अप्रतिम कवि -सम्पादक रघुवीर सहाय / विनोद दास

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वह हमारे शहर लखनऊ से थे ।

वह हमारी तरह लखनऊ विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग के विद्यार्थी भी रह चुके थे ।

हमारी तरह दिल्ली उनके लिए भी परदेस था ।

वह भी हमारी तरह रामकृष्णपुरम स्थित आबण्टित सरकारी मकान में रहते थे ।

मैं संसद में नौकरी करता था और वह कुछ अरसे तक नवभारत टाइम्स के लिए संसद की रिपोर्टिंग कर चुके थे । यह कहना ग़लत होगा कि सिर्फ ऊपर गिनाए तमाम मिलते-जुलते कारणों से उनका आत्मीय बनने की उत्कट भूख मुझे थी, बल्कि सच यह था कि वह हिन्दी के ऐसे आधुनिक कवियों में से थे, जो मुझे अपने बीच के कवि लगते थे । उनकी कविता के प्रति मेरा दुर्निवार आकर्षण था, तो दूसरी ओर वह कुछ अन्यतम सम्पादक और विचारक थे, जिनका समाज को देखने का तरीका मेरी सोच-समझ पर गहरा असर डालता था ।

मुझे आजीवन अफ़सोस रहेगा कि उनका आत्मीय नहीं बन सका, जबकि वह मेरे बसेरे से चन्द क़दमों की दूरी पर रहते थे। शायद मेरे व्यक्तित्व में वह सरसता नहीं है कि किसी की निकटता जल्दी पा सकूँ । रघुवीर सहाय सेक्टर चार में रहते थे और उस सेक्टर के ठीक सामने मैं अपने पिताजी के साथ सेक्टर एक में रहता था । ऐसा नहीं कि मैंने उनका आत्मीय बनने की कोशिश नहीं की, लेकिन रघुवीर जी अपने इर्द-गिर्द निस्संगता का एक ऐसा वलय बना कर रखते थे कि उसकी सीमा रेखा को पारकर उन तक पहुँचने का कोई सूत्र मेरे पास नहीं था । उन दिनों उनके सबसे आत्मीय सुरेश शर्मा हैं, ऐसी हवा हिन्दी के साहित्यिक हलके में व्याप्त थी । सुरेश शर्मा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के छात्र थे और शायद उन पर शोध कर रहे थे ।

रघुवीर सहाय को 10 दरियागंज स्थित दिनमान कार्यालय में धीर-गम्भीर क़दमों से आते-जाते कई बार देखा था ।वहाँ कार्यरत कवि प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज से मिलने कई बार जाता था, छोटा क़द और छोटी ग्रीवा पर खिला गोरा बड़ा सा रघुवीर सहाय जी का चेहरा, उनके होठों पर थिरकती एक अज़ीब सी रहस्यमय मुस्कान । वह अक्सर कुर्ता पैजामा में होते थे । पता नहीं क्यों, कई बार उनकी धजा देखकर उनके सिर पर मुझे खादी टोपी अपने आप दिख जाती थी, हालांकि वह होती नहीं थी । वेशभूषा सादी ज़रूर होती थी, लेकिन उसके पहनने में एक ख़ास क़िस्म की नफ़ासत झलकती थी । वह धुले-धुले और इतने साफ़ सुथरे लगते थे जैसे अभी-अभी लाण्ड्री से निकले हों । उनकी भाव भंगिमा में एक गरिमा होती थी जैसे उनका एक अलग विश्व हो । बाहर से अछूता और अपने में सिमटा हुआ ।

