अमिया / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम बदलाव के संकेत दे रहा था। हवाएँ ख़ुशबू फैलाने लगी थीं। पेड़ों में बौर फूटने लगे थे।

उन दिनों उषा का स्कूल लग गया था। उसकी क्लास में उसके पड़ोस का सुरजू भी पढ़ता था। वह उसे कभी-कभार कनखियों से देखा करता था। उषा को वह अच्छा लगता था। वह उसके कपड़ों और हाथों को तो कनखियों से देख लेती, पर चेहरे को देखने से खौफ खाती थी। उसकी माँ ने उसे सख्त हिदायत दी थी कि बाहर हमेशा सिर झुकाकर चलना है। उसे नहीं मालूम कि माँ कुछ-कुछ दिन बाद ऐसा क्यों कहा करती है। वह रोज सोचती...उसकी सहेलियाँ तो कई लड़कों की तरफ रोज देखती है। उन्हें तो कुछ नहीं होता। सब चंगी - भली खेलती-कूदती हैं, उसे क्या हो जायेगा...

फिर एक दिन सुरजू ने उसे कहा- ‘तू मेरे साथ साइकिल पर बैठकर चला कर न, बड़ी धूप होती है...‘‘

वह नज़रें नीची किये ही बोली- ‘नहीं, मैं चली जाऊँगी...‘‘

सुरजू ने आगे बढ़कर कहा- ‘‘चल तो...‘‘

बौर से लदे पेड़ के नीचे खड़ी उषा ने आँख भरकर उसे देखा...हल्की-सी मूँछें, सुर्ख होंठ, रौशन आँखें...तभी उसे माँ की बात याद आई। शर्म से उसके मन में एक कंपन-सी हुई। वह झट आँखें झुकाकर भाग खड़ी हुई।

उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। उसे लगा कि बहुत कुछ गलत हो गया है। वह माँ को क्या जवाब देगी। हाय ! माँ तो अब उसे जिंदा नहीं छोड़ेगी।

बौर से लदा आम का पेड़ अब भी झूम रहा था - अमिया की चाह लिये।