अयोध्याचा राजा और बाबरी मस्जिद / जयप्रकाश चौकसे

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अयोध्याचा राजा और बाबरी मस्जिद
प्रकाशन तिथि : 26 दिसम्बर 2018


महात्मा गांधी ने शोभना समर्थ अभिनीत 'राम राज्य' नामक फिल्म देखी थी। परंतु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। फिल्म के प्रदर्शन के समय स्वतंत्रता संग्राम अपने शिखर पर था, अतः महात्मा गांधी ने फिल्म देखने में 3 घंटों का निवेश किया हो- यह संभव नहीं लगता। महात्मा गांधी के आदर्श से प्रेरित फिल्मों का ब्योरा मैं अपनी किताब 'महात्मा गांधी और सिनेमा' में लिख चुका हूं। हिंदुस्तान में कथा फिल्मों के जनक धुंडीराज गोविंद फाल्के ने मूक एवं सवाक दोनों में 'अयोध्याचा राजा' नामक फिल्में बनाई हैं। कलकत्ता में बीएन सरकार द्वारा स्थापित कंपनी न्यू थियेटर्स की बनाई आधा दर्जन फिल्मों के असफल रहने के बाद गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं अपने नाटक 'नाटिर पूजा' से प्रेरित फिल्म का निर्देशन भी किया परंतु यह भी सफल नहीं हो पाई। गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर के सुझाव पर शिशिर भादुड़ी के नाटक 'सीता' से प्रेरित इसी नाम की फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने श्रीराम की भूमिका तथा दुर्गा खोटे ने सीता की भूमिका अभिनीत सफल फिल्म बनाई। इसी सफलता ने कंपनी को साधन दिए कि वे 'देवदास' 'चंडीदास' इत्यादि फिल्में बना सकें। न्यू थियेटर्स कंपनी में साहित्य प्रेरित फिल्मों को प्राथमिकता दी जाती थी। हेमंत शर्मा नामक पत्रकार ने अयोध्या केंद्रित दो किताबें लिखी हैं 'अयोध्या का चश्मदीद' और 'युद्ध में अयोध्या'। इन महान किताबों को इतिहास का दर्जा दिया जा सकता है एवं चिंतन से जन्मी पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती हैं। सभी सरकारी और गैर सरकारी वाचनालयों में इन्हें रखा जाना चाहिए ताकि पढ़ने में रुचि रखने वाली पीढ़ियां इस प्रकरण को जान सकें जिसने सरकारों का निर्माण और ध्वस्त दोनों ही कार्य किए हैं और प्रकरण आज भी न केवल कायम है वरन् देश की दिशा भी तय कर सकता है। अंधा उन्माद उत्पन्न करने पर भी ये किताबें रोशनी डालती हैं। किताबों के भीतरी कवर पर लिखा है, अयोध्या का अर्थ है जिसे शत्रु जीत ना सके परंतु अयोध्या के इस अर्थ को बदल तीन गुंबद राष्ट्र की स्मृति में दर्ज है। ये गुंबद हमारे अवचेतन में शासक बनाम शासित का मनोभाव बनाते हैं। सौ वर्षों से देश की राजनीति इन्हीं गुंबदों के इर्द-गिर्द घूम रही है। आजाद भारत में अयोध्या को लेकर बेइंतहा बहसें हुईं पर किसी ने उसे बूझने की कोशिश नहीं की। यह सब कुछ इन्हीं गुंबदों के इर्द-गिर्द घटता रहा अब भी घट रहा है। अब हालांकि गुंबद नहीं हैं पर धुरी जस की तस है। उस धुरी की तीव्रता, गहराई और सच को पकड़ने का कोई बौद्धिक अनुष्ठान नहीं हुआ जिसमें इतिहास के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य को जोड़ने का माद्दा हो, ताकि इतिहास के तराजू पर आप सच झूठ का निष्कर्ष निकाल सकें और उन तथ्यों से दो-दो हाथ करने के प्रमाणिक, ऐतिहासिक और वैधानिक आधार के भागी बनें।

तुलसीदास के जीवन पर अमृतलाल नागर के उपन्यास 'मानस का हंस' एक महान रचना है जिससे प्रेरित फिल्म बनाने का प्रयास पूंजी निवेशक गुणवंतलाल शाह और खाकसार ने किया था। इसी फिल्म के लिए मेकअप विधा के विदेशी विशेषज्ञों से दिलीप कुमार ने संपर्क भी किया था, परंतु मात्र 40 की वय में गुणवंतलाल शाह के असामयिक निधन के पश्चात दिलीप कुमार कभी स्वयं को मानसिक रूप से फिल्म के लिए तैयार नहीं कर पाए। उपन्यास में यह वर्णित किया गया है कि तुलसीदास को एक वेश्या से प्रेम हो गया था। वेश्या के सौंदर्य की खबरें आगरा तक पहुंचीं तो एक हुक्मरान ने उसे गिरफ्तार करके आगरा लाने के लिए एक टुकड़ी भेजी। वेश्या के साथ ही तुलसीदास भी गिरफ्तार हुए और काफिला आगरा की ओर रवाना हुआ। तुलसीदास ने उस टुकड़ी के मुखिया की हस्तरेखा देखकर कहा कि उनके अधीन एक व्यक्ति उन्हें मार कर वेश्या के साथ भाग जाने की योजना बना रहा है। अगली रात मुखिया पर आक्रमण हुआ परंतु वह पहले से ही तैयार था। अत: हमलावर को उसने मार गिराया। तुलसीदास की भविष्यवाणी से उसके प्राण बचे, अत: तुलसीदास को आजाद कर दिया।

उपन्यास का प्रारंभ होता है कि रत्नावली मृत्यु शैया पर है और वर्षों बाद पति तुलसीदास लौटते हैं। रत्नावली उलाहना देती है तो तुलसीदास कहते हैं कि स्वयं रत्नावली हस्तरेखा और कुंडली पढ़ने की योग्यता रखती थीं। अतः वह जानती थी कि उसका पति पलायन कर जाएगा परंतु भविष्य जानकर भी उसने विवाह किया क्योंकि तुलसीदास अमर हो जाएंगे और उसी के साथ रत्नावली का नाम भी लोग याद रखेंगे।

अमर होने की यह लालसा हमें टीएस इलियट की रचना 'मर्डर इन द कैथेड्रल' की याद दिलाती है। चर्च का मुखिया राजा के हाथों मारा जाना चाहता है, क्योंकि ऐसा होने पर वह अमर हो जाएगा। अमर होने की लालसा भी मृगतृष्णा ही है और शिद्दत से याद किए जाने पर भी कोई लौटकर नहीं आता।