अब तालाब का पानी बदल दो / जयप्रकाश चौकसे

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अब तालाब का पानी बदल दो
प्रकाशन तिथि :20 फरवरी 2016


राम गोपाल वर्मा की फिल्म 'सिंगल एक्स' सीधे 'यू-ट्यूब' पर दिखाई जाएगी और वे अनेक फिल्मों की शृंखला बना रहे हैं, जो कभी सिनेमाघरों में नहीं दिखाई जाएंगी और इन फिल्मों के प्रदर्शन का समय 5 मिनट से 25 मिनट तक हो सकता है। यू-ट्यूब पर दिखाई जाने वाली फिल्मों को सेन्सर का प्रमाण-पत्र नहीं लगता। ये सारी फिल्में साहसी होंगी और इनके विषय विविध होंगे। कुछ अपराध फिल्में होंगी, साहसी प्रेम कथाएं भी होंगी और शरीर प्रदर्शन से भी कोई संकोच नहीं होगा। राम गोपाल वर्मा ने इस शृंखला की पहली फिल्म 'सिंगल एक्स' सेन्सर बोर्ड को समर्पित की है और यह राम गोपाल वर्मा का मखौल उड़ाने का तरीका है। इस कंपनी में राम गोपाल वर्मा नए लेखकों और फिल्मकारों को भी अवसर देंगे। एक तरह से राम गोपाल वर्मा फिल्म विधा को अवाम की पहुंच में लाने का प्रयास कर रहे हैं। हर व्यक्ति पैदाइशी किस्सागो होता है। हर एक के पास कई कहानियां होती हैं। वर्मा एक तरह से सिनेमा का साधारणीकरण कर रहे हैं और उनका निमंत्रण है कि आपके पास कथा है तो उसे सिनेमा माध्यम में प्रस्तुत करें।

सच तो यह है कि दो घंटे की फिल्म बनाने में फिल्मकार अपनी कथा को रबर की तरह खींचता है और कई अनावश्यक मोड़ों से गुजरकर बात सामने आती है। ज्ञातव्य है कि इसी कॉलम में सत्यजीत रे की 12 मिनट की कथा फिल्म का जिक्र था, जिसका एकमात्र प्रिंट अमेरिका में है। साहित्य और लोक संस्कृति में लघु कथाएं होती हैं। किसी भी फिल्म का समग्र प्रभाव महत्वपूर्ण है और लंबाई से इसका कोई संबंध नहीं है। शायद विगत वर्ष ही चार फिल्मकारों ने अपनी-अपनी आधे घंटे की कथा फिल्मों का प्रदर्शन किया था। उस शो में फिल्में चार फिल्में थीं। आरके लक्ष्मण के कार्टून कितना कुछ कह देते थे। ढाई इंच बाय ढाई इंच के स्थान में वे कितना करारा व्यंग्य करते थे।

ज्ञातव्य है कि प्रारंभिक काल खंड में सभी फिल्में अत्यंत छोटी होती थीं। भारत में यह मिथ्या धारणा लंबे समय तक रही कि भारतीय दर्शक अपने टिकट का मूल्य वसूल करने के लिए लंबी फिल्म देखना पसंद करते हैं। इस धारणा को ध्वस्त होने में काफी समय लगा। दक्षिण भारत की फिल्मों में नायक-नायिका की कथा के समानांतर हास्य कलाकारों की कहानी भी चलती थी। उस दौर में मेहमूद और शोभा खोटे की समानांतर कथाएं होती थीं। पश्चिम में भारतीय फिल्मों में ढेरों गीत और नृत्य की बहुत आलोचना होती रही है परंतु इस तरह संगीत-नृत्य से भरी हुई फिल्मों की अपनी ऊर्जा भी होती है। 1949 से 1964 तक की फिल्मों की सफलता का आधार उनका मधुर गीत-संगीत होता था परंतु गीत विहिन फिल्में भी सफल हुई थीं और कमल हासन ने तो बिना संवादों वाली 'पुष्पक' फिल्म बनाई है।

यह गौरतलब है कि 1913 से 1931 तक मूक फिल्में बनी हैं और उनका अखिल भारतीय प्रदर्शन होता था परंतु ध्वनि के आते ही फिल्में अखिल भारतीय नहीं रहीं। मूक फिल्मों का आनंद सभी प्रांतों के दर्शक उठाते थे परंतु सवाक होते ही फिल्में क्षेत्रीय हो गईं और उनका अखिल भारतीय स्वरूप ध्वस्त हो गया। इस प्रकरण का असल सार तत्व तो यह है कि सिनेमा की अपनी भाषा को हमने नज़रअंदाज किया है। हमने फिल्मों पर अपनी भाषाएं थोपी हैं। इतना ही नहीं हमने अपने पूर्वग्रह और अज्ञान भी उन पर लाद दिए हैं। सिनेमा की अपनी भाषा है और बिम्ब उसकी इकाई है। मुंबई में 1992 में भीषण कौमी दंगा हुआ। उन दिनों एक स्थिर चित्र प्रकाशित हुआ था, जिसमें सड़क पर लोग भुट‌्टे खा रहे हैं, कुछ आइसक्रीम कोन खा रहे हैं और दूर कहीं, कुछ इमारतें जल रहीं थीं। उनमें बम विस्फोट हुए थे। इस स्थिर चित्र ने दर्शा दिया कि मनुष्य किस कदर भावनाशून्य हो गया है कि भीषण मानवीय त्रासदी को देखते हुए लोग खा-पी रहे हैं। असली आणविक विस्फोट तो मनुष्य के सोच-विचार में यह हुआ है कि वह इतना असहिष्णु हो सकता है। यह ऐसा ही है कि किसी दुर्घटना में मृत अनेक लोगों का शवदाह हो रहा है और कोई व्यक्ति उस आग से अपनी सिगरेट सुलगाए।

समाज में व्याप्त इस असहिष्णुता और करुणाहीनता का गहन सामाजिक अध्ययन विशेषज्ञ करें, क्योंकि अन्य सभी क्षेत्रों की तथाकथित प्रगति इस भावनाशून्यता के सामने फीकी पड़ जाती है। दुष्यंतकुमार ने कहा है, 'अब तो तालाब क पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।'