अमिताभ बच्चन और आचार्य रजनीश / जयप्रकाश चौकसे

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अमिताभ बच्चन और आचार्य रजनीश
प्रकाशन तिथि : 03 अक्तूबर 2019


अपने सत्तर वर्ष के जीवन में अमिताभ बच्चन लगभग पचास वर्षों से अभिनय कर रहे हें। सलीम-जावेद की 'जंजीर' की सफलता से पहले उनकी नौ फिल्में असफल रही थीं। यहां तक कि एक निर्माणाधीन फिल्म से उन्हें हटाकर नवीन निश्चल को ले लिया गया था। अगर कोई फिल्मकार आचार्य रजनीश (ओशो) का बायोपिक बनाए तो अमिताभ बच्चन आचार्य की भूमिका को विश्वसनीयता से अभिनीत कर सकते हैं। अगर उनकी अभिनय यात्रा को हम केक मान लें तो रजनीश की भूमिका केक पर रखी चेरी की तरह दो सकती है। उनके जन्म के समय उनके पिता ने उनके विशिष्ट होने की प्रार्थना की थी। रजनीश की भूमिका अभिनीत करके उनके कॅरिअर में सुर्खाब के पर लग जाएंगे।

ज्ञातव्य है कि आचार्य रजनीश की सचिव को उनके भक्त मां शीला कहकर पुकारते थे। मां शीला के सुझाव पर ही रजनीश ने पुणे से ऑरेगॉन प्रस्थान किया था। आचार्य रजनीश अपने जीवन के एक पड़ाव पर अपनी लोकप्रियता से घबरा गए थे और उन्हें रात में नींद नहीं आती थी। उन दिनों उन्होंने नींद के लिए वेलियम गोलियों का सेवन प्रारंभ किया। कहा जाता है कि वे प्रतिबंधित दवाओं का सेवन भी करने लगे थे। इसी बात का विरोध मां शीला ने किया और उन्हें आश्रम छोड़ने का संकेत दिया गया। मां शीला जर्मनी में 19 माह कैद रखी गईं परंतु अदालत ने उन्हें निर्दोष पाया।

आचार्य रजनीश की मृत्यु को कुछ लोग उनकी हत्या मानते हैं। दरअसल, आचार्य रजनीश अपनी अपार लोकप्रियता को सह नहीं पाए और उनकी मृत्यु हो गई। टीएस एलियट के नाटक 'मर्डर इन द कैथेड्रल' में दिखाया गया है कि राजा अपने बाल सखा को कई प्रलोभन देता है कि वह उसका विरोध छोड़ दे। धन, ऐश्वर्य इत्यादि टेम्पटर विफल हो जाते हैं। चौथा टेम्पटर उससे कहता है कि वे यह जानते हुए विरोध कर रहे हैं कि राजा उनकी हत्या कर देगा और कालांतर में उन्हें शहीद माना जाएगा, उनके जन्म दिन को उत्सव की तरह मनाया जाएगा और शहादत के प्रलोभन से वे मुक्त नहीं हैं। अपनी मृत्यु के बाद याद किए जाने की अभिलाषा अत्यंत बलवान होती है। इसी बात को शैलेन्द्र ने एक अभिनय स्वरूप दिया, 'मरकर भी किसी को याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे, जीना इसी का नाम है।'

अधिकांश सुपर सितारे रात में सो नहीं पाते। उनके चाहने वालों की तालियां उनके कानों में गूंजती रहती है। इस तरह लोकप्रियता अभिशाप बन जाती है। अवाम हमेशा ही तमाशबीन रहा है। संभवत: उसके मन में दबी एक अभिलाषा है कि तालियां पीटने से हाथ में भाग्य की रेखा लंबी हो जाती है।

आचार्य रजनीश ने बहुत अधिक पढ़ा था। वेद, पुराण, उपनिषद, बाइबिल व कुरान इत्यादि पढ़कर उन्होंने इन्हें सही ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया था। उन्होंने पुरातन ग्रंथों पर चढ़ी समय की धूल की सफाई की, उन्हें फफूंद से मुक्त किया और उनके सार को सरल शब्दों में व्यक्त किया। मसलन कबीर के पद 'घूंघट के पट खोल तोहे पीव मिलेंगे, झूठ वचन मत बोल…' आचार्य रजनीश ने स्पष्ट किया कि घूंघट ईश्वर के चेहरे पर नहीं पड़ा है, सत्य को किसी आवरण की आवश्यकता नहीं है। वह तो मनुष्य की आंखों के सामने निर्वस्त्र खड़ा है। अवाम की आंखों पर ही अनेक परदे पड़े हैं। धन, यौवन का गर्व इत्यादि सभी आवरण हैं। मनुष्य जैसे ही इन परदों से बाहर आता है, उसे ईश्वर दिखने लगते हैं। आचार्य रजनीश के प्रवचनों के टेप रिकॉर्ड है, जिन्हें किताबों के रूप में प्रकाशित भी किया गया है।

कुछ लोगों को इस बात पर एतराज है कि आचार्य रजनीश को भगवान कहकर पुकारने पर कभी आपत्ति नहीं जताई गई। दरअसल स्वयं को पूरी तरह जान लेने से ही मनुष्य स्वयं का भाग्य विधाता हो जाता है। बद्रीनाथ चतुर्वेदी की 'महाभारत' में उन्होंने उस महाकाव्य के केंद्रीय विचार को इस तरह अभिव्यक्त किया है कि महाभारत 'स्वयं और अन्य' की व्याख्या करती है। हमारे यहां 'मां' का महत्व है। अंग्रेजी भाषा में 'मदर' से 'एम' निकालते ही अदर्स रह जाते हैं। त्याग का अर्थ चीजें छोड़ना नहीं है वरन उन्हें उनके सही संदर्भ में समझ लेना है। 'ओम शांति ओम' का अर्थ भी यही है कि सही संदर्भ में विचारों और वस्तुओं का अर्थ और उपयोग समझते ही शांति मिल जाती है। दरअसल अशांत बने रहना ही सिद्ध करता है कि मनुष्य जीवित है और वे समझना चाहते है। आक्रोश एक मुखौटा है, स्वयं से अनजान बने रहने को रेखांकित करता है। जीवन आक्रोश नहीं, अधिकतम जानने और उसे आत्मसात करने की अभिलाषा है।

क्या ही कमाल हो कि अमिताभ बच्चन आचार्य रजनीश अभिनीत करें और आकी-बाकी रेखा 'मां शीला' की भूमिका का निर्वाह करें।