अवशिष्ट भाग 20-29 / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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लखनऊ की कांग्रेस के बाद ही सन 1936 ई. में बिहार प्रांतीय वर्किंग कमिटी की मीटिंग थी। मैं भी मौजूद था। लखनऊ में कांग्रेस ने जो प्रस्ताव किसानों की हालत की जाँच के लिए पास किया था और प्रांतीय कमिटियों से जाँच की यह रिपोर्ट माँगी थी कि विभिन्न प्रांतों में किसानों के लिए किन-किन सुधारों की जरूरत है जिससे उनकी तकलीफें घटें और उन्हें आराम मिले , उसी संबंध में यह खास मीटिंग हुई थी। उसी मीटिंग में किसान जाँच कमिटी बनानी थी। वह बनाई भी गई। बहुत देर तक विचार और बहस-मुबाहसा होता रहा। समस्या ठहरी पेचीदा। इसीलिए कमिटी का काम आसान न था। अंत में तय पाया कि नौ मेंबरों की कमिटी बने और जाँच का काम फौरन शुरू कर दे। तभी फैजपुर कांग्रेस के पहले ही दिसंबर आते-आते रिपोर्ट तैयार हो सकेगी।

अब सवाल पैदा हुआ कि मेंबर हों कौन-कौन से ? यह तो जरूरी था कि बिहार के सभी प्रमुख लीडर जो वर्किंग कमिटी में थे उसके मेंबर बन जाते। हुआ भी ऐसा ही। मगर एक दिक्कत पेश हुई मैं भी वर्किंग कमिटी का सदस्य था। साथ ही , किसानों के संबंध में मुझसे ज्यादा जानकारी किसी और को थी भी नहीं। जाँच कमिटी में रह के किसानों से ऐसी बातें तो मैं ही पूछ सकता था जिनसे जमींदारों के ऐसे अत्याचारों पर भी प्रकाश पड़ता जो अब तक छिपे थे। कहाँ क्या सवाल किया जाए और कब किया जाए इस बात की जानकारी सबसे ज्यादा मुझी को थी। इतना ही नहीं। रिपोर्ट तैयार करने के समय मैं उसे किसानों के पक्ष में प्रभावित कर सकता था। मेरे न रहने पर तो शेष लोग या तो जमींदारों के ही तरफदार होते , या ज्यादे-से-ज्यादा दो भाषिए हो सकते थे। मगर किसानों को यदि कुछ भी भलाई करनी थी तो कुल नौ मेंबरों में एक का ऐसा होना अनिवार्य था जो किसानों की बातें ठीक-ठीक जानता और उनकी सभी समस्याएँ समझता हो। कोई वजह भी न थी कि मैं जाँच कमिटी में न रहूँ। यह हिम्मत भी किसे हो सकती थी कि मुझे रहने से रोके ? आखीर चुनाव में जो अगले साल शुरू में ही होने को था , किसान-सभा की सहायता भी तो कांग्रेस के लिए जरूरी थी। इसीलिए भी मुझे रखना ही पड़ता।

मगर मुझे क्या मालूम कि खुद बा. राजेंद्र प्रसाद धर्मसंकट में पड़े डूबते-उतराते थे। मैं तो समझता था , और दूसरे भी समझते थे , कि मुझे जाँच कमिटी में रहना ही है। दूसरी बात होई न सकती थी। लेकिन जब राजेंद्र बाबू ने दबी जबान से कहा कि स्वामी जी के रहने पर जमींदार और सरकार दोनों ही कहेंगे कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट तो दरअसल किसान-सभा की रिपोर्ट है , न कि कांग्रेस की। कहने के लिए भले ही उसकी हो , तो मुझे ताज्जुब हुआ कि यह क्या बोल रहे हैं। मगर उनने और भी कह डाला कि हम नहीं चाहते कि किसी को ऐसा कहने का मौका मिले। हम चाहते हैं कि सभी की नजरों में हमारी रिपोर्ट की कीमत और अहमियत हो। अब तो मैं और भी हैरान हुआ और उनसे पूछा कि आप क्या दलील दे रहे हैं ? नौ में मैं ही अकेला किसान-सभा का ठहरा। बाकी तो खाँटी कांग्रेसी हैं , जमींदार और जमींदारों के दोस्त हैं। फिर यह कैसे होगा कि उनकी कीमत न हो और अकेले मेरे ही करते आपकी रिपोर्ट किसान-सभा की बन जाए ? खुद राजेंद्र बाबू भी उसमें होंगे। तो क्या मेरे सामने उनकी भी कोई कीमत न होगी। क्या किसान-सभा का या मेरा इतना महत्त्व सरकार और जमींदारों की नजरों में बढ़ गया ? मैं तो यह सुन के हैरान हूँ।

मेरी इन बातों का उत्तर वे लोग क्या देते ? आखिर कोई बात भी तो हो। और अगर किसान-सभा की या मेरी अहमियत इतनी मान लें , तो फिर कांग्रेस को क्या कहें ? उसे तो उन्हें सबके ऊपर रखना था। फिर दलीलों का जवाब देते हो क्या ? इसीलिए यह कहना शुरू किया कि आपके रहने से रिपोर्ट सर्वसम्मत ( unanimous) ने होगी और उसकी कीमत पूरी-पूरी होने के लिए उसका सर्वसम्मत होना जरूरी है। इस पर मैं बोल बैठा कि आपने अभी से यह कैसे मान लिया कि रिपोर्ट ऐसी न होगी और उसमें मेरा मतभेद खामख्वाह होगा ? मैं तो बहुत दिनों से वर्किंग कमिटी का मेंबर हूँ और उसके सामने बहुत से पेचीदा प्रश्न आते ही रहे हैं। किसानों के भी कितने ही सवाल जब न तब आए हैं। मगर आप लोग क्या एक भी ऐसा मौका बता सकते हैं जब मेरा मतभेद रहा हो ? या जब मैंने अंत में अलग राय दी हो ? यह दूसरी बात है कि बहस-मुबाहसे होते रहे हैं। तो भी अंत में फैसला तो हमने एक राय से ही किया है। फिर भी यदि आप लोग अभी से यह माने बैठे हैं कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट में मेरा रिपोर्ट खामख्वाह होगा , तो माफ कीजिए , मुझे कुछ दूसरी ही बात दीखती है। मैं हैरत में हूँ कि यह क्या बातें सुन रहा हूँ।

एक बात और है। मान लीजिए कि मेरा मतभेद बाकी मेंबरों से होगा ही। तो इससे क्या ? यह तो बराबर होता ही है। क्या सभी कमिटियों की रिपोर्टें एक राय से ही लिखी जाती हैं ? शायद निन्नानबे फीसदी तो कभी एक मत नहीं होती है। मुश्किल से सौ में एक रिपोर्ट ऐसी होती होगी। तो क्या कभी ऐसा भी होता है कि शुरू में ही ऐसे लोग मेंबर बनाए जाएँ जिनके विचार एक से ही हों ? उलटे हमने देखा है , हम बराबर देखते हैं कि ऐसी कमिटियों में खासकर अनेक खयाल के लोग ही रखे जाते हैं। बल्कि उनकी रिपोर्टों की ज्यादा कीमत , ज्यादा अहमियत इसी से होती है कि अनेक मत के लोग उनमें थे। फिर भी आप लोग उल्टी ही बात बोल रहे हैं। आखिर आपकी यह जाँच कमिटी कोई निराली चीज तो है नहीं। फिर मैं यह क्या सुनता हूँ कि रिपोर्ट एक मत न होगी ?

अब तो किसी के बोलने के लिए और भी गुंजाइश न थी। सभी चुप थे। और लोगों की भावभंगीमा से और खासकर राजेंद्र बाबू के चेहरे से मुझे साफ-साफ झलका कि उन लोगों पर कोई भारी आफत आ गई है। वे नहीं चाहते कि मैं जाँच कमिटी में रहूँ। मगर उसी के साथ उनकी दिक्कत यह है कि मुझे रखने के लिए मजबूर हो रहे हैं , जब तक कि मैं खुद रहने से इनकार न कर दूँ। मैं समझने में लाचार था कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे क्या पता था कि उन लोगों के भीतर पाप भरा था कि न रिपोर्ट तैयार होगी और न छपेगी। सिर्फ चुनाव के पहले जाँच का ढकोसला खड़ा करके वे लोग किसानों को केवल ठगना चाहते थे कि वोट दें। यह भंडाफोड़ पीछे हुआ जब कि उनने रिपोर्ट का नाम ही लेना बंद कर दिया। बल्कि जब मैंने पीछे उनकी यह हालत देख के फैजपुर में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में यह सवाल उठाया तो वे लोग बुरी तरह बिगड़ बैठे। मैंने वहाँ भी उन्हें फटकारा और ऐसा सुनाया कि बोलती ही बंद थी।

हाँ , तो यह हालत देख के मैंने खुद कहा कि यदि आप लोगों की यही मर्जी है तो लीजिए मैं खुद रहने से इनकार करता हूँ। क्योंकि देखता हूँ कि यदि ऐसा नहीं करता तो जाँच कमिटी ही न बनेगी और पीछे सब लोग मुझी को इसके लिए कसूरवार ठहरा के खुद पाक बनने की कोशिश करेंगे। मगर मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। इसीलिए खुद हट जाता हूँ। लेकिन यह कैसे होगा कि आप लोग जोई रिपोर्ट चाहेंगे छाप देंगे और मैं मान लूँगा ? मुझे रिपोर्ट की तैयारी के पहले और छपने के पहले भी पूरा मौका तो मिलना ही चाहिए कि बहस कर केसंभव हो तो उसे कुछ दूसरा रूप दिला सकूँ। इस पर सभी एकाएक बोल बैठे कि यह तो होगा ही। जाँच के समय भी आप रह सकते हैं। मगर जाँच का काम पूरा होने और रिपोर्ट लिखने के पहले एक बार कमिटी आपसे सभी बातों पर काफी विचार कर लेगी और आपको पूरा मौका देगी कि उसे प्रभावित करें। फिर जब रिपोर्ट तैयार होगी तो छपने के पहले आपके पास उसकी एक कॉपी जरूर भेजी जाएगी और यदि आप चाहेंगे तो कमिटी से फिर बहस कर के उसमें रद्द-बदल करवा सकेंगे। इस पर मैंने कह दिया कि धन्यवाद! मैं इतने से ही संतोष कर लेता हूँ। तब कहीं जाकर राजेंद्र बाबू और दूसरों का धर्मसंकट टला।

अब एक दूसरा सवाल पैदा हुआ। जितने मेंबर चुने गए उनमें पटना और शाहाबाद जिलों के एक भी न थे और किसानों के प्रश्नों के खयाल से ये जिले बहुत ही महत्त्व रखते हैं। सच बात तो यह है कि मैं इस सवाल को न तो उसी समय समझ सका और न अब तक समझ पाया हूँ। यदि सभी जिलों के मेंबर न होंगे तो उससे क्या ? मैं तो अच्छी तरह जानता हूँ कि अपने जिले की किसान समस्याओं की पूरी जानकारी शायद किसी को आज तक भी हो। जानकारी तो उन्हें हो जो उसमें दिलचस्पी रखते हों और उसकी टटोल में बराबर रहते हों। इधर किसी को न तो इसकी परवाह है और न इसके लिए फुर्सत। फिर इस सवाल से क्या मतलब ? बिहार के कुल सोलह जिलों को मिलाकर जब सिर्फ नौ मेंबरों की ही जाँच कमिटी बनी तो यह सवाल उठता ही कैसे कि फलां जिले का कोई नहीं है ? हाँ , किसी का नाम कमिटी के मेंबरों में होने से अखबारों में छपे और वह इस प्रकार नामवरी हासिल करे यह बात जुदा है और अगर इस दृष्टि से पटना शाहाबाद से किसी को देना हो तो हो।

खैर , कुछ देर के बाद किसी ने कहा कि बाबू गंगाशरण सिंह पटने के ही हैं। उन्हें क्यों न दिया जाए ? इस पर प्रायः सभी बोल बैठे कि ठीक है , ठीक है। अंत में तय भी पाया गया कि वह भी एक मेंबर रहें और वह तथा बाबू कृष्णबल्लभ सहाय-दोनों ही-जाँच कमिटी के मंत्री हों। मैं चुपचाप बैठा आश्चर्य में डूब रहा था। बाबू गंगाशरण सिंह न सिर्फ बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल के मेंबर थे , बल्कि बिहार प्रांतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की कौंसिल ऑफ ऐक्सन के भी सदस्य और पक्के सोशलिस्ट माने जाते हैं। मैं तो जाँच कमिटी में इसलिए खतरनाक माना गया कि किसान-सभावादी हूँ। मगर सोशलिस्ट लोग तो ठेठ क्रांति तक पहुँच जानेवाले माने जाते हैं। वह तो क्रांति से नीचे की बात करते ही नहीं। फिर भी गंगा बाबू , बाबू राजेंद्र प्रसाद और उनके साथियों को न सिर्फ कबूल थे , बल्कि उन लोगों ने खुद उनका नाम पेश किया। यह एक निराली बात थी कि सोशलिस्ट तो कबूल हो , मगर मेरे जैसा आदमी , जो सोशलिस्ट बनने का दावा कभी नहीं करता , कबूल न हो। यह मेरा आश्चर्य आज तक बराबर बना है। इतना ही नहीं जब मैंने सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश बाबू से यह चर्चा की तो उनने खुद कहा कि गंगा बाबू तो सोशलिस्ट भी हैं , तब कैसे कबूल हो गए ? इसीलिए यह सवाल आज भी ज्यों का त्यों बना है और कौन कहे कि कब तक बना रहेगा ?