लेकिन मेरी दिलचस्पी उनके व्यक्तित्त्व से ज्यादा उनकी कविता और लेखन में थी.दिनमान में छपने का प्रलोभन भी नहीं था.हो भी नहीं सकता था.दिनमान में इसके लिए कोई जगह नहीं थी.दिनमान की संपादकीय टीम के हर व्यक्ति के लिए कॉलम तय थे.सर्वेश्वर दयाल सक्सेना- साहित्य,प्रयाग शुक्ल- कला और विनोद भारद्वाज- फिल्म और आधुनिक जीवन पर नियमित लिखते थे.”चर्चे-चरखे” सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लोकप्रिय स्तम्भ था.अंतर्राष्ट्रीय,राष्ट्रीय और प्रदेश की खबरों के साप्ताहिक सार-संक्षेप के लिए पन्ने सुरक्षित रहते थे.पत्रिका का कलेवर छोटा था.संसद में कार्य करने के कारण मेरे पास इतना समय भी न था कि दिनमान की कभी कभार की ज़मीनी रिपोर्टिंग में कुछ कर पाता.दूसरे, मैं अपने को इसके योग्य भी नहीं पाता था.रघुवीर सहाय ने उन दिनों दिनमान के आख़िरी पन्ने पर “आज की कविता” नामक एक अपूर्व स्तम्भ शुरू किया था जिसमें विश्व कविता के अनुवाद छपते थे.इस स्तम्भ में दिनमान से बाहर के लेखकों के अनुवाद भी छपते थे.यह स्तम्भ मुझे आकर्षित करता था लेकिन उन दिनों एकाध पेंगुइन के कविता संग्रह के अलावा विश्व कविता परिदृश्य से मेरा परिचय ज्यादा नहीं था.ऐसे में उस स्तम्भ के लिए भी मैं उम्मीदवार नहीं हो सकता था.बस रघुवीर जी के बारे में जानने-समझने का एक युवकोचित कौतूहल अवश्य था जिसका अवसर मैंने जल्दी ही खोज लिया.

फ़ैज़ाबाद से सूर्यबाला नामक एक छोटी पत्रिका के कविता विशेषांक के लिए मुझे दिल्ली स्थित कवियों की रचनाएँ जुटानी थीं.रघुवीर सहाय ऐसी किसी असाहित्यिक नाम की पत्रिका के लिए मुझ जैसे अपरिचित को रचना देंगे,ऐसी कोई उम्मीद मुझे नहीं थी.लेकिन इस बहाने उनकी देहरी पर जाने और जिंदगी पर पड़े पर्दे की बीच झाँकने के लोभ से मैंने रविवार की सुबह उनके घर की कॉलबेल बजा दी.दरवाज़ा खुला.उनकी पत्नी थी,लम्बोतरा चेहरा.सुबह की गृहस्थी की साज़ संवार में लगी वह भीतर गईं जहाँ से रघुवीर जी की आवाज़ सुनायी दी,”बिठाओ- आता हूँ”.इस बार उनकी बेटी आयी और उन्होंने मुझे भीतर बुला कर बैठने के लिए कहा.बैठने के बाद मैंने नजरें दौडाईं.दीवार पर टंगी पूर्वोत्तर राज्य की एक कलाकृति पर आँखें टिक गयीं.

कुछ देर बाद रघुवीर जी आये.मैंने उनसे लखनऊ का जिक्र किया.कुंवर नारायण,कृष्ण नारायण कक्कड़ और मुद्रा राक्षस की चर्चा की.उनके रुख से लगा कि इन जिक्रों का कोई उन पर असर नहीं पड़ा है.फिर आने का प्रयोजन बताया.मेरी आशंका सही साबित हुई.”कविताएं नहीं है “यह कहकर उन्होंने कविताएँ देने से साफ़ मना कर दिया.लेकिन मुझे तब यह सुखद आश्चर्य हुआ,,जब मेरे इस अनुरोध को मान गये कि वह समकालीन कविता परिदृश्य पर अपनी एक टिप्पणी दे सकते हैं.उस दिन सुबह की गर्म चाय भी उनके साथ पी.

