अमेज़ॉन की आग / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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अमेज़ॉन की आग
सुशोभित


बायोडायवर्सिटी - ये शब्द जादू के पिटारे जैसा लगता है, अलादीन के चिराग़ जैसा। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसकी सबसे रहस्यमय चीज़ों में से एक है यह।

जाने कौन-सी वो विश्व-चेतना है, जिसकी जीवन-अभिव्यक्तियां अगण्य हैं। इस राग-लीला का कोई अंत ही नहीं। नमी हो, ऊष्मा हो, अनुकूलताएं हो तो ये जैव-विविधता अगणित रूपों में व्याप जाती है। इनमें भी मरीन बायोडायवर्सिटी यानी समुद्र के भीतर मौजूद जैव-विविधता और ट्रॉपिकल फ़ॉरेस्ट्स बायोडायवर्सिटी यानी ऊष्णकटिबंधीय जैव-विविधता अत्यंत सघन और सम्मोहक है। वह इतनी विराट और व्यापक है कि आक्रांत भी कर सकती है।

साढ़े चार अरब साल पुरानी पृथ्वी, जो अब तक लगभग पांच बार प्रलय (मास एक्सटिंक्शन) भोग चुकी है, बार-बार अपनी इस जैविकी को पुनर्जीवित कर लेती है। हर बार एक भिन्न रूप में। यह जानना आतंकित कर सकता है कि अभी तक पृथ्वी पर कोई पांच अरब जैव और वानस्पतिक प्रजातियां अस्तित्व में आई हैं और एक से डेढ़ करोड़ को छोड़ समाप्त भी हो चुकी हैं। इनमें से भी हम कोई दस-बारह लाख प्रजातियों को ही पहचान सके हैं। इस धरती पर जीवन का प्रसार इतना व्यापक है कि उसका नब्बे फ़ीसदी हिस्सा अभी तक हमारे संज्ञान के दायरे से बाहर है। वह अंधकार में डूबा हुआ है। ये अंधकार कहीं पर महासागरों की तलछट का है तो कहीं इतने सघन वर्षावन का, जहां सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर पातीं।

जैव-विविधता के हरेक पड़ाव पर मौजूद इनमें से हरेक प्राणी की एक ही लालसा है- जीवित रहना। जीवेषणा एक अदम्य कोड है, एक कूटसूत्र, जो उनके भीतर रोप दिया है, जाने किसने। अस्तित्व में आने के बाद ये सभी अपने जीवन के लिए जूझ रहे हैं। और यह तो लौकिक संसार है। चेतना की अलौकिक और अभौतिक इकाइयों की तो कोई गणना ही नहीं। मनुष्यों की ही बात करें तो एक जीवित के पीछे पंद्रह मृतात्माएं हैं। सात अरब मनुष्यों की इस धरती पर अब तक 107 अरब लोग जीकर मर चुके हैं। प्राण की यह शृंखला जब अपने सूक्ष्मतम रूप यानी माइकोप्लाज़्मा तक पहुंच जाती है तो अगण्य हो जाती है।

सृष्टि अपनी व्यापकता में असीम है और अपनी सूक्ष्मता में अगम्य है। इनके बीच हम अवस्थित हैं, और हमें क़तई नहीं मालूम हम यहां पर क्यों हैं, किसलिए हैं, और कब तक हैं। जो एक चीज़ हमें मालूम है, वो यह है कि हमें जीवित रहना है। और यह भी हमने किसी प्रबोध से प्राप्त नहीं किया, यह कूटसूत्र हमारे भीतर आरम्भ से ही अनुस्यूत है, जैसे कि हर प्राणी के भीतर। किंतु अपने प्रबोध से जो हमने प्राप्त किया है, वह यह है कि हमें ना केवल स्वयं जीवित रहना है, औरों को भी जीने देना है। यहां से मनुष्यता के मूल्य और मानदंड शुरू होते हैं। यहां से सृष्टि की अपार और अथाह लीलाभूमि में एक मानवीय-हस्तक्षेप दृष्टिगत होता है। आदमी धरती पर अपने अंगूठे की छाप छोड़ता है। उसके पैरों के निशान बनते हैं। और वो कहता है- मैं अपने जीवन की रक्षा करूंगा और जहां तक सम्भव होगा, औरों के जीवन की भी रक्षा करूंगा। बायोडायवर्सिटी की यह अपार शृंखला मूलत: शुभ है या अशुभ है या शुभाशुभ की कोटियों से परे निरपेक्ष निसर्ग का लीला-विस्तार है, यह मनुष्य कभी जान नहीं सकेगा। तब वो इतना तो कह ही सकता है कि जिसे मैंने नहीं सिरजा, उसे मैं नष्ट भी ना करूं। अगर वो नष्ट होने योग्य है तो सिरजनहार ही उसके पराभव का संकल्प लें।

55 लाख वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला अमेज़ॉन का वर्षावन आज धू-धूकर जल रहा है। मनुष्य की आदत है कि वो बड़ी से बड़ी वैश्विक त्रासदियों की व्याख्या भी मानवीय संदर्भ में करता है। जैसे कि अमेज़ॉन रेनफ़ॉरेस्ट जल रहा है तो कॉर्बन उत्सर्जित हो रहा है, धरती के फेफड़े कहलाने वाला भूखंड विनष्ट हो रहा है, ग्रीन हाउस प्रभाव निर्मित हो रहा है, वैश्विक तापमान बढ़ रहा है और पारिस्थितिकीय असंतुलन निर्मित हो रहा है। ये सब तो हो ही रहा है, किंतु इसके साथ ही अमेज़ॉन की अत्यंत सघन और समृद्ध बायोडायवर्सिटी भी नष्ट हो रही है। और अगर इनडिजीनियस रेसेस यानी वहां के मूल-वनवासियों को भी इस जैव-विविधता का हिस्सा मानें तो अमेज़ॉन में वैसे लोगों की संख्या भी कोई दस लाख से कम नहीं है।