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हजारीबाग जेल में इस बार हमें जो घटनाएँ मिलीं वह भी काफी मजेदार हैं। हमें कुछ ऐसे गाँधीवादी यहाँ मिले जो हिटलर की जीत से केवल इसलिए खुश होते थे कि वह हिंदुस्तान पर चला आएगा और इस प्रकार किसान-सभा और मजदूर-सभा का गला घोंट देगा। सोवियत रूस पर होनेवाले उसके आक्रमण से तो वे लोग और भी ज्यादा खुश थे। वह यहाँ तक बढ़ गए थे कि सोवियत की हार अब हुई , तब हुई ऐसा कहने लगे थे। भारत में हिटलर के पदार्पण से उनकी क्या हालत होगी यह बात भी शायद वह सोचते हों , मगर क्या सोचते थे यह हमने न जाना। किसान आंदोलन खत्म हो जाएगा उन्हें इसी की खुशी थी। यदि वे खुद भी उसी के साथ खत्म हो जाएँ तो भी उन्हें परवाह न थी। फिक्र उन्हें अगर कोई दिखी तो यही कि किसान-सभा कैसे मिटेगी। बेशक उनमें कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो स्वराज्य लेना नहीं चाहते थे , किंतु उन्हें चिंता थी उसके बचाने की। उनके जानते उनका अपना स्वराज्य तो हई। जमींदारी बड़ी है और रुपए-पैसे भी काफी जमा हैं। ठाट-बाट और शान-बान भी पूरी है। किसानों पर रोब भी खूब डाँटते हैं। फिर और स्वराज्य कहते हैं किसे ? उनने तो स्वराज्य का यही मतलब समझा है। उन्हें भय है कि उनका यह स्वराज्य कहीं किसान और पीड़ित लोग छीन न लें , इसीलिए कांग्रेस और गाँधी जी की दुम पकड़ के वे इस बला से पार होने के लिए यहाँ पधारे थे। क्योंकि उन्हें विश्वास है कि यहाँ आ जाने पर उनके स्वराज्य की रक्षा गाँधी जी और कांग्रेस-दोनों ही-ठीक वैसे ही करेंगे जैसे हिंदुओं की गाय की दुम उन्हें वैतरणी में डूबने से बचाती है।

मगर उनमें जो जमींदार या मालदार न थे उनकी इस मनोवृत्ति पर हमें तरस आया और हँसी भी आई। हिटलर के पदार्पण से उन्हें अपना स्वराज्य कैसे मिलेगा यह समझ में न आया। शायद उन्हें अपने स्वराज्य की परवाह कतई थी नहीं। कदाचित जेल आए थे वे इसीलिए कि उनकी लीडरी खतरे में थी ─ छिन जाती। अगर उसे उनने बचा लिया तो यही क्या कम है ? उसी से कमा-खाएँगे। आज लीडरी भी एक पेशा जो बन गई है। मगर , अगर हिटलर के आ जाने से वह लीडरी भी छिन जाए , तो छिन जाए बला से। उसी के साथ किसान-सभा भी तो खत्म होगी। बस , इतने से ही उन्हें संतोष था। इसे ही कहते हैं “ आप गए अरु घालहिं आनहि “ या “ दुश्मन की दोनों आँखें फोड़ने के लिए अपनी एक फोड़ लेना! “ हमें तो साफ ही मालूम हुआ कि कांग्रेस एक अजाएबघर या चिड़ियाखाना ( Museum or zoo) है जिसमें रंग-बिरंगे जीव पाए जाते हैं! गुलाम भारत की विकट परिस्थिति के चलते ही उसकी स्थिति है। क्योंकि राष्ट्रीय संस्था के अलावे और कोई भी संस्था अंग्रेजों का मुँहतोड़ दे नहीं सकती , उनसे सफलतापूर्वक लोहा ले नहीं सकती। इसीलिए कांग्रेस को हर हालत में मजबूत बनाना हर विचारशील माननीय का फर्ज हो जाता है। अंग्रेजी सरकार की मनोवृत्ति और सलूक उसे लड़ने को विवश भी करते हैं। यही है परिस्थितिवश कांग्रेस की विलक्षणता और मान्यता। मगर उसमें रंग-बिरंगे जीव तो हई।

हजारीबाग जेल में रोजाना दस आना मिलता है खुराक के लिए। कपड़े-लत्ते , टूथ-ब्रश , पाउडर , साबुन वग़ैरह अलग ही मिलते हैं। इतने पर भी एक ' टुटपुँजिए ' जमींदार महोदय को तमक के कहते पाया कि “ कष्ट भोगने के लिए तो हम जमींदार लोग हैं और स्वराज्य लेने या जमींदारी मिटाने की बात किसान करते हैं। देखिए न , यह कितनी अंधेर है! “ क्या खूब! वे हजरत इतने कष्ट में थे कि कुछ कहिए मत। दस आने हजम करने में क्या कम कष्ट है ? और ये पाउडर , ब्रश आदि ? इनका प्रयोग तो उन्हें बाहर शायद ही कभी मुअस्सर हुआ हो। इसीलिए इससे भी उन्हें काफी कष्ट था। प्रतिदिन दस आना खामख्वाह हजम करना यह तो आफत ही थी। यदि कभी कम-बेश होता तो एक बात थी। मगर रोज ही पूरे दस आने! यही तो गजब था! पता नहीं , छूटने के दिन वे 30-40 पौंड वजन में बढ़े हुए गए या कि कुछ कम! उनके बारे में हमें केवल इतना ही कहना है कि किसानों ने उन्हें कभी नहीं कहा था कि जेल के ये कष्ट वे भोगें। वे तो खुद आए थे। फिर किसान उनके साथ क्यों रिआयत करेंगे , यही समझ में न आया। दरअसल बात तो कुछ दूसरी ही थी। वह तो पहले समझते थे कि स्वराज्य होगा किसानों और जमींदारों के साझे का , और बँटवारे के समय हम किसानों को ग्वाले के छोटे भाई की तरह ठग लेंगे। मगर किसान-सभा ने इस बात का पर्दाफाश कर दिया और कह दिया है कि साझे का स्वराज्य होई नहीं सकता। बस , इसी से उन्हें क्रोध था।

कहते हैं कि किसी गाँव में दो भाई ग्वाले साथ ही रहते और कमाते-खाते थे। बड़ा भाई था काफी चालाक। कमाता वह था नहीं। कमाते-कमाते मरता था छोटा भाई ही। मगर खान-पान में बड़ा आगे ही रहता था। फिर भी छोटे को परवाह न थी। मगर यह बात आखिर चलती कब तक ? अंततोगत्वा एक दिन छोटे को भी गुस्सा आया और उसने कहा कि हमें जुदा कर दो , साथ न रहेंगे। बड़े ने पहले तो काफी कोशिश की कि यह बात न हो। मगर छोटे को जिद्द थी। इसलिए लाचार सभी चीजों का बँटवारा करना ही पड़ा। और चीजों में तो कोई दिक्कत न थी। मगर दस-पंद्रह सेर दूध देनेवाली ताजी ब्याई एक भैंस थी। उसका बँटवारा कैसे हो , यह बात उठी। लोटा-थाली हो तो एक-एक बाँट लें। अन्न और पैसे आदि में भी यही बात थी। मगर भैंस तो एक ही थी। दो होतीं तो और बात थी। अब क्या हो ? दोनों को कुछ सूझता न था। अक्ल के पूरे तो थे ही बड़े हजरत। उनने रास्ता सुझाया। भैंस का आधा भाग तुम्हारा और आधा हमारा रहे , जैसे घर में आधा-आधा दोनों ने लिया है। छोटे ने मान लिया। अब सवाल उठा कि भैंस का कौन हिस्सा किसे मिले ?

यहाँ पर बड़े भाई ने चालाकी की और छोटे से कहा कि देखो भाई , तुम्हें मैं बहुत मानता हूँ। इसीलिए चाहता हूँ कि यहाँ भी तुम्हें अच्छा ही हिस्सा दूँ। यह तो जानते ही हो कि भैंस का मुँह कितना सुंदर है , किस प्रकार पगुरी करती है। उसकी सींगें कितनी चमकीली और मुड़ी हुई हैं , कान , आँख वगैरह भी देखते ही बनते हैं। विपरीत इसके चूतड़ का हिस्सा कितना गंदा है। उस पर बराबर गोबर-मूत लगा रहता है जिसे रोज धोना पड़ता है। भैंस बार-बार गोबर-मूत निकालती ही रहती है। अगर एक दिन उसे उठा के न फेंकें तो रहने ही जगह नर्क ही हो जाए! लेकिन तुम्हारे करते मैं लाचार हो के उसका पिछला हिस्सा ही लूँगा और गोबर-मूत फेंकूँगा। तुम्हें अगला भाग देता हूँ। बस , बँटवारा हो गया। खुश हो न ? छोटे ने हामी भर दी।

अब तो ऐसा हुआ कि छोटा भाई रोज भैंस को खूब खिलाता-पिलाता और बड़ा धीरे से दोनों समय उसका दूध निकालता और मजा करता। यह बात कुछ दिन चलती रही। छोटे को इस बीच दही , दूध कुछ भी देखने तक को न मिला। कभी-कभी वह घबराता था जरूर। मगर सीधा तो था ही। अतः संतोष कर लेता कि क्या किया जाए ? बँटवारा जो हो गया है। बस , फिर काम में लग जाता था। इस प्रकार मिहनत करते-करते मरता था वह और मजा मारता था बड़ा। कितना सुंदर न्याय था! कैसा सुंदर प्रेम बड़े ने छोटे भाई के प्रति दिखाया! उसके सीधेपन से उसने कैसा बेजा नफा उठाया! मगर यह अंधेर टिक न सकी। टिकती भी क्यों ?

एक दिन छोटे भाई का परिचित कोई सयाना आदमी उसके घर आया। छोटे ने उसका आदर-सत्कार किया। भोजन भी अच्छा खिलाया। मगर दही-दूध नदारद! आगंतुक को ताज्जुब हुआ कि हाल की ब्याई सुंदर भैंस दरवाजे पर बँधी है। दूध भी काफी देती होगी। यह शख्स मेरा सच्चा दोस्त भी है। फिर भी मुझे इसने न दूध दिया और न दही! मैंने गौर कर के देखा तो इसके घर में ये चीजें नजर भी न आईं। यह क्या बात है ? उसने छोटे से यही सवाल किया भी। उसने उत्तर दिया कि सो तो सही है। भैंस तो है। मगर बँटवारे में मेरे पल्ले उसका अगला हिस्सा जो पड़ा है पिछला तो भैया का है। फिर मैं दूध पाता तो कैसे ? हाँ , सींग वगैरह की सुंदरता से संतोष करता हूँ। गोबर-मूत से भी बचता हूँ। यही क्या कम है ? भैया ने बड़ी कृपा कर के मुझे अगला भाग ही दिया है। भाई हो तो ऐसा हो। इतने से ही आगंतुक ने समझ लिया कि इसमें चाल क्या है।

