अब पछताए होत क्या / सुशील यादव

Gadya Kosh से
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पछताने के अलग –अलग सीजन, अलग मूड,अलग फील्ड ,अलग माहौल और ऊपर बाले ने पता नहीं कितने अलग-अलग आचार-विचार,रंग –ढंग बनाए हैं।

किसान खेतों में बीज डाल के,चिड़िया के चुग जाने पर पछताता है।

उसे आज तक कोई ऐसी तकनीक या पद्यति विकसित हो के नहीं मिली कि वो खेतों में बीज डाले और आराम से सौ प्रतिशत फसल के उगने की प्रतीक्षा करे|

दस –बीस परसेंट तो वो बिजूका बना के देशी तरोके से बचा लेता है मगर इससे उसके अफसोस करने के देशी तरीकों में कमी नही आ पाती।

जमीदारो के बिगडैल बच्चे, चिडिमार बन्दूक का खेल, नुमाइश बतौर कर लेते हैं ,उनका सोचना है कि स्टेनगन मिल जाती तो वे समूचे एरिया को फसल नष्ट करने वाले या वाली चिड़ियों से छुटकारा दिलवा देते।

गाँव के सरपंच का मानना है कि इससे गांव का माहौल बिगडेगा। लौंडे पोज मारेंगे ,भोली –भाली गाव की कन्याओं के साथ ...... बंदूक-बन्दूक खेलने लग जायेगे। वे गाव की भलाई के चलते कभी बन्दूक के लाइसेंस की सिफरिश नहीं करते|

एक झक्की किस्म का एग्रिकल्चर प्रोफेसर गांव का चक्कर मार लेता है। पी एच डी,थीसिस के नाम पर अनाप-शनाप सुझाव दे जाता है। उनका कहना है कि बीज के साथ सस्ते किस्म के डमी बीज डालो,जिसे खाकर चिड़िया का पेट भर जाए। बीजें दवाओं से यूँ उपचारित करो कि चिडियाओ का हाजमा बिगड़े। वे आपकी खेतों को देखना पसंद न करे। देखे तो दूर से भाग जाए।

अब तक सरकारें, ग़रीबों का उन्मूलन यूँ ही सस्ते अनाजों के चारे से  कर रही है। उन्हें रोगग्रस्त ,अलाल,आलसी बनाए जा रही है|उनकी सहानुभूति बटोरने मुफ्त ईलाज के लीये स्मार्ट कार्ड बनवाए दे रही है। 

खेलकूद में पछताने का सीजन छोटे-मोटे इवेंट्स को मिलाकर सालों चलता ,है मगर पिछले पांच –छह सालों से आई पी एल की वजह से पछतावे का दायरा बढ़ गया है।

‘वेटरन्स’ ये सोच के दुखी रहते हैं कि उनके जमाने में ये क्यों नहीं चला,वे भी मजे से बिकते ।

करोडो में बिकने वाला-खरीदने वाला, अपने-अपने त्तरीकों से सोचते हैं।

इतने गेम जिताए ,कहीं और जाता तो ज्यादा ही मिल जाते ....?

स्साला ,खा-खा के मोटा –भदभदा हो गया है| गधा ,दौडता ही नहीं जब देखो ,रन आउट होते रहता है...इसके लिए इतना महंगा खरीदा था ...|किक आउट करने लायक है...पाजी ....|

स्टूडेंट दो-चार नम्बर की चूक के लिए अपने आप को जिंदगी भर कोसते रहता है काश थोडा मन और लगा लेता ,ये क्लर्की,और ये ‘घोड़ी’ तो पल्ले न बंधती।

विगत दिनों पछतावे का ‘कुम्भ’ सम्पन्न हुआ।

हर शहर-गांव गली ,मोहल्ले में उम्मीदवार ,मतदाता,किसान,व्यापारी,लेखक ,पत्रकार,.;.. जिनके अपने चहेतो का हाथ छूटा,साथ छूटा या असफल हुए ,गमगीन नजर आते रहे। अफसोस की सुनामी आई। पछताने का सैलाब उमडा.....

भाई जी धाराशाई क्या हुए ,उन्हें लगा उनका अपना निपट गया....। वे जवाब देने के काबिल नहीं बचे ... कैसे इतना बड़ा संकट पैदा हुआ ....?

पहले महामारी में गांव –कुनबे उजड़ते थे ,ये तो कोई माहामारी वाले लक्षणों में से नहीं था .....

जादूगर लोग मॉस को हिप्नोटाइज्ड कर खेल दिखा के, वाहवाही लूटा करते थे ,वैसा ही खेल तो कहीं नहीं हो गया ....?

सब एक दूसरे को, शक की निगाह से देखे जा रहे हैं ,शायद इनके कुनबे ने समर्थन नहीं किया ...|हमें इनको अच्छी तरह से साधना था, इन छोटे विचारधारा के लोगों को कितना भी करो कम रहता है। ...शायद कहीं कसर बाकी रह गई थी,शायद थोडा और करना था.....

बात बन जाती ....भैईया जी अपनी सीट तो जरूर निकाल लेते...