अम्बेडकर और दलित साहित्य / गोपाल प्रधान

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अम्बेडकर और दलित साहित्य
समीक्षा लेखक:गोपाल प्रधान

(पेशे से अध्यापक पुराने किस्म के कम्युनिस्ट श्री गोपाल प्रधान की रिपोर्ट पर आधारित आलेख)

भारत रतन बाबा भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली (ए.यू.डी) में राष्ट्रीय स्तर पर दो दिन की संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका मुख्य विषय था "अम्बेडकर और दलित साहित्य". इस मौके पर कई जाने माने लेखक और प्राध्यापक मौजूद थे. प्रस्तुत विषय को चार सत्रों में बांटा गया था जिसमें पहला सत्र "अम्बेडकर और दलित साहित्य" पर ही था. इस विषय पर बीज वक्तव्य प्रो. तुकाराम पाटिल ने दिया जिसमें उन्होंने अम्बेडकर के जीवन से सम्बंधित कुछ घटनाओं को बताते हुए उनके दलितों के प्रति सही उदेश्यों को प्रस्तुत किया.

प्रो. तुकाराम पाटिल के अनुसार-

" अम्बेडकर केवल दलित या पिछड़े वर्गों के हितों के लिए ही नहीं सोचते थे बल्कि वो समाज की उस व्यवस्था के खिलाफ थे जो कि आदमी- आदमी में भेद करके एक को हाशिये पर डाल देता है और आगे बढ़ने के सारे अवसर उससे छीन लेता है.अम्बेडकर ने हिन्दू शास्त्रों का खंडन इसलिए किया था क्योंकि कहीं न कहीं ये शास्त्र ही अस्पृश्यता को बढ़ावा दे रहे थे सवर्ण जाति के लोग जो बर्ताव पिछड़े वर्गों के साथ कर रहे थे उस के केंद्र में ये हिन्दू शास्त्र ही थे इसलिए अम्बेडकर ने १९२६ में मनुस्मृति का दहन किया था क्योंकि ऐसे ग्रन्थ समाज को वर्ग व्यवस्था में विभाजित करके समाज में असमानता को बढ़ावा दे रहे थे."

प्रो. तुकाराम पाटिल ने अम्बेडकर के विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत करके कैसे उसका आश्रय दलित साहित्य में लिया जाए इसको भी बताया क्योंकि आज जितना भी दलित साहित्य लिखा जा रहा है उसमें हर इंसान की अपनी संवेदनाएं व अपने दुःख हैं लेकिन कहीं न कहीं उसमें अम्बेडकर के विचारों का समावेश भी है जो कि हिंदी दलित साहित्य की ही नहीं बल्कि हर भाषा के दलित साहित्य की नींव है. दूसरी तरफ डॉ. तेज सिंह ( दिल्ली विश्वविद्यालय ) ने अपने वक्तव्य में इस ओर रौशनी डाली कि किस प्रकार आज का दलित साहित्य दलितवाद बनता जा रहा है. डॉ. तेज सिंह का कहना है कि -

"आज का दलित साहित्य अम्बेडकरवादी विचारधारा से परे दलितवाद का रूप ग्रहण करता जा रहा है.दलितवाद जातिवाद का ही एक रूप है ,ये अम्बेडकरवाद नहीं है और नाही इसमें अम्बेडकर के सही विचार दिखते हैं.अम्बेडकर का लक्ष्य समाज का सही निर्माण करना था न ही जाति व्यवस्था को बढ़ावा देना,लेकिन आज का दलित साहित्य यही कर रहा है, वे जाति व्यवस्था को अपनाता चला जा रहा है जो कि अम्बेडकर की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है."

तेज सिंह के अनुसार अम्बेडकर ओर अम्बेडकरवाद में अंतर है अम्बेडकरवाद का अर्थ है अम्बेडकर के विचार, आज हम अम्बेडकर की तो बात करते हैं लेकिन उनके विचारों को दलित साहित्य में अपना नहीं रहे हैं. तेज सिंह के मुताबिक हमें ये तय करना होगा की आखिर हमें चाहिए क्या अम्बेडकरवाद या दलितवाद इस प्रश्न पर गहराई से विचार करके ही हम दलित साहित्य को सही दिशा दे सकते हैं.

