अपने भूले रहने की याद में जीवन : नवीन सागर / अशोक अग्रवाल

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दो बारिशों के बीच कोई जगह ऐसी होती है

जहाँ पिछली सारी बारिशों की स्मृतियों

के अर्थ बदल जाते हैं

उस जगह पिछली बारिश में उगी झाड़ियों

पर फूल खिलने लगते हैं

राजेन्द्र धोड़पकर


नवीन सागर का एक पत्र

प्रिय अशोक,

इधर की तुम्हारी कहानियों की भाषा में जो बदलाव आया है, उसका सम्बन्ध तुम्हारी नई व्यस्तता से हो शायद, लेकिन यह परिवर्तन मुझे बहुत अच्छा लगा । तुम्हारी कहानियों की भाषा का आवेग — यह आवेग मुझे अक्सर दिक़्क़त देता था । इधर भाषा में एक तरह का सर्जनात्मक घनत्व, जिसमें अन्तःस्तरी पर गहरी प्रक्रियाओं का बेआवाज़ जाल होता है ।

अब एक वज्रपात !

मैं पिछले तीन वर्षों से लगातार कविताएँ लिखता रहा हूँ. कुछ छपवाई भी हैं. अब इतनी हो गई हैं कि उनमें से छाँटकर एक कविता पुस्तक बन जाए. मैं पाण्डुलिपि तैयार कर रहा हूँ. अगर तुम मुझ जैसे अनाम अज्ञात कवि का संग्रह छापने की, यानी नुकसान उठाने की स्थिति में हो, तो पत्र द्वारा सूचित करो. मैं पाण्डुलिपि फौरन भेज दूँगा. तुम देखकर ये भी बता देना यदि तुम छापने में असमर्थ या समर्थ हो तो भी ये छपाने योग्य है कि नहीं. राजेश जोशी और कुछ अन्य मित्रों का कहना है कि संग्रह छपाया जाना चाहिए, फिर भी तुम्हारी राय मेरे लिए जरूरी है.

आशा है पत्र दोगे.

पिछले दिनों भोपाल होकर चले गये और मुझे पूछा तक नहीं इस बेरुखी से मुझे कष्ट हुआ. पत्र जरूर दोगे.

तुम्हारा नवीन सागर

मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, रविन्द्रनाथ टैगोर मार्ग

भोपाल.

20 अप्रैल 2022 के दिन यह पत्र पुराने कागजों में दुबका सामने चला आया. इस पत्र में दिनांक नहीं लिखी गई है. अनुमान से यह वर्ष 1985 के आस-पास का कोई एक दिन रहा होगा. वर्ष 2000 में नवीन सागर का आकस्मिक निधन हुआ था. हिंदी मासिक कथा देश में नवीन सागर पर केंद्रित अंक में मेरा एक स्मृति आलेख प्रकाशित हुआ था.

इस पत्र नें सुप्तावस्था में पड़े उस अनोखे किस्सागो की अनेक अधूरी और अनलिखि दास्तानों को जागृत करना प्रारंभ कर दिया. इस आलेख को बीस वर्ष पहले लिखी स्मृति के उत्तरार्ध की तरह भी पढ़ा और देखा जा सकता है.

नवीन सागर की किस्सागो का अंदाजे-बयां सम्मोहक और जादुई था. उसकी स्मृति की पोटली में असंख्य चरित्र धड़कते रहते और जिन्हें वह जब चाहता जागृत कर अपने श्रोता को उनकी दुनिया में चहलकदमी कराने ले चलता. किस्सागोई की यह अद्भुत शैली हर किसी को सिद्ध नहीं होती. इस किस्सों और चरित्रों को शब्द-बद्ध करने का विचार उसके मन में आता रहता और स्थगित होता रहता. जीवन की कशमकश ने उसे वह वांछित अवकाश उपलब्ध नहीं कराया जिसकी उसे प्रतीक्षा रही होगी. ऐसी ही अधूरी अनलिखि रह गई उसकी कुछ दास्तानें सुनाने की एक झिझक भरी कोशिश उसका यह श्रोता कर रहा है.

रफीक मियां की जादुई पतंग, जिसे देख आसमान भी दंग रह गया

रफीक मियां का पतंग बनाने का धंधा पुश्तैनी था. खूँटियों से लटकी रंगबिरंगी पतंगों के बीच इस धरती पर आँखें खोलने से पहले उन्होंने अब्बू जान को अपने कान में फुसफुसाते सुना- ‘मेरे बच्चे एक दिन आसमान भी तुम्हारी पतंग को देख तुमसे रश्क करेगा.’

रफीक मियां पंद्रह साल के रहे होंगे जब अब्बू खुदा को प्यारे हो गये. रुख़सत होने से पहले अपने इकलौते बेटे-शागिर्द की नाजुक उंगलियों में पतंग बनाने के सारे हुनर सहेज गये.

