अपने–अपने स्वार्थ / तारिक असलम तस्नीम

Gadya Kosh से
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दिन के आठ बज चुके थे और जमात दूसरे शहर जाने के लिए तैयार थी। मस्जिद में बैठे लोग आपस में कुछ मशविरा कर रहे थे।

अचानक एक नौजवान कुछ पैकेट लेकर हाजिर हुआ। सबके हाथों में एक-एक दे दिया गया। मेरी समझ में कुछ आया। इससे पहले अमीर-ए-जमात ने हँसते हुए बताया-- आप लोगों को पता नहीं क्या? कल असगर साहब की बेटी का रिश्ता शमशाद माहब के बेटे से पक्का हो गया। कल ही उन दोनों का निकाह था न। रस्म की यह मिठाई है। आप सभी भी नाश्ता कर लें। फिर यहाँ से निकलते हैं।

यह जानकर मेरा चौंकना स्वाभाविक था। मैंने पास बैठे एक साहब से जानना चाहा-- करीम साहब, इन दो खानदानों के बीच रिश्ता कैसे पक्का हो गया। असगर साहब तो जात के सैयद हैं और शमशाद साहब अंसारी?

-- तब कैसे हो सकता है? आपको कॉलोनी में रहते हुए अभी हुए भी कितने दिन हैं? मैं बताता हूँ आपको। यह दोनों ही सैयद ही हैं।

-- यह कैसे हो सकता है? शमशाद साहब तो अपने नाम के साथ भी अंसारी लिखते हैं? फिर वे सैयद कैसे हो सकते हैं?

-- बिल्कुल हो सकते हैं, चूंकि आपको मालूम नहीं है। शमशाद साहब को सैयद जात के कारण नौकरी मिलने में कठिनाई हो रही थी, इसलिए उन्होंने न केवल अपने नाम के साथ अंसारी लिखना शुरू किया बल्कि अत्यन्त पिछड़ी जाति का प्रमाण-पत्र बनवा कर नौकरी भी हासिल कर ली। वही है असलियत, समझे आप।