अपने-अपने कुरुक्षेत्र / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
अपने-अपने कुरुक्षेत्र
प्रकाशन तिथि : 03 अक्तूबर 2012


दशकों पूर्व बनी हॉलीवुड की फिल्म 'स्पार्टाकस' के एक दृश्य में विद्रोही वीर स्पार्टाकस को दंडित करने भारी फौज आई है और कमांडर कहता है कि वे केवल स्पार्टाकस को दंडित करने आए हैं, जनता बताए कि स्पार्टाकस कौन है? भीड़ में मौजूद स्पार्टाकस उजागर होने का निर्णय करने को है कि भीड़ में से एक व्यक्ति कहता है कि वह स्पार्टाकस है, दूसरा व्यक्ति भी यही दोहराता है धीरे-धीरे सभी स्वयं को स्पार्टाकस घोषित करने लगते हैं। यहां तक कि एक कमजोर बीमार वृद्ध भी स्वयं को स्पार्टाकस कहता है। कमांडर हतप्रभ है।

कुछ समय पहले 'मैं अण्णा हूं' टोपियां पहने लोग जंतर-मंतर पहुंचे थे और अनेक नगरों में लोग यह टोपी पहने नजर आए। दरअसल रातोंरात लाखों टोपियां नहीं बनतीं। सब कुछ पूर्वनियोजित था, परंतु अण्णा आंदोलन में धन कौन लगा रहा है, यह स्पष्ट नहीं हुआ। उस दौर में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी प्रमुख प्रवक्ता थे और टीम अण्णा के मेरुदंड कहलाते थे। उस समय दिग्विजय सिंह का कहना था कि सारा खेल आरएसएस रचित है। हर्ष मंदर के लेख में उन्होंने लिखा था कि वे स्वयं सभास्थल गए थे, परंतु सारी व्यवस्था आरएसएस की होने के कारण वहां से लौट आए। मंच पर जंजीर में बंधी भारतमाता का चित्र भी इसी दल का था। बाद के चरण में वह चित्र हटा दिया गया। यह धारणा उस समय मजबूत हो गई, जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार में शामिल होने की बात के समय अण्णा ने सुविधापूर्ण मौन व्रत धारण किया।

उस समय यह भी कहा जा रहा था कि अरविंद केजरीवाल की सत्ता की महत्वाकांक्षा है और वे अण्णा पर इस तरह हावी हैं कि अण्णा को अपनी नाक के पहले अरविंद नजर आता है। टीम अण्णा के उद्देश्य स्पष्ट थे, परंतु सारे तौर-तरीके और भाषा तानाशाहीपूर्ण थी। उन दिनों उस टोपी को गांधी टोपी कहा गया, जबकि गांधीजी ने पहले चरण में काठियावाड़ी पगड़ी पहनी थी। न जाने कब और कैसे नेहरू की टोपी को गांधी टोपी कहा जाने लगा। बहरहाल, वर्तमान समय में कोई सिर इतना बड़ा नहीं है कि गांधी टोपी पहने और किसी भी सरकार की गर्व से चौड़ी छाती पर नेहरू जैकेट छोटा ही पड़ेगा।

इतने कम समय में विरोध का परिदृश्य बदल गया और अब टोपियों पर लिखा है 'मैं केजरीवाल हूं।' राजस्व विभाग के इस भूतपूर्व अधिकारी की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा कभी भी छुपी नहीं थी, परंतु हर व्यक्ति को राजनीतिक सत्ता के सपने देखने का हक है। अरविंद चतुर हैं और वे जानते हैं कि दिल्ली की जनता प्राय: सत्ताधारी दल के खिलाफ वोट करती है, अत: अवसर का लाभ उठाकर वे दिल्ली से चुनावी दंगल में दाखिल हो रहे हैं, जैसे हिसार में कांग्रेस के कमजोर प्रतियोगी के खिलाफ प्रचार में शामिल हुए, परंतु उनकी सहायता से जीते व्यक्ति पर भी आरोप हैं। इस समय भारत में दागदार को दागदार से ही बदला जा सकता है, क्योंकि पूरे कुएं में भांग पड़ी है। यह भी संभव है कि अरविंद को किरण बेदी का विरोध सहना पड़े, क्योंकि दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर उनकी भी निगाह है। गौरतलब बात यह है कि अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में दिल्ली की जनता से आह्वान किया कि वे बिजली का बिल नहीं भरें। इस विरेाध ने उनकी लोकप्रियता में अच्छा-खासा इजाफा किया है, क्योंकि मुफ्त में बिजली के उपयोग की इच्छा हर हिंदुस्तानी दिल में हमेशा बलवती रही है। माले मुफ्त, दिले बेरहम। गौरतलब यह है कि भ्रष्टाचार का विरोध तो जायज है, परंतु इस विरोध के परदे के पीछे अराजकता की हिमायत तो नहीं की जा सकती। व्यवस्था सड़ांध से भरी है, परंतु उसके बदले तानाशाही या अराजकता की ताजपोशी नहीं की जा सकती। हर विरोध के साथ एक तर्कपूर्ण और सही व्यवस्था का प्रारूप प्रस्तुत करना जरूरी है। गांधीजी के पास ठोस आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की योजना भी थी। विकल्प की परिकल्पना के बिना किया गया विरोध मात्र विरोध के लिए रह जाता है।

अब देखना यह है कि अण्णाविहीन अरविंद और केजरीवालविहीन अण्णा की क्या स्थिति बनती है। हमने विरोध द्वारा जन्मी अकर्मण्य सरकारें भोगी हैं। देश में बिजली के संकट का एक कारण तो बिजली की चोरी भी है। जिस देश के अधिकांश नागरिक भ्रष्टाचार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल हों, उस देश में शायद गांधी भी अपने पुनरागमन में लडऩे में कष्ट महसूस करें। सारे सुधार परिवार की इकाई से ही प्रारंभ होना चाहिए। जीवन-मूल्यों की स्थापना और सांस्कृतिक शून्य को हटाने से मार्ग बनेगा।