अपराध का ग्राफ़ / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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“मारो स्सारे खों। हाँथ-गोड़े तोड़ देओ। अगाऊं सें ऐसी हिम्मत ना परे जाकी। एकई दिना में भूखो मरो जा रओ थो कमीन। हमायेई खलिहान सें दाल चुरान चलो.. जौन थार में खात हेगो उअई में छेद कर रओ। जासें कई हती के दो रोज बाद मजूरी दे देहें लेकिन रत्तीभर सबर नईयां..” कहते हुए मुखिया ने दो किलो दाल चुराते पकड़े गए अपने खेतिहर मजदूर पर लात-घूंसे चलाने शुरू कर दिए।

“हाय मर जेँ मालिक, खाली पेट हें, पेट में लातें ना मारो। हाय दद्दा मर जेहें” वो गरीब रोये जा रहा था।

“औकात तो देखो जाकी अब्नों खें जुबान लड़ा रओ। मट्टी को तेल डारो ससुरे पे फूंक तो देओ जाए” नशे में धुत मुखिया का बेटा गुर्राया।

रात बीती तो मुखिया और उसके बेटे का नशा उतर चुका था, दरवाज़े पर पुलिस थी। मजदूर ७० प्रतिशत जली हुई हालत में सरकारी हस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था।

पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाया। मजदूर के सारे इलाज़ कराने की जिम्मेवारी लेने की बात पर दोनों पक्षों में तपशिया करा दिया गया।

बेचारी पुलिस भी क्या करती, राज्य सरकार का दबाव था कि राज्य में अपराध का ग्राफ नीचे जाना चाहिए।