उन दिनों दिल्ली में आठवां अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव चल रहा था.बातों-बातों में मैंने उनसे जानना चाहा कि उन्होंने क्या कोई फिल्म देखी है.उन्होंने कहा कि फिल्म फेस्टिवल विनोद भारद्वाज कवर कर रहे हैं.फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि कौन सी फिल्म आपको अच्छी लगी है.मैंने जो एकाध फ़िल्में देखी थी,उसका हवाला दिया.कौन सी अच्छी फिल्म प्रदर्शित की जा रही हैं,उनकी इस जिज्ञासा से मेरी आँखों का रंग बदल गया. रघुवीर सहाय के चेहरे की हलचल से मुझे लगा कि बातचीत के लिए एक खिड़की खुल गयी है.मैंने उत्साह से गोविन्द निहलानी की फिल्म “आक्रोश” का जिक्र किया.रघुवीर सहाय ने कहा कि अगर आप फिल्म का टिकट लेने जाएं तो दो टिकट मेरे लिए भी ले आएगा.मुझे बहुत खुशी हुई कि मेरे प्रिय कवि ने मुझे अपने लिए कुछ करने का अवसर दिया.

दिल्ली की ठिठुरती सुबह में तब लंबी क़तार में लगकर फ़िल्म महोत्सव के लिए टिकट लेना कितना यंत्रणादायक होता था,आज सोचता हूँ तो ठण्ड से काँप जाता हूँ.लेकिन मैं अपनी टिकटों के साथ रघुवीर जी के लिए भी दो टिकट खरीद लाया.उन्हें अगली सुबह दो टिकट सौंप भी आया.लेकिन मुझे थोड़ी हैरानी तब हुई जब वह टिकट की रकम देना भूल गये.वैसे भी मैंने उनसे टिकट की रकम न लेने का मन ही मन फैसला कर लिया था लेकिन मुझे उम्मीद थी कि वह शिष्टाचार की नाते पूछेंगे और मैं विनम्रता से उन्हें इंकार कर दूंगा.अफ़सोस ! ऐसा कुछ न हुआ.

बहरहाल अगले दिन शाम का शो था.रघुवीर जी अपनी बेटी हेमा के साथ फिल्म देखने आये.मेरी सीट उनके आगे की कतार में थी.रघुवीर जी एक युवक पर तुनक से गये कि वह बारहा उनके पांवों को अपने पांवों से छू रहा है.उनकी बेटी तमाम अपने साथियों को देखकर हाथ हिलाकर खुशी व्यक्त कर रही थी.उसने रघुवीर जी से उत्साह में यह भी कहा कि पंकज कपूर भी आये हैं.तब तक पंकज कपूर को मैं नहीं जानता था.फिल्म जब खत्म हुई तो मैं एकदम स्तब्ध था.किसी से कुछ बात करने का मन नहीं था.बस पकड़कर घर आ गया.

लगभग एक पखवाड़े के बाद मेरी नजर जब दिनमान पर पड़ी तो उसमें रघुवीर जी की “आक्रोश” फिल्म पर समीक्षा थी.रघुवीर जी ने इस फिल्म को किस तरह से देखा समझा है,इसको लेकर मेरे मन में एक कौतूहल था.लेकिन उस समीक्षा को पढ़कर मैं चकित था.जिस फिल्म ने मुझे मानसिक रूप से सबसे अधिक झकझोरा था.जिस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए गोल्डन पीकॉक पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था,रघुवीर जी ने उसकी तीखी आलोचना की थी.उनका कहना था कि ““आक्रोश” फिल्म आदिवासियों के शोषण की कहानी बतायी जाती है पर उसे आदिवासियों को कहने नहीं दिया जाता.आक्रोश में तमाम वक्त आदिवासी जीवन के राजनैतिक पिछड़ेपन का प्रचार किया गया है और यह बात भी रेत - रेतकर बतायी गयी है कि सिर्फ सवर्ण ही उनका उद्धार कर सकते हैं.रघुवीर जी का तर्क था कि “फिल्म का आदिवासी आधुनिक नागर मनोविज्ञान के कारण गुमसुम बनाया गया है.उन्होंने तो यहाँ तक लिख दिया कि “फिल्म के सब आदिवासी पात्र चेहरे-मोहरे भाव -भंगिमा, अभिनय के शैलीकरण और चरित्रांकन सौ फीसदी गैर आदिवासी है.उन्होंने तंज किया कि “यह ऐसा ही है जैसे दीवानखाने में शरीफ़घरों के लड़के-लड़कियां आदिवासी आदिवासी खेल रहे हों.”

