अफसोस / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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वह जब मेले में पहुँचा तो उसकी आंखों के सामने हजारों रंग-बिरंगी दुकानें सजी हुई थीं। दुनियाभर की ज़रूरत का सामान उस मेले में बिकने को तैयार था। सभी दुकानदार अपनी चीजों के नाम ले-लेकर उनके गुणों का बखान रहे थे। अभी उसने आधा मेला भी ठीक से नहीं देखा था और कुछ खरीदा भी नहीं था। दरअसल वह चंद सिक्के लेकर ही आया था और वह उन्हें यूं ही किसी बेकार-सी चीज में ख़र्च करके ख़त्म भी नहीं करना चाहता था। सो उसने सोचा उसके पास सिक्कों की कमी है तो क्या हुआ, वक़्त की तो नहीं।

इसलिए पहले पूरा मेला घूमा जाए और फिर ख़ूब सोच-विचारकर इन थोड़े से पैसों को समझदारी से ख़र्च किया जाये।

ऐसे मौकों पर अक्सर उसके दिल और दिमाग़ आपस में झगड़ पड़ते थे। उसका दिल उसे अक्सर परेशानी में डालता था और दिमाग़ उसे हमेशा उन परेशानियों से बाहर निकाल लेता था।

आज जब वह मेले में आया तो दिल और दिमाग़ दोनों को उसने चुप करा दिया था। बस आज वह अपनी आंखों को खुला रखे हुआ था।

सभी सजी-धजी दुकानों में रखी हुई चीजें उसे आकर्षित कर रही थीं। वह मन्त्र-मुग्ध-सा उन्हें देखे जाता और मुस्काते हुए आगे बढ़ जाता। अभी दो क़दम चला ही था कि उसे रंग-बिरंगी सजी-धजी दुकानों के बीच में सड़क पर एक खिलौने बेचने वाली स्त्री दिखाई दी। जो अपनी बांस की टोकरी में कुछ मिट्टी के खिलौने बेच रही थी।

उन खिलौनों के बीच उसे एक बहुत ही सुन्दर गुडिय़ा दिखाई दी। उसकी बनावट और रंग इतने सुन्दर थे कि वह वहीं रुक गया। बहुत देर तक उस मिट्टी की गुडिय़ा को निहारते रहा। उस मिट्टी की गुडिय़ा के होठों पर अजीब-सी रहस्यमयी मुस्कान थी और आंखों में एक विशेष आकर्षण-सा, उसकी आंखें बोलती थी या लब, ये समझ नहीं आ रहा था, लेकिन उसे न जाने क्यों ऐसा लगा, उसे अभी उस गुडिय़ा ने एक आवाज़ दी हो और वह रुक गया था खामोशी से।

उसे वहाँ रुका देख खिलौने वाली मुस्काई और बोली "कुछ खरीदना है बाबू?"

"मैंने अपनी जि़न्दगी में ऐसी सुन्दर गुडिय़ा कभी नहीं देखी। ये मुझे चाहिए ही चाहिए।" उसके दिल ने पहली बार उसे सलाह दी, हाँ तुम इसे ले लो अभी के अभी।

तभी दिमाग़ ने उसे चेताया सुनो "पागल मत बनो, अभी तो मेला शुरू हुआ है, अभी से पैसे ख़र्च कर दोगे? आगे इससे बेहतर दुकानें होंगी और इससे लाख दर्जे बेहतर खिलौने भी, अभी इसे खरीदकर कहाँ बोझ लिए फिरते रहोगे? मेले का मज़ा भी नहीं ले सकोगे, न झूलों का न खाने-पीने का।" दिमाग़ ने अपने तर्क दिए।

दिल ने आखिरी बार बोला "और अगर पूरा मेला घूमने के बाद भी ऐसी गुडिय़ा नहीं मिली तो? और ऐसा भी हो सकता है इसे कोई और खरीद ले जाये।"

उसने दिल-दिमाग दोनों को चुप कराया और उस खिलौने वाली से बोला "हाँ, मुझे ये गुडिय़ा चाहिए। उसने उंगली से छूकर उस गुडिय़ा पर अपना हक़ जताया, लेकिन मैं अभी इसे नहीं ले जा सकता, लौट कर आकर इसे ले जाऊंगा। मैं पहले मेला घूमना चाहता हूँ।" लड़के ने अपनी बात स्पष्ट की और वह आगे बढ़ गया, लेकिन चार क़दम चलकर वह फिर वापस आया और सशंकित होते हुए बोला "तुम इसे किसी को मत बेचना, मैं वापस आकर इसे ले जाऊंगा।" और फिर उस गुडिय़ा को निहारने लगा। अब उस स्त्री ने मुस्कुराकर कहा "बाबू, इतनी पसंद है तो अभी ले जाओ, क्या पता वापस आओ तब तक मैं न मिलूं तुम्हें या ये ही न मिले। अक्सर बहुत से ग्राहक ऐसा बोलकर जाते हैं, फिर आते भी नहीं।" खिलौने वाली ने अपना अनुभव बताया।