16000 प्रजातियों के 390 अरब वृक्षों वाला यह वर्षावन धरती की सतह पर मौजूद बायोडायवर्सिटी की सबसे बड़ी और सबसे रहस्यमयी प्रयोगशाला है। ढाई लाख क़िस्मों के तो यहां कीट ही हैं। हज़ारों तरह की मछलियां, पक्षी, उभयचर और सरीसृपों की यह भूमि जीव-चेतना का एक प्राक्तन रंगमंच है। इस इकोसिस्टम की एक छोटी-सी इकाई बनकर जीना, और कौन जाने अतीत के जन्मों में हमने उसे जीया ही हो, उस आदिम भय और रोमांच और जिजीविषा को अनुभव करना होगा, जो हम सभी के भीतर धंसी हुई है, चाहे नागरी सभ्यता के कितने ही छद्म आवरणों से हम उसको छुपा लें। और अलबत्ता पृथ्वी पर एक्सटिंक्शन कोई नई बात नहीं है, और इससे पहले हुए सर्वनाशों में डायनोसौर जैसे भीमकाय प्राणी भी विलुप्त हो गए हैं, किंतु वे मानव-निर्मित त्रासदियां नहीं थीं। धधकते हुए ब्राज़ील की त्रासदी के पीछे तो मनुष्य का हाथ है।

बड़े अचरज की बात है कि स्वयं ब्राज़ीलियों के द्वारा 2019 के इस दावानल को एक सिरे से अभूतपूर्व मान लिए जाने के बावजूद 2019 ब्राज़ील वाइल्डफ़ायर्स का विकीपीडिया पेज इसे एक नियो-रेसिस्ट और नियो-कलोनिस्ट थ्योरी बताकर ख़ारिज़ कर देता है और एक हठपूर्ण सेंस-ऑफ़-डिनायल में चला जाता है। लातीन अमरीका में स्पैनियार्डों के कॉन्क्वेस्ट और एल डोराडो के अनुसंधान की लिप्सा से भरी इतिहास और मिथक-कथाओं के तारतम्य में आप इस थ्योरी से पूरी तरह तो इनकार नहीं करेंगे कि अमेज़ॉन के संसाधनों पर फ़र्स्ट वर्ल्ड कंट्रीज़ की नज़रें जमी होंगी, किंतु ये जंगल वहां के निवासियों की लापरवाही के कारण आज धू-धूकर जल रहे हैं, ये भी एक कठोर सच्चाई है। वे इसे जलने से रोक सकते थे।

"क्या आग की लपटों के बिना जीने में वे अब सक्षम नहीं रह गए हैं?" वेर्नर हरज़ोग ने क़ुवैत के जलते हुए तेल के कुंओं पर आधारित अपनी फ़िल्म "लेसन्स ऑफ़ डार्कनेस" में कहा था। "दुनिया का अंत उसके सृजन जितना ही भव्य और नयनाभिराम होगा : आतिशबाज़ियों से भरपूर!" पास्‍कल के छद्मनाम से यह भी हरज़ोग ने ही कहा था। देर-सबेर दुनिया का अंत पूर्व की तरह हर बार आसन्‍न और अवश्यम्भावी है, लेकिन जो चीज़ मनुष्य की आत्मा को लगातार मथती रहेगी, वह है इस अवश्यम्भावी अंत में उसकी अनैतिक भूमिका। इस लांछन से वह शायद सर्वनाश के बाद भी मुक्त ना होने पाएगा।

ईश्वर ने अपने स्पर्श की आभा से गर्वित जिन टहनियों और पत्तियों, जीवों और प्राणियों को वनों में छुपाकर रखा था, जो इस हतभाग्य पृथिवी में स्वयं उसके आश्रय की अंतिम शरणस्थली थे, उन्हें यूं धू-धूकर जलते देखना एक अभिशाप के साक्षात से कम नहीं है। यह गहरे अर्थों में एक पाप है। ईश्वर की संतान ईश्वर की कृति को विनष्ट करके किसी तरह के पुण्य की परिकल्पना नहीं कर सकती। पृथ्वी पर मौजूद जैव-विविधता की सबसे आदिम प्रयोगशाला जीवित रहने की अधिकारिणी है।

हम यहां बैठकर कुछ कर नहीं सकते और एक पंक्ति का शोकसंदेश लिखकर स्वयं को पाप से बरी कर देने की वृत्ति भी शुभ नहीं। जंगल जल रहे हैं, धरती मर रही है, प्राणियों का जीवन विनष्ट किया जा रहा है, प्लास्टिक सर्वव्यापी है। हमारे भीतर एक गहरी चेतना की ज़रूरत है, एक व्यापक अवेयरनेस, वो शब्द ही कर सकते हैं। ये एक लिट्रेसी प्रोग्राम की तरह होता है। मैं अपनी सीमा में जो बन रहा है, सो कर रहा हूं। धरती पर हमको औद्धत्य के साथ नहीं, विनय और समायोजन के साथ जीवित रहना है और बायोडायवर्सिटी की रहस्यमयी लीलाभूमि के प्रति विनत रहना है। यह संस्कार भाषा के निरंतर आग्रह से ही निर्मित होगा। क्योंकि सारे पाप और पुण्य किन्हीं ऐसे संस्कारों से ही उत्पन्न हुए हैं, जो पहले भाषा में फलीभूत हुए थे।