अपच के बहाने सांस्कृतिक पतन की फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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अपच के बहाने सांस्कृतिक पतन की फिल्म
प्रकाशन तिथि :12 मई 2015


सुजीत सरकार और उनकी लेखिका जूही चतुर्वेदी ने 'विकी डोनर' के बाद 'पीकू' बनाई है। यह एक अत्यंत संवेदनशील फिल्म है और पिता-पुत्री के रिश्ते के साथ अन्य मानवीय रिश्तों को भी गहराई से प्रस्तुत करती है। गौरतलब यह है कि सुजीत सरकार इसे भी अपने 'विकी डोनर' के कलाकारों के साथ बना सकते थे, क्योंकि उनके सिनेमा का सितारा वे स्वयं हैं तथा लेखिका जूही चतुर्वेदी। परंतु हर सृजनशील कलाकार बड़ा बजट चाहता है। फिल्म बनाना मंहगा हो गया है।

पूरे घटनाक्रम के केंद्र में अपच है। कुछ लोगों की पाचन क्रिया सशक्त है और उन्हें दिनचर्या में कोई कष्ट नहीं होता। कुछ लोगों को कांस्टीपेशन होता है। अर्थात शौच में कष्ट होता है तथा इसी का भाव दिनभर उनके काम और विचार को प्रभावित करता है। एक संवाद है 'मोशन ही इमोशन है'। सुजीत जी आपकी मोशन पिक्चर भी महान है। भारतीय मध्यम वर्ग में शौच इत्यादि की बातचीत को अभद्रता नहीं मानते। अपच गरीब मेहनतकश की समस्या नहीं है, उसका हाजमा तो इतना मजबूत है कि वह सदियों से भूख निगलकर भी डकार लेता है। इस फिल्म के सेवानिवृत भास्कर बनर्जी विधुर हैं और अपनी एकमात्र बेटी पीकू के साथ दिल्ली में रहते हैं। कोलकाता में उनकी भव्य पुश्तैनी हवेली में उनका छोटा भाई अपने परिवार के साथ रहता है। भास्कर पूरे समय अपने अपच से परेशान रहते हैं और चिड़चिड़ाहट उनका स्वाभाव बन चुका है। उनकी आर्किटेक्ट बेटी उनके साथ रहती है और उनकी खिदमत को अपना परम कर्तव्य मानती है। इस कारण वह पैंतीस पार उस वय में पहुंच गई है, जब योग्य वर उपलब्ध नहीं होते।

इस फिल्म में मुख्य पात्र का अपच व कांस्टीपेशन प्रतीक बन जाता है, उस आयात की गई जीवन-शैली का जिसने हमारी स्वाभाविकता लील ली है। इसी को रेखांकित करता है इरफान का संवाद कि अमेरिकन लोग दिनभर कुछ न कुछ खाते हैं और संभवत: तीन दिन में शौच करते हैं। जंक फूड निर्यात करते-करते वे स्वयं भी इसे खाने लगे हैं। उनका बर्गर और शीतल पेय इस कालखंड की सबसे बड़ी समस्या है और चारों तरफ फैल गई है। भारतीय बच्चों का असमय मुटापा व अमेरिकन टीवी की लत और पॉपकोर्न चबाते हुए अधलेटी स्थिति में घंटों व्यतीत करना राष्ट्रीय चिंता होनी चाहिए। फिल्म में इरफान का चरित्र ठेठ देशी सामान्य व्यावहारिक समझ का प्रतीक है। वह वॉशरूम में पश्चिम के कमोड के बदले उकड़ू बैठने के लाभ साबित करके दिखाता है। फिल्म में पश्चिम की कमोड का पोर्टेबल संस्करण दिल्ली से कोलकाता तक जाता है, क्योंकि उसके बिना अपच का शिकार रह नहीं सकता। यह वॉशिंगटन से प्रभावित दिल्ली का वामपंथी कोलकाता पहुंचने का प्रतीक है। इरफान द्वारा दिया सुझाव तुलसी उबालकर पीना भी अपच का लंबे समय तक शिकार रहे भास्कर बनर्जी की मदद नहीं कर पाना भी संकेत है कि हमारी घरेलू चीजें अब असरदार नहीं रहीं। सीमेंट के जंगल और प्रेमविहीन परिवारों के आंगन में तुलसी का पौधा कैसे पनप सकता हैं।

पीकू का आग्रह है कि कोलकाता की पुश्तैनी कोठी बेची जाए। परंतु जब वह कोलकाता की गलियों में अपना बचपन खोजते समय देखती है कि उसका प्रिय रहा सिनेमाघर टूट चुका है और वहां मॉल खड़ा हो गया है, तब इरफान उस आर्किटेक्ट को भारत की टूटती सांस्कृतिक व्यवस्था का ध्यान दिलाता है और वह घर आकर प्रॉपर्टी दलाल को खदेड़ देती है कि यह पुश्तैनी घर कभी नहीं बिकेगा। क्लाइमैक्स में वह अपच और कांस्टीपेशन के शिकार शादी के उम्मीदवार को अस्वीकार करती हैं, क्योंकि उम्र के कई दशक उसने इस रोग से पीड़ित पिता को देखा है। यह फिल्म का अपच, कांस्टीपेशन, वेस्टर्न कमोड यह सब भारत के गैर-भारतीय स्वरूप के प्रतीक हैं।

इरफान कॉमन सेन्स का प्रतीक पात्र यह भी कहता है कि वह विकास का राग कहीं हमारे अपच से भी जुड़ा है और मल्हार राग है, परंतु तुरंत शौच हो सके इसका कोई राग नहीं है। यह 'फंस गए रे ओबामा' नामक महान हास्य फिल्म में मंत्री पात्र की तरह है, जो शौचालय में मुक्ति के लिए मंत्र पढ़ता है। पीकू को जरा इस नज़रिये से देखिएं।