गृहस्थी के जंजाल में रफीक मियां ने कब बुढ़ापे की दहलीज़ में कदम रखा उन्हें पता न चला. जब कभी फुर्सत पाते तो एक खास रंग की साफ-सफ़ाक़्क पंतग उठा उस पर अनदेखे पहाड़, घाटियाँ, नदियां, झरने और भांति-भांति की तितलियाँ और परिंदे नक्श करना शुरू कर देते. पूरे बरस में वे ऐसी दो-तीन पतंगे तैयार करते और सबकी नजर से दूर एक अलमारी में छुपा कर दख देते.

रफीक मियाँ उम्र के उस पड़ाव पर आ गये जब मोटे लैंस के चश्मे के बावजूद धुंधला दिखाई देने लगा. इकलौता बेटा पास के बड़े शहर में जूते बनाने के कारखाने में नौकरी करने लगा और अपनी गृहस्थी भी उसी शहर में बसा ली. रफीक मियाँ के पास उनकी एक बेवा लड़की आकर रहने लगी.

रफीक मियाँ अपने जीवन की आखिरी पतंग बनाने में पूरी तरह खो गये. न खाने का होश रहा और न खुदा की नियमित इबादत करने का. उस रात के आखिरी पहर जब उन्होंने ब्रुश से पतंग को आखिरी बार छुआ उसी समय उनकी रूह खुदा के भेजे दूत के आने से ठीक एक पल पहले पतंग पर झिलमिला रहे सितारे में छिपकर बैठ गई. रफीक मियाँ की रूह ने खुदा के भेजे दूत को भी चकमा दे दिया.

अगली सुबह उनकी बेवा बेटी ने तो देखा अब्बू के रूई के सफेद फाहों जैसी मुलायम उंगलियों में फँसी पतंग को खरौंच तक न आई थी. मुँह से रुलाई का सोता फूटे उससे पहले उसने कानों में फुसफुसाहट सी सुनी- ‘अब्बू जान का आखिरी तोहफा समझ इस पतंग को अलमारी में सहेजकर रख दो.

उसी कस्बे में अल्ताफ़ नाम का एक कबूतरबाज रहता. जामा मस्जिद के वक़्फबोर्ड द्वारा आवंटित पुश्तैनी घर उसे विरासत में मिला था. गृहस्थी बसाने की बजाय उसने कबूतरों की सोहबत को तरजीह दी. झऽक़ सफ़ेद कबूतरों के समूह में कुछ चितकबरे कबूतर गुटरगूँ करते अपनी गर्दन फुलाए रहते. बाजरे के दाने और कबूतरों की बींट पिंजरों के भीतर और बाहर छितराई रहती. उनके साथ गुफ्तगू करते कब सुबह से शाम हो जाती उसे पता तक न चलता. शाम के समय वह पिंजरे खोलता और अपनी हथेली पर बैठा उन्हें आसमान की ओर उड़ा देता. अंधेरा होने से पहले उसके मुंह से तेज सीटी की तरह एक ध्वनि आसमान की ओर उठती. यह उन परिंदों के घर लौटने का इशारा होता. दूसरी छतों पर टकटकी लगाए छोटे-छोटे बच्चों की अचंभित आंखें परिंदों को उसकी हथेली पर उतरते देखतीं. कस्बे में अल्ताफ कबूतरबाजों का खलीफ़ा के नाम से पुकारा जाता.

अल्ताफ का दूसरा शौक पतंगबाजी था. बसंत पंचमी के विशेष दिन कस्बे के पतंगबाजों के बीच घोषित प्रतिस्पर्धा होती. पतंगबाजी के दीवानों और उनके शार्गिदों की तेज किलकारियों, चीखों और भांति-भांति की गूंजों से घरों की छतें डगमगाने लगतीं. आसमान रंग-बिरंगी पतंगों से छा जाता. अल्ताफ साल-दर-साल पतंगबाजी के चैम्पियन खिलाड़ी का ताज सुशोभित करते रहे.

पिछले दो साल से इस स्पर्धा में वह लगातार शिकस्त पा रहे थे. शिकस्त का जख़्म ऐसा नासूर बन गया जो हर पल रिसता रहता. इस बार बसंत पंचमी के पहले की रात उन्हें इलहाम हुआ कि उनके चैंपियन बने रहने की असली वजह रफीक मियाँ की पतंगे थीं. रफीक मियां जिस दिन से खुदा के घर रुखसत हुए उसके बाद शिकस्त उनके नसीब में लिख दी गई.

दरवाजे की ठक-ठक ने रफीक मियाँ की बेवा बेटी की नींद में खलल डाला. दरवाजा खोला तो सामने पस्त हाल अल्ताफ को देख सन्नाका खा गई.