उसने छोटे भाई से कहा कि तो फिर बड़ा भाई भी दूध क्यों निकाल लेता है ? यदि तुम अगले हिस्से को खिलाते-पिलाते हो तो वह भी पिछले हिस्से का गोबर-मूत फेंके। यह क्या बात है कि तुम तो कमाते-कमाते और खिलाते-खिलाते मरो और वह मजा चखे ? जब एक काम तुम करते हो तो वह भी एक ही करे। भैंस के दुह लेने का दूसरा काम वह क्यों करता है ? उसे जा के रोकते क्यों नहीं हो ? आखिर दोनों को पूरा-पूरा काम करना होगा। क्योंकि हिस्सा तो बराबर ही है न! उसका यह कहना था कि उस सीधे भाई के समझ में बात आ गई। आगंतुक ने इसके पहले जो दूध के बँटवारे आदि की बातें कही थीं वह उसके दिमाग में नहीं धँसी और नहीं धँसी। हालाँकि बातें थीं सही। हमने देखा है कि किसान ही जोत-बो के फसल पैदा करते हैं। मगर जब तक जमींदार हुक्म न दे एक दाना भी नहीं छूते और पशुओं को तथा बाल-बच्चों को भी भूखों मारते हैं। यदि उनसे कहिए कि ऐसा क्यों करते हो ? खाते-पीते क्यों नहीं हो ? तो बोल बैठते हैं कि राम-राम , ऐसा कैसे होगा ? ऐसा करने से पाप होगा। जमींदार का उसमें हिस्सा जो है। चाहे हजार माथापच्ची कीजिए कि जमींदार तो कुछ करता-धरता नहीं। जमीन भी उसकी बनाई न होके भगवान या प्रकृति की है। इस पर न जाने कितने मालिक बने और गए। जोई बली होता है वही जमीन पर दखल करता है ─ ' वीर भोग्या वसुंधरा। ' मगर उनके दिमाग में एक भी बात घुसती नहीं और यह धर्म , पाप और हिस्से का भूत उन्हें सताता ही रहता है। यही हालत छोटे भाई की भी थी। और जैसे सीधी बात उसके दिल में धँस गई उसी तरह सीधी बात किसानों को भी जँच जाती है।

फिर तो वह दौड़ा-दौड़ाया बड़े भाई के पास फौरन गया और ऐन भैंस दुहने के समय उससे कहने लगा कि आप यह ज्यादा काम करते हैं। एक काम मेरा है भैंस के खिलाने का। एक ही आपका होना चाहिए उसके गोबर-मूत को साफ करने का। फिर यह दूसरा काम आप क्यों कर रहे हैं ? पहले मैं यह समझ न सका था। अभी-अभी यह बात मैंने जानी है। इसीलिए आपको यह काम करने न दूँगा। नहीं तो मुझे एक काम इसके बदले में दीजिए।

इस पर बड़ा भाई घबराया सही। लेकिन सोच के बोला कि पिछला आधा भाग मेरा है और अगला आधा तुम्हारा। अपने-अपने भाग में जिसे जो करना है करे। इसमें रोक-टोक का क्या सवाल ? काम का बँटवारा तो नहीं है। यहाँ तो भैंस का बँटवारा है और उसके दो हिस्से किए हैं। यदि तुम खामख्वाह काम ही चाहते हो तो भैंस के मुँह और आँखों पर तेल-वेल लगाया करो और सींगों पर भी। या जब मैं इसे दुहता हूँ तो इसके मुँह पर से मक्खियाँ और मच्छर वगैरह हाँका करो। बस , और ज्यादा चाहिए क्या ?

इस पर छोटा भाई निरुत्तर हो के चला गया और आगंतुक से सारी बात उसने कह सुनाई। इस पर आगंतुक ने कहा कि घबराओ मत। अभी काम हुआ जाता है। अगले हिस्से के लिए जो काम उसने बताया है वह तो उसी के फायदे का है। इससे तो दूध निकालने में उसे और भी आसानी होगी। लेकिन जब उसने भैंस को दुहने का काम शुरू किया था तो तुमसे पूछा तो था नहीं कि यह काम करूँ या न करूँ। पिछला भाग उसी का होने के कारण उसने उस पर जो काम चाहा किया। दुहने से उसे फायदा होता है। इसलिए वही काम करता है। ठीक उसी प्रकार तुम भी अपने फायदे का काम आगे के भाग में करो। उससे पूछने की क्या बात ?

इस पर छोटे ने पूछा कि अच्छा आप ही बताइए कि किस काम के करने से मेरा फायदा होगा ? उसने उत्तर दिया कि ज्योंही वह हजरत दूहने बैठें त्यों ही भैंस के मुँह पर धड़ाधड़ लाठियाँ लगाने लगो। इससे भैंस भड़क के भाग जाएगी और वे हजरत दूध निकाल न सकेंगे। यह बात छोटे को पसंदआई और उसने फौरन ' अच्छा ' कह दिया। इसके बाद भैंस दुहने के समय घर लाठी लिए तैयार बैठा रहा और ज्यों ही बड़े भैया दुहने की तैयारी करने लगे कि उसने दौड़ के उसके मुँह पर तड़ातड़ लाठियाँ बरसानी शुरू कीं। बड़े साहब हैरत में थे और जब तक “ हैं , हैं “ कर के उसे रोकने की कोशिश करें तब तक भैंस जाने कहाँ भाग गई। बड़े भैया को इसके रहस्य का पता न लगा। उनने छोटे से पूछा तो उत्तर मिला कि मुँह तो मेरे हिस्से का है न ? फिर उस पर मैंने जो चाहा किया , जैसा आपने अपने हिस्से पर मन चाहा अब तक किया है। फिर ' हैं हैं ' करने या बिगड़ने का क्या सवाल ? बड़े भाई ने समझा कि यह सनक तो नहीं गया है। उसने छोटे को समझा-बुझा के तथा हिंसा करने और भैंस को कष्ट देने को अनुचित बता के उसे ठंडा किया। उसने समझा कि अब आगे ऐसा न करेगा। मगर दूसरे समय ज्यों ही दुहना शुरू हुआ कि उसने फिर वही लाठीकांड शुरू किया। पूछने पर जवाब भी वही दिया।

अब तो बड़े भैया की पिलही चमकी। उनने सोचा कि हो न हो दाल में काला अवश्य है। इसे कोई गहरा गुरु मिल गया है। नहीं तो यह तो भोला-भाला आदमी है। खुद ऐसा कभी नहीं करता। और जब उसने अच्छी तरह पता लगाया तो मालूम हो गया कि छोटे भाई का कोई काइयाँ दोस्त आया है जिसने उसे यह बात सुझा दी है। अब वह बिना आधा दूध लिए नहीं मानने का। अब मेरी दाल हर्गिज न गलेगी। इसीलिए हार कर उसने छोटे भाई से कहा कि क्यों तूफान करते हो ? भैंस भी खराब हो रही है और दूध भी किसी को मिल नहीं रहा है ─ न तुम्हें और न मुझे। जाओ आज से जितना दूध होगा उसका आधा तुम्हें जरूर बाँट दिया करूँगा। तुमने मुझसे यही बात पहले ही क्यों न कह दी कि आधा दूध चाहते हो ? मैं उसी समय तुम्हारी बात मान लेता।

इस पर छोटा भाई खुशी-खुशी अपने मित्र के पास गया और उससे उसने कह सुनाया कि आपका बताया उपाय सही निकला। अब हमें रोज आधा दूध दुहने के बाद ही मिल जाया करेगा। आपका उपाय तो बहुत ही सुंदर और आसान निकला। यह सुन के मित्र को भी खुशी हुई कि उस बेचारे का लुटा-लुटाया हक मिल गया।

किसान-सभा ने भी ठीक इसी तरह आसान उपाय किसानों को बता दिया है जिससे अपनी कमाई को पा सकें और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। जमींदार इसीलिए सभा से घबराते हैं और उसे कोसा करते हैं। वह तो साझेवाली भैंस की तरह साझे का स्वराज्य चाहते थे , जिसमें पीछे चल के किसानों को वैसे ही ठग सकें जैसे छोटे भाई को बड़े ने मीठी-मीठी बातों से ठग लिया था। किसान-सभा ने इसी ठगी से किसानों को पहले ही से आगाह कर दिया है। उसने कह दिया है साफ-साफ , कि साझे का स्वराज्य धोखे की चीज होगी। खबरदार , किसान और जमींदार का स्वराज्य साझे का या एक नहीं हो सकता है। वह तो जुदा जुदा होगा। जो किसान का होगा वह जमींदार का नहीं और जो जमींदार का होगा उससे किसान कत्ल हो जाएँगे , जैसा कि भैंस के बारे में साफ देखा गया है।

जमींदारों और उनके दोस्तों को इस बात का मलाल है कि किसान अब चेत गए हैं। वे यह बात मानने को तैयार नहीं कि जमींदारों और उनके दोस्तों की मदद से किसानों को स्वराज्य मिलेगा। वह तो मानते हैं कि अपने ही त्याग और परिश्रम से किसान-राज्य कायम होगा। यही कारण है कि जेल में पड़े-पड़े वह टुटपुँजिए जमींदार साहब उन पर कुढ़ते थे।



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जेल में हमें और भी कई मजेदार बातें देखने को मिलीं। किसान-सभा वादियों को तो यह पक्की धारणा है कि किसानों की आर्थिक लड़ाई के जरिए ही उनके हक उन्हें दिलाए जा सकते हैं। उनका स्वराज्य भी इसी तरह आएगा। वह यह भी मानते हैं कि किसानों के बीच जहाँ धर्म-वर्म का नाम लिया कि सारा गुड़ गोबर हो गया। धर्म के मामले में जिसे जो करना होगा करेगा , या नहीं करेगा। यह तो हरेक आदमी की व्यक्तिगत बात है कि धर्म माने या न माने और माने तो कौन सा धर्म और किस प्रकार माने। मंदिर , मस्जिद या गिर्जे में जाएगा या कि न जाएगा यह फैसला हरेक आदमी को अपने लिए खुद करना होगा। किसान-सभा इस मामले में हर्गिज न पड़ेगी। वह इससे कोसों दूर रहेगी। नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। हम किसानों और मजदूरों या दूसरे शोषितों की लड़ाई में पंडित , मौलवी और पादरी की गुंजाइश रहने देना नहीं चाहते। हमें ऐसा मौका देना ही नहीं है जिसमें वे लोग किसानों की बातों में ' दाल-भात में मूसरचंद ' बनें। नहीं तो बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा। क्योंकि धर्म की बात आते ही किसान-सभावालों को बोलने का हक रही न जाएगा। और पंडित , मौलवी आ टपकेंगे। धर्म उन्हीं के अधिकार की चीज जो है। वहाँ दूसरों की सुनेगा भी कौन ?

इस बात का करारा अनुभव हमें इस बार जेल में हुआ। जो लोग गाँधी जी के नाम पर ही जेल आए थे और अपने आपको पक्के गाँधीवादी मानते थे उन्हीं की हरकतों ने हमें साफ सुझा दिया कि आजादी के मामले में लड़ाई लड़नेवाले लोगों के सामने हर बात को धर्म के रूप में बार-बार लाके गाँधी जी मुल्क का कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। राजनीति में धर्म का चाहे किसी भी ऊँचे से ऊँचे और आदर्श रूप में भी मिला देने से कितना अनर्थ हो सकता है यह हमने साफ देखा। राजनीति या रोटी के प्रश्न का कोरी दुनियावी चीज मानना कितनी अच्छी चीज है यह हम बखूबी देख पाए।

चंपारण जिले के मेहसी थाने के एक मुसलमान सज्जन सत्याग्रही के रूप में ही जेल पधारे थे। नीचे से ऊपर तक खादीमय दिखे। सीधे-सादे आदमी थे देखने से मालूम होता था कोई पक्का देहाती है। धोती और कुर्ते के साथ गाँधी टोपी बराबर ही नजर आती थी। हमने पाँच-छः महीने के दरम्यान उनका सर गाँधी टोपी से सूना कभी न देखा। एक बार तो यहाँ तक सुना कि उनने जेल के कपड़े लेने से इनकार कर दिया। सिर्फ इसलिए कि वे खादी के न थे। हालाँकि गाँधी जी का हुक्म है कि जेल में खादी का आग्रह न कर के जो कपड़े मिलें उन्हीं को कबूल करना होगा। जब चंपारन के प्रमुख गाँधीवादी नेता ने उन्हें यह बात समझाई तो उनने उत्तर दिया कि आप और गाँधी जी समर्थ हैं। इसलिए चाहे जो कपड़े पहनें मगर मैं तो ना चीज हूँ। फिर मुझसे कैसी ऐसी उम्मीद करते हैं ? पीछे उनने जेल के कपड़े मजबूरन लिए सही। मगर वे कितने पक्के गाँधी भक्त हैं इसका पूरा सबूत इससे मिल जाता है। नमाजी तो वे पक्के हैं यह सबने देखा है। गाँधी जी तो धर्म पर जोर देते ही हैं। फिर वे ऐसे होते क्यों नहीं ? मगर धर्म की बात कैसी अंधी है इसका भी प्रमाण इसी से मिल जाता है कि जब उनने धर्म बुद्धि से एक बार खादी पहन ली , तो फिर गाँधी जी की हजार दुहाई देने पर भी वे दूसरा कपड़ा लेने को तब तक राजी न हुए जब तक मजबूर न हो गए। राजनीति में धर्म को घुसेड़नेवाले गाँधी जी को भी इससे सीखना चाहिए कि वह उनकी बात भी मानने को तैयार न थे। उनने एक ऐसा अस्त्र धर्म के नाम पर अपने अनुयायियों को दे दिया है कि खुद उनकी बातें भी वे लोग नहीं मानते और दलील देते हैं धर्म की ही। यह दुधारी तलवार दोनों ओर चलती है यह गाँधी जी याद रखें। उन हजरत की तो मोटी दलील यही थी कि जब एक बार खादी को पहनना धर्म हो गया तो फिर उसका त्याग कैसे उचित होगा। गाँधी जी को यह भी न भूलना चाहिए कि आम लोग ऐसे ही होते हैं गाँधी जी की बुद्धि सब को तो होती नहीं कि धर्म की पेचीदगियाँ समझ सकें। इसलिए यह बड़ी खतरनाक चीज है , खासकर दुनियावी और राजनीतिक मामलों में।

