अपच और कुपोषण का झूला / जयप्रकाश चौकसे

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अपच और कुपोषण का झूला
प्रकाशन तिथि :11 मई 2017


कुपोषण से होने वाली मृत्यु के मामले में मध्यप्रदेश अग्रणी है, शिक्षा के भयावह घोटाले में भी शिखर स्थान पर विराजा है परंतु पवित्र नदियों को जीवित व्यक्ति का स्थान देकर पाप-मुक्त होने का स्वांग कर रहा है। भारतीय दर्शन में नदी, पहाड़, वृक्ष इत्यादि को हमेशा ही जीवंत माना गया है, जिसके लिए किसी मुख्यमंत्री का प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए। हमारे एक वैज्ञानिक ने सदियों पहले लिखा था कि वृक्ष स्थिर मनुष्य हैं और मनुष्य चलते-फिरते वृक्ष हैं। यह व्यवस्था तो इस 'चलते-फिरते वृक्ष' के सारे फल खा जाती है और इसके तने के पीछे मल-मूत्र त्याग भी करती है। उज्जैन में एक उत्सव आयोजित करने के उपक्रम में करोड़ों के वारे-न्यारे हो गए हैं। चलती रेल में सवार व्यक्ति को स्थिर वृक्ष चलायमान लगते है और भागती रेल स्थिर बने रहने का आभास देती है। मुख्यमंत्री महोदय के स्थिर अवचेतन में 'विकास के आंकड़े' चलते-फिरते से स्थापित हो चुके हैं। इस सरकार की जड़ें इतनी गहरी है कि 'दिल्ली' हिल सकती है परंतु 'भोपाल' को कोई डिगा नहीं सकता। जड़ें तो प्रमोद महाजन तक जाती हैं या वहां से यहां आई हैं। पीठ पर बैठा बेताल ही इस रहस्य पर प्रकाश डाल सकता है।

भारत महान में जन्म कुंडली में बैठे सर्प योग से निदान के लिए वृक्ष से विवाह कराना भी एक टोटका है। भारत महान में सदियों के ख्यातनाम स्वयंभू अभिनेता ने भी अपनी होने वाली पुत्रवधु का विवाह वृक्ष से कराया था, क्योंकि उन्हें भी कुंडली इत्यादि में बड़ा भरोसा है और होना भी चाहिए, क्योंकि अरबों के घपले से बेदाग निकल अाने की अय्यारी वे दिखा चुके हैं। सोचो कभी ऐसा हो कि इस तरह का वृक्ष विवाह के स्वांग के पश्चात मधुरात्रि के अपने अधिकार पर अड़ जाए तो क्या हो? याद आता है कि 'बायसेन्टेनियल मैन' में रोबो अपने जन्मदाता वैज्ञानिक की सुपुत्री से विवाह करना चाहता है और यह प्रकरण चर्च व अदालत की संकरी गलियों से गुजरकर जब विवाह की आज्ञा देता है तो मशीन मानव रोबो की एक्सपायरी डेट आ जाती है। अब उसके पुर्जे अलग कर दिए जाएंगे। दवाओं की भी एक्सपायरी डेट होती है। अत: उस दिन के बाद दवा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कुछ जहरीली विचारधाराएं ऐसी होती है,जो अपनी एक्सपायरी डेट के बाद भी बिकती है। इसी तरह सेहत की मेडिक्लेम नियमावली भी एक्सपायरी डेट के बाद जारी होती है और कैंसर जैसी व्याधि से पीड़ित उम्रदराज व्यक्ति का क्लैम किसी काल्पनिक टेक्नीकल अाधार पर खारिज कर दिया जाता है। जब पूरी व्यवस्था ही कैंसरग्रस्त हो तो इस तरह के अधिकार निरस्ती का क्या रोना रोएं? यह इस काबिल भी नहीं कि इन पर आंसू बहाए जाएं। कोई बताए कि आंसू में नमक-सा स्वाद क्यों आता है, क्या हृदय के समुद्र से निकलती है ये नहरें? मनुष्य मन की गंगोत्री से जाने क्या-क्या निकलता है।

तर्कहीनता का उत्सव मनाती 'बाहुबली' में खलनायक मंत्री का एक हाथ सामान्य है परंतु दूसरा अत्यंत पतला है। उस हाथ के पतलेपन की तुलना पोलियोग्रस्त व्यक्ति के पैर से की जा सकती है। यह रुग्ण सृजन है, जो विकलांगता का ऐसा प्रतीक रचता है। यह शायद इसलिए भी रचा है कि कपटी का दाहिना हाथ नहीं जानता कि बायां हाथ क्या कर रहा है। मोदीजी का दायां-बायां केवल अमित शाह ही जानते हैं। भारत में राजनीतिक सिनेमा नहीं बनता जैसे अमेरिका के ऑलिवर स्टोन बनाते हैं। उन्होंने अपनी 'जेएफके' में कैनेडी के हत्यारे की ओर स्पष्ट संकेत किया है। सोचो अगर ऑलिवर स्टोन-सा कोई फिल्मकार राजनीतिक फंतासी इस तरह बनाए कि अमित शाह का 'कटप्पा' क्यों मोदीजी के 'बाहुबली' को मारता है तो हंगामा खड़ा हो जाए।

बाहुबली के हाथ प्रसंग की यह व्याख्या भी की जा सकती है कि पतला पोलियोग्रस्त-सा हाथ साधनहीन वर्ग का प्रतीक है और सामान्य हाथ निरंतर फलते-फूलते श्रेष्ठि वर्ग का प्रतीक है। फिल्म माध्यम का एक पक्ष सृजनशील फिल्मकार है तो दूसरा कल्पनाशील दर्शक है। फिल्मकार और दर्शक सिनेमा के सिक्के के दो पहलू हैं परंतु अंतर केवल इतना है कि कमाई के मामले में चित भी फिल्मकार की और पट भी फिल्मकार की ही होती है। यह खेल ऐसे ही जारी रहता है। बहरहाल, आम जनता कुपोषण से तो, व्यवस्था अपच से बेहाल है।