"मैं आऊंगा।"

उसने कुछ ऐसी सचाई के साथ कहा कि वह खिलौने वाली उसे बड़ी देर तक देखती रही। लड़का चला गया।

शाम हो गयी, मेला टूटने का समय आ गया कि बहुत-से छोटे दुकानदार अपनी दुकान समेटकर घर चल दिए थे और कई बड़े दुकानदार अपनी दुकान समेटने की तैयारी करने लगे थे।

खिलौने वाली के अब तक सभी खिलौने बिक चुके थे। बस उसने वह गुडिय़ा को बचाकर रखा था उस लड़के के वास्ते उस लड़के की आंखों की सचाई उसे मेला छोड़कर जाने नहीं दे रही थी और उसने कुछ देर ठहरकर उसका इंतज़ार करने की सोची।

उसे लग रहा था वह लड़का अगर बाद में आया तो कितना दुखी होगा और मैंने उसकी गुडिय़ा किसी अन्य ग्राहक को बेची भी तो नहीं है, लेकिन कब तक इंतज़ार करूं उसका? उसे अब तक आ जाना था। मैं भी क्यों उस बेपरवाह लड़के की बात में लग गयी। उसकी बात का क्या भरोसा? भूल भी गया होगा वह इस गुडिय़ा को। उसने ज़रूर झूले झूलने में या खाने-पीने में या नौटंकी देखने में पैसे उड़ा दिए होंगे। खिलौने वाली ख़ुद से बात किये जा रही थी।

बहुत देर होने पर खिलौने वाली के सब्र का बाँध टूटने लगा था। उसने भारी मन से टोकरी उठाई। उसकी खाली टोकरी में अब भी वह सुन्दर गुडिय़ा मुस्काती थी। उसने उस मिट्टी की गुडिय़ा से मन ही मन कहा "कैसी अभागी हो तुम, तुम्हें किसी ने नहीं खरीदा, फिर भी मुस्काती हो? इससे बेहतर होता मैं तुम्हें किसी और को दे देती, चार पैसे भी मिल जाते।" उसने अफ़सोस जताया।

तभी मेले में अचानक से भगदड़ मच गयी और दौड़ती आती भीड़ में से आते एक व्यक्ति ने उस खिलौने वाली को ऐसा धक्का मारा कि उसकी टोकरी हाथ से छूट गयी और वह गुडिय़ा ज़मीन पर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी।

"ओह...ये क्या हो गया।" वह मन ही मन बड़बड़ाई।

उसने गुडिय़ा हाथ में उठाई। उसका सिर अलग और धड़ अलग हो गए थे "ओह, कम्बख्त टूटी भी तो कितनी खूबसूरती से कि अब भी मुस्काती है।"

उसे ये मिट्टी की गुडिय़ा आज पहली बार सच में सुन्दर लगी। उसे अब कुछ-कुछ समझ आने लगा कि क्यों इतने सारे खिलौनों में से उस लड़के की नज़र इस गुडिय़ा पर ठहर गयी थी। वास्तव में ये गुडिय़ा बहुत सुन्दर थी लेकिन उस लड़के की क़िस्मत सुन्दर नहीं थी और इस गुडिय़ा कि भी। " देखो वह अब तक नहीं आया, खिलौने वाली गुस्से से भर उठी।

"आ गया मैं।" अचानक आवाज़ आई।

"कहाँ है मेरी गुडिय़ा?"

खिलौने वाली ने सिर घुमाकर देखा तो वह लड़का मुस्कुराता और हांफता हुआ खड़ा था। खिलौने वाली ने गुस्से में उसे डांटा "टूट गयी तुम्हारी गुडिय़ा।"

"मैंने बहुत देर तक तुम्हारा इंतज़ार किया। कितने बेपरवाह हो तुम, तुमने अपना ही नहीं, मेरा भी नुक़सान किया है।" खिलौने वाली अब गुस्से और दुख से भरकर आगे बढ़ गयी थी।

लड़का आज बेहद उदास था। उसका दिल फिर बोल पड़ा "जिन चीजों पर हम अधिकार समझते हैं, उन्हें कभी छोड़कर नहीं जाते। अपनी प्रिय चीजों को कभी दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ा जाता और जब दिमाग़ और दिल एक साथ बोलते हों तो सिर्फ़ दिल की सुनी जाती है।"

आज पहली बार उसके दिमाग़ ने उसे दुख में डाला था और इस दुख, इस पीड़ा और इस अफ़सोस से उसका दिल उसे निकाल पाने में असमर्थ था। वह भारी कदमों से चल दिया। उसके हाथ में अब भी चंद सिक्के थे, जिन्हें उसने चाहते हुए भी मेले में ख़र्च नहीं किया था।