यहाँ मैं स्वीकार करना चाहता हूँ कि रघुवीर जी की इस फिल्म समीक्षा को मेरा युवा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था लेकिन वह चीज़ों को देखना सिखा रहे थे.दिनमान के चाहे संपादकीय हो या उनका “अर्थात् “ स्तम्भ वह किसी भी घटना या प्रसंग को एक नई दृष्टि से देखते थे औए यह दृष्टि हमेशा आम जन और लोकतंत्र के पक्ष में होती थी.हिंदी में इस दृष्टि वह एक विरल पत्रकार थे.

पत्रिका के लिए लेख के लिए बार बार आग्रह करने पर एक दिन उन्होंने शायद कुछ आज़िज़ आकर कहा कि मुझे बोलकर लिखाने की कुछ आदत पड़ गयी है.क्या यह हो सकता है कि वह बोलें और मैं उसे लिख लूँ.मैं उनसे लेख लेने के लिए कुछ भी करने को तैयार था.अगले इतवार को मैं कागज़-कलम के साथ उनके घर की कॉलबेल बजायी.वह भीतर थे। तब तक सहाय जी के परिजन मेरा चेहरा पहचानने लगे थे.मैं भी उनके बैठकखाने को पहचानने लगा था.टेबल पर कुछ अखबार बिखरे थे.एक अखबार उठाकर बांचने लगा.इस बीच चाय की एक प्याली ने मेरा स्वागत किया.रघुवीर जी आये.मन में संशय था.लेकिन संशय से तब छुटकारा मिल गया जब वह सीधे मुद्दे पर आ गये.लगभग आधे घंटे वह रुक-रुक कर बोलते रहे.विचार के एक छोर को पकड़कर वह रफ्ता-रफ्ता लेख के निष्कर्ष तक पहुंच गये.पिछले चार दशकों की कविता के बारे में उनका विचार था कि “हिंदी कविता ने क्रांतिकारी उपलब्धियां नहीं की हैं जितनी हम स्वयं मानते हैं या चाहते हैं कि हुई होती.मुझे लगता है कि दो-चार अपवादों को छोड़कर कवि स्वयं एक गहरी और सतत प्रक्रिया में शामिल रहे हैं.अधिसंख्य कवियों को जैसे ही किसी दूसरे के द्वारा एक नई जमीन टूटती दिखाई दी है,वे उसमें प्रवेश कर गये हैं और अपने इसी अभियान से संतुष्ट होकर रह गये हैं.ऐसा होना कोई नई बात नहीं है.छायावाद के दौर में भी कुछ ऐसा हुआ था.कविता में क्रान्ति क्या है को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि “वह समाज में एक नया मानव संबंध पहचानने के परिणाम में अभिव्यक्ति का विस्फोट है.”

आज मैं उन घड़ियों को याद करता हूँ तो लगता है कि दबे पाँव हम फिर उनके बैठक खाने में प्रवेश कर गये हैं और रघुवीर जी बोलकर लिखा रहे हैं “ पिछले चार दशकों में हिंदी कविता ने बहुत कम प्रगति की है,यह कहते हुए मैं वास्तव में यह स्वीकार करना चाह रहा हूँ कि कवि की बराबरी,अधिकार न्याय,स्वंतत्रता और प्रेम के पक्ष में चिंता ने उसे इन्हीं मान्यताओं के भ्रष्टाचार और दुरूपयोग की बनी बनी बनाई शोषण मूलक प्रणालियों के प्रति यथेष्ट रूप से निराश ही नहीं किया है,उसने इसी अनुपात में सामाजिक सरंचना और विश्व के आर्थिक इतिहास की अपनी समझ को स्वयं ललकारा भी नहीं है.वह साथ ही कला,भाषा ,सौन्दर्य और प्रेम के अनुभवों को खोजने के लिए भी व्याकुल नहीं रहा है जो उसे एक शोषण मुक्त और कर्ममय समाज की संपूर्ण कल्पना दे सकें.”