अच्छा आगे चलिए। वे हजरत ज्यों ही हजारीबाग जेल में आए उसके एकी दो दिनों बाद एक मुसलमान सज्जन ने उनके बारे में मुझसे आ के कहा कि एक मुसलमान आए हैं। उनने गोदाम में मुझे देखते ही आतुर भाव से कहा है कि भई , मुझे भी मुसलमान के हाथ का पकाया खाना खिलाओ। इतने दिनों तक तो मैं फल-फूल खाते-खाते घबरा गया हूँ। सभी लोग तो हिंदू ही मिले। फिर उनके हाथ की पकाई चीजें खाता तो कैसे खाता ? तुम मुसलमान हो और अपना खाना अलग पकवाते हो। इसलिए मुझे भी उसी में शामिल कर लो तो मैं बहुत ही उपकार मानूँगा , आदि-आदि। जिस मुसलमान ने मुझसे ये बातें कहीं वह भी उनकी बातें सुन के हैरत में था। हैरत की बात भी थी। यह बात आमतौर से यहाँ देखी गई है कि कुछेक को छोड़ सभी हिंदुओं को मुसलमानों के हाथों पकी चीजें खाने में कोई उज्र नजर नहीं हुआ। कइयों ने तो खामख्वाह मुसलमान पकाने वाले रखे हैं। इसलिए उनकी बातों से चौंकने का पूरा मौका था। मगर मैं सुन के हँसा और फौरन समझ गया कि हो न हो यह धर्म महाराज की महिमा है। खैर , वह मुसलिम सज्जन उस मुसलमान के चौके में ही कई साथियों के साथ बहुत दिनों तक खाते रहे यह मैंने अपनी आँखों देखा।

अब एक दूसरी ऐसी ही घटना सुनिए। बड़ी असेंबली के एक हिंदू जमींदार मेंबर भी इसी जेल में थे। पहले तो मुझे कुछ पता न चला। मगर पीछे कई बातों के सिलसिले में पता चला कि यदि मुसलमान उनकी खाने-पीने की चीजों के पास चला जाए या छू दे तो वह उन्हें खाते नहीं थे। वे अपना खाना एक आदमी के साथ अलग ही पकवाते थे। कहने के लिए कट्टर गाँधीवादी। गाँधी जी के विरुद्ध एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं। किसान-सभा या समाजवाद के भी ऐसे दुश्मन कि कुछ कहिए मत। मगर धर्म के भक्त ऐसे कि मुसलमान के स्पर्श से हिचक! मुसलमान की छाया से उनका खाना अपवित्र हो गया। मेरे लिए यह समझना गैरमुमकिन था। मैं भी खुद बना के खाता हूँ और छुआ-छूत से परहेज करता हूँ खाने-पीने में। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि किसी मुसलमान , ईसाई या अस्पृश्य कहे जानेवाले के स्पर्श से खाद्य पदार्थों को अखाद्य मान लेता हूँ। मेरी छुआछूत का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है। यदि कभी कोई मुसलिम या अछूत मेरी रोटी , मेरा भात छू दे तो भी मैं उसे खा लूँगा। मगर सदा ऐसा नहीं करता। वह इसलिए कि आमतौर से लोगों की भीतरी और बाहरी शुद्धि के बारे में कहाँ ज्ञान रहता कि कौन कैसा है ? किसने घृणिततम काम किया है या नहीं कौन कैसी संक्रामक बीमारी में फँसा है या नहीं यह जाना नहीं जा सकता। इसलिए साधारणतः मैं किसी का छुआ हुआ नहीं खाता हूँ , जिसे बखूबी नहीं जानता। यही मेरी छुआछूत का रहस्य है।

मगर उन गाँधीवादी महोदय को मैं खूब जानता हूँ। वह इस तरह की छुआछूत नहीं मानते हैं। उनके लिए ऐसा मानना असंभव भी है। उनकी छुआछूत तो वैसी ही है जैसी आम हिंदुओं की। जब एक मुसलिम सज्जन ने मौलवी ने जो मेरी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पकड़ा तो वे हजरत मेरा दृष्टांत दे के ही पार हो जाना चाहते थे। मगर मौलवी ने उनकी एक न चलने दी और आखिर निरुत्तर कर दिया।

एक तीसरी घटना भी सुनने योग्य ही है। जेल में कुछ प्रमुख लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को धार्मिक ढंग से मनाने की तैयारी कर रहे थे। उसमें शामिल तो सभी थे एक मुझको छोड़ के। क्योंकि मैं कृष्ण को धर्म की कट्टरता से कहीं परे और बाहर मानता हँ। मेरे जानते वह एक बड़े भारी जन-सुधारक और नायक थे। उन्हें या उनकी गीता को धार्मिक जामा पहनाना उनकी महत्ता को कम करना है। वह और उनकी गीता सार्वभौम पदार्थ हैं। इसीलिए मैं उन्हें धार्मिक रूप देने में साथी बनना नहीं चाहता। इसी से उस उत्सव से अलग रहा। कोई दूसरा कारण न था। मगर और लोग तो शरीक थे ही।

जिन मौलवी साहब का जिक्र अभी किया है उन्हीं को दो-एक प्रमुख लोगों ने उस उत्सव में निमंत्रित किया कि कृष्ण के बारे में उनका कुछ प्रवचन हो। मौलवी साहब ने कबूल भी कर लिया। कुछी दिन पहले जब हजरत मुहम्मद साहब का जन्मोत्सव मुसलमानों ने मनाया था तो उनने सभी हिंदुओं को बुलाया था। कइयों ने उनके जीवन पर कुछ प्रवचन किया भी था। इसलिए इस बार मौलवी साहब का बुलाया जाना और उनका कबूल करना इस खयाल से भी मुनासिब ही था। लोग कहते हैं कि दोनों के धार्मिक उत्सवों में अगर दोनों ही योग दें या दिल से शरीक हों तो धार्मिक झगड़े खुद मिट जाएँ। बात चाहे कुछ भी हो। लेकिन कांग्रेसी लोग ऐसा जरूर मानते हैं। इसीलिए तो जन्माष्टमी में मौलवी साहब का शामिल होना गौरव की बात थी , खुशी की चीज थी।

मगर इस बात में कई सत्याग्रही हिंदू सख्त विरोधी हो गए। उनमें एकाध तो निहायत सीधे और अनजान थे। मगर दो-एक तो ऐसे थे कि दिन-रात गाँधी जी की ही दुहाई देते रहते हैं। सबसे मजे की बात यह थी कि जिन जमींदार गाँधीवादी की बात खाने-पीने के बारे में अभी कह चुके हैं वह इस बात के सख्त विरोधी थे कि मौलवी साहब उसमें शामिल हों या कुछ भी बोलें। कृष्ण के बारे में मौलवी साहब को बोलने देना वे हर्गिज नहीं चाहते थे और इस बात पर उनने घुमा-फिरा के चालाकी से बहुत जोर दिया। साफ तो बोलते न थे कि धर्म की बात है। क्योंकि इसमें बदनाम जो हो जाते। इसलिए घुमा-फिरा के बराबर कहते फिरते थे। उन्हें बड़ी तकलीफ हुई। जब उन्हें पता लगा कि मौलवी गए और बोले भी। उनने पीछे उलाहने के तौर पर कहा कि आखिर आप गए और बोले भी ? माना नहीं ? एकाध को तो यहाँ तक साफ ही कहते सुना कि धर्म ही चौपट हो गया।

मगर ये सभी घटनाएँ वाजिब हुईं , इस मानी में कि जब धर्म की ही छाप हमारे सारे राजनीतिक और आर्थिक कामों पर लगी हुई हैं तो दूसरी बात होई कैसे सकती है ? गाँधी जी चाहे धर्म की हजार व्याख्या करें और उसे बिलकुल ही नया जामा पहना डालें जो राजनीति में आ के भी उसे आदर्श बनाए रखे , उसे विकृत होने न दे , जैसा कि ऊपर की घटनाओं से स्पष्ट होता है। फिर भी जन-साधारण के दिल में हजारों वर्षों से धर्म के संबंध में जो धारणा है वह बदल नहीं सकती। उसका बदलना करीब-करीब गैर-मुमकिन है। धर्म के नाम पर होनेवाली खराबियों और बुराइयों को दूर करने के लिए कितने ही धर्म-सुधारक आए और चले गए। मगर वे ज्यों की त्यों पड़ी हैं। नहीं , नहीं , वह तो और भी बढ़ती गई हैं। सुधारकों ने सुधार के बदले एक और भी नया संप्रदाय पैदा कर दिया जो गुत्थियों को और ज्यादा उलझाने का ही काम करने लगा। गाँधी जी के नाम पर तो एक ऐसा ही संप्रदाय पैदा हो चुका है जो दूसरों की बातें सुनने तक को रवादार नहीं। असल में धर्म की तो खासियत ही है अंधपरंपरा पैदा करना और उसे प्रश्रय देना। तर्क दलील की गुंजाइश वहाँ हई नहीं। और अगर कोई यह बात न माने तो उसे मान लेना होगा कि जहाँ तर्क दलील और अक्ल की गुंजाइश हो वह यदि धर्म हो भी तो किसी खास व्यक्ति या कुछ चुने लोगों के ही लिए हो सकता है। ज्यों ही उसे आपने सार्वजनिक रूप देने की कोशिश की कि अक्ल के लिए मनाही का सख्त ऑर्डर जारी हुआ और अंधपरंपरा आ घुसी। धर्मों और धार्मिक आंदोलनों के इतिहास से यह बात साफ-साफ जाहिर है। गाँधी जी इस बात को न मान कर और राजनीति पर धर्म की छाप लगाकर यह बड़ी भारी भूल कर रहे हैं , जिसका नतीजा आनेवाली पीढ़ियों को सूद के साथ भुगतना ही होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि ज्यों ही किसी बात में धर्म का नाम आया कि धर्म के नाम पर ही गुजर करनेवाले और उसके सर्व जन-सम्मत ठेकेदार पंडित और मौलवी आ घुसे। उस बात में टाँग अड़ाने का मौका तो उन्हें तभी तक नहीं मिलता जब तक वे बातें शुद्ध राजनीतिक या आर्थिक हैं और उन पर धर्म मजहब की मुहर नहीं लगी है। तब तक ये लोग मजबूरन दूर रहते हैं और ताक में रहते हैं कि हमारे घुसने का मौका कब आएगा। इसलिए धर्म का नाम लेते ही कूद पड़ते हैं। उन्हें इस बात से क्या गर्ज कि आपने धर्म का नाम किस मानी में लिया है ? उनके लिए धर्म का जिक्र ही काफी है। उसका अर्थ तो वे खुद लगाते हैं और उनका यह भी दावा है कि उनके सिवाय दूसरा न तो धर्म का मतलब समझ सकता है और न समझने का हक ही रखता है। खूबी तो यह कि उनके इस दावे का समर्थन , इसकी ताईद , जन-साधारण भी करते हैं , इसीलिए उन्हीं की बात मानी जाती है और दूसरों की हवा में मिल जाती है चाहे वे कितने ही बड़े महात्मा और पैगंबर क्यों न कहे जाएँ।

और जब पंडित और मौलवी उस मामले में आ घुसे तो फिर लोगों को अपने ही रास्ते पर ले जाएँगे। वे जो कहेंगे आमतौर से वही बात मान्य होगी। यही कारण है कि खान-पान आदि के मामले में उन्हीं की बात चलती है और ऊपर लिखी घटनाएँ होती हैं , होती रहेंगी। लेकिन अगर कुछ लोग ऐसा नहीं करते तो यह स्पष्ट है कि गाँधी जी के हजार चिल्लाने पर भी उनके दिल में धार्मिक भाव है नहीं , उनने धर्म को कभी समझा या माना है नहीं। तब आज क्यों मानने लगे ? यदि धर्म की बात बोलते हैं तो सिर्फ जबान से ही। चाहे गाँधी जी इसे मानें या न मानें। मगर यह कटु सत्य है।


