अफेयर / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

Gadya Kosh से
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उठती हुई जवानी के दिन भी बड़े अजीब होते हैं। वह जानता था कि उसके बदन के बाहर-भीतर एक अजीब-सी हलचल होती है। हर एक लम्हा अजनबी महसूस होता है। शायद कुछ होने वाला था। कुछ ऐसा, जिसकी कल्पना छोटी-सी उम्र नहीं कर सकती थी। मगर आँखों की गहराई में बहुत कुछ तैर रहा था।

सप्ताह में चार दिन उससे मेरी मुलक़ात होती थी। ठीक साढ़े पाँच बजे विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर। सोमवार से गुरूवार तक मेरी उर्दू की क्लास उर्दू अकादमी में होती थी। इसलिए मैं उसका साथ कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन तक ही दे पाता था। पता नहीं कहाँ जाता था वह। पलकों पर परेशानी का पत्थर और होठों पर चौड़ी-सी चुप्पी। उसकी खामोशी मुझे बहुत आकर्षित करती थी। एक रोज़ मेरी हल्की-सी मुस्कुराहट ने पूछ ही लिया– “क्या करते हैं आप?”

“जी, कुछ नहीं।”

“मतलब?”

“अब सिर्फ कविताएँ लिखा करता हूँ।”

“किसी ज़माने में...।”

“क्या...?”

“मैं भी लिखा करता था।”

“...”

“मेरी एक बीबी हुआ करती थी... फूलों से भी नाज़ुक...।”

“माफ कीजिएगा, कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन आ गया। मुझे उतरना होगा।”

“ठीक है, बाय।”

एक रोज़ हमारी मुलाक़ात दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्टस फैकल्टी में हो गई। हम दोनों ने एक दूसरे को देखते ही कहा– “आप!”

“जी।”

“यहाँ एक मुशायरा है। सुना है निदा फाज़ली भी आए हैं।”

“जी, उन्हीं का नाम सुन कर मैं भी खींचा चला आया।”

“फिर चलिए, चलते हैं।”

हमदोनों हॉल में बैठ गए। बारी-बारी से सभी शायर अपना कलाम पेश करते रहे और मैं एक कंफ्यूज़नात्मक स्थिति में पहूँच गया। अपने साथ की कुर्सी पर बैठे उस नवयुवक के पेशानी पर तरह-तरह की रेखाएँ उभर रही थी। सारी रेखाएँ एक-दूसरे से उलझ रहीं थी। शायद हमदोनों उस मुशायरे में होकर भी नहीं थे। बहुत इंतज़ार के बाद आख़िरकार निदा फाज़ली की आवाज़ ने मेरे कानों के रूख़ को अपनी ओर किया। हर एक मिसरे पर वाह-आह सुनने को मिला। एक अजीब माहौल बन रहा था। सुकून और बेचैनी एक साथ। जैसे खुशी के वक़्त आँसू। जैसे मेरी बीबी के गर्दन पर सुबह और शाम मिलती थी। तालियों की गरगराहट से हॉल देर तक महकता रहा। नज़्मों और ग़ज़लों की खुश्बू बटोरे हम हॉल से बाहर निकले। फिर अपनी-अपनी राह ली।

मैंने अकसर महसूस किया है कि लोग सुनने के बजाय बोलना ज़्यादा पसन्द करते हैं। शायद मैं भी उसी श्रेणी में शामिल हूँ। एक रोज़ मैं क्नॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क में बैठा था। कुछ सोच रहा था। पता नहीं... क्या? शायद उसी लड़के के बारे में। उम्र के जिस पड़ाव पर आकर इंसान किसी के साथ हँसना चाहता है। किसी खुबसूरत चीज़ को देखकर खुशी होती है। अपोज़िट सेक्स के प्रति आकर्षण होता है। इस उम्र में वह लड़का अपने आप में खोया हुआ-सा रहता है। न जाने किस ख़्याल में डूबा है? समस्याएँ किसके साथ नहीं होती? समस्याओं से लड़ने के बजाय ख़ुद को पराजित मान लेना इंसान की आदत नहीं होती। आख़िरी साँस तक इंसान संघर्ष करता है। अपनी सारी समस्याओं का समाधान ढ़ूढ़ता है। न जाने उस लड़के की समस्या क्या है?

मुझे कुछ भूख-सी महसूस हुई। मेरे कदम बिना कुछ सोचे केएफसी की तरफ बढ़ने लगे। यह मेरा फेवरेट रेस्टूरेंट है। मैं अकसर यहाँ आता रहता हूँ। कभी अकेले, तो कभी अकेले ही... मैंने देखा कि वह लड़का चिकेन के टूकड़ों से गुफ़्तगू कर रहा है। थोड़ी देर तक मैं दूर खड़ा उसे देखता रहा। मगर अपनी कम बर्दाश्त करने वाली क्षमता की वजह से उसके सामने बैठ ही गया। वह मुझे देख कर चौंका। शायद उसे लगा मैं उसका पीछा करता हूँ। पर उसे बहुत जल्द ही यकीन हो गया कि हमारा अकसर उसी जगह सामना होता है जहाँ कोई भी मिल सकता है। यह महज एक इत्तेफाक़ है। मगर क्या वाकई यह महज एक इत्तेफाक़ था?