रघुवीर जी एकाग्र मुद्रा में बोल रहे थे.उनका एक वाक्य दूसरे वाक्य से ऐसे जुड़ा होता था जैसे दाम्पत्य में एक के बिना दूसरा अधूरा होता है.एक भी शब्द छूट जाने से उनकी चिंतन की लड़ी के टूट जाने का भय बना रहता था.रघुवीर जी का जीवन और साहित्य को तोलने-परखने के बुनियादी बाँट हमेशा बराबरी,अधिकार,न्याय,स्वंतत्रता और प्रेम रहे हैं।ऐसा शायद समाजवाद विचारों के प्रति खासतौर से राम मनोहर लोहिया के निकट होने के कारण रहा होगा.रघुवीर जी के विचारों में कई बार लोहिया के विचारों का खून मिला दिखाई देता था.रघुवीर जी जब बोलते हुए आगे निकल जाते तो मुझे लगता कि उनकी आवाज़ के एक सिरा मेरे हाथ में है.मैं भी उनके साथ हूँ.मेरे लिए उनका साथ होना ही एक उपलब्धि थी.वह कुछ क्षण के लिए ठिठक जाते और मुझे ऐसे देखते जैसे कि मैं उनसे कैसे छिटक गया हूँ जबकि हम एक साथ चलने के लिए प्रतिश्रुति हैं.इस लेख का शीर्षक “कविता पर कुछ विचार” देकर मुझे विदा किया.

फिर उनके घर सूर्यबाला की प्रति देने गया.लेकिन उस दिन रघुवीर जी घर पर नहीं थे.दुबारा उनसे मिलने का उत्साह नहीं रहा.पता नहीं क्यों मुझे लगा कि हमारे उनके रिश्ते में आद्रर्ता नहीं थी.एक लेखक के रूप में मैं उनका बहुत आदर करता था लेकिन हाड़-मांस के मनुष्य के रूप में जिस आपसी स्नेह की जरूरत थी,उसकी पूर्ति शायद हमारे बीच के रिश्ते से नहीं होती थी.इस बीच मैंने दिल्ली छोड़ दिया.बैंक ऑफ़ बडौदा में नौकरी लग गयी और पटना चला गया.

पटना प्रवास के बाद नाबार्ड की नौकरी में तबादले पर लखनऊ आ गया.इस बीच टाइम्स समूह में अशोक जैन के बेटे समीर जैन के आने से उथल पुथल मच गयी.रघुवीर जी को दिनमान से नवभारत टाइम्स में तबादला कर दिया गया.रघुवीर जी को यह अपमानजनक लगा.कुछ अरसा काम करने के बाद तंग आकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया.वह जनसत्ता में “अर्थात” नाम से कॉलम लिखने लगे.

कवि -कथाकार विष्णु नागर के सौजन्य से “अन्तरदृष्टि” पत्रिका में उनका साक्षात्कार छपने के बाद उनसे जुड़ने का एक बार फिर सिलसिला बना.इस बीच 1989 में लखनऊ दूरदर्शन ने राष्ट्रीय काव्य संगोष्ठी का आयोजन किया था.इस संगोष्ठी में रघुवीर सहाय के साथ हिन्दी कविता के अनेक कवि शामिल थे.सौभाग्य से मुझे भी कविता पाठ के लिए आमंत्रण मिला था.हम सभी दूरदर्शन केंद्र समय पर पहुंच गये थे.मंच की साज सज्जा शानदार थी.फ़र्श पर बैठकर कविता पढने की व्यवस्था थी.रघुवीर जी नहीं आये थे.हम सब उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे.हालांकि यह खबर लग गयी थी कि वह लखनऊ पहुंच चुके हैं.आखिरकार रघुवीर जी अपनी चिर परिचित दबी मुस्कान बिखेरते हुए आए.वह संगोष्ठी के वरिष्ठतम कवि थे.नमस्कारों का आदान प्रदान हुआ.उनके आते ही मंच पर उनके सम्मान में ख़ामोशी छा गयी.दूरदर्शन की रिकॉर्डिंग में तब कैमरे और प्रकाश को संयोजित करने में काफ़ी समय लगता था.हम सब कवि मित्र रघुवीर जी से इस समय में बातचीत का लाभ उठाना चाहते थे.लेकिन रघुवीर जी ने अपने हावभाव से इसके लिए कोई अवसर नहीं दिया.वह अपनी कविताओं के चयन और उसके पाठ को लेकर अपने में खोये रहे.हम सब कवि उनके एकनिष्ठ काव्य प्रेम और उसकी प्रस्तुति की तैयारी पर मुग्ध थे.कुछ उनकी निसंगता को लेकर चकित भी। कविता पाठ हुआ,रघुवीर जी ने किसी की कविता पर वाह-आह कुछ नहीं किया.हम जानते थे कि वह इन कवि सम्मेलनी रिवाजों के खिलाफ थे.लेकिन इस पर जरूर अचरज हुआ कि कविता पाठ खत्म होने के बाद किसी की कविता के बारे में एक शब्द भी कहा.हालांकि कुछ कवि इसके मुन्तजिर थे.

