अपराधी के मनोविज्ञान की फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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अपराधी के मनोविज्ञान की फिल्में
प्रकाशन तिथि : 11 फरवरी 2014

अपराधी के मनोविज्ञान पर हिंदुस्तान में केवल साढ़े चार फिल्में संजीदगी से बनाई गई हैं। पहली फिल्म मेहबूब खान की दिलीप कुमार, मधुबाला, निम्मी अभिनीत 'अमर' थी जिसमें लंदन से पढ़कर लौटे सुसंस्कृत वकील साहब जनता के हित के मुकदमे लड़ते हैं और सामाजिक सजगता से भरी नायिका के साथ उनका सच्चा प्यार हो जाता है। इस सामाजिक सोद्देश्यता से जुड़े पात्रों की प्रेमकहानी में बाधा तब आती है जबकि एक गांवठी, अनपढ़ हफ्तों में एक बार नहाने वाली लड़की अपनी सौतेली मां की हिंसा से भागकर बरसात की एक स्याह रात वकील साहब के यहां शरण लेती है और अनहोनी यह होती है कि सहानुभूति कब वासना में बदलती है और वे हमबिस्तर होते हैं, यह वकील साहब समझ ही नहीं पाते। गांवठी लड़की का नैतिक मूल्य यह है कि गर्भवती होने के बाद भी किसी को वकील साहब का नाम नहीं बताती। उधर सामाजिक न्याय के लिए लडऩे वाली नायिका अपराधी को खोजने के क्रम में गांवठी के बालों में वकील साहब के रूमाल को देख लेती है। अपने अपराध की भीतरी यातना से त्रस्त वकील साहब भी अपने गुनाह के इकबाल का खत अपनी प्रेयसी को भेजते हैं जो उसे मिल नहीं पाता।

जब भीतरी द्वंद्व से त्रस्त वकील साहब अपने नौकर से अपना बंगला पूरी तरह ध्वस्त करके नया बनाने का आदेश देते हैं तब कमोबेश वे अपने अनचाहे हुए अपराध की यातना से मुक्त होने का एक जमीनी प्रयास कर रहे हैं। क्या अपराध स्थल का विध्वंस गुनाह की माफी होती है। कुछ इमारतों के विध्वंस ऐसी चोट पहुंचाते हैं कि एक देश भीतर से दो हिस्सों में बंट जाता है परंतु अपराधियों की अंतरात्मा उन्हें नहीं धिक्कारती। बहरहाल इस फिल्म में गांवठी लड़की से वकील साहब शादी कर लेते हैं जबकि जिस फ्रेंच नाटक से यह फिल्म प्रेरित है, उसका नायक इस समझौते को ठुकरा देता है कि उस लड़की से विवाह करके वह कानूनी सजा से बचे। वह सजा काटकर अपनी प्रेयसी से विवाह करता है। इस फिल्म में खामोश मधुबाला की नश्तर सी नजरें दिलीप की आत्मा की शल्यक्रिया करती पूरी फिल्म में नजर आती हैं और समृद्धि का क्लोरोफार्म भी वकील साहब के दर्द को कम नहीं कर पाता।

पारंपरिक परिभाषा में अशिक्षित मेहबूब खान की 'अमर' संभवत: सन् 51-52 की फिल्म है और इसके चार-पांच वर्ष बाद बनी रमेश सहगल की राजकपूर, माला सिन्हा अभिनीत 'फिर सुबह होगी' का नायक कानून का छात्र है, अत्यंत गरीब है और अपने अमीर मित्र द्वारा दी गई सहायता से पढ़ रहे है। उसकी उससे भी गरीब प्रेमिका का शराबी पिता उसे अपनी कर्ज अदायगी के लिए एक लम्पट को बेचने का फैसला ले चुका है। नायक सूदखोर महाजन का कत्ल करता है कि प्रेमिका को बचा सके और हत्या का कोई सबूत नहीं छोड़ता परंतु घर लौटकर अपराध बोध की असहनीय पीड़ा भोगता है, मानो बिस्तर नहीं अंगारों की सेज है। यहां राजकपूर का अभिनय और 'अमर' में दिलीप का अभिनय समकक्ष हो जाता है वरन् राजकपूर की पीड़ा दर्शकों को हिला देती है। दिलीप अपने में कैद है, राजकपूर पूरी तरह मुखर होते हैं। यह अंतर अंदाजे बयां का अंतर है। गौरतलब है कि दोनों अपराधी नायक कानून के जानकार हैं, परंतु अपराध में अंतर है। 'अमर' के संतुलित नायक के हृदय में अनायास वासना जागती है, संभवत: नायिका के लता की तरह उससे लिपटने के कारण, परंतु 'फिर सुबह होगी' का नायक आर्थिक अन्याय में झुलसती कमसिन नायिका को बचाना चाहता है। इस फिल्म का वर्ग संघर्ष और सामाजिकता स्पष्ट है।

'फिर सुबह होगी' का इंस्पेक्टर मुराद जानता है कि कत्ल किसने किया है परंतु सबूतों के अभाव में वह नायक पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता है। वह उसकी अंतरात्मा को जगाने का प्रयास करता है। एक दृश्य में वह एक गरीब को नायक के किए गए अपराध के लिए जेल में ठूंसता है और उस गरीब की पत्नी और बच्चों की असहायता की ओर नायक का ध्यान दिलाता है। इंस्पेक्टर और नायक के बीच एक तरह का शतरंज का खेल चलता है और अंत में नायक अपराध कबूल करता है। सच तो यह है कि अदालत के कटघरे में हत्यारा नहीं वरन् अन्याय आधारित समाज की असली अपराधी की तरह खड़ा है। तीसरी फिल्म सोहराब मोदी की है जो प्रीस्टस कैन्डलस्टिक से प्रेरित है।

चर्च का पादरी पकड़े गए चोर को यह कहकर बचाता है कि चांदी की कैन्डलस्टिक उसने भेंट की थी। इसमें अपराधी को दया के द्वारा सुधारा जाता है। ये तीनों फिल्में यूरोप की किताबों से प्रेरित हैं। 'फिर सुबह होगी' दोस्तोवस्की की 'क्राइम एंड पनिशमेंट' से प्रेरित हैं। ये तीनों फिल्में स्वर्ण युग 47 से 64 के बीच नीं हैं। चौथी फिल्म संजीव कुमार, सुलक्षणा पंडित अभिनीत 'उलझन' संभवत: आपात-काल में प्रदर्शित हुई है। इसमें इंस्पेक्टर संजीव की पत्नी उसकी बहन के जीवन को एक लंपट ब्लैकमेलर का कत्ल करके बचाती है।

इसमें पति-पत्नी के बीच प्यार और कर्तव्य का संघर्ष है। अब मैं अपनी लिखी और आरके नैय्यर की 'कत्ल' को इस श्रेणी की फिल्मों में आधी फिल्म का दर्जा देता हूं क्योंकि अंधा नायक अपनी बेवफा पत्नी को मारता है और इंस्पेक्टर शत्रुघ्न सिन्हा के पास सबूत नहीं हैं। यह आधी इसलिए है कि अपराधी के मनोविज्ञान को सतही ढंग से दिखाया है। बहरहाल राजनीति के क्षेत्र में कत्लेआम कराने वाले लोग हैं, डकैत नुमा लोग हैं, सामाजिक अन्याय करने वाले लोग हैं परंतु इनकी आत्माएं इनको नहीं कष्ट देतीं। अंधा कानून इनके सबूत छुपाता है और ये संवेदनाविहीन लोग जाने कैसे चैन की नींद सोते हैं?