चिकेन के टूकड़ों को बड़ी बेहरहमी से कुतरते हुए मैंने उससे पूछा– “तुम इतने खामोश क्यों रहते हो?” उसने एक लम्बी साँस ली। अंगुलियों में अटके स्नैक्स पर उसकी पकड़ और भी मज़बूत हो गई। न चाहते हुए भी उसने कहा– “खामोशी भी ज़िन्दगी का एक पहलू है।”

“इसके सिवाय भी दुनिया में बहुत कुछ है। तुम्हारी उम्र के लोग तो वो सब करते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए” –मैंने कहा। वह थोड़ा-थोड़ा मुझसे खुलने लगा। कहा– “अकसर वह नहीं होता जो हम चाहते हैं। ऐसा क्यों होता है?”

“पर कभी-कभी तो होता है न जो हम चाहते हैं।”

“हाँ होता तो है, पर कभी हुआ नहीं साला।”

“क्या नहीं हुआ....?”

“...”

...बहुत छोटा था। जब बाबूजी मुझे और मेरी माँ को इस दुनिया में अकेले छोड़ कर चले गए। बाबूजी ने अपनी आँखों में जो बीज बोए थे, माँ की आँखों में अंकुरित होने लगा था। माँ चाहती थी– मैं पढ़-लिख कर कुछ ऐसा बनूँ, जिससे बाबूजी का नाम रौशन हो। बिहार के एक छोटे से गाँव से मैं अपना बोरिया-बिस्तर समेटे दिल्ली आ गया। सुना था कि ये शहर लोगों की किस्मत सँवार देता है। अगर आदमी में थोड़ा टैलेंट हो, तो उसे अच्छी नौकरी और शोहरत भी मिलती है। दिल्ली विश्वविद्यालय एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जहाँ आकर सबका उद्धार हो जाता है। 12वीं में अच्छे अंक होने की वजह से दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस में मेरा दाखिला भी हो गया। घर में मिले संस्कारों को अपने बटुए में सुरक्षित रख पाना मेरे लिए एक चुनौती थी।

“...किस कॉलेज में आपका एडमिशन हुआ?”

“...”

कॉलेज के पहले दिन ही सहपाठियों ने मुझे हाथों-हाथ लिया। वजह बस एक ही थी– मैं शेर-ओ-शायरी करता था। पता नहीं कैसे मेरी इस बुरी आदत की ख़बर मेरी टीचर के कानों तक पहूँच गई। क्लास में आते ही उन्होंने पूछा– “शायरी करते हो?”

“जी...” – मैंने शरमाते हुए कहा।

“मेरे लिए कुछ कहो।”

“जी... जी क्या कहूँ?” - मैंने घबराते हुए कहा।

अचानक एक तेज़ हँसी का टूकड़ा उनके होठों से टूट कर मेरे आस-पास घूमने लगा। मैंने पहली बार उन्हें देखा था। और फिर देखने की लत-सी लग गई। कभी टेढ़ी नज़र तो कभी सीधी नज़र। कभी छुप कर भी...। हर साँस के साथ उन्हें देखने की तमन्ना पैदा होने लगी। गोल-गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, पतले-पतले होठ, छोटे-छोटे बाल। न कोई गहना न ही माथे पर सिन्दूर की बूँद। अनमैरेड थी शायद। मगर उम्र तो चालीस से ज़्यादा। ऐसा मेरे सहपाठियों ने मुझसे कहा।

वह मेरी जवानी के दिनों शुरूआत थी। किसी औरत की तरफ देखने का नज़रिया बदल गया था। ऐसा मैंने पहली बार महसूस किया। अपने क्लास की लड़कियाँ और लड़के मुझे अच्छे नहीं लगते थे। क्योंकि मैं जिस तरह की बातें करना चाहता था, उन्हें पसन्द नहीं। वे तो अपनी उम्र के मुताबिक बातें किया करते थे। यही वजह थी कि मैं अपनी टीचर के और निकट होता चला गया। मैं अपनी उम्र से कहीं आगे निकल चुका था।

“...मतलब?”

“...”

