोन उठा रखा है। मुझ पर नियन्त्रण रखने का यह उनका अपना तरीक़ा है। मेरे नाम की हर चिट्ठी पहले डॉक्टर साहब की मेज पर आती थी। तीस साल के साथ के बावजूद मैं कभी उनका विश्वास नहीं जीत पाई। मेरे सम्पर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति वे संदेहग्रस्त रहते और रिश्तों की कैफ़ियत देते-देते मैं थक जाती। उधर इस अवैध रिश्ते के कारण लोग मुझे खराब औरत कहते।”

निष्कर्ष यह निकलता है कि मर्द जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बदलने के चांस नहीं हैं। बदलना है तो औरत बदले।

“डॉक्टर साहब जैसे पुरुष आखिर क्योंकर किसी एक से सन्तुष्ट नहीं हो पाते? और...और की खोज किसलिए? डॉक्टर साहब किसी और को खोज सकते हैं तो मैं क्यों नहीं खोज सकती?”

स्वयं की कमजोरियों को बताते समय लेखिका इस तथ्य पर जोर देना चाहती है कि इन कमजोरियों से मुक्त हुआ जा सकता है। स्त्री की ये कमजोरियां स्थायी चीज नहीं हैं। ये कमजोरियां स्त्री की नियति भी नहीं हैं।

“पुरुष जैसे औरत को काम में लेता है, औरत भी वैसे ही पुरुष का व्यवहार कर सकती है। औरत भी तो कह सकती है तू नहीं तो कोई और सही।”

“औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा रही है। पहले गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता है, फिर मुख्यधारा में यदि उसे स्थान दिया जाता है तब उस स्त्री को या तो अपवाद मानकर पुरुषवर्ग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है, या फिर उसे परे ढकेल दिया जाता है।”

“एक स्वतन्त्र स्त्री के प्रति रखरखाव की भावना गायब क्यों हो जाती है? पुरुष कमज़ोर स्त्री से ही क्यों प्यार करता है? और सबल स्त्री से चिढ़ता क्यों है?”

इस किताब का लक्ष्य यह भी है -- अव्यक्त को व्यक्त करना , निजी को सार्वजनिक करना, तभी यह व्यक्तिगत को सामाजिक बनाती है। जीवन के अनेक उलझी परतों को खोलती है।

“याद नहीं आता कि प्यार और सन्तुष्टि के क्षण कभी दो दिन भी मेरे जीवन में स्थायी रहे हों। एक अवैध रिश्ते को जीकर दिखलाने के प्रयास का शायद यही हश्र होना था, इससे भिन्न और कुछ नहीं।”

यह आत्मकथा एक आन्दोलन है। आत्मकथा अपने पाठकों को बाध्य करती है कि वे खुद भी अपने-आप से सवाल करें एवं वर्ग, जाति एवं संस्कृति के प्रभाव को समझें।

“स्त्री भी न्याय और औचित्य की मांग करेगी। इस नए सर्जित संसार में प्रगति का प्रशस्त मार्ग, घर की देहरी से निकलकर अनन्त छोर तक जाता है। स्त्री को यह समझना होगा। इन प्रश्नों पर संवाद होना चाहिए जो पीढ़ियों को घेरता हो। अपनी तमाम निर्भरता के बावजूद, एक सफल व्यवसायी महिला होते हुए भी एक इस सम्बन्ध के कारण लोगों की ताना-बोली और उपेक्षा का दंश सहने को विवश थी।”

'अन्या से अनन्या' प्रभा की आत्मकथा सारे भेद खोल देती है। यह दो-चार (रसीदी टिकट, एक कहानी यह भी, गुड़िया के भीतर गुड़िया और माई स्टोरी जैसी) महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में है।

'अन्या से अनन्या' में अंतिम प्रसंग है डॉ.साहब केंसर हो जाता है। डॉक्टर साहब कहते हैं, “अपने सांई भगवान से मेरे लिए दो साल मांग दो।” मिसेज सर्राफ़ कहती हैं, “अब आपको ही सब संभालना होगा। आप जो सेवा कर पाएंगी वह मैं नहीं कर पाऊंगी।” प्रभा जब पचास की थीं तब डॉक्टर साहब चल बसे। उनकी अर्थी के निकट परिवारजन थे, प्रभा परिवार में नहीं थीं, किसी तरह माला शव के पास रख पाईं।

“प्यार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए जिस साहस की ज़रूरत पड़ती है हमारे पास वह नहीं था। हम दोनों बड़े बुजदिल इंसान थे।”

“उनकी स्मरण सभा में उन्हें कई रूपों में सम्बोधित और याद किया गया। कलकत्ते के वरिष्ठ नागरिक, समाजसेवी, सफल डॉक्टर ... पीछे पत्नी और बच्चों को छोड़कर गए हैं। प्रभा खेतान नामक स्त्री का कहीं भी ज़िक्र नहीं था।”