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हमने जो कुछ पूर्व प्रसंग के अंत में कहा है उसका स्पष्टीकरण एक दूसरी घटना से हो जाता है। एक दिन जेल के भीतर ही हमें आश्चर्य में डूबने के साथ ही बहुत तकलीफ हुई जब हमने कुछ हिंदुओं को एक मौलवी साहब की आलोचना करते सुना। उनने बोलते-बोलते कृष्ण जी को ' हजरत ' कह दिया था। यही उनका महान अपराध था। हम तो समझी न सके कि माजरा क्या है। मगर पीछे बहुत-सी बातें याद आईं। उसके पहले एक सज्जन ने बोलने में जब ' दृष्टिकोण ' शब्द का प्रयोग किया था तो एक मुसलमान साहब ने पूछा कि इसका मतलब क्या है ? जब उनने मतलब समझाया तो मुसलमान बोले कि बोलने में भी ऐसा ही क्यों नहीं बोलते ताकि सभी लोग समझ सकें। उनका इतना कहना था कि वह हिंदू सज्जन आपे से बाहर हो गए और तमक के कहने लगे कि हम आपके लिए या हिंदू-मुसलिम मेल के , हिंदुओं की संस्कृत और उनके साहित्य को चौपट न करेंगे। इस पर मामला बढ़ गया। मगर हमें उससे यहाँ मतलब नहीं है। हमें इतना कह देना है कि सचमुच ही ' दृष्टिकोण ' का अर्थ आसानी से न तो आम हिंदू जनता ही समझ सकती है और न मुसलिम लोग ही जान सकते हैं। और अगर कोई इस पर एतराज करता है तो गाँधीवाद की माला जपने वाले साहित्य और हिंदू संस्कृति के नाश का हौवा खड़ा करते हैं। हालाँकि किसानों और गरीबों की भलाई के ही लिए वे जेल आए हैं ऐसी दुहाई देते रहते हैं। मगर जरा भी नहीं सोचते कि उनकी यह भाषा कितने प्रतिशत किसान समझ सकते हैं। और जब बात ही न समझेंगे तो साथ कहाँ तक देंगे।

लेकिन अगर ' हजरत ' शब्द को देखा जाए तो उस पर इसलिए उज्र नहीं हुआ कि लोग समझ न सके। हम तो देखते हैं कि बराबर ही ' आइए हजरत , हजरत की हरकत तो देखिए ' आदि बोला करते हैं। यह तो मामूली बोल-चाल का शब्द हिंदी भाषा में हो गया है। इसलिए अगर उस पर एतराज

हुआ तो सिर्फ इसलिए कि कृष्ण को उनने हजरत कह दिया। यह तो गजब हो गया। वही मुसलमान अपने बड़े-से-बड़े नेता को , पैगंबर साहब को हजरत कहता है और हम लोग सुनते रहते हैं। फिर भी जिन्हें हिंदू अवतार मानते हैं उन्हें वही मुसलमान हजरत कहे तो आफत हो गई। इस बात का इससे सबूत मिलता है कि हम लोग असल में कितने गहरे पानी में हैं। इसी प्रकार ' सीता को बेगम और राम को बादशाह ' कहने का भी विरोध करते हमने जेल में सुना। बाहर तो सुनते ही थे। अगर अंग्रेजी में क्वीन ( Queen) और किंग ( King) कहा जाए तो हमें जरा भी दर्द नहीं होता। हालाँकि इन शब्दों का मतलब वही है जो बेगम और बादशाह का। हमने यह नजारा देखा और अफसोस किया।

आजकल हिंदी पढ़ने का शौक बढ़ गया है। इसीलिए जो जेल में भी यह बात देखने को मिली ज्यादातर गाँधीवादी लोग ही ऐसे दिखे। यों तो तथाकथित वामपक्षी और क्रांतिकारी लोग भी इस तरह के पाएगए। हिंदी और हिंदुस्तानी पर विचार-विमर्श भी होता रहा। कुछ लोगों ने जो अपने को राजनीतिक नेता मानते हैं , यह तय किया कि मिडिल क्लास के ऊपर तो हिंदुस्तानी की किताबें पढ़ाई जाएँ। मगर नीचे की कक्षाओं में वही ' दृष्टिकोण ' वाली हिंदी ही पढ़ाई जाए। शायद इसमें उनने एक ही तीर से दोनों शिकार मारे। हिंदी साहित्य और हिंदू संस्कृति भी बचा ली गईऔर हिंदू-मुसलिम एकता के जरिए राजनीति की भी रक्षा हो गई। मगर वे यह समझी न सके कि यह रक्षा नकली है। इससे काम नहीं चलने का।

मैंने ऐसे एकाध दोस्तों से पूछा कि जो लोग मिडिल से आगे नहीं जा सकते उनकी राजनीति कैसे बचेगी ? उनका हिंदू-मुसलिम मेल क्योंकर हो सकेगा ? और भी तो सोचने की बात है कि अधिकांश तो मिडिल तक ही रुक जाते हैं। बहुतेरे तो लोअर और अपर तक ही इतिश्री कर लेते हैं। प्रायः नब्बे फीसदी तो पढ़ने का नाम ही नहीं जानते हैं। एक बात यह भी है कि जो जवान और बूढ़े हो चुके हैं वह यों ही रह जाएँगे। उन्हें तो ' काला अक्षर भैंस बराबर ' है। तो फिर उनके लिए आपकी हिंदी या हिंदुस्तानी किस काम की ? वे लोग संस्कृति और साहित्य की रक्षा कैसे कर पाएँगे ? मगर वे चुप रहे। उत्तर देई न सके। बिचारे देते भी क्या ?

असल बात दूसरी ही है। जहाँ मैं या मेरे जैसे कुछ लोग हर बात को ' जनता ' (mass) की नजर से देखते और सोचते हैं , न कि संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से। क्योंकि जनता को तो सबसे पहले रोटी , कपड़े , दवा आदि से मतलब है। हाँ , जब पेट भरेगा तो ये बातें सूझेंगी मगर अभी तो उनका मौका ही नहीं है। तहाँ साधारण कांग्रेसवादी-फिर चाहे वह गाँधीवादी हों या तथाकथित क्रांतिकारी और वामपक्षी-सबसे पहले साहित्य और संस्कृति की ही ओर नजर दौड़ाते हैं। और याद रहे कि इन दोनों के पीछे धर्म छिपा हुआ है। खुल के आने की या उसे लाने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए साहित्य और संस्कृति का ढकोसला खड़ा किया जाता है। असल में न सिर्फ वे लोग मध्यमवर्गीय हैं , किंतु उनकी मनोवृत्ति भी वैसी ही है। इसलिए मध्यम वर्ग की ही नजर से हर बात को वे लोग स्वभावतः देखते और तौलते हैं। मध्यम वर्ग का पेट तो भरता ही है। कपड़ा और दवा-दारू भी अप्राप्य नहीं है। फिर उन्हें साहित्य और संस्कृति न सूझे तो सूझे क्या खाक ?

मगर वे यह नहीं सोचते कि साहित्य की अगर कोई जरूरत है तो जनसमूह के लिए ही। आम लोगों को जगाना और तैयार करना ही साहित्य का काम होना चाहिए , खासकर गुलाम देश में। बिना जगे और पूरी तरह तैयार हुए जन-साधारण आजादी की लड़ाई में भाग क्योंकर ले सकते हैं ? और आजाद हो जाने पर भी उन्हें ही ऊपर उठाना और आगे ले चलना जरूरी है। नहीं तो दुनियाँ की घुड़दौड़ में हमारा मुल्क पीछे पड़ जाएगा। जब तक समूचे देश के बाशिंदों की शारीरिक और मानसिक उन्नति नहीं तो जाए तब तक देश पिछड़ा का पिछड़ा ही रह जाएगा। इसलिए उस समय भी साहित्य का निर्माण आम लोगों की ही दृष्टि से होना चाहिए। मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग साहित्य पढ़-पढ़ा के क्या कर लेंगे ? उनसे तो कुछ होने जाने का नहीं , जब तक किसान , मजदूर और अन्य श्रमजीवी उनका साथ न दें। इसीलिए हर हालत में साहित्य की असली उपयोगिता शोषित जनता के ही लिए है। मगर “ दिवस का अवसान समीप था , गगन था कुछ लोहित हो चला। तरुशिखा पर थी तब राजती , कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा “, या “ पूर्वजों की चरित चिंता की तरंगों में बहो “ जैसे साहित्य को , जिस पर मध्यमवर्गीय बाबुओं को नाज है और जिसके ही लिए हिंदीहिंदुस्तानी की कलह खड़ा कर के आकाश-पाताल एक कर रहे हैं , कितने किसान या मजदूर समझ सकते हैं ? यही हालत है “ नहीं मिन्नतकशे ताबे शुनीदन दास्ताँ मेरी। खामोशी गुफ्तगू है बे जबानी है जबां मेरी “ की भी। दोनों ही साहित्य , जिनके लिए हिंदू और मुसलिम के नाम पर माथाफुड़ौवल हो रही है , किसानों और मजदूरों से , कमानेवालों से , आम जनता से लाख कोस दूर हैं।

मगर इससे क्या ? मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग तो इन्हें समझते ही हैं। बाकियों की फिक्र उन्हें हई कहाँ ? असल में साहित्य की ओट में संस्कृति छिपी है और उसकी आड़ में धर्म बैठा है , जिनका उपयोग आम जनता को उभाड़ने में किया जाकर मुट्ठी भर बाबुओं और सफेदपोशों का उल्लू सीधा किया जाता है। जब तक संस्कृति और धर्म , तमद्दुत और मजहब के नाश का हौवा ये मध्यमवर्गीय लोग खड़ा न करें किसान-मजदूर उनके चकमे में आ नहीं सकते और बिना इसके काम बनने का नहीं। आखिर आम हिंदुओं और मुसलमानों के नाम पर ही तो इन्हें नौकरियाँ लेना , सीटों का बँटवारा करना और पैक्ट या समझौता करना है। सीधे लोगों की धार्मिक भावनाओं को उत्तेजित कर के , उन्हें उभाड़ कर ही ये काइयाँ लोग अपना काम बना लेते हैं , हालाँकि ऊपर से पक्के बगुला भगत बने रहते हैं। गरीबों के नाम पर ऐसा आँसू बहाते हैं कि कुछ पूछिए मत।

जैसा कि कह चुके हैं , साहित्य का काम है आम लोगों को जाग्रत करना , तैयार करना और उनकी मानसिक-उन्नति करना , जिससे सच्चे नागरिक बन सकें। साहित्य का दूसरा काम है नहीं। थोड़े से लोगों का मनोरंजन करना या उन्हें काल्पनिक संसार में विचरण करने का मौका देना यह काम साहित्य का नहीं है। पुराने साहित्यकारों ने उसका लक्षण करते हुए साफ ही कहा है कि दिमाग पर ज्यादा दबाव न डाल कर और इसीलिए सुकुमार मस्तिष्कवालों के लिए भी बातें सुगम बनाने वाला ही ठीक साहित्य है। इसीलिए पढ़ते या सुनते जाइए और बिना दिक्कत मतलब समझते जाइए। जहाँ समझने में विशेष दिक्कत हुई कि वह दूषित साहित्य हो गया। बातें जो सरस बना के कही जाती हैं उसका मतलब यही है कि वे आसानी से हृदयंगम हो जाएँ।

इस दृष्टि से तो जन-साधारण के लिए सुलभ और सुगम साहित्य तैयार करने के दो ही रास्ते हैं। या तो वह ऐसी भाषा में लिखा जाए जो बचपन से हम बोलते और सुनते हैं , जिसे माताएँ और बहनें बोलती आ रही हैं। या अगर यह न हो सके या इसमें बड़ी कठिनाई हो तो ऐसी खड़ी बोलीवाली भाषा तैयार की जाए जिसे सभी देहाती-हिंदू-मुसलमान बेखटके समझ सकें। “ इस दृष्टि बिंदु को सम्मुख रख के यदि हम पर्यवेक्षण करते हैं तो मर्मांतक वेदना होती है “, या "पहाड़ों की चोटियाँ गोशे सहाब से सरगोशियाँ कर रही हैं" , को कौन सी आम जनता समझती है , समझ सकती है ? हिंदी और उर्दू के नामी लिक्खाड़ चाहे खुद कुछ समझें। मगर उनकी बातें आम लोगों के लिए वैसी ही हैं जैसा वन में पका बेल बंदरों के लिए। न तो उनकी हिंदी समझ सकती है हिंदू जनता और न उर्दू मुसलिम जनता। फिर हिंदी को मुसलिम या उर्दू को हिंदू जन समूह क्योंकर समझ पाएगा ? या तो सिर्फ ' लिखें ईसा , पढ़ें मूसा ' जैसी कुछ बात है। वे लोग खुद लिखते और खुद ही समझते हैं , या ज्यादे से ज्यादा उन्हीं जैसे कुछ इने-गिने लोग। मगर वह लोग जनता नहीं है। वह तो निराले ही हैं यह याद रहे।

