अभिशप्त / मुकेश मानस

Gadya Kosh से
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1

घर में और ज़रा भी देर रुकना बुद्धराम के लिए मुश्किल हो रहा था। उसे अपनी सांस घुटती-सी महसूस होने लगी थी। एक करुणा रूदन शुरू हो चला था उसके भीतर। पिताजी अपनी रोज़ की तर्ज़ पर उसे कोसना शुरू कर चुके थे।

“पढ़-लिखकर बन गिया लाट सा। अड्डी आओ लाट जी थांक्की आरती उतारूं। चार साल हो गिया जी कू नौकरी ढूंणता। कीसी पढ़ाई, कांई पढ़ाई जिब नौकरी नी दिला सकै। ... ना घर का काम करणां, ना पानी भरणां, ना किरासिन की लाईन में लागणां। हम बैठे थांक्के नौकर...”

एक पैक लगा कर जब पिताजी बोलने लगते हैं तो बोलते ही चले जाते हैं। बुद्धराम से सुना नहीं जाता। कई बार जब सहने की शत्तिफ चुक जाती है तब उससे घर में भी रुका नहीं जाता। माँ बेचारी बस दु:खी होती है। क्या बोले? बोलेगी तो उस पर लात-घूंसे चलने लगते हैं। वह हर बार बुद्धराम से बस इतना ही कह पाती है...

“सै ले बेटा...थारा बाप है आखिर...”

ऐसे में उसे माँ पर दया आती है। पर, वह भी क्या करे। पिछले चार साल से नौकरी के लिए धाक्के खा रहा है। लेकिन नौकरी है कि उसे मिलती ही नहीं। कहीं घूस मांगते हैं तो कहीं अनुभव। उसके पास ये दोनों ही चीजें नहीं थीं। जैसे-तैसे बच्चों को पढ़ा कर बस अपना काम चला रहा था।

उसके बाप के पास भी कहाँ था इतना रुपया? वह भी तो साधारण-सा धंधा ही करता था। रोज जितना कमाता था उसमें से आधे की पी जाता था। दिल्ली में जब आया तो यहीं एक झुग्गी डाल ली थी उसने। गांव में जो थोड़ा-बहुत था उसे भी उसने बेच खाया था। झुग्गी थी तो किराया बचता था। अगर किराया देना पड़ता तो खाने के भी लाले पड़ जाते? यहीं इसी झुग्गी-बस्ती में पैदा हुआ था बुद्धराम। यहीं, गंदगी में खेलता-कूदता और स्कूल जाता बड़ा हुआ था वह। जब से होश संभाला, तब से उसने कई बार इस झुग्गी बस्ती को तोड़े जाता देखा था। पहली बार जब उसने सरकारी बुलडोजर को झुग्गियाँ तोड़ते देखा था तो वह सहम गया था, मगर यह दृश्य वह अब तक इतनी बार देख चुका था कि अब उसका दिल मजबूत हो गया था। इधर बुलडोजर बस्ती तोड़ कर जाता, उधर वह फिर बस जाती। बुलडोजर और बस्ती की लड़ाई में अब तक बस्ती ही जीतती आई थी। उसे लोगों की बेशर्मी और लाचारी की आदत से चिढ़ होती थी। मगर किसी और रास्ते के बारे में भी वह कुछ नहीं जानता था।

इस बस्ती में उसकी उमर के लड़के जो-जो काम करते थे, वे उसे बड़े घिनौने लगते थे। कोई दिन भर सूअर चराता है तो कोई उन्हें काटकर बेचता सूअर काटते-छांटते उनकी शक्लें भी सूअरों जैसी हो गई थीं। कोई कबाड़ी का काम करता है और दिनभर कबाड़ी-कबाड़ी चिल्लाकर कबाड़ इकट्ठा करता और फिर उसे बेचकर शाम को पीकर पड़ जाता था। कोई बसों में जेबें तलाशता था और पकड़े जाने पर पुलिस से मार खाता था। फिर भी अजीब बात थी कि बस्ती वाले उन्हें ही पसंद करते थे। और जब वह बाहर निकलता तो सब उसे चिढ़ाने लगते। कोई कहता-

“ई लो, ई जात है लाट के चोद्दे...!!”