‘मुआफ़ करना आपा जान जो सुबो-सुबो आपको तकलीफ देने चला आया. महरूम रफीक मियाँ की कोई पतंग मुझे मिल सकेगी?’ वह उसे खाली हाथ लौटाने ही वाली थी कि उसने कान में अब्बू की फुसफुसाहट सुनी. उसे अलमारी में रखी उनकी आखिरी पतंग की याद हो आई.

अल्ताफ की उंगलियों ने उस पतंग को छुआ तो उनके जिस्म का रोंया-रोंया सिहरन से भर गया. पतंग के आसमानी फलक पर बिखरे कुदरती नजारों के रूहानी जादू की गिरफ्त में वह ऐसा मदहोश हुआ कि लौटते हुए आपा जान का शुक्रिया अता करना भी भूल गया.

बसंत पंचमी के दिन अपनी-अपनी छतों पर मुस्तैद पतंगबाजों, शार्गिदों और दर्शकों की भीड़ ने अचंभित आंखों से देखा कि सभी पतंगों को चकमा देती एक आसमानी रंग की पतंग सितारों सी झिलमिल करती सभी पतंगों को पछाड़ती ऊँची और ऊँची उठती जा रही है. सभी की हैरत भरी निगाहें अल्ताफ की ओर टिक गईं जो उस आसमानी पतंग की डोर थामे सिर्फ आसमान की ओर देख रहा था.

पतंग अब अल्ताफ के काबू में न रही थी. डोर का आखिरी छोर उसके हाथ में आया. तब ही खुली आँखों ने खुदाई करिश्मा देखा. पतंग ने डोर से अपने को अलग कर लिया था, फिर भी डोर हवा में उसी तरह तनी थी. उसे पतंग पर सवार रफीक मियाँ दिखाई दिए जो उसकी ओर देखते अलविदा का हाथ हिला रहे थे.

पतंग पर सवार रफीक मियां की रूह अनोखे आनंद से सराबोर उस सितारे की ओर उड़ रही थी जहाँ आज तक किसी के कदम नहीं रखे गये. आँधी, तूफान, बारिश और विशालकाय आकाशचारी जीवों को चकमा देती वह नन्ही पतंग ऊँची और ऊँची जा रही थी. उस छोटी पतंग का यह करिश्मा देख उस दिन आसमान भी दंग रह गया. ऐसा उसने करोड़ों साल में कभी नहीं देखा.

उस दिन के बाद अल्ताफ को किसी ने नहीं देखा. मुहल्ले वाले उसकी खोज खबर के लिए उसके घर की छत पर आए. बाजरे के चंद दाने और परिंदों की बीट के निशान के सिवाय वहाँ कुछ नहीं था. पिंजरों के दरवाजे खुले हुए थे.

इंसोमनिया की चपेट में आया किस्सागो

मैंने एक बूढ़े कुत्ते को

गरमियों की रात में

इतना निस्पृह देखा

कि जितना चाँद निस्पृह था.

और जितने तारे टिमटिमा रहे थे

नवीन सागर

उन दिनों किस्सागो भोपाल की प्रोफेसर कालोनी के एक छोटे क्वार्टर में रहता था. खंडहर सी दिखती बाउंडरी के सिरे का गेट मुश्किल से टिका था. किस्सागो का यह क्वार्टर रेनेसॉ काल के प्रकृतिवादी चित्रकार के भू दृश्य सरीखा लगता. ऐसा ही कोई चित्रकार किस्सागो के अर्न्तलोक में वटवृक्ष की अदृश्य जड़ों की तरह अपना डेरा जमाए था. ग्रंथ अकादमी के छोटे कक्ष में अपनी मेज के इर्दगिर्द शहर के शायर, कवि और कथाकारों के जमावड़े के बीच उसकी अंगुलियाँ सामने रखे कागज पर पेंसिल, काली स्याही की बारीक निब के पैन या पैंसिल से अपने कल्पना लोक के भूदृश्यों को आकार देने में मशगूल रहती.

उन उदास रातों के सूक्ष्म ब्यौरे बयान करती किस्सागो की शिशु जैसी आँखों की पवित्र रोशनी और चेहरे की स्थायी मुस्कान यथावत बनी रही.

‘न जाने उन दिनों आँखों की नींद कहां छूमंतर हो गई थी. कोई आहट या मेरे जागे रहने का कोई संकेत करीब सोए पत्नी और बच्चों की सुखी नींद में विघ्न न पहुँचाये इसका ख्याल रख बाहर बरामदे में चला आता. गेट के पास लालू गर्दन झुकाये बैठा होता. लालू की पीठ सहलाता तो धीरे से आँखें खोल गुर्राता और फिर पीछे-पीछे चलता बरामदे की सीढ़ियों पर मेरे नजदीक बैठ जाता.’