इसीलिए अगर बिहार में हम ऐसा साहित्य बनाना चाहते हैं , तो या तो भोजपुरी , मगही , मैथली , बंगाली , संथाली और उरांव आदि भाषाओं में ही जुदे-जुदे इलाकों के लिए अलग-अलग साहित्य रचें या हिंदी और उर्दू मिला के एक ऐसी सरल भाषा बना दें जो सभी समझ सकें। हिंदी-उर्दू मिलाने से हमारा मतलब है संस्कृत शब्दों की भरमारवाली हिंदी और अरबी-फ़ारसी के शब्दों से लदी उर्दू की जगह सरल और सबके समझने लायक भाषा तैयार करने से। दृष्टांत के लिए ' अजीजम ' या ' अजीजमन ' और ' प्रियवर ' या ' प्रिय मित्र ' की जगह ' मेरे प्यारे दोस्त ' या ' मेरे प्यारे भाई ' वगैरह लिखें तो कितना सुंदर हो और काम चले। जरूरत होने से नए-नए शब्दों को भी या तो गढ़ के या दूसरी तरह से प्रचार करते जाएँगे।

जो लोग ' हजरत ' आदि शब्दों को देख-सुन के चिहुँकते हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि हमने , हमारी हिंदी ने और हमारी जनता ने अरबी-फरसी के हजारों शब्दों को हजम कर के अपने को मजबूत बनाया है। इतने पर भी अभी यह भाषा अधूरी सी लगती है। अगर हजारों शब्दों को अपने में मिलाए न होती तो न जानें इसकी क्या हालत होती। हाजिरी , मतलब , हिफाजत , हाल , हालत , फुर्सत , कसूर , दावा , मुद्दई , अर्ज , गर्ज , तकदीर , असर , जरूरत , फसल , रबी , खरीफ , कयदा , कानून , अदालत , इन्साफ , तरह , सदर , दिमाग , जमीन वगै़रह शब्दों को नमूने की तरह देखें तो पता चलेगा कि ये और इनके जैसे हजारों शब्द ठेठ अरबी और फारसी के हैं। मगर इन्हें बोलते और समझते हैं न सिर्फ हिंदी साहित्यवाले , बल्कि बिलकुल देहात में रहने और पलनेवाले गँवार किसान और मजदूर भी। समय-समय पर इनने और हमने इन्हें हजम कर के अपने को मजबूत और बड़ा बनाया है। इससे हमारी संस्कृति बिगड़ने के बजाए सुधरी है , बनी है। वह कोई छुईमुई नहीं है कि हजरत , बेगम और बादशाह वगैरह बोलने से ही खत्म हो जाएगी। यह भी हमारी नादानी है कि सीता को बेगम और राम को बादशाह कहने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। तुलसीदास तो श्रीरामजी को अवतार मानते थे। वह उनके और जानकीजी के अनन्य भक्त थे। मगर अपनी रामायण में उनने ' राजा राम जानकी रानी ' लिखा है। वे हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं। उन्हें राजा और रानी कहने में तो जरा भी हिचक न हुई। आज तक हमारे हिंदी-साहित्य-सेवियों ने भी इस बारे में अपनी जबान न हिलाई। मगर राजा की जगह बादशाह और रानी की जगह बेगम कहते ही तूफान सा आ गया। क्या इसका यह मतलब है कि अब हिंदी की भी शुद्धि होगी ? उसमें से पूर्व बताए हजारों शब्दों को गर्दनियाँ दे के निकाला जाएगा क्या ? अगर ऐसा है तो ' खुदा हाफिज। '

बात तो साफ-साफ कहना चाहिए। असल में राष्ट्रवादी लोग अधिकांश मध्यम श्रेणी के ही हैं। उनमें भी जो आज खाँटी कांग्रेसी या गाँधीवादी कहे जाते हैं वह तो गिन-गिन के मध्यमवर्गीय हैं , मिडिल क्लास के हैं। वे चाहे अपने को हजार बार कहें कि वे न तो हिंदू हैं और न मुसलमान , किंतुहिंदुस्थानी , पहले हिंदुस्थानी और पीछे हिंदू या मुसलमान। मगर दरअसल हैं वे पहले हिंदू या मुसलिम और पीछे हिंदुस्थानी या राष्ट्रवादी। इसका प्रमाण उनकी सँभली-सँभलाई बातों से न मिल के उनके कामों और अचानक की बातों से मिल जाता है। यह हिंदी , उर्दू या हिंदुस्थानी का झगड़ा इस बात का जबर्दस्त सबूत है। जब वह लेक्चर देने बैठते हैं तो उनकी तकरीर इस बात की गवाही देती है कि वे क्या हैं। उनकी बातेंआम लोग समझते हैं या नहीं इसकी उन्हें जरा भी फिक्र नहीं रहती है। वे तो धड़ल्ले से बोलते चले जाते हैं , गोया उनकी बातें सुननेवाले सभी लोग या तो पंडित या मौलवी हैं। उनने आलिम-फाजिल या साहित्य-सम्मेलन की परीक्षाएँ पास कर ली हैं। यदि वे ऐसा नहीं मानते तो लच्छेदार संस्कृत या फरसी के शब्दों को क्यों उगलते जाते ?

अगर हिंदुस्थानी कमिटी अपनी किताबों में कुछ उर्दू फरसी के शब्द नए सिरे से डालती है या पंजाब के हिंदू लोग उर्दू में संस्कृत के शब्द घुसेड़ते हैं तो उनका कलेजा कहने लगता है कि हाय हिंदी चौपट हुई , उर्दू बर्बाद हुई! साहित्य चौपट हुआ! संस्कृति मटियामेट हो गई! मालूम होता है अब हिंदी को अजीर्ण हो गया है , या उसकी पाचन-शक्ति ही जाती रही है। यही हालत उर्दू की भी है। हमें आश्चर्य तो इस बात का है कि यही लोग मुल्क को आजाद करने का बीड़ा उठाए हुए हैं। हिंदू-मुसलिम मेल की हाय-तोबा भी यही सज्जन बराबर मचाते रहते हैं। अगर कहीं हिंदू-मुसलिम दंगा हो गया तो हिंदू-मुसलिम जनता को भर पेट कोसने में थकते भी नहीं। लेकिन कभी भी नहीं सोचते , सोचने का कष्ट उठाते कि इन सब अनर्थों की जड़ उनकी ही दूषित मनोवृत्ति है। ' मुख पर आन , मन में आन ' वाला जो उनका रवैया है उसी के चलते ये सारी चीजें होती हैं। सभी बातों में भीतरी दिल से हिंदूपन और मुसलिमपन की छाप लगाने की जो उनकी वाहियात आदत है उसी के चलते ये सारी बातें होती हैं। अपने को चाहे वह हजार छिपाएँ। फिर भी उनका जो यह हिंदी , उर्दू और हिंदुस्थानी का झमेला है वही उनकी असलियत को जाहिर कर देने के लिए काफी है।

इस कहने से मेरा यह मतलब हर्गिज नहीं कि मैं हिंदुस्थानी कमिटी की या दूसरों की सारी बातों का समर्थन करता हूँ। मैं कृत्रिम या बनावटी भाषा का सख्त दुश्मन हूँ और मुझे डर है कि हिंदुस्थानी कमेटी कहीं ऐसी ही भाषा न गढ़ डाले। असलियत तो यह है कि मुझे उनकी किताबें वगैरह पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता। हाँ , कभी-कभी कुछ बातें सामने खामख्वाह आई जाती हैं। इसलिए उनकी जानकारी निहायत जरूरी हो जाती है। मगर अखबारों में जो बातें इस सिलसिले में बराबर निकलती रहती हैं और कुछ दोस्तों से भी जो कुछ सुनता रहता हूँ उसी के आधार पर मैंने यह निश्चय किया है। मैंने देखा है कि इन झगड़ों के पीछे दूसरी ही मनोवृत्ति काम कर रही है। इसलिए हमें सभी जगह और ही चीजें दीखती हैं। अगर मनोवृत्ति ठीक हो जाए तो हिंदीहिंदुस्थानी के झगड़े फौरन मिट जाएँ या कम-से-कम उनके मिटने का रास्ता तो जरूर ही साफ जो जाए।

मगर इस हिंदी और हिंदुस्थानी के झमेले में हमें बड़ा खतरा नजर आ रहा है। अभी तो यह सिर्फ सफेदपोश बाबुओं के ही बीच होने के कारण उन्हीं की चीज है। मगर अंदेशा है कि वे लोग किसानों और मजदूरों के भीतर इसे फैलाएँगे। शिक्षा का संबंध ज्यादातर इन्हीं के हाथ में है। फलतः वे इसी साँचे में सबों को ढालना चाहेंगे ही। वैसी ही किताबें , वैसे ही लेख , वैसे ही अखबार तैयार होंगे जनता को पढ़ाने के लिए। अधिक कोशिश इस बात की होगी कि यह जहर देहातों में और मजदूरों के इलाकों में फैले। जो जिस चीज को पसंद करता है वह उसे ही सर्वप्रिय बनाना चाहता है। इसलिए इसका नतीजा सीधे धार्मिक झगड़ों के मुकाबिले में और भी बुरा होगा। क्योंकि यह जहर राजनीति की गोली के साथ लोगों के भीतर घुसेगा। आज तो राजनीति हमारे जीवन का प्रधान अंग बन गई है।और अगर उसी के साथ यह झगड़ा हमारे किसानों तथा मजदूरों के भीतर घुसा , तो गजब हो जाएगा। क्योंकि धार्मिक अंधता को घुसाने का नया तरीका और नया रूप यही हो जाएगा। फिर तो हम हमेशा कट मरेंगे। अतएव हमें अभी से इसके लिए सजग हो जाना होगा , ताकि इस साँचे में हमारी जनता का भावी जीवन ढलने न पाए।

हमें ताज्जुब है कि यह बात क्यों हो रही है। भाषा का विकास तो नदी के विस्तार की तरह होता है। जैसे नदी खुद ही आगे बढ़ती जाती है। वह अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम हजार चाहें , मगर वह हमारी मर्जी के मुताबिक कभी नहीं चलती। तभी उसका फैलाव काफी होता है। भाषा की भी यही हालत होती है। आज अंग्रेजों के संसर्ग से हम अपनी भाषा में कितने ही शब्दों को घुसाते जा रहे हैं। प्रोग्राम , कमिटी , कॉन्फ्रेंस आदि शब्द हमने अपना लिए हैं।

कांग्रेस और मिनिस्ट्री शब्द हमारी जान पर हमेशा ही मौके-बे-बौके पाए जाते हैं। देहाती लोग भी इन्हें समझते और बोलते हैं। लालटेन और रेल शब्द गोया हिंदी भाषा के ही हों ऐसे मालूम पड़ते हैं। हमें पता ही न चला कि हम इन्हेंहजम कर रहे हैं। सभा की जगह मीटिंग कहना हमें अच्छा लगता है। ठीक इसी प्रकार मुसलमानों के जमाने में हमने फारसी और अरबी शब्दों से अपनी भाषा का खजाना भरा है। तब आज हिचक कैसी ?

आज जिस खड़ी बोली में साहित्य तैयार करने पर हम तुले बैठे हैं आखिर वह भी तो यों ही धीरे-धीरे बनी है , बनती जा रही है। संस्कृत , पाली या प्राकृत को यह रूप धीरे-धीरे मिला है हजारों साल के बाद। इसी तरह अरबी या फारसी को उर्दू की शकल मिली है। विकास तो संसार का नियम ही है। हिंदी और उर्दू के सम्मिश्रण से जो नई भाषा तैयार होगी वही हमारी जरूरत को पूरा कर सकेगी। उसी के सहारे यह मुल्क आगे बढ़ेगा। हम हजार चिल्लाएँ और छाती पीटें। मगर यह बात हो के रहेगी। फिर समय रहते ही हम क्यों न चेत जाएँ और इसी काम में मददगार बन जाएँ। यह जो नाहक का बवंडर हम खड़ा कर रहे हैं उससे हाथ तो खिंच जाए। भाषा हमारे लिए है , न कि हमीं भाषा के लिए हैं। लेकिन हमारी आपसी तू-तू , मैं मैं , में कहीं हमीं पिछड़ न जाएँ , मिट न जाएँ , यह सोचने की बात है।

