अम्मा होते बाबूजी / लता अग्रवाल

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छोटा-सा ही सही साम्राज्य है यह घर अम्मा का, हुकूमत चलती यहाँ अम्मा की। मजाल है उनकी इच्छा के बगैर कोई उनके क्षेत्र में प्रवेश कर जाता। हमें भी सख़्त हिदायत रहती जो चीज जहाँ से लो वहीं रखना है ताकि अंधेरे में भी खोजो तो पल में मिल जाए। बाबूजी... वो तो अगर कभी रसोई में घुसने का प्रयास भी करते तो झट अम्मा कह देतीं, -"आप तो बस रहने ही दीजिए, मेरी रसोई है मुझे ही सम्हालने दीजिए आप तो बस अपना दफ्तर सम्हालिए।"

फिर जब कभी अम्मा किसी काम में व्यस्त होती और बाबूजी से कहतीं-'सुनिए जी! ज़रा गैस बंद कर देंगे...?' बाबूजी झट हँसते हुए कहते,

"ना! भई तुम्हारे राज्य सीमा में भला मैं कैसे प्रवेश कर सकता हूँ।"

यह बात नहीं कि अम्मा को बाबूजी के रसोई में जाने से कोई परहेज हो...यह तो बहाना था बाबूजी को घर की झंझटों से दूर रखने का, चाहे बाज़ार से किराना लाना हो, दूधवाले या प्रेस वाले का हिसाब ही क्यों न हो। समझदार है अम्मा जानती है दफ्तर में सौ झंझट होती हैं, कम से कम घर में तो इंसान सुख से रहे। बाबूजी के नहाने का पानी से लेकर बाथरूम में उनके कपड़े रखने तक की जिम्मेदारी बड़े कौशल से निभाती अम्मा। दफ्तर से आकर बाबूजी का काम होता अख़बार पढ़ना और टी.वी. देखना। बाबूजी के सदा बेफिक्र चेहरे के पीछे अम्मा ही नज़र आती।

अम्मा का प्रबंध कौशल भी अनोखा था सबकी ज़रूरतों का ध्यान रखना, सुबह से लेकर शाम तक किसी नटनी की भांति एक लय से नाचती, कभी थकती नहीं अम्मा न ही उनके चेहरे पर कभी कोई झुंझलाहट ही होती। सदा होठों पर मुस्कान लिए हमारा उत्साह बढ़ाती। मेरे और चिंटू के स्कूल से आने से पहले घर के सारे काम निपटा लेती फिर हमारी तिमारदारी में लग जातीं। उसी तरह शाम को बाबूजी के दफ्तर से लौटने से पहले रसोई में सब्जी काटकर, आटा लगाकर गैस पर कुकर तैयार रखतीं ताकि बाबूजी के आने बाद उनके स्वागत के लिए तनावमुक्त रहे। रात के खाने का हम सब मिलकर आनंद लेते। पूरे घर को अपनी ममता और प्यार की नाज़ुक डोर से बाँध रखा था अम्मा ने, उनके बगैर किसी का कोई अस्तित्व नहीं।

हालांकि ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं वह फिर भी रात को जब हम पढ़ने बैठते तो वह हमारे पास बैठतीं उनकी उपस्थिति ही हमारे लिए काफ़ी होती। वह पास बैठे-बैठे कभी उधड़े कपड़ों की सीवन करती तो कभी स्वेटर बुनतीं काम में उनकी लगन देखकर लगता मानो रिश्तों की उघड़न को-सी रही हों, परिवार की मंगल कामना हेतु ईश्वर से प्रार्थना गुन रही हो। उनकी इन्हीं मंगलकामनाओं का प्रभाव था कि मैं और चिंटू सदैव स्कूल में अव्वल रहते। हमारे स्कूल यूनिफार्म से लेकर स्कूल बैग और टिफिन में अम्मा का मातृत्व झलकता था। मेरे लंबे बालों को अम्मा बड़े जतन से तेल लगाकर दो चोटी बना ऊपर बाँध देती ताकि किसी की नज़र न लगे बालों को। बहुत पसंद हैं बाबूजी को लंबे बाल। उनकी छोटी-छोटी पसंद का ख़्याल रखतीं अम्मा।

प्रिंसिपल मेडम ने एक बार अम्मा को बुलाकर कहा भी–"रियली आई एप्रीशिएट यू मिसेस महंत! आपने बच्चों का बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं आप गृहिणी हैं आपकी शिक्षा काम आई, इसीलिए तो कहते हैं कि परिवार में माँ का पढ़ा लिखा होना बहुत ज़रूर है।"

अम्मा ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया,

"मेडम! मैं ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूँ ना ही मैं पढ़ा पाती हूँ मोनू और चिंटू को बस पढ़ते वक़्त मैं हर दम उनके साथ रहती हूँ।" सुनकर प्रिंसिपल मेडम और भी प्रभावित हो गई अम्मा की साफगोई से।