‘ईंट जैसी उसकी रंगत देख बच्चों ने पहले ही दिन उसका नामकरण किया— लालू. लालू की पुकार सुन वह दौड़ा चला आता. छोटे कद की श्यामा उसकी संगिनी साथ बनी रहती. इस किस्सागो का घर उस लेन में उनका पसंदीदा डेरा बन गया था.’

‘दूसरी गली का एक दबंग कुत्ता अक्सर उस ओर आ निकलता. उसकी संगिनी पर हक जमाता गुर्राते हुए लालू को चुनौती देता लालू उससे उन्नीस ठहरता. मेरी उपस्थिति उस दबंग को गुर्राने के अलावा कुछ और अधिक करने के उसके मनसूबों में विघ्न उत्पन्न करती और वह एक टाँग उठा मूत्र विसर्जित कर मेरी ओर घूरता और वापिस लौट जाता.’

‘पूरे परिवार की अनुपस्थिति में एक दिन वह दबंग कुत्ता आया और लालू की संगिनी का अपहरण कर चलता बना. जख्मी और शिकस्त खाया लालू झाड़ी में छिपा कराहता रह गया.’

‘उस दिन के बाद लालू गमगीन दिखाई देने लगा. देखते-देखते उसकी सारी शरारतें, एक पुकार पर दौड़कर चले आना, उसके जीवन के सारे वसंत जैसे पतझड़ में बदल गये, उसके दांत भी कमजोर हो चले थे. एक बार में आधी रोटी से अधिक न खा पाता. शेष रोटी को वहीं मिट्टी में दबा देता. उन्हीं दिनों मुझे उसकी क्रियाएँ देख मुझे पहली बार एहसास हुआ कि उसका देखना भी कमतर हो गया है. सूँघने की शक्ति भी क्षीण हो चली थी. जब उसे भूख सताती तो मेरे पास से उठकर मिट्टी में दबी रोटी को जगह-जगह पंजों से गड्ढा खोद तलाशता रहता कभी रोटी मिल जाती तो मुंह में दबाए मेरे पास लौट आता और असफल रहने पर निस्पृह भाव से उसी तरह गर्दन झुकाए बैठ जाता, कुछ देर बार फिर वैसा ही प्रयास करता और इस बार हाथ में छोटी खुर्पी लिए मैं भी उसकी रोटी की तलाश में सहायक की भूमिका में स्वयं को ले आता.’

‘लालू के दो-तीन बार असफल रहने पर एक उपाय सूझा. रसोईघर से रात की शेष बची रोटी लेकर मैं लोटा और लालू को ओट में रख उसे मिट्टी में दबा दिया, फिर देर तक उसके साथ रोटी की तलाश के अभिनय में जुटा रहता. सीधे-सीधे उसे रोटी पकड़ाना पता नहीं क्या मुझे उसके स्वाभिमान और संघर्ष को ध्वस्त करने जैसा लगता जब वह मेरी दबाई रोटी ढूँढने में कामयाब हो जाता तो जैसे मेरे भीतर भी उमंग और नये जीवन का संचार होने लगता.’

किस्सागो ने अपनी बात को विराम लगाते कहा- ‘लालू उस्ताद का शुक्रिया कहने का हक तो बनता ही है. जिसने उन अनेक आती-जाती ऋतुओं की अंधेरी और तारों भरी लम्बी रातों के सफर को आसान बनाया. किस्सागो के पास उसके कर्ज से मुक्त होने के लिए एक कविता के सिवाय और भला क्या हो सकता है!’

चित्रकूट के शरारती बंदर

ग्रंथ अमादमी की ओर से चित्रकूट में पुस्तक प्रदर्शनी आयोजित करने का दायित्व किस्सागो को मिला तो उसकी खुशी का ओर-छोर न रहा.

‘पहला काम बाजार से बढ़िया कागज के दस्ते, नया पैन और पेंसिल जुटाने का किया. दफ्तर के बासी माहौल से निकलने का मौका मिला. सोचा यही कि वहाँ ढेर सारा अवकाश उपलब्ध होगा और मन में बसी कहानियों, कविताओं और चित्रों की अनसुनी आवाजें वहाँ इत्मीनान से सुन पाऊँगा.

‘मंदाकिनी नदी के रामघाट स्थित धर्मशाला की ऊपरी मंजिल के कमरे में बसेरा जमाया. हवादार बालकॅनी और सामने बहती नदी. नदी तट के जिंदगी की धड़कनों और रंगों से भरे दिलकश नज़ारे और उनके बीच स्वछन्द घूमते बंदरों की ठिठौलियाँ.