डॉ. सुभाष गाताडे ने अपने विचार जो प्रस्तुत किये उसमें सबसे प्रमुख बात ये थी कि-" आज के समय में हम अम्बेडकर को किस नज़रिए से देखते हैं, उनके क्या मायने हैं आज के दलित लेखन में और उनकी विचारधारा कहाँ तक सार्थक है आज के दलित साहित्य के लिए , इसके लिए हमें अम्बेडकर को नयी दृष्टि से देखने की, उनके लेखन को पढने की ज़रूरत है " गाताडे जी के अनुसार अब अम्बेडकर से एक नयी मुलाक़ात का सही समय आ गया है. अब हमें अम्बेडकर को फिर से एक नयी चुनौती के रूप में समझना होगा ताकि हिंदी में ही नहीं बल्कि जितनी भी भाषाओं में दलित लेखन हो रहा है उन में एक अलग अम्बेडकरवादी विचारधारा के दर्शन हों.

प्रो. विमल थोरात (इग्नू ) ने अम्बेडकर की नयी दृष्टि को जाने के सम्बन्ध में कहा कि-

" अभी हमें अम्बेडकर को समझने के लिए कुछ और वक़्त चाहिए होगा क्योंकि अम्बेडकर अपने आप में कोई छोटी शख्सियत नहीं थे उनके द्वारा किये गए कार्य और विचार उन्हें बहुत विशाल बनाते हैं और उनके इस विराट रूप को समझने के लिए एक या दो दशक काफी नहीं हैं.दलित साहित्य से अगर हम अम्बेडकर को जोड़कर देखते हैं तो हमें हाशिये पर पड़ा जो समुदाय दिखाई देता है सबसे पहले हमें उसे समझना होगा ताकि अम्बेडकर के सही उदेश्यों का पता लगाया जा सके क्योंकि ऊपरी सतह से देखने पर अम्बेडकर को केवल दलितों का मसीहा कहा जाता है जबकि ऐसा नहीं था वे उन सभी वर्गों की चिंता कर रहे थे जिनका शोषण होता आ रहा था क्योंकि उन्हें किसी एक वर्ग की चिंता नहीं थी बल्कि पूरे समाज की चिंता थी .अम्बेडकर ने साहित्य को मानवता के साथ जोड़ा था, दलित साहित्य का मूल मंत्र समानता है जो कि स्वतंत्रता के बाद सबको देने की बात कही गयी थी. अम्बेडकर ने आरक्षण रखा था ताकि १० वर्षों में अपना लक्ष्य हासिल किया जा सके लेकिन हमारी जाति व्यवस्था इतनी कमज़ोर है की अगर हम अम्बेडकर की रणनीतियों को ठीक ढंग से नहीं समझ पायेंगे तो आने वाले १०० वर्षों तक इसी लड़ाई से लड़ते रहेंगे"

दूसरे सत्र का विषय " प्रेमचंद और दलित साहित्य " रहा. प्रस्तुत विषय क्योंकि ऐसे लेखक के साथ जुड़ा हुआ था जिन्होंने हिंदी गद्य साहित्य को नया आयाम दिया तो ज़ाहिर सी बात है की विषय को लेकर सभी वक्ताओं के अपने -अपने विचार रहे. बीज वक्तव्य को यहाँ डॉ. रवि श्रीवास्तव (राजस्थान विश्वविद्यालय) ने प्रस्तुत किया. डॉ. रवि श्रीवास्तव का प्रेमचंद और दलित साहित्य को लेकर कहना था कि

" प्रेमचंद की दलित कहानियों से बेहतर हिंदी साहित्य में शायद ही कोई रचनाएँ मिलें.प्रेमचंद का साहित्य गहरे इतिहास से सम्पृक्त होने के कारण दलित संवेदना को समझाने की बेहतरीन कोशिश करता है.प्रेमचंद को जितनी गहरी संवेदना दलित साहित्य के प्रति थी उतनी शायद अम्बेडकर और गांधी में भी नहीं थी. इसका प्रमाण उनकी रचनाओं में मिलता है."