हरी दूब पर चलते से गुजर रहे थे दिन, सारे घर में मशीन की तरह फिरती अम्मा एक दिन अचानक उस मशीन में खराबी आ गई। सारे घर का व्यापार ही थम गया। डॉक्टर ने अम्मा को आराम करने की नसीहत दी। फिर भी अम्मा जितना बन पड़ता उठकर समय-समय से कुछ कर लेंती ताकि बाबूजी को और हमें कम परेशानी हो। बाबूजी के लिए तो यह परीक्षा की ही घड़ी थी उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि दाल में कितनी सीटी ली जाती है, आटे में कितना नमक पड़ता है, भिंडी काटने से पहले धोई जाती है या बाद में। न चाहते हुए भी अम्मा का साम्राज्य अस्त-व्यस्त होता जा रहा था। कमजोरी दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। अब तो डॉक्टर ने उन्हें बिस्तर से न हटने की सख्त हिदायत दे दी। बाबूजी अम्मा का पूरा ध्यान रखते मगर बहुत बदल गए थे वे, पहले हमारी छोटी-सी गलतियों पर ड़ांटने वाले बाबूजी अब बड़ी गलतियों पर भी चुप रहते। जान गए थे कि अब उनकी डांट से बचाने वाला आंचल अब तार-तार हो रहा है। दफ्तर के बाद उनका सारा समय अम्मा की तिमारदारी में बीत जाता। अम्मा को यह देख अपनी क़िस्मत पर रश्क भी होता किन्तु बाबूजी से अपनी तिमारदारी कराते उन्हें ख़ुशी नहीं होती। वह किसी मासूम बच्चे की तरह उदास हो कहतीं,

"सुनिए जी! मैं ठीक तो हो जाऊँगी न...कितना परेशान कर दिया है मेरी बीमारी ने तुम्हें, (हम दोनों पर हाथ फेरते हुए) और मेरे मासूम बच्चे देखो कितना उदास रहने लगे हैं।"

बाबूजी अम्मा का हाथ अपने हाथ में लेकर उन्हें हिम्मत बंधाते मगर ख़ुद भीतर ही भीतर कितना टूट रहे थे वे ही जानते थे। क्योंकि उन्हें पता था कि अब अम्मा कभी अच्छी नहीं होने वाली, उन्हें ब्लड कैंसर हो गया था। न अम्मा इस बात को जानती थी न मैं न ही चिंटू, इतना बड़ा पहाड़ बाबूजी अपने सीने पर अकेले ही झेलते रहे। अम्मा के सामने ख़ुद को मज़बूत करते मगर अकेले में कई बार आँसू बहाते देखा था मैंने उन्हें।

अब रसोई बाबूजी के हाथों में आ गई थी। जैसे भी बनता कच्चा-पक्का पकाते, कभी दाल चावल तो कभी खाली खिचड़ी से हम पेट भर लेते सब्जी रोटी कम ही बनती अब चिंटू भी खाने को लेकर कुरकुरी भिंडी की मांग नहीं करता, न ही दूध के लिए अम्मा को सारे घर में दौड़ाता, अम्मा के हाथ से खाने की ज़िद भी नहीं करता जानता था अम्मा बहुत कमजोर हो गई है। जो बनता हम सब चुपचाप खा लेते घर में हमेशा गहरी उदासी छाई रहती। यह सब देख अम्मा कहती कुछ नहीं बस उनकी आँखों की कोर से आँसू ढुलक जाते। शायद वह समझ गई थी कि वह कभी ठीक नहीं हो पाएंगी। बाबूजी अम्मा का पूरा ख़्याल रखते उनके नहाने से लेकर खाने तक, समय-समय पर जूस लाकर हाथ में देते। अपने और हमारे नहाने की बाल्टी से लेकर तौलिया कपड़े तक बाबूजी ही रखते बाथरूम में। सुबह से दूध टिफिन देकर हमें स्कूल की बस तक पहुँचाना...हाँ! अब मेरे लंबे बाल कटवा दिए गए... क्योंकि बाबूजी को चोटी डालना जो नहीं आता था, बहुत रोई थी अम्मा उस रोज़। उनकी हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी अब तो उन्हें आँखों से भी कम दिखाई देने लगा था। बाबूजी उन्हें खुश रखने की हर संभव कोशिश करते मगर एक दिन अम्मा हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे रूठकर चली गई। आधे रह गए थे बाबूजी अपनी अर्द्धांगिनी के चले जाने पर। एकांत में बैठे छत निहारते रहते मानो अम्मा से शिकायत कर रहे हों मझधार में छोड़कर क्यों चली गई... ?