‘मेरे देखते-देखते रामचरितमानस की चौपाई का गायन करते भक्ति भाव में डूबे उस निरीह प्राणी के गाल पर एक झर्राटेदार तमाचा पड़ा और जब तक वह अपने इस अपमानित होने का आभास पाते कपीशजी महाराज अपनी कारीगरी दिखाते उनकी जेब में रखे चश्मे की डिबिया ले उड़े, रामचरितमानस की चौपाइयों की जगह जिस तरह उनके कंठ से जिन अद्भुत शब्दों और वाक्यों का निस्तारण हुआ वह शब्दकोश में से दर्ज होने का अधिकार रखते थे. कपीशजी महाराज उनकी पहुँच से दूर दूसरी इमारत के शिखर पर खीं-खीं की ध्वनि के साथ उनका मखौल उड़ाते रहे. शिकस्त पाए उन महाशय को अपनी लापरवाही के लिए दो केलों का प्रसाद उनकी सेवा में अर्पित करना हुआ. कपीशजी महाराज ने निस्पृह भाव से उनकी झोली में उनके चश्मे को टपका दिया.

‘दूसरी सुबह मेज पर कुछ खाली कागज और पैन रख कुछ देर के लिए बाथरूम गया. लौटा तो देखा खाली कागज हवा में नाच रहे थे. एक छोटा वानर शिशु मेरा पैन हाथ में उठाए बालकॅनी की मुंडेरी पर बैठा उसे बड़े गौर से उलट पलट रहा था. सुबह बाजार से लाए केले से मुसकुराते हुए मैंने उसका अभिनंदन किया तो केला उठाने से पहले वह पैन को अपने कान में अटकाना न भूला. उसका यह करतब देख यह किस्सागो भी मुसकुरा उठा. इस बीच उस वानर शिशु के तीन चार साथी भी वहाँ चले आये और किस्सागो को उन सभी का उसी तरह स्वागत करना हुआ.

‘कुछ दूरी पर बैठे एक वयोवृद्ध विशालकाय कपीश जी जो उनके पितामह रहे होंगे छिपी नजरों से उनकी अठखेलियों की चौकसी कर रहे थे. दूसरा कोई वानर उस ओर आने की चेष्टा करता तो एक घुड़की से उसे डपत देते. मेरा पैन अभी भी उस वानर शिशु के कान में फसा था. पैन के प्रति मेरी उदासीनता देख उसका भी उत्साह जाता रहा. उसने उसे वहीं बालकॅनी में टपका दिया.

‘उन वानर शिशुओं के चले जाने के बाद देखा कि छोटा वानर शिशु अभी भी एक कोने में दुबका बैठा था. उसकी पिछली दो टांगें निर्जीव थीं. आगे की दो टांगो के सहारे वह बड़े मेंढक की तरह उचकता चल रहा था. उसके पिछड़ने का कारण यही रहा होगा. उसके हिस्से का केला बचाए न रख पाने का मलाल उस समय दूर हुआ जब बिस्किट का पैकेट हाथ लगा….

‘अपने कमरे में लौटते हुए तो उसके झोले में केलों के अलावा चने और मुरमुरे भी लाना न भूलता. दो टांग वाले शिशु का तो जैसे मेरे कमरे की बालकॅनी स्थायी डेरा बन गया था. मेरे दरवाजा खोल बालकॅनी में आता तो वह वहाँ पहले से उपस्थित होते.

किस्सागो मुस्कराए-

‘एक-एक कर वे सात दिन कैसे बीत गए पता न चला. कोरे कागज जैसे साथ आए उसी तरह वापिस लौट गए…. कोई अहमक कवि ही ऐसा रहा होता जो इन जीवन से स्पंदित प्राणियों और दृश्यों को अनदेखा-अनसुना कर कोई कविता या किस्सा या चित्र रच रहा होता.

‘कभी-कभी उस दो टांग वाले वानर शिशु का आज भी स्मरण हो आता है. चित्रकूट से वापिस लौटने के बाद भी उससे विलग होने का दुख दिनों तक बना रहा, उसका ऋण अभी तक शेष है.’


गाँवों में एक गाँव चिरगाँव

झाँसी से तीस किलोमीटर की दूरी पर बेतवा के तट पर बसा छोटा कस्बा चिरगाँव किस्सागो की यादों में अक्सर धड़कता रहता. नगर के बीच का किला, कई प्राचीन तालाब, एक परिसर में मंदिर और मस्जिद, किशोर उम्र के लँगोटियाँ दोस्तों की अजब-अजब कारगुजारियाँ और सबसे अधिक अपना ननिहाल.

‘देश के अधिकांश कस्बों की तरह चिरगाँव भी अनचिन्हा रह जाता यदि यहाँ उस कवि का अवतरण न हुआ होता जिसे राष्ट्रपिता ने ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से नवाज़ा. देखते-देखते एक मामूली कस्बा देश भर में ख्यात हो आया. आजादी के बाद राज्य सभा के सम्मानित सांसद के बतौर दो बार उन्हें मनोनीत किया गया. कोई अलंकरण ऐसा न रहा होगा जिससे उन्हें विभूषित न किया गया हो. समूचा चिरगाँव उन्हें ‘दद्दा’ से सम्बोधित करता.