वह उन लोगों की भाषा और आदत दोनों से वाकिफ़ था। इसलिए वह उनसे उलझता नहीं था। हां उसे कोफ्त होती थी। पहले जब वह इनके पास बैठता था तो कोई भी पूछ लेता-

“लग गई नौकरी”

“नहीं, अभी ट्राई कर रहा हूँ”

पहले साल जब कोई उससे पूछता था तो वह आशा भरा जवाब देता था। दूसरे साल उसकी आशा घटने लगी, मगर लोगों का पूछना बढ़ता रहा। लोग पूछते -

“नौकरी”

“नहीं” - वह कहता और आगे बढ़ जाता

तीसरे साल में लोग बस हाथ हिलाते और वह भी गरदन हिला कर मना कर देता। इस बस्ती में उसका दम घुटने लगा था। इस साल जब मेन रोड के किनारे की झुग्गियाँ तोड़ी गईं तो वहाँ कुछ पढ़े-लिखे लोग आए। उन्होंने वहाँ कई बार मीटिंग की। बुद्धराम उनके साथ उठने-बैठने लगा था।

“बार बालां के साथ हांडे है, बुद्धराम” लोग कहते थे और वह अनसुना कर देता था। उसके बाप को इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था, मगर वह रोज़ उसे उसकी बेरोजगारी के लिए कोसना नहीं भूलता था। इससे घर में घुटन बढ़ जाती थी।

2

आज फिर घर में घुटन बढ़ी तो उसने माँ से कुछ रुपए लिए और सूर्यपाल के घर जाने को निकल पड़ा। शाम का वक्त था। बस स्टाप भर भीड़ कम थी। दो छोटे-छोटे बच्चे खेल दिखा रहे थे। बड़ा वाला ढोल पीट रहा था और छोटे वाला लोहे के मोटे पहियों के साथ करतब दिखा रहा था। कभी गरदन और हाथों को एक पहिए में फंसाता और निकालता, तो कभी और ज्यादा कठिन हरकत करता। खेल के अंत में दोनों बच्चे एक छोटे से पहिए से, अपने-अपने शरीरों को अंदर की तरफ खींच कर निकले। जब उनके पेट चिपकने से लगे तब लोगों का ध्यान उनकी तरफ गया। शायद मज़ाक उड़ाने का उन्हें कोई नया मुहावरा मिल गया था।

छोटे बच्चे ने पैसे मांगने के लिए कटोरा उठाया। वह मांगने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि बस आ गई और सब झटपट बस में चढ़ गए। दोनों बच्चे उदास आंखों से देखते रह गए। तभी चलती बस से किसी ने एक सिक्का फैंक दिया। सिक्का देखकर दोनों की आंखों में रोटी-सी चमक भर गई। बुद्धराम भी मुस्करा उठा।

बुद्धराम ने बस में टिकट ली और जगह देखकर खड़ा हो गया। अगले स्टाप पर एक चौदह-पंद्रह साल का लड़का शीशे की दो छोटी-छोटी आयताकार पट्टियाँ उंगलियों में दबाए चढ़ा और उसकी बगल में खड़ा होकर गाने लगा।

“कितनी मधुरता है इसकी आवाज में”

वह सोचने लगा। धीरे-धीरे लड़के की आवाज़ लड़खड़ाने लगी और जब उसे भरोसा हो गया कि वह अब और नहीं गा पाएगा, उसने गाना बंद कर मांगना शुरू कर दिया। अगले स्टाप पर वह उतर गया। अगले स्टाप पर वह भी उतर गया। उसे एक बड़ा चौराहा पार करना था। चौराहे पर कई बच्चे-बच्चियाँ चिथड़े लटकाए शाम के अखबार बेच रहे थे। किसी नई तारिका की पफोटो छपी थी अखबार के मुखपृष्ठ पर, जिसमें उसके स्तन और नाभी सापफ दिख रहे थे। उसने एक बच्चे से पूछा-

“कितने बिके?”

