अपनी गवाही / मृणाल पांडे / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज कृष्णा को लगता है कि एक हद तक पुरानी चीजों की मरम्मत सम्भव है। फर्नीचर, पुराने बर्तनों, गहनों, चित्रों और पुरखों की हवेलियों तक को ठीक-ठाक करके फिर से उपयोग में लाया जा सकता है। पर भाषा के साथ यह नहीं है। वह गई तो गई। माँ को जो बातें मालूम थीं और जिन्हें वह अपनी सबसे कीमती यादों के तौर पर दिल से लगाकर रखे हुए थी, वे माँ की भाषा के मुरझाने के साथ ही पुरानी और अनुपयोगी बनती चली गई थीं। अपन बच्चों को उस युग की कहानियाँ सुनाना भी अब बीते दिनों की रंग उड़ी फिल्में दिखाने जैसा हो चला था।

पार्वती कहा करती थी,

‘‘पाठशाला तो अभी भी है पर सिर्फ इमारत भर है। वहाँ जो पढ़ाई होती है उससे आज की किसी लड़की को न दूल्हा मिल सकता है न काम।’’

कृष्णा को असली जीवन और दन्तकथाओं का फर्क दिखने लगा है।

पार्वती ने दर्जनों बार उनको सुना-सुनाकर यह बात कही होगी कि कैसे अगर उसे फिर से जीवन जीने का अवसर मिले तो वह कृष्णा के नखरों में न आकर उसे किसी कस्बे के हिन्दी मीडियम स्कूल में भेजने से मना कर देती। माँ यह कहकर सदा हँस देती थी, पर कृष्णा जानती थी कि बात पूरी गम्भीरता से कही गई थी।

जब माँ ने पहली बार यह बात कही थी तब कृष्णा तेरह वर्ष की थी और वह कांवेंट स्कूल में अपने दाखिले का विरोध कर रही थी। पिताजी बीमार थे और अपनी बहन के साथ कृष्णा को भी एक कांवेंट स्कूल में भेजने का प्रयास पार्वती ने थक-हारकर छोड़ दिया था। फिर भी कृष्णा जब कभी माँ की यह बात सुनती, उसका मन कचोटता।

माँ उसके बारे में बाहरवालों से जो-जो बातें कहती रहती थी, उसमें एक यह भी थी कि कृष्णा की अंग्रेजी कांवेंट के बच्चों जितनी अच्छी है। वैसे माँ को अपनी बेटी के हिन्दी और संस्कृत ज्ञान पर भी नाज ता जो उस वर्ग के बच्चों में प्राय: नहीं दिखता था। पिता के बाद कृष्णा और माँ को उसके वैधव्य के जीवन ने काफी बदल दिया। कृष्णा अब सोफे पर पालथी मारकर बैठ जाती थी और खूब सारी हिन्दी किताबें पढ़ती रहती। कई बार वह पाती थी कि माँ उसे एकटक निहार रही है। वह सोचती होगी कि कृष्णा अभी अपने खयालों में गुम होगी, लेकिन कृष्णा को लगा कि माँ की टकटकी के पीछे यह चिन्ता छिपी थी कि उसकी यह धूमकेतु सी पगली बेटी पता नहीं कब क्या करने लगे। उसे लगता था कि कहीं वह कलम ही न पकड़ ले क्योंकि तब अपनी कलम से वह जो कुछ उगलेगी वह तूफान ही खड़ा करेगा। और काफी समय बाद जब कृष्णा ने अपना अध्यापन का काम छोड़कर एक हिन्दी समाचार एजेंसी में काम करने के फैसले की जानकारी देने के लिए फोन किया तो उसे लगा जैसे माँ को इस तरह की खबर का अन्देशा काफी पहले से था।

‘‘हाँ,’’ पार्वती ने कहा,


‘‘काम तो बढ़िया लगता है,’’ फिर थोड़ा रुककर,


‘‘लेकिन तुझे बड़ी देर-देर तक काम करना होगा ? पोलिटिकल प्रेशर होंगे ? थानों और दंगाग्रस्त इलाकों के चक्कर लगाने होंगे ?’’


‘‘उससे क्या होगा ?’’


‘‘क्या तू यह सब झेल सकेगी ? क्या तू यह सब करना चाहती है ? राजनेताओं की संगति में ज्यादा दिखनेवाली औरतों को मर्द आदर के साथ नहीं देखते।’’


‘‘आदर-वादर नहीं, सालों को अपनी मर्दागनी को खतरा लगता है।’’


कृष्णा को अचानक लगा कि वह चीख रही है।


माँ खामोश रही। गाली उसकी बर्दाश्त से बाहर थी।


‘‘ठीक है, गुडलक,’’ उसने आखिर में कहा और फोन काट दिया।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
अगर आपके पास पूर्ण रचना है तो कृपया gadyakosh@gmail.com पर भेजें।