राष्ट्रकवि की चर्चा करते हुए किस्सागो उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर मुंशी अजमेरी लाल का स्मरण करना न भूलता जो अपनी उपस्थिति उस कस्बे में राष्ट्रकवि से पहले दर्ज करा चुके थे.

उस छोटे कस्बे में राष्ट्रकवि ने अपना निजी मुद्रणालय स्थापित किया. जो उनके रचे विपुल साहित्य को देश भर में प्रचारित-प्रसारित करता.

‘जब मेरा ननिहाल जाना होता तो दूरी से उन्हें देखा करता. आराम कुर्सी पर विराजे मस्तक पर चंदन का टीका लगाये दद्दा धीर-गम्भीर भाव से मुसकुराते चरण स्पर्श करते आगन्तुकों को अपना आशीर्वाद बाँट रहे होते. वह दूसरी दुनिया के प्राणी महसूस होते. उनके नजदीक जाने में हिचक महसूस होती. ननिहाल के सभी सदस्य दद्दा के इन्द्रधनुष से कभी स्वयं को मुक्त नहीं रख सके. 1964 में दद्दा के स्वर्गवासी होने के बाद भी जैसे उनकी छाया में सिमटे रहे.

‘एक मामा का स्मरण आता है. उनके दिवंगत होने के बाद उनकी अलमारी खोली गई तो किस्सागो यह देख विस्मित रह गया कोई आठ-दस रजिस्टरों में अपने सुन्दर हस्तलेख में उन्होंने राष्ट्र कवि के सर्वाधिक ख्याति प्राप्त महाकाव्य ‘साकेत’ की प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं. शायद उनका विश्वास रहा होगा कि एक समय ऐसा आयेगा जब न मुद्रणालय शेष रहेंगे और न पुस्तकालय. काल का पहिया घूमता हुआ उस काल में चला जायेगा जिन दिनों गुरुकुल में महर्षियों के शिष्य उनके द्वारा सृजित ग्रंथों कीं प्रतिलिपियां निर्मित किया करते.

‘उनका जो भी विश्वास रहा हो किस्सागो का विश्वास है कि वह ताजिंदगी राष्ट्रकवि की परछाई से स्वयं को मुक्त न कर सके. सभी महापुरुषों की संतति के साथ यही एक किस्सा बार-बार दोहराया जाता है,’ किस्सागो एक उच्छवास् भरते बोला.


बाहर निकला तो घर का रास्ता भूल जाऊँगा

‘ननिहाल में सभी उन्हें काका कहकर सम्बोधित करते. बच्चों से लेकर बड़े तक. माँ का कहना था जब वह इस घर में आए दस-बारह साल के किशोर रहे होंगे. .अभी कुछ साल पहले तक गाँव से उनका कोई भतीजा चार-पांच माह के अंतराल से आया करता और काका इस बीच जो पूंजी जोड़ते उसे पकड़ा देते. उनका अपना कोई खर्चा न था और जो भी उनके हाथ पर रखा जाता वह उसी भतीजे के लिए रख छोड़ते.

‘‘काका को जब देखा वह अपनी प्रौढ़ उम्र पार वह अपनी वृद्धावस्था के चरण में कदम रख चुके थे. राष्ट्र कवि के आँखें मूंदने के साथ ननिहाल के अच्छे दिनों पर धीरे- धीरे छाया पसरने लगी. आर्थिक दबाव के चलते ननिहाल के किसी वरिष्ठ सदस्य ने काका से कहा-

‘कितने बरस हो गये आपका दो दिन के लिए भी गांव जाना न हो सका. नाते-रिश्तेदार याद करते होंगे. आपका मन चाहे तो आप गांव लौट जाएँ.’

‘यह सुन काका अवाक् रह गये. भर्राये कंठ से सिर्फ इतना निकला,

‘घर से सब्ज़ी मण्डी और सब्ज़ी मण्डी से घर । यही एक रास्ता अपने जीवन में देखा है । बाहर निकला तो भीड़ में खो जाऊँगा । लौटने का रास्ता याद न रहेगा ।’

उस दिन के काका को ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने मौन धारण कर लिया माह बीतते-बीतते उनके प्राण-पखेरू उड़ गए ।

मैंने देखा क़िस्सागो की आँखों में नमी उतर आई थी ।

सुरेन्द्र राजन की अनलिखी कहानियाँ

भोपाल आना एक अन्तराल बाद हुआ था । क़िस्सागो ने नेहरू नगर कालोनी में रहने के लिए नया ठिकाना बना लिया था । नया घर पहले की अपेक्षा अधिक खुला, हवादार और ऊपरी मंज़िल पर बना था ।