क्लास के दौरान अकसर मैं तभी तक अपनी टीचर की तरफ देख पाता था जब तक वह मुझे नहीं देखती। उनके देखते ही मेरी नज़र टूट जाती थी। जैसे हवा के चलते ही पीले पत्ते दरख़्तों से अलग हो जाते हैं। कुछ इसी तरह से क्लास ख़्त्म हो जाती थी। मेरी प्यास किसी नदी की तरह अधूरी रह जाती। मैं सोचता... काश! एक रोज़ मैंने सोचा कि कह दूँ– आपको देखना अच्छा लगता है। मुझे क्या ख़बर थी कि नदी के साथ-साथ पानी भी प्यासा था। 16 जुलाई से 30 सितम्बर तक यही सिलसिला रहा। यूनिवर्सिटी के नियमानुसार 1-15 अक्टूबर तक की छुट्टी होती है। मेरे लिए तो ये छुट्टियाँ क़यामत के दिन साबित हुए। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है। ऐसा लगता जैसे टीचर सामने पढ़ा रही है। चमकती हुई आँखें, बोलने का अन्दाज़, मुड़ने-रूकने-चलने की अदा। आते ही कहना– “गुड मॉर्निंग स्टूडेंटस।” और हर बार एटेंडेंस के वक़्त कुछ रूक कर मेरा नाम लेना। किसी तरह वक़्त गुज़रा। कुछ ऐसा भी हुआ, जिसका गवाह सिर्फ मेरे कमरे की दीवार, छत, कुर्सी, क़लम, किताब है। हाँ, खामोश रात और ट्यूबलाइट भी। एक गीत लिखा था मैंने– अपनी टीचर के लिए। 16 अक्टूबर को अच्छे से तैयार हो कर मैं कॉलेज पहूँचा। सारा दिन गुज़र गया मगर टीचर कहीं नहीं दिखी। मैं किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता था। क़यामत की एक और रात आई और मैं ज़िन्दा बच गया। शायद कुछ ऐसा था, जो अभी बाक़ी था। शायद वक़्त को कुछ और ही मंज़ूर था। कल भी टीचर नहीं आई। मुझसे रहा न गया। एक दूसरे टीचर से पूछने पर पता चला कि वह डेढ़ महीने की छुट्टी पर है। मैं बहुत दुखी हुआ। पता नहीं...क्यों? मगर कर भी क्या सकता था।

दिसम्बर की पहली तारीख़ थी। मैंने सोचा कि आज जब टीचर आएगी। उनके लिए लिखा गीत उनको दे दूँगा। टीचर भी आई। क्लास भी हुई। मैं एक दर्शक की तरह सबकुछ देखता रह गया, जब तक कि वह कॉलेज से चली नहीं गई। जाते-जाते इशारों में कुछ सवाल छोड़ गई, जिसे सिर्फ मैं समझ सका। रात भर जबाब ढ़ूढ़ता रहा। शायद जबाब मिल चुका था। मैंने अगले दिन कॉलेज पहूँचते ही अपनी टीचर के हाथ में वह गीत रखा और चुपचाप चला गया। क्लास के बाद उन्होंने मुझसे कहा– “फ्री हो...”

“जी...”

“मेरे साथ चलोगे।”

“जी... कहाँ?”

“पता नहीं...”

“जी...”

गाड़ी मेरी टीचर ड्राइव कर रही थी। मैं पिछली सीट पर बैठा था। कुछ देर बाद उन्होंने कहा– “आगे आ जाओ।”

फिर पूछा– “तुमने मेरे लिए वह गीत क्यों लिखा?”

“जी... जी, पता नहीं!”

उन्होंने मेरा दाहिना हाथ अपने बाएं हाथ से पकड़ा और थोड़ी देर तक पकड़े रखा। मैंने छुड़ाना चाहा, पर छुड़ाने की कोशिश नहीं की। एक अजीब-सा एहसास होने लगा। मेरी धड़कनों की रफ़्तार बहुत तेज़ हो गई। हाथ छोड़ने के बाद मैंने टीचर को एक नज़र देखा। उस वक़्त वह क्लास वाली टीचर नहीं थी।

...लगभग एक घंटे बाद गाड़ी एक आलीशान बंगले में घुसी। गाड़ी से उतर कर टीचर ने कहा– “जस्ट फौलो मी।” मैं उनके पीछे-पीछे बढ़ता गया। जूते उतार कर एक कोने में रखने के बाद मैं एक कमरे में पहूँचा जहाँ कुछ ऐसे चित्र टंगे थे, जिसे देख कर लगा कि ...मैंने अपने कन्धे पर एक स्पर्श महसूस किया। पीछे मुड़ा तो देखा, टीचर खड़ी मुस्कुरा रही थी। उन्होंने पूछा– “वाइन पीते हो?”

“नहीं।”

“पीओगे तो मेरी तरह खुबसूरत हो जाओगे।”

दो-तीन बार कहने पर मैंने टीचर का आदेश समझ कर एक घूँट पी। फिर मैं शराब पीता रहा और टीचर मुझे पीती रही। अब न नदी प्यासी थी न ही पानी प्यासा था। शायद मेरा बटुआ फट चुका था।

“...”

“...”

...एक शर्मिन्दगी लिये मैं अपने कमरे तक पहूँचा। जो कुछ भी हुआ, मेरी समझ से बाहर था। मैं एक सप्ताह तक कॉलेज नहीं गया। कॉलेज जाने पर पता चला कि वह टीचर किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने चली गई।

...हमारी आँखों में बाढ़ का-सा मंज़र था। चिकेन के सारे टूकड़े रो रहे थे कि मैं चिकेन बन कर क्यों पैदा हुआ। मैंने उस लड़के से उसकी टीचर का नाम पूछा। उसने बताया– “आ... आ... आम्रपाली।” अब मेरी आँखों में आँसू नहीं थे। क्योंकि यह वही औरत थी, जिससे मेरा तलाक पिछले साल हुआ था। सुना था, किसी स्टूडेंट के साथ उसका ‘अफेयर’ है।