डॉ. रवि श्रीवास्तव ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज के दलित साहित्य को समझते हुए प्रेमचंद को समझना ज़रूरी है , क्योंकि हिंदी दलित साहित्य की व्याख्या प्रेमचंद की रचनाओं को बिना समझे करने का मतलब है एक गहरी संवेदना को नकार देना.

डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव (इग्नू ) भी प्रेमचंद को एक ऐसे साहित्यकार के रूप में मानते हैं जिन्होंने दलितों को अपनी ही नज़र से देखा है और अपनी रचनाओं में उसका चित्रण एक अलग ही रूप में किया है. डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव के अनुसार-

"प्रेमचंद एक ऐसे साहित्यकार थे जो की अपने लेखन से पाठक को रुला और हंसा दिया करते थे,शायद इसलिए आज भी उनके जैसा लिखने वाले गिनती के ही हैं.प्रेमचंद के यहाँ "दलित" शब्द नहीं मिलता है बल्कि 'हरिजन' शब्द का इस्तेमाल करते हैं, शायद इसलिए ही उन्हें गांधीवादी कहा गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर वे 'दलित' शब्द का प्रयोग नहीं करते तो उनकी बात दलितों के हित में नहीं है, बल्कि वे अपनी बातें 'हरिजन' शब्दों में कहकर दलितों के समर्थन में कहते हैं .प्रेमचंद शायद ऐसे पहले लेखक थे जिन्होंने वर्ग रहित समाज का स्वप्न देखा और उसे अपने साहित्य में परिलक्षित भी किया है.प्रेमचंद के साहित्य में अम्बेडकर के विचार दिखाई देते हैं क्योंकि वे शरू से ही अम्बेडकर के आन्दोलन और उनके विचारों से परिचित थे इसलिए प्रेमचंद को दलित समाज कि संवेदना का ज्ञान नहीं ऐसा जो कहते हैं शायद उन्होंने प्रेमचंद को अभी तक जाना नहीं है."

जहाँ एक ओर प्रेमचंद को दलित साहित्य का रचनाकार बताया जा रहा था वहीँ डॉ. अजय नावरिया(जामिया मिल्लिया इस्लामिया) और श्री ओम प्रकाश वाल्मीकि ने प्रेमचंद को दलित साहित्य कि कोटि से बाहर रखा है. डॉ.नावरिया का कहना था कि-

"प्रेमचंद को दलित साहित्य से जोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि उनके साहित्य में जीवन के हर पक्ष के प्रति एक गहरी संवेदना दिखाई देती है चाहे वे जमींदार हो या चमार. १९३६ में प्रगतिशील संघ में उन्होंने जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने कहीं भी जाति व्यवस्था का नाम नहीं लिया था, प्रेमचंद का मुख्य उद्देश्य जाति व्यवस्था पर लिखना नहीं था.उन्हें तो नागर और ग्राम की भीतरी व्यवस्था को बाहर लाना था, उनकी कहानियों में उसी आंतरिक व्यवस्था का चित्रण है. प्रेमचंद के पास वर्ग व्यवस्था के लिए बोलने के लिए बहुत कुछ है लेकिन जाति व्यवस्था के लिए उनके पास कुछ नहीं है."

दूसरी तरफ ओम प्रकाश वाल्मीकि के मतानुसार - प्रेमचंद एक अंचल के रचना कार थे उन्होंने उत्तर भारत के पूर्वांचल के बारे में ज्यादा लिखा.प्रेमचंद के जैसा दलित साहित्य किसी ने नहीं लिखा ये कहना गलत होगा.वाल्मीकि जी के अनुसार प्रेमचंद की कहानियों को एक दलित के नज़रिए से पढ़ें , एक चमार के नज़रिए से पढ़ें तो आपको उसमे दिखाई देगा की प्रेमचंद ने हमेशा एक कायस्थ के नज़र से ही कहानियों को लिखा है दलित के नज़रिए से नहीं.वाल्मीकि जी के अनुसार -