“पाँच” - बच्चे का स्वर उदासी से भरा हुआ था।

“पाँच, यानि ढाई रुपए की कमाई। कितना अच्छा हो अगर इनके सारे अखबार बिक जाएं” - उसने सोचा।

3

सूर्यपाल उसको आया देखकर खुश हुआ मगर उसके दिल में एक टीस सी उठी जिसे उसने दबा दिया।

“आ यार। कैसा है? मैं तुझे याद ही कर रहा था। अच्छा हुआ जो तू आ गया”

“तेरा काम कैसा चल रहा है” - उसने पूछा

“चल रहा है। बैठे हैं बाजार में, चला ही लेंगे” - सूर्यपाल मुस्करा उठा।

“आजकल तू खूब बनियों की तरह बातें बनाता है”

“मैं बनाना नहीं जानता था, बाजार ने मुझको बनाना सिखा दिया”

इतने में अम्मा ने भीतर से चाय भिजवा दी। थोड़ी देर बाद वह खुद भी आ गई। बुद्धराम ने नमस्ते की।

“कैसो है? तेरी अम्मा कैसी है?”

“ठीक है”

भीतर से बड़े भाई ने पुकारा अम्मा भीतर चली गई।

“फिल्म देखेगा?”

“कौन-सी आ रही है?”

“पाकीज़ा”

“चल देखते हैं”

दोनों ऊपर सूर्यपाल के कमरे में गए। वहीं वे फिल्म देखते रहे। फिल्म देखने के बाद वे बातें करते रहे।

फ्अरे चाय-वाय तो ना चइये” - अम्मा नीचे से चिल्लाई

“आजकल सर्दी भौत बढ़ रही है”

“ना अम्मा कपड़े हैंगे” - सूर्यपाल ने जवाब दिया।

उनकी रुकी हुई बातें फिर शुरू हो गईं। एक बजे के आस-पास पड़ोस के मकान से बड़े ज़ोर-ज़ोर से आवाजें आने लगीं। वे उठकर बाहर आए और झांकने लगे।

“छोड़ेंगे नहीं आज तो तुझे बेटा, बड़े दिनों बाद पकड़ में आया है। साले ऽऽऽ बहनचो ऽऽऽ ..”

एक बारह-तेरह साल के लड़के को आंगन के बीचों-बीच रस्सी से बांध् कर खड़ा किया हुआ था और एक-एक कर के लोग उसे पीट रहे थे।

“साले ऽऽऽ ... बहनचो ऽऽऽ ... हरामी चोरी करने आया था, यह ले...”

जो भी आता, आव देखता ना ताव लड़के को घूंसा या लात जमा देता। लड़का चिंघाड़ कर कराहने लगता। जैसे ही उसकी कराहट कम होने लगती कोई न कोई आकर उसको फिर पीट देता। मुहल्ले भर के लोग इक्ट्ठे हो चले थे उस घर के आंगन में।

“तीन-चार हथे। बाकी भाग गए। पूरो गेंग हथो सारेन को।”

“ऐसई तो बनत हैं चोर-डाकू। इन सारेन के दिल खुल जात हैं। छोटी चोरियाँ करते-करते बड़े चोर बन जाते हैं”

“देखो तो कित्तो पक्कोअ सारौ। नाम ना बतारौ।” “नाम ना बतारौ ... अच्छिया ... अभी लै।” - इतना कहकर चावड़ी बाज़ार में गहनों की दुकान के एक मालिक ने एक मोटा-सा डंडा उठाया और लड़के के पेट में दे मारा।

इस बार लड़का बिलबिला उठा। उसने चीख बाहर निकालने के लिए ज्यों ही मुंह ऊपर की ओर उठाया बुद्धराम की आंखें ठहर गई। उसके पड़ोसी का लड़का और यहाँ ... चोरीऽऽऽ…।

उसकी आवाज़ नहीं निकली। उसकी आवाज़ अभिशप्त हो गई थी। 1992