कितना बदल जाता है वक़्त और अपने साथ बदल देता है इंसान को। जो बाबूजी बैड टी के बगैर बिस्तर से नीचे क़दम नहीं रखते थे अब उठते से ही हमारी देखभाल में व्यस्त हो जाते हमें स्कूल भेजकर ही उन्हें चाय नसीब होती।

वक्त अपने तरीके से कट रहा था। इस महीने हमारे स्कूल टेस्ट का रिजल्ट आ गया कल पेरेन्ट्स मीटिंग थी बाबूजी नहीं जानते क्या होता है पेरेन्ट्स मीटिंग में, कई बार अम्मा ने कहा संग चलने को मगर बाबूजी ने यह कह कर टाल दिया बच्चों की ट्यूटर तुम हो, जवाब तो तुम्हें ही देना है फिर शरारत करते हुए कहते भई! मैंने तो अपने हिस्से का स्कूल कर लिया तुम रह गई सो तुम्ही जाओ ...मुझे बख्शो। वही हुआ जिसकी संभावना थी हमेशा अव्वल आने वाले हम, इस बार मैं दो विषय में और चिंटू चार विषय में फेल हो गया। यह बात नहीं कि हमने पढ़ने की कोशिश नहीं की...पुस्तकें खोलकर बैठते, पास में गुमसुम से बाबूजी भी होते मगर पास अम्मा जो नहीं होतीं...!

जैसे ही बाबूजी हमें लेकर क्लास में दाखि़ल हुए दूसरे पैरेन्ट्स की कानाफूसी न चाहते हुए भी कानों में पड़ गई अब तक माँ थी...अब माँ नहीं है ना...! कितना फ़र्क़ पड़ता है माँ से...ये शब्द किसी तेजाब से बाबूजी के भीतर उतरते चले गए। अम्मा की कमी का अहसास उनसे ज़्यादा और किसे होगा। मगर लोगों के शब्द मानो उन्हें मुंह चिघला रहे हों कि वे अम्मा की जगह नहीं ले सकते या फिर वे हमारी परवरिश में सफल नहीं हो पाए।

आज उन्हीं प्रिंसिपल ने बाबूजी को बुलाकर कहा,

" मिस्टर महन्त! मैं आपकी स्थिति समझ सकती हूँ मैं यह भी जानती हूँ आपको इस परिस्थिति से उभरने में अभी वक़्त लगेगा। किन्तु बच्चों की भलाई के लिए यह कहने को विवश हूँ कि अब आपको उनकी ओर ज़्यादा गंभीरता से ध्यान देना होगा। इस बार का रिजल्ट तो हम समझ सकते हैं लेकिन मैं समझती हूँ आप भी नहीं चाहेंगे कि मिसेस महन्त ने जिस मेहनत से बच्चों की रेपो बनाई है वह जाया न हो।

इसमें कोई शक नहीं मोनू और चिंटू बहुत इंटेलिजेंट हैं। किन्तु पिछले दिनों दोनों के सल भरे यूनिफार्म और बिखरे बालों को लेकर बच्चे क्लास में उनका मज़ाक बना रहे थे। कल तो चिंटू की पेंट भी नीचे से फटी हुई थी। मिस्टर महंत! आप समझ रहे हैं ना! इससे बच्चे डीमोरलाइज हो जाएंगे...एक बार उनका आत्मविश्वास कमजोर हो गया तो बड़ी मुष्किल होगी उन्हें सम्हालने में। सो प्लीज आप उनका ख़्याल रखिए। "

बाबूजी चुपचाप सुनते रहे कुछ नहीं बोले वैसे भी आजकल वह बोलते कम ही हैं। छोटी-छोटी बातों में शरारत कर अम्मा के मजे लेने की आदत तो उनकी अम्मा के साथ ही चली गई। उन्हें रेशा-रेशा टूटते, ख़ुद को बदलते मैंने देखा है। मानो उन्होंने अम्मा बनने की मुहिम चला रखी हो। भीतर ही भीतर ठान लिया हो कि वे अम्मा की मेहनत को जाया नहीं होने देंगे।

उस दिन रविवार था उन्होंने शाम को मुझे और चिंटू को तैयार किया दूध और ब्रेड हाथ में थमाते हुए बोले,

"मोनू बेटा! चिंटू को सामने पार्क में घुमा ला तब तक मैं रसोई का काम निपटा लूं फिर हम पढ़ाई करेंगे।"

मैं कुछ ही देर में पार्क से लौट आई, मन नहीं लग रहा था। लौटी तो देखा रसोई में गैस पर रखे कुकर में सीटी आ रही थी पास ही भिंडी तलकर रखी हुई थी थाली में आटा लगा हुआ था। ठीक जैसे अम्मा रखती थीं, मगर बाबूजी... बाबूजी तो रसोई में नहीं है...? कमरे में जाकर देखा तो सुई धागा लिए बाबूजी चिंटू की उधड़ी पैंट सिलने की कोशिश कर रहे थे। पेंट नहीं ...उधड़े रिश्ते-सी रहे थे..., जैसे अम्मा सीया करती थीं। आज ऐसा लग रहा था अम्मा पूरी कि पूरी बाबूजी में उतर आई हो।