" दलित साहित्य पर कुछ भी लिखने और बोलने से पहले उस साहित्य को अच्छे से पढ़ें ताकि आज का दलित लेखक कहना क्या चाह रहा है समाज से इसका पता चल सके.प्रेमचंद दलित साहित्य कार हैं यह कहना बंद कर दिया जाए क्योंकि वे किसी भी निर्णायक मोड़ पर कभी भी दलितों के पक्ष में खड़े हुए दिखाई नहीं दिए, वो जैसे हैं उन्हें वैसा रहने दीजिये उन्हें दलित साहित्य और समाज से दूर ही रखिये क्योंकि उनकी पीड़ा और संवेदना को वो जान नहीं पाए हैं."

तीसरे सत्र का विषय था “दलित आत्मकथा-वेदना और विद्रोह” इस सत्र का बीज वक्तव्य शरण कुमार लिम्बाले ने दिया और अध्यक्षता की प्रो. तुलसीराम(जे.एन.यू)ने . शरण कुमार लिम्बाले ने अपने वक्तव्य में कहा कि -

" आत्मकथा और लेखक का ब्लड रिलेशन होता है क्योंकि उसमें लेखक का अपना जीवन होता है, वे अपने जीवन के अंतर्द्वंदों को प्रस्तुत करके उसकी व्याख्या करता है.और उसकी इस आत्मकथा में केवल सत्य ही महत्व रखता है".

शरण कुमार लिम्बाले ने आगे कहा कि- उनकी आत्मकथा पढ़कर कई लोगों ने ये सवाल उठाया कि २५ वर्ष कि उम्र में कैसे कोई अपनी आत्मकथा लिख सकता है इसके बारे में उनका कहना था कि

" आत्मकथा लिखने के लिए उम्र के नहीं बल्कि अनुभव कि ज़रूरत होती है.ये एक अंधविश्वास है कि साहित्य में आत्मकथा जभी लिखी जाए जब आप ५० या ६० के पार हो जाएँ. ऐसा ज़रूरी नहीं है कि कम उम्र में कोई व्यक्ति अपने जीवन को कागज़ पर उतार नहीं सकता यह भी तो हो सकता है कि उसने इतनी कम उम्र में इतना सब कुछ देख लिया हो जिसे लिखने के लिए वो छटपटा रहा हो, मैंने भी उसी समय लिखने का निश्चय कर लिया था जब में अपने चारों और की परिस्थितियों से एक दम तंग आ चुका था और अन्दर ही अन्दर घुटता जा रहा था.दलित आतमकथा में केवल वेदना नहीं है. 'अक्करमाशी ' हमें आनंद प्रदान नहीं करती बल्कि वे हमें आश्वस्त करती है लेकिन दलित साहित्य को हम आनंद का साधन मानते हैं क्योंकि सौंदर्यशास्त्र में आनंद ही प्रमुख होता है यही कारण है कि हम दलित साहित्य को भी केवल आनंद कि दृष्टि से ही देखते हैं.दलित साहित्य अन्याय के खिलाफ लड़ने की उर्जा हमें देता है और दलित आत्मकथाएं इस उर्जा को बढ़ाने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभा रही हैं.दलित आत्मकथा में विद्रोह जिसके पीछे वेदना है और विद्रोह के स्वर में है अम्बेडकर विचारधारा जो कि दलित आत्मकथा को आगे बढ़ा रही है"

देवेन्द्र चौबे दलित आत्मकथाओं के बारे में अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि-

" दलित आत्मकथाओं में एक अलग तरह का समाज दिखाईi देता है, १९२०के बाद अगर हम भारत के गांवों का अध्ययन करें तो वो भिन्न-भिन्न ढंग से दलित साहित्य में प्रदर्शित हुआ है.दलित आत्मकथाओं में जो समाज का चित्रण मिलता है वह आज भी कहीं न कहीं जाति और वर्ग से जकड़ा हुआ दिखाई देता है."