पारिश्रमिक का चेक लेने के लिए विशेष व्यवस्था थी.दोपहर हो गयी थी.सबको भूख लग आयी थी.वरिष्ठ होने के नाते सबने रघुवीर जी को चेक देने के लिए स्टाफ से अनुरोध किया.हम बाकी सब कवि मित्र धीमी आवाज़ में हंसी मज़ाक और गपशप करते रहे.दूरदर्शन की प्रचलित परम्परा है कि वह पारिश्रमिक का चेक मानदेय और आने जाने का भाडा जोड़कर तैयार रखते हैं.सभी कवियों के चेक पहले से तैयार थे.लेकिन रघुवीर जी चेक लेने को तैयार नहीं थे.उनका कहना था कि उन्होंने भाडा ज्यादा अदा किया है जबकि चेक उन्हें कम का दिया गया है.रकम मामूली थी.लेकिन सिद्धांतत: कम रकम लेने को राज़ी न थे.फिर से नया चेक तत्काल बनाने के लिए आकाशवाणी के स्टाफ़ तैयार न थे.वह बाद में संशोधित राशि का चेक देने को तैयार भी हो गये.लेकिन रघुवीर जी की आपत्ति थी जो शायद सही भी थी कि पिछली बार भी दिल्ली आकाशवाणी ने ऐसा कुछ किया था और संशोधित राशि भेंजने का वायदा किया था लेकिन उनको कई बार अनुस्मारक भेजने के बावजूद उन्हें अभी तक रकम नहीं मिली.इस बार वह अपना पूरा पारिश्रमिक लेकर रहेंगे.हम सब रघुवीर जी के पक्ष से सहमत होते हुए भी हो रही देरी को लेकर थोड़ा परेशान थे.एक कवि मित्र ने तब हमें बताया कि रघुवीर जी पारिश्रमिक के मामले में पक्के हैं और कोई समझौता नहीं करते हैं.मुझे याद नहीं है कि किस तरह यह मामला सुलटा लेकिन उनका यह पक्ष लेखकीय अधिकारों के प्रति सजगता को दर्शाता है.

हर कवि की तरह रघुवीर जी को सर्जनात्मक सुख इस बात में मिलता था कि उनके कविता को समाज में किस तरह से पढ़ा और समझा जा रहा है.अन्तरदृष्टि पत्रिका के प्रवेशांक में उनका लम्बा साक्षात्कार छापने के बाद अगले अंक में हमने उनकी कविता पर स्वप्निल श्रीवास्तव का एक लेख प्रकाशित किया था.रघुवीर जी उस लेख को पढ़ने के लिए इतने व्यग्र थे कि इसके लिए उन्होंने मुझे दो पत्र लिखे थे। उस पत्र में उन्होंने अपनी कविता पर लिखे राजेश जोशी के उस लेख की भी चर्चा की थी जो शायद उन दिनों किसी पत्रिका में छपा था.उन्हें इस बात का हल्का सा रंज भी था कि राजेश जोशी ने उनकी कविता के आकलन में उनके नए संग्रह “कुछ पते और कुछ चिट्ठियाँ” को शामिल नहीं किया था.एक ऐसा भी समय था कि रघुवीर सहाय और केदार नाथ सिंह के बीच हल्की और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी दिखती थी.