सुबह चाप पीने के दरम्यान क़िस्सागो ने यह कहते हुए विस्मित कर दिया —

‘इन दिनों एक किताब लिखने की तैयारी कर रहा हूँ । पूरी रूपरेखा बन गई है । डेढ़ सौ पन्नों के आस-पास का कहानी संग्रह होगा. शीर्षक होगा—‘सुरेन्द्र राजन की कहानियाँ’ । दस अध्याय होंगे । प्रत्येक कहानी के प्रमुख किरदार सुरेन्द्र राजन होंगे । उन्हीं की ज़ुबानी सारे क़िस्से सुनाए जाएँगे । हर क़िस्सा एक दूसरे से भिन्न, लेकिन सभी एक सूत्र में बँधे हुए । एक उलझन अभी बनी है कि मेरा नाम बतौर लेखक छपना चाहिए या उन कहानियों के प्रस्तुतकर्ता के बतौर । वास्तविक अनुभव और कहानियाँ तो सुरेन्द्र राजन की ही हुईं, इसलिए…।’’

सुरेन्द्र राजन से मेरा उड़ता-उड़ता सा परिचय था । इतना कि दो दिन के लिए वह बाबा नागार्जुन के साथ हापुड़ आए थे । अधिकांश समय कैमरे से आस-पास की छवियाँ उतारते रहे । उदय प्रकाश के पहले कविता-संग्रह ‘सुनो कारीगर’ के शीर्षक को अधिक अर्थवान बनाने में आवरण पर मुद्रित सुरेन्द्र राजन के श्वेत-श्याम छायाँकन का भी योगदान कम न रहा होगा । छायाँकन और पैंटिंग्स में कुछ नया और अर्थपूर्ण अन्वेषित करने की बैचेनी से भरे थे । उनका सम्बन्ध बुन्देलखण्ड के पन्ना जिले के अजयगढ़ से था । उनकी मित्रता के सूत्र में बुन्देलखण्ड की भी भूमिका रही होगी ।

क़िस्सागो ने अपनी बात को विस्तार देते कहा —‘उपेक्षित स्थलों, दृश्यों और आसपास की कोमल अनुभूतियों को इतनी सम्वेदना से रेखांकित करने वाला कोई दूसरा कलाकार मेरी नज़र में नहीं आया…।

‘सोलह साल तक वह देश-विदेश के सुदूर स्थलों की यायावरी करते रहे । उसी यायावरी के अनोखे अनुभवों और चरित्रों से जुड़े हैं वे क़िस्से । सुरेन्द्र राजन पारंगत क़िस्सागो भी हैं, लेकिन अपने फक्कड़, निस्पृह और उदासीन स्वभाव के चलते वह कभी उन्हें दर्ज नहीं करेंगे । वे अनोखे क़िस्से कहीं खो न जाएँ, इसीलिए मैं उन्हें अपनी किताब में लिख देना चाहता हूँ ।’

उस लिखी जाने वाली किताब की एक दास्तान, जो क़िस्सागो ने कुछ यूँ बयान की —

‘उस दिन सुबह सुरेन्द्र राजन गंगटोक (सिक्किम) से 23 किलोमीटर दूर घने जंगलों से घिरे पहाड़ी पर स्थित रूमटेक मठ पहुँचे. तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के ग्यालवा कारमापा के 16वें अवतार अपने कुछ भिक्षुओं के साथ यहाँ आए । चौग्याल ने रूमटेक के इस क्षेत्र को उन्हें तोहफ़े में दे दिया । सुरेन्द्र राजन रूमटेक मठ और उसके आस-पास बसी बस्तियों में दिन भर भटकते रहे । मुख्य मार्ग पर वापिस आए तो गंगटोक जाने वाली बस कभी का छूट चुकी थी । मठ में भी टिकने की अनुमति नहीं मिली । सर्द रात में ठिठुरते सड़क किनारे बैठे थे कि एक औरत पास आई । उसने मठ के पिछवाड़े की बस्ती की ओर इशारा करते हुए कहा — ‘मेरा पति गंगटोक गया हुआ है । एक रात के लिए तुम्हें ठहरा सकती हूँ। सुबह मुँह अन्धेरे घर छोड़कर निकल जाना होगा। किसी की नज़र पड़ गई तो बदनामी होगी ।’