देवेन्द्र जी कहते हैं कि जब दलित की बात आती है तो उसके ऊपर हुई हिंसा की की भी बात आती है जो कि दलित की वेदना को दर्शाता है, वेदना में हिंसा की एक बड़ी भूमिका होती है खासकर दलित साहित्य में वेदना हिंसा पर आधारित है. दलित साहित्य हमें ग्रामीण परिवेश से परिचित करता है जिससे हमें वहां की स्थितियों को समझने और जाने का मौका मिलता है, जिसे सवर्ण वर्ग आज भी सही ढंग से जान नहीं पाया है.

प्रो. तुलसीराम (जे.एन.यू) का कहना है कि-

"आत्मकथाएं लिखी नहीं जाती, बल्कि वो रोती हैं. क्योंकि जो व्यक्ति अपने जीवन के कड़वे अनुभवों को जब शब्दों में बांधता है तो पता नहीं उसका मन कितनी बार उन यादों को याद करके रोता है, ऐसा अनुभव मेरा भी रहा है".

तुलसीराम के अनुसार भारतीय साहित्य में समाज का हर वर्ग व हर तबके का चित्रण ज़रूरी है क्योंकि किसी भी देश का समाज वहाँ के कुछ वर्गों के सहारे नहीं चलता,उसमें सभी वर्गों की भागीदारी रहती है जभी एक देश का सम्पूर्ण विकास हो सकता है. साहित्य समाज की सच्ची तस्वीर को दिखाने की कोशिश करता है तो दलित साहित्य को भी भारतीय साहित्य में वो ही जगह मिलनी चाहिए जिस तरह और भाषा के साहित्यों को मिली हुई है, क्योंकि दलित साहित्य की जब तक सही व्याख्या नहीं होगी तब तक भारतीय साहित्य विकास की प्रक्रिया पर सही ढंग से नहीं चल पायेगा क्योंकि दलित साहित्य ही एक ऐसी कड़ी है जो की समाज के उस पक्ष को पेश करती है जिससे आज भी हमारे समाज के कुछ वर्ग अनजान हैं.दलित साहित्य में दलित अपने आप में विशिष्ट इसलिए भी हैं क्योंकि शिक्षा से वंचित रहने के बावजूद भी दलित समाज ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है उद्धरण के लिए चित्रकारी और लोकनाट्य के द्वारा उन्होंने अपनी वेदना को व्यक्त किया है,जिसमें उनके विद्रोह का स्वर भी दिखलाई पड़ता है , भले ही वे स्वर शांत हो उसमें कोई आवाज़ न हो लेकिन अपने ऊपर हुए शोषण के खिलाफ जो चीख दिखाई देती है वे समाज के उन तमाम वर्गों को कटघरे में खड़ा करते हैं जिन्होंने हमेशा से पिछड़े वर्गों को समाज से बहिष्कृत किया है. तुलसीराम आगे अपनी बात को बढ़ाते हुए कहते हैं कि-

" दलित साहित्य को समझने के लिए बौद्ध धर्म को जानना होगा क्योंकि बौद्ध धर्म से ही दलित साहित्य का विकास हुआ है उसके बिना दलित साहित्य का कोई आधार नहीं है.जो लोग दलित साहित्य को बोध धर्म से अलग मानते हैं दरअसल वे एक भ्रम में जीते आ रहे हैं.बोध धर्म को अपनाने से ही जातीय भावना से बचा जा सकता है ,इसलिए ज़रूरी है कि आज हिंदी दलित साहित्य को बौद्ध धर्म की कसौटी पर परखा जाए और शायद परखा जा भी रहा है.इसका एक कारण यह भी है कि आज दलित वर्ग में भी कहीं न कहीं जाति व्यवस्था का समावेश होता जा रहा है ,एक दलित वर्ग अपने आप को दूसरे दलित वर्ग से श्रेष्ठ मान रहा है,अगर ऐसा ही चलता रहा तो जो लड़ाई आज दलित वर्ग की सवर्ण वर्ग से है वो लड़ाई फिर पिछड़ी जातियों की आपस में होगी. इसलिए "दलित" शब्द को और "दलित साहित्य " को नए सिरे से व्याख्यायित करने की ज़रूरत है ताकि हम अम्बेडकरवादी विचारधारा के द्वारा नयी दलित चेतना को प्रस्तुत कर सकें ताकि भारतीय साहित्य का स्वाभाविक विकास हो सके."

चौथे और अंतिम सत्र का विषय था " दलित साहित्य और अन्तस्ससंघर्ष" इस पर बीज वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. आनंदवर्धन शर्मा ने कहा कि-

आखिर साहित्य में स्वानुभव को मानना चाहिए या परानुभव को? दलित साहित्य को लिखने का केवल उन्हीं को अधिकार है जिसने शोषण को सहा है और भोगा है जिसने शोषण सहा नहीं क्या वो उस शोषण की सही व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर सकता? अनेक लोगों का मानना है कि भोगे हुए यथार्थ की ही मार्मिक अभिव्यक्ति हो सकती है, जिसने यथार्थ देखा न हो केवल पढ़ा हो या सुना हो वो केवल शब्दों के साथ खेल तो सकते हैं लकिन सही ढंग से उसकी प्रस्तुति नहीं कर सकते आज का दलित साहित्य इसी प्रश्न से जूझ रहा है. अगर आज के दलित साहित्य पर नज़र डाली जाए तो आपको उसमें एक बहुत बड़ा अंतर दिखाई देगा क्योंकि जो दलित पढ़ लिख कर मध्यवर्ग में शामिल होगये हैं कहीं न कहीं वो अपने कर्त्तव्य को भूल गए हैं और जो आज भी इस शोषण के शिकार हो रहे हैं उनका साथ देने वालों में यह पढ़ा लिखा दलित वर्ग ही शामिल नहीं है.हमें समाज से केवल सवर्ण वर्ग और दलित वर्ग का ही भेद-भाव नहीं मिटाना है बल्कि समाज के हर वर्ग से जाति व्यवस्था को खत्म करना है जिसकी चपेट में आज खुद दलित वर्ग भी शामिल है. शर्मा जी कहते है कि-"आज के दलित साहित्य में नयी चेतना ,नए प्रयास की आवश्यकता है.कोई भी साहित्य केवल जज़्बातों के सहारे नहीं लिखा जा सकता है क्योंकि जज़्बात कई बार सही और गलत में फ़र्क नहीं कर पाते हैं,इसलिए दलित साहित्य को भी जज़्बातों से ज्यादा नए आयामों की ज़रूरत है."

डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी (दिल्ली विश्वविद्यालय )ने दलित साहित्य के अन्तस्ससंघर्ष पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि-" आज के दलित साहित्य में एक व्यक्ति ज्यादा दिखाई देता अर्थात जो लिख रहा है उसका वर्णन ज्यादा होता है उसका अपना समाज , उसके अपने लोग और उसका अपना परिवेश तो कहीं खो जाता है दलित साहित्य में व्यक्तिगत चेतना बलवती होती जा रही है जो कि आज के हिंदी दलित साहित्य का दुर्भाग्य है". तिवारी जी अपनी बात को आग बढ़ाते हुए कहते हैं कि दलित साहित्य में दलित स्त्रियों के प्रश्नों को भी बहुत कम उठाया जाता है जबकि तमिल साहित्य के बाद हिंदी साहित्य में दलित स्त्रियाँ अधिक लेखन कर रही हैं इसके बावजूद भी उनका स्वर कम ही सुनाई पड़ता है दलित साहित्य के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले वे आपस में व्यापक रूप से अपनी एकता को स्थापित करे ताकि उनका ये वर्ग कई खण्डों में बिखड़ा हुआ दिखाई न दे.दलित समितियों और दलित संगठनों को ये पहल करनी चाहिए कि दलित साहित्य को उन वर्गों तक पहुंचाए जो आज भी पढने में असक्षम हैं.जब तक दलित वर्ग ही दलित साहित्य से दूर रहेगा तो पूरे समाज में परिवर्तन लाना और वर्ग व्यवस्था को खत्म करना नामुमकिन है.