रघुवीर सहाय से आख़िरी मुलाक़ात उनके साकेत स्थित घर पर हुई थी.कवि और फिल्म समीक्षक विनोद भरद्वाज उनके पड़ोस में रहते थे.राम कृष्णा पुरम सरकार से आबंटित निवास था.साकेत का घर उनका अपना था.बैठकखाने में एक भद्र सादगी और आत्मीयता थी.कुछ देर इंतज़ार के बाद रघुवीर जी आये.वह उन दिनों विदेश से किसी अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में शिरकत करके आये थे.कुछ देर उसकी चर्चा करते रहे.फिर देश में चल रही साम्प्रायिक लहर और अख़बारों की भूमिका पर अपनी चिंता प्रकट की.एक छोटी पत्रिका के संपादक का धर्म निर्वाह करने की दृष्टि से उनसे झिझकते हुए कविता देने के लिए विनम्रता से अनुरोध किया.उनका उत्तर हमेशा की तरह दृढ़ ना रहा.यह कोई नई बात नहीं थी.लेकिन उनका उत्तर जरूर चौकाने वाला था.उनका कहना था कि वह अमूमन अपनी अप्रकाशित कविताएँ संग्रह में देते हैं.मैंने कहा कि पत्रिकाओं में कविताएँ छपने से बड़ी संख्यां में पाठकों तक पहले छप जाती हैं जिससे कविता संग्रह को लोकप्रिय बनने में मदद ही मिलती है.इस पर उनका दृष्टिकोण कुछ अलग था.उनका कहना था कि वह कविताएँ कम लिखते हैं,संग्रह छपने में कुछ देरी होती है लेकिन अगर मेरी कविताएँ पत्रिकाओं में पहले छप जाती हैं तो उनकी तमाम नकलें साहित्यिक परिदृश्य पर इस कदर छा जाती हैं कि मेरे अपनी कविता की पहचान खो जाती है.उसके बाद वहां ज़्यादा बैठना न हो सका.उदास मन से विदा ली.

अपनी उदासी कुछ कम करने और पुरानी मैत्री को सींचने के लिए विनोद भरद्वाज के घर की घंटी बजा दी.सुखद था कि वह मौजूद थे.उनके घर की सजावट में उच्च वर्गीय भद्रता झलकती थी.किताबों और पेंटिंग्स को रखने में कलात्मक सुरुचि थी.दिल्ली प्रवास के दौरान कई बार पहले भी उनके घर गया था.उनसे उस दिन अंतरदृष्टि पत्रिका को लेकर चर्चा हुई.वह अपनी पत्रिका आरम्भ के नास्टैल्जिक संसार में खो गये.उन दिनों खरीदी अपनी नयी किताबों का संग्रह उन्होंने उत्साह से दिखाया.

विनोद जी के घर से लौटकर मैं बस डिपो पर बस का इंतज़ार कर रहा था.तभी मेरी नज़र सहसा रघुवीर जी पर पड़ी.वह थोडा झुके हुए धीमे कदमों से बस अड्डे की तरफ आ रहे थे.उनकी चाल में उम्र झलक रही थी.मैंने उत्साह से उनकी अगवानी की.वह भी उसी बस से उसी दिशा में जानेवाले थे.बस में हम साथ बैठे.रघुवीर जी अपनी विदेश यात्रा के अनुभव साझा करने लगे.उनका यह साथ मुझे चमत्कार से कम नहीं लग रहा था.मैं उनको एक उत्साही बच्चे की तरह धीरज से सुन रहा था.मुझे पहले उतरना था.उनको नमस्कार कर मैं ऑल इंण्डिया मेडिकल इंस्टिट्यूट पर उतर गया..मुझे क्या पता था कि उनसे यह अंतिम नमस्कार होगा.कुछ अरसा बाद पता चला कि दिल का दौरा पड़ने से वह नहीं रहे.वह ऐसे समय नहीं रहे जब हमे उनकी सबसे अधिक जरूरत थी।