‘उस समय करूणा से भरी वह औरत सुरेन्द्र राजन को भगवान बुद्ध का कोई अवतार महसूस हुई । उसके निर्देशों का उन्होंने अनुपालन किया। अगली सुबह मुँह अन्धेरे में निकल लिए । बस का इन्तज़ार करने की बजाय पदयात्रा करना अधिक सुखद लगा। रूमटेक मठ कई किलोमीटर पीछे छूट गया । पानी की बोतल खाली हुई तो घाटी में दिखाई दे रहे घरों की ओर चल दिए । बोतल में पानी भरकर वापिस लौटते हुए पत्थरों से निर्मित एक विशाल गेट पर नज़र गई । उसके ऊपर चित्रलिपि जैसा उत्कीर्ण था । सुरेन्द्र राजन उसके सम्मोहन में बँधे भीतर प्रवेश कर गए । वहां विचरण करते हुए कितना समय बीता, उन्हें स्मरण न रहा । वह एक ख़ाली घरों का नगर था जो किसी समय काग्युवंश के राजा की राजधानी रहा होगा । परम्परागत विश्वास का अनुपालन करते राजा के निधन के पश्चात राजवंश के सभी सदस्य प्रजा के साथ उसे ख़ाली कर नए स्थल की ओर प्रस्थान कर गए होंगे । जर्जर और ख़स्ताहाल होने के बावजूद ख़ाली घरों में जैसे अभी भी अदृश्य ध्वनियाँ और आकृतियाँ उसाँसें भर रही थीं । घरों के आसपास ऊँचे-ऊँचे गोलाकार फैले पेड़ों पर भरपूर मात्र में सुगन्धित हरे-लाल सेब लटके थे । नीचे भी बड़ी मात्र में बिखरे हुए थे ।

‘सुरेन्द्र राजन ने रात्रि वहीं व्यतीत करना तय किया । खाने के लिए भरपूर सेब । बोतल का पानी ख़त्म होने पर घाटी में बसी बस्ती से पानी ले आते ।

क़िस्सागो ने इस क़िस्से का समापन करने हुए कहा —

‘सुरेन्द्र राजन चार दिन तक वहीं ठहरे रहे । अभी सिर्फ़ उस क़िस्से के ऊपरी-ऊपरी ब्यौरे सुनाए हैं । उस वीरान नगर में रहते जो सूक्ष्म अनुभूतियाँ और अनुभव उन्हें हुए ,इसका अहसास पाठक तभी कर पाएगा, जब उसे शब्दबद्ध कर लूँगा । ’

क़िस्सागो की यह किताब भी अन्य दास्तानों की तरह अनलिखी रह गई ।

क़िस्सागो की उस अधूरी किताब के मुख्य चरित्र सुरेन्द्र राजन के बारे में कोई दो साल पहले सुनने-पढ़ने को मिला कि अस्सी पार की उम्र में रूदप्रयाग जिले के हिमालय के आख़िरी गाँव खुन्नू में सारी हलचलों से दूर पत्थरों से बने एक घर में रह रहे हैं । ज़रूरी वस्तुओं के लिए दो-तीन माह में 17 किलोमीटर पहाड़ उतर पास के क़स्बे में चले आते हैं । पानी की व्यवस्था झरने कर देते हैं । नज़दीक एक पहाड़ी नदी बहती है ।

श्रोता का विश्वास है कि संयोग से उनसे मुलाक़ात हो गई होती और उसने क़िस्सागो की उस अधूरी रह गई किताब के बारे में बताया होता तो उन्होंने शायद निस्पृह भाव से मुसकुराते हुए इतना भर कहा होता — ‘इस बेपनाह मुहब्बत के साथ अपने दोस्त को याद करने के लिए क़िस्सागो का शुक्रिया । हर प्राणी के रोज़मर्रा के जीवन की आवृत्तियों और मामूली हलचलों से भिन्न उनकी उन दास्तानों में कुछ ऐसा नहीं जिसका दर्ज होना ज़रूरी होता ।’

पास प्रवाहित झरने की ओर देखते इतना भर और जोड़ा होता — ‘अधूरी इच्छाओं के साथ जीवन का सफ़र पूरा करने का अभिशाप तो मनुष्य जाति के साथ सृष्टि के आरम्भ से चला आ रहा है ।’

क़िस्सागो ने ये दास्तानें सुनाते हुए मूल में कितना घटाया और कितना जोड़ा, कहना उतना ही मुश्किल और संदिग्ध है, जितना इस श्रोता ने क़िस्सागो की दास्तान में कितना घटाया और कितना जोड़ा । जब तीसरा कोई इन क़ि स्सों को बयान करेगा, उस समय भी कुछ मूल का छूट जाएगा और कुछ उसका अपना निजी जुड़ जाएगा । क़िस्सों का शाश्वत सत्य यही है कि हर बार उसमें कुछ जुड़ता और घटता चला जाता है ।

आख़िरकार ब्रह्माण्ड के असंख्य जीव-जन्तुओं की तरह क़िस्सागो का जीवन भी एक क़िस्सा ही तो ठहरा !