गंगा सहाय मीणा(जे.एन.यू) ने भी आज के दलित साहित्य को बहुत सी फ़र्ज़ी बातों में फंसा हुआ बताया है. उनका कहना है कि-

" आज दलित साहित्य में अनुभूति की प्रमाणिकता से ज्यादा ज़रूरी है अभिव्यक्ति की प्रमाणिकता.आज दलित को ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद से बाहर आना होगा.दलित साहित्य में सामाजिक चिंताओं से ज्यादा व्यक्तिगत चिताओं के पक्ष अधिक होते हैं जो कि दलित साहित्य को गलत दिशा कि ओर ले जा रहा है.जब तक दलित वर्ग अन्य उत्पीड़ित समुदायों की समस्याओं से उद्वेलित नहीं होंगे तब तक न तो दलित समाज संगठित हो पायेगा और न ही दलित साहित्य को नयी दिशा मिलेगी."

इस सत्र की अध्यक्षता कर रहीं सुशीला टाक भौरे ने कहा कि-

" दलितों के पास इतना समय और साधन कहाँ हैं जो कि वे उत्पीड़ित लोगों के बारे में सोचें. वे तो आज तक खुद पीड़ित होता चला आरहा है तो वो और किसी की पीड़ा को क्या समझेगा इसलिए दलित वर्ग से कोई आशा रखना व्यर्थ है."

आगे सुशीला जी कहती हैं कि दलित साहित्य को जानने के लिए और समझने के लिए उसके आंतरिक संघर्ष और अंतर्विरोधों को समझना होगा इसके साथ ही दलित महिला कि पीड़ा को भी साहित्य में स्वर प्रदान करना होगा जो कि आज भी न के बराबर है. दलित महिलाओं के अपने बहुत से प्रश्न हैं जिन्हें अभी तक साहित्य में सही स्थान प्राप्त नहीं हुआ है,अगर दलित साहित्य में दलित महिला लेखन कि उपेक्षा होगी तो अम्बेडकरवादी विचारधारा से परे दलित साहित्य चला जाएगा और उसका विकास भी असंभव होगा" राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित इस संगोष्ठी में सभी लोगों के विचारों को जानने के बाद ये बात स्पष्ट हो जाती है कि आज भी दलित साहित्य में कुछ ऐसे अन्तर्विरोध हैं जो कि इस साहित्य को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं.आज के दलित साहित्य में दलितवाद का कुछ हद तक समावेश हो चुका है, जो कि अम्बेडकरवादी विचारधारा को नज़रंदाज़ कर रहा है. क्योंकि अम्बेडकर ने जो स्वपन देखा था वो समानता का देखा था और जब दलित समाज खुद दलित वाद के घेरे में घिरता जा रहा है तो समानता दूर-दूर तक नहीं दिखलाई पड़ती.अम्बेडकर का उद्देश्य केवल पिछड़ी जातियों या अनुसूचित जातियों के दुखों को दूर करना नहीं था दलित से उनका अभिप्राय उस हर वर्ग और व्यक्ति से था जिसका समाज में शोषण हो रहा है चाहे वो सवर्ण वर्ग से हो या दलित वर्ग से चाहे वे औरत हो या पुरुष.लेकिन अम्बेडकर कि इस बात को नज़रंदाज़ करके हिंदी साहित्य में एक अलग विचारधारा चल पड़ी है जिसे बदलने के लिए हमें अम्बेडकर को ही नहीं बल्कि पुरे दलित साहित्य पर पुनर्विचार करना होगा. ये राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित संगोष्ठी मंच पर तो सफल रही लेकिन असलियत में जभी सफल होगी जब हम सही मायनों में "दलित" शब्द को एक नए सिरे से व्याख्यायित करेंगे और उसे किसी भी वाद के घेरे में बंधने नहीं देंगे जभी दलित साहित्य का स्वाभाविक विकास हो पायेगा.