आज तो पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों में सम्मिश्रण के जरिए नई-नई नसलें पैदा की जा रही हैं। जो हमारी बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा कर रही हैं। पुराने पशु-पक्षी और पेड़ पौधे इस बात के लिए नाकाबिल सिद्ध हो चुके हैं कि अब हमारी जरूरतों को पूरा कर सकें। इसीलिए इस युग को ' क्रासब्रीड्स ' (cross-breeds) का युग कहते हैं। यही बात हमारी भाषा के बारे में क्यों न लागू हो ? आज हजार यत्न कर के भी लैटिन को प्रचलित नहीं कर सकते हैं। वह पुरानी पड़ गई है। इसी प्रकार संस्कृत , अरबी और फारसी की माया आम जनता के लिए हमें छोड़ देना होगा। सो भी आधे मन से नहीं , सच्चे दिल से। खामख्वाह संस्कृत और अरबी-फारसी के नए-नए शब्दों को ढूँढ़ या गढ़ के सार्वजनिक भाषा की तोंद फुलाना उसके लिए बलगम का काम करेगा। हमारा दिमाग उसके बजाए ऐसे शब्दों के ढूँढ़ने में और बनाने में लगना चाहिए जिन्हें सभी जाति और धर्म के जन-साधारण आसानी से समझ सकें। इस प्रकार जो साहित्य तैयार होगा वही हमारा उद्धार करेगा , वही हमारे असली काम का होगा। नहीं तो मध्यमवर्गीय मनोवृत्ति हमें जानें कहाँ उठा फेंकेगी। मगर इसी के साथ हमें याद रखना होगा कि भाषा का स्वाभाविक विकास हो और उसमें कृत्रिमता आने न पावे। नदी के प्रवाह का दृष्टांत दे ही चुके हैं। जैसे शरीर में मांस वृद्धि होती है वैसे ही बाहरी शब्द भाषा में लटके रहें यह बुरा है। अन्न-पानीको जैसे शरीर हजम करता है वैसे ही शब्दों को भाषा खुद हजम कर लेतभी ठीक होगा।

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कांग्रेसी मंत्रिमंडल के जमाने की बात है। भरसक सन 1938-39 की दास्तान है। युक्तप्रांत में पंत जी की मिनिस्ट्री थी। गाँधी जी अहिंसा की बात बार-बार कहते हैं। अब तो और भी ज्यादा जोर देने लगे हैं। कांग्रेस ने अहिंसा को ही अपना सिद्धांत रखा है यह बात भी वह कहते ही जाते हैं। मगर कांग्रेसी वजारतों के जमाने में बंबई और कानपुर में मजदूरों पर जो गोलियाँ चलीं , लाठीचार्ज हुए और बंबई में तो आँसू बहानेवाले बम भी चलाएगए , न जाने अहिंसा की परिभाषा के भीतर ये बातें कैसे समा जाती हैं। नागपुर में जब श्री मंचेरशाह अवारी अस्त्र ग्रहण के लिए सत्याग्रह कर रहे थे तो गाँधी जी ने यह कह के उसका विरोध किया था कि सशस्त्र सत्याग्रह कैसा ? जब शस्त्र ले के चलिएगा तो अहिंसा मूलक सत्याग्रह संभव नहीं। सत्याग्रह और शस्त्र ग्रहण ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। इसलिए यह चीज बंद होनी चाहिए। हमारे दिमाग में तो उनकी यह दलील उस समय भी समा न सकी थी। इस समय तो और भी नहीं समाती। सिर्फ शस्त्रा लेकर चलने से हिंसा कैसे होगी ? जब उसे नहीं चलाने का प्रण कर लिया तो फिर हिंसा का क्या सवाल ? नहीं तो फिर अकाली सिख कभी सत्याग्रही होई नहीं सकते। क्योंकि वे तो कृपाण के बिना एक मिनट रही नहीं सकते। मगर गाँधी जी ने उन्हें भी बार-बार सत्याग्रह में भर्ती किया है। लेकिन जब यह बात है तो फिर लाठी , गोली और बम चला के भी कांग्रेसी मंत्रिगण अहिंसक कैसे रह गए ? और अगर नहीं रहे तो गाँधी जी ने उनका विरोध न कर के समर्थन क्यों किया ? उनके इन कामों पर उनने मुहर क्यों लगा दी ? इसीलिए हमें तो उनकी अहिंसा अजीब घपला मालूम होती है।

यही कारण है कि उनके अहिंसक अनुयायी उन्हें खूब ही ठगते हैं। मजा तो यह है कि गाँधी जी यह बात न तो समझते और न मानते हैं। मुझे तो उनके और उनके प्राइवेट सेक्रेटरी श्री महादेव देसाई के क्रोध और डाँट-फटकार का शिकार केवल इसीलिए बनना पड़ा है कि मैं यह बातें साफ बोलता हूँ और काम भी वही करता हूँ जो बाहर-भीतर एक रस हो। किसानों को भी यही सिखाता हूँ कि जाब्ता फौजदारी के अनुसार अपनी और अपनी जाएदाद वगैरह की हिफाजत के लिए उतनी हिंसा भी कर सकते हो जितनी जरूरी हो जाए। मैं किसानों या आप लोगों को पहले से ही मिला यह कानूनी हक छोड़ने और छुड़वाने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूँ। इसीलिए सन 1938 वाली हरिपुरा की कांग्रेस से पहले हरिजन में श्री महादेव देसाई ने मेरे खिलाफ लंबा लेख भी लिखा था जिसका उत्तर मुझे देना पड़ा। मगर यह जान के मुझे निहायत ताज्जुब हुआ जब कि ठीक उसी समय हरिपुरा जाते हुए मध्य प्रांत में दौरे के लिए वर्धा जाने पर और अहिंसा के अवतार श्री बिनोवा भावे से बातें करने पर पता चला कि किसान-सभा के बारे में हिंसा का निश्चय करने के पहले उन लोगों ने सारी बातें जानने की कोशिश तक न की थी।

उन्हीं के आश्रम में श्री बिनोवा जी से मेरी घंटों बातें होती रहीं। हरिजन में वह लेख ताजा ही निकला था। इसलिए बातचीत का विषय वही बात थी। वे लोग वास्तविक दुनिया से कितने कोरे हैं इसकी जानकारी मुझे वहीं हुई। किसान-सभा के किसी कार्यकर्ता ने कोई बात हिंसा-अहिंसा के बारे में कही या न कही। मगर गाँधी जी के भक्तों ने उनके पास रिपोर्ट पहुँचा दी और उनने उसे ध्रुव सत्य मान लिया। दूसरों को तो हजार बार कहते हैं कि पूरी जाँच के बाद ही बातें मानो। सचाई का पता लगाओ। मगर मेरे बारे में यह इलजाम लगाने के पहले उनने मुझसे एक बार पूछना तक उचित न समझा। किसान-सभा पर भी यही दोषारोपण किया गया। लेकिन सभा को सफाई देने का मौका तक न दिया गया। यह है गाँधी जी का न्याय! यह है उनका सत्य! न सिर्फ उनने निश्चय कर लिया बल्कि अपने संगी-साथियों के दिमाग में इसे भर दिया।

जब मुझे श्री बिनोवा जी ने ये बातें पूछीं तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वे अवाक हो गए। मैंने सबूत में पक्का प्रमाण पेश करने को भी कह दिया कि इल्जाम निराधार हैं। मैंने कहा , कि मैंने जिस हिंसा का आश्रय लिया है वह न सिर्फ कानून के भीतर है , प्रत्युत गाँधी जी ने भी वैसी हिंसा का उपदेश बराबर किया है। फिर मैंने देसाई के आक्षेप का लिखित उत्तर भी उन्हें दिखाया। और भी बातें होती रहीं। अंत में उनने यही कहा कि इस बारे में क्या गाँधी जी से आपकी बातें हुई हैं ? मैंने उत्तर दिया कि नहीं। तब उनने कहा कि बातें जरूर करें। मगर मैंने यही कह के टाल दिया कि मौका मिलेगा तो देखूँगा। मैंने वह भी कह दिया कि जो लोग यों ही एकतरफा बातों से निश्चय कर लेते हैं उनसे बातें कर के होगा ही क्या ? फिर भी बातें करने पर उनने बहुत जोर दिया। मगर मुझे मौका ही कहाँ था ? मुझे तो शाम को वर्धा के सोशलिस्ट चौक में एक अच्छी मीटिंग कर के आगे बढ़ना था।

लेकिन यहाँ पर मुझे गाँधीवादी नेताओं की अहिंसा के दो सुंदर नमूने पेश करने हैं। पंत मिनिस्ट्री के समय इलाहाबाद में बड़ा सा दंगा हो गया था। बड़ी सनसनी थी। तूफान भी काफी मचा था। उस समय गाँधी जी के सिद्धांत के अनुसार कांग्रेस के प्रमुख लोगों का यह फर्ज था कि अपनी जान को जोखिम में डाल के भी दंगे को शांत कर , ठीक उसी तरह जिस तरह सन 1931 ई. वाले कानपुर के दंगे में स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ने किया था। ऐसे ही मौके गाँधी जी और कांग्रेस की अहिंसा की परीक्षा करते हैं। गाँधी जी का जोर भी यही रहता है कि ऐसे समय कांग्रेसी नेता निडर हो के हिंदू-मुसलिम महल्लों में जाएँ और उन्हें ठंडा करें। नियमानुसार इलाहाबाद का दंगा उन नेताओं की बाट देख रहा था। खुशकिस्मती से वहीं पर स्वराज्य-भवन में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का ऑफिस भी था। अब भी है। उसके जेनरल सेक्रेटरी आचार्य कृपलानी वहीं मौजूद थे , दूसरे बड़े लोग भी।

मगर उनने क्या किया ? मेरे दो मुसलिम साथी जो किसान-सभा और मजदूर आंदोलन में खासी दिलचस्पी लेते हैं और जो अच्छे पढ़े-लिखे हैं , वहीं थे। जब दंगा शुरू हो गया तो वे स्वराज्य-भवन में फौरन गए और बड़े नेताओं से कहने लगे कि आइए चलें और शहर में घूम के लोगों को समझाएँ-बुझाएँ , उन्हें ठंडा करें। चाहे वे ठंडा हों या न हों। मगर हम लोग कोशिश तो करें। हमारे एक मुसलिम दोस्त टाउन कांग्रेस कमिटी के सभापति थे। इसलिए उन्हें अपना फर्ज भी अदा करना था। मगर उन नेताओं में एक सबसे बड़े नेता ने , जिनका नाम लेना मैं उचित नहीं समझता , मगर जो अखिल भारतीय नेता हैं और गाँधी जी का ढोल आज भी मुल्क में घूम-घूम के पीटते हैं , चटपट यह कह डाला कि “ ऐं , घूमने चलें ? यह क्या बात है ? यह नादानी कौन करे ? क्या बिगड़े दिमाग लोग हमें पाने पर सोचेंगे कि नेता हैं ? हमें वहीं खत्म न कर देंगे ? मैं तो हर्गिज नहीं जाता। आप लोग भी मत जाएँ। “ और फौरन पंत जी के पास लखनऊ फोन करने लगे कि मिलिटरी भेजें। नहीं तो खैरियत नहीं। हमारे मुसलिम जवान साथी को उनकी इस बात पर ताज्जुब हुआ। हैरत भी हुई। मगर वे तो अपना फर्ज अदा करने चली पड़े। भला वे नेता की बात क्यों सुनते ? जो कुछ उनसे बन सका घूम घूम के किया भी। हिंदू-मुसलिम सभी महल्लों में निडर हो के घूमते रहे।

पीछे मुलाकात होने पर उनने अहिंसा की ही चर्चा के सिलसिले में यह अजीब दास्तान मुझे सुनायी। वे गाँधीवादियों की अहिंसा पर हँसते थे मैं भी हँसता था। हम किसान-सभावाले तो गाँधी जी के दरबार में काफी बदनाम हैं कि कांग्रेस के वसूलों की पाबंदी नहीं करते। साथ ही , जो नेता साहब और उनके साथी न सिर्फ दुम दबा के ऐन मौके पर सटक रहे , बल्कि हथियारबंद पुलिस और फौज की गोलियों और संगीनों से दंगे को शांत करने के लिए श्री पंत जी पर बार-बार जोर देते रहे , उन्हें गाँधी जी का ऐसा दवामी सर्टिफिकेट अहिंसा के बारे में मिल चुका है कि कुछ पूछिए मत! मगर ऐसी ही टूटी नाव पर चढ़ के न सिर्फ गाँधी जी खुद पार होना चाहते हैं , बल्कि सारे मुल्क को भी पार ले जाना चाहते हैं तो उन्हें मुबारक हो। किसान-सभावाले अगर गाँधी जी की अहिंसा को नहीं मानते तो उन्हें साफ कह तो देते हैं। मौके पर अमली तौर से धोखा तो नहीं देते। बल्कि ईमानदारी से जहाँ तक होता है उसके अनुसार काम करते हैं।

इसी संबंध की एक दूसरी घटना बिहार की है। बिहार पर और खासकर उसकी अहिंसा पर गाँधी जी को नाज है। अकसर वे इस बात को लिखते और कहते रहते हैं। मगर बिहार के नामी-गरामी नेता लोग कहाँ तक अहिंसा को मानते और गाँधी जी को कितना धोखा देते हैं इसका ताजा नमूना हाल के बिहार शरीफवाले दंगे में मिला है। इसका पता हमें जेल में ही लगा है जबकि पटना जिले के एक कांग्रेसी साथी जेल में हाल में ही आए हैं। उनने आप बीती हमें एक दिन सुनाई। उनका और जिन नेताओं से उन्हें साबका पड़ा उनका नाम लेना ठीक नहीं।

बिहार शरीफ में हिंदू-मुसलिम दंगा शुरू हो जाने के बाद सदाकत आश्रम के दो बड़े नेता , जो न सिर्फ प्रांतीय कांग्रेस के ऑफिस के चलाने के लिए बहुत पुराने जवाबदेह आदमी माने जाते हैं , बल्कि खाँटी गाँधीवादी भी हैं , मोटर पर चढ़ के बिहार शरीफ जाने के लिए तैयार हुए। उनमें एक हिंदू है और एक मुसलमान। उनने सोचा कि पटना जिले के किसी हिंदू कार्यकर्ता को भी साथ ले लें तो ठीक हो। संयोग से हमारे वे कांग्रेसी साथी वहीं थे। बस , हुक्म हुआ कि साथ चलना होगा। साथी को सारी बातें मालूम थीं। उनने कहा कि मेरे पास रिवॉल्वर तो है नहीं। मैं कैसे चलूँगा ? याद रहे कि हमारे साथी सत्याग्रह कर के जेल आए हैं। उनने फिर कहा कि अगर मुझे भी आप लोग एक रिवॉल्वर दें तो साथ चलने को तैयार हूँ। इस पर लीडरों ने कहा कि आप हम दोनों के बीच में हमारी ही मोटर पर बैठ के चलिए। हम जो अलग मोटर पर पीछे-पीछे चलने को कहते थे वह इसीलिए कि आपके पास रिवाल्वर है नहीं। मगर अगर आप इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हमारे बीच में बैठ के हमारी ही मोटर पर चलिए। मगर इस पर भी साथी तैयार न हुए। तब उनसे कहा गया कि आपके घरवालों के पास बंदूक तो हई। उसे ही लेकर चलिए। इस पर साथी ने उत्तर दिया कि बंदूक ले के चलना तो और भी बुरा है। मैं ऐसा न करूँगा।

इस पर हार मान के दोनों नेता रवाना हो गए। साथी ने कहा कि मुझे तो मालूम था ही कि उन दोनों के पास एक-एक रिवॉल्वर था। दोनों रिवॉल्वर किसी नवाब साहब के यहाँ से उनने मँगाए थे। मैं उनमें से एक माँगता था। मगर वे लोग इसके लिए तैयार न थे। उनने साफ कह भी दिया कि दोई तो रिवॉल्वर हैं और हम दो खुदी जा रहे हैं। फिर आपको कैसे दें ? खूबी यह कि रिवॉल्वर ले के जाने पर भी वे लोग बिहार शरीफ में घूम न सके। जहाँ कांग्रेसियों का गिरोह था वहीं गए और दल के साथ ही इधर-उधर आए-गए।

कितना सुंदर नमूना गाँधी जी की अहिंसा का है। आज तो जगह-जगह कांग्रेसी नेता शांति दल बना रहे हैं जिसका काम ही है कि हिंसा करनेवालों के बीच जा के उन्हें समझाना और शांत करना। उन्हें न तो हथियार रखना होगा और न जान की परवाह करनी होगी। इस बात की प्रतिज्ञा शांतिदलवाले करते हैं। मगर जब उनके नेताओं की यही दशा है तो बाकियों का क्या कहना ? पॉकेट में रिवॉल्वर ले के शांति दल का काम करना अजीब चीज है। फिर भी इस पाखंड को गाँधी जी समझें तब न ? यदि मैं रहता तो जरूर बंदूक ले के चलता और धीरे से लोगों को इशारा कर देता कि देखिए हमारी अहिंसा!


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सन 1937 ई. की जनवरी का महीना था। फैजपुर कांग्रेस से हम ताजे-ताजे वापस आए थे। असेंबली-चुनाव की तारीखें सर पर थीं। जल्दी-जल्दी एक बार पटना जिले का दौरा ऐन चुनाव से पहले कर लेना था। मेरे साथ कांग्रेस के दूसरे भी नेता उस दौरे में शरीक थे। बखतियारपुर में एक मीटिंग कर के बिहार शरीफ जाना था। शाम को वहीं मीटिंग थी। इस दरम्यान हरनौत थानेवालों का हठ था कि रास्ते में ही यह जगह है और ऐन सड़क पर ही। इसलिए यहाँ भी एक सभा जरूर हो ले। हमने इसकी मंजूरी दे दी थी। लोगों ने मीटिंग की तैयारी खासी कर ली थी। मगर हमारे विरोधी भी चुप न थे। वह इलाका ज्यादातर उन लोगों का है जिन्हें कुर्मी, कुर्मवंशी आदि कहते हैं। और जातियों की अपेक्षा कुर्मी लोग उधर ज्यादा बसते हैं। चुनाव के जमाने में बदकिस्मती से जाति-पाँति की बातें खूब चलती हैं। मगर वहाँ तो एक और भी वजह थी जिससे ये बातें तेज हो गईं।

बखतियारपुर बाढ़ सब-डिविजन में पड़ता है और उससे दक्षिण बिहार सब-डिविजन है। कांग्रेस के भीतर ही बाढ़ और बिहार की सीटों को लेकर तनातनी चलती रही। बाढ़ के ही एक कुर्मी सज्जन, जो वकील हैं, चुने जाने के लिए बहुत ही लालायित थे। मगर कांग्रेसी नेताओं ने जब किसी कारण से उन्हें बिहार के लिए नामजद करना चाहा था तो वे तैयार न हुए और भीतर-ही-भीतर उनने गुटबंदी ऐसी कर ली थी कि बिहार से एक गैर-कांग्रेसी कुर्मी चुन लिए जाएँ। तैयारी ऐसी थी कि ऐन मौके पर कोई गलती जान-बूझ के कर दी जाए और दूसरा होने न पाए। इसीलिए उनने पीछे कबूल कर लिया था कि अच्छा, मैं बिहार की ही सीट से तैयार हो जाता हूँ। फिर भी भीतर-ही-भीतर तैयारी कुछ और ही थी। उनकी बदबख्ती से ठीक नामिनेशन के ही समय उस तैयारी का पता चल जाने के कारण उनका नामिनेशन कांग्रेस की तरफ से दाखिल न किया जा के एक और कुर्मी सज्जन का ही दाखिल किया गया। इससे कुर्मी समाज में कुछ खलबली मची। क्योंकि चुनाव को ले के उस जाति के भीतर ही दो दल हो चुके थे। कांग्रेस विरोधी कुर्मी सज्जन का भी नामिनेशन दाखिल हुआ था। उनका असर उस इलाके में ज्यादा था।

जिला कांग्रेस कमिटी का सभापति भी मैं ही था। किसान-सभा की तो बात थी ही। विरोधी लोग जीत जाते अगर मैं जरा भी उदासीन हो जाता। इसकी कोशिश भी की गई। कांग्रेसी उम्मीदवार एक जालिम जमींदार हैं। इसलिए भी वे लोग सोचते थे कि अगर मैं उनकी मदद में न जाऊँ तो वे हारेंगे जरूर। मैंने उनकी जमींदारी में उन्हीं की जाति के किसानों का पक्ष ले के काफी आंदोलन भी पहले किया था। इससे भी विरोधियों को आशा थी कि मैं चुनाव के मामले में ढीला पड़ जाऊँगा। मगर मेरी तो मजबूरी थी। जिला कांग्रेस कमिटी की तरफ से मुझे काम करना ही था। जवाबदेही भी मेरे ऊपर विजय के संबंध की थी ही। फिर बेईमानी कैसे कर सकता था? यदि ऐन मौके पर जिला के सभापतित्व से हटता तो भी ठीक न होता। हाँ, मैं चाहता तो था कि वे जालिम हजरत नामजद न हों। मगर कांग्रेसी नेता लोगों को इसकी परवाह कहाँ थी? वे तो सभी लोगों को उस समय असेंबली में भेज रहे थे─ऐसों को भी जो न सिर्फ जालिम जमींदार थे, बल्कि दरअसल कांग्रेस से अब तक जिनका कोई ताल्लुक न था। इस धाँधली के विरुद्ध प्रांतीय वर्किंग कमिटी में मैं बराबर लड़ता था। मगर अकेला ही था। बाकियों ने तो वैसा ही तय कर लिया था। अजीब हालत थी। पर करता ही आखिर क्या?

ऐसी दशा में मेरे ही ऊपर वहाँ के कांग्रेस विरोधियों का क्रोध था। वे जानते थे कि अगर मैं वहाँ न जाऊँ तो कांग्रेसी उम्मीदवार को चुटकी मार के वे हरा देंगे। कुर्मी जाति में भी दोनों उमीदवार दो अलग बिरादरियों के थे और अपनी-अपनी बिरादरी को ले के लोग परेशान थे। इसलिए बखतियारपुर में ही मुझे पता चला कि हरनौत की मीटिंग में कुछ गड़बड़ी होगी और विरोधी लोग ऊधम मचाएँगे। यही कारण था कि मैं पहले से ही तैयार होके गया था। गाँव के नजदीक पहुँचते ही देखा कि जहाँ एक दल लाल और तिरंगे झंडे के साथ बाजे-गाजे से हमारा स्वागत करने को तैयार है, तहाँ उसके बाद ही काले झंडेवाला दूसरा दल 'स्वामी जी, लौट जाएँ' आदि के साथ हमारा विरोध कर रहा है। हम हँसते थे। हमारी मोटर विरोधियों के बीच से आगे बढ़ गई। हम लोग सड़क से कुछ हट के एक बाग में गए जहाँ सभा की तैयारी थी। लोग तो पहले से थे ही। अब और भी जम गए।

सभा-स्थान में कई चौकियाँ एक साथ मिला के पड़ी थीं और उन पर दरी, कालीन वगैरह पड़े थे। हम लोग उन्हीं पर उत्तर रुख बैठे थे। स्पीचें हो रही थीं। और लोग बोल चुके थे। मगर मैं अभी बोल चुका था नहीं। अभी बोलने का सिलसिला जारी ही था। सभी का ध्यान उसी ओर था। इतने में एकाएक मुझे पता लगा कि मेरे दाएँ कंधे पर जैसे तेज जलन सी हो गई। तेज दर्द था। मगर लोगों ने देखा कि कोई आदमी अपनी लाठी मुझ पर चलाके बेतहाशा भागा जा रहा है। दौड़ो-दौड़ो, पकड़ो-पकड़ो की आवाज हुई। कुछ लोग दौड़ भी पड़े। मगर मैंने हठ कर के सबों को लौटा लिया। मारनेवाला निश्चिंत निकल गया। असल में लाठी तो उसने मेरे माथे पर ही चलाई थी। मगर माथा बच गया बाल-बाल और वह जा लगी कंधे पर। उससे पहले मैंने लाठी की चोट खायी न थी। इसी से मालूम पड़ा कि जैसे जलता अंगार गिर गया।

मैंने मारनेवाले को पकड़ने से लोगों को इसलिए रोका कि उसमें खतरा था। अगर वह पकड़ा जाता, जैसा कि निश्चय था, तो लोग क्रोध में उतावले हो के जानें उससे कैसे पेश आते। भीड़ तो थी ही। अंदेशा था कि उसकी जान ही चली जाती। कम-से-कम इसका खतरा तो था ही। उसके बाद उसके दलवाले जानें क्या करते। हो सकता था कि वहीं करारी मार-पीट हो जाती। यही सोच के मैंने लोगों को रोका। परिणाम हमारे लिए सुंदर हुआ। मीटिंग बेखटके होती रही। मेरी चोट पर लोगों को दवा की सूझी, पर, मैंने रोक दिया। चोट की जगह सूज गई जरूर, वह काली भी हो आई। मगर मैं ठंडा रहा और सभा में खड़ा होके बोला भी। लोग ताज्जुब में थे। पर मुझे परवाह न थी। हाय-हाय करना या चिल्लाना तो मैंने आज तक जाना ही नहीं। फिर वहाँ कैसे हाय-हाय करता? मीटिंग के बाद बिहार शरीफ जाने पर चोट को धीरे-धीरे गर्म पानी से धोया गया ताकि दर्द शांत हो। वहाँ भी सनसनी थी। मगर मैं तो वहाँ की सभा में भी बराबर बैठा रहा। बोला भी। इस प्रकार वह दौरा पूरा हुआ। कांग्रेसी उम्मीदवार तो जीते और अच्छी तरह जीते।

मगर दो साल गुजरने के बाद हालत कुछ और ही हो गई। मुझे निमंत्रण मिला कि हरनौत में किसान-सभा होगी। खूबी तो यह कि जो लोग पहली बार मेरे सख्त दुश्मन थे वही इस बार मेरी सभा करा रहे थे। उनने मेरे स्वागत की तैयारी भी सुंदर की थी। मैंने निमंत्रण स्वीकार किया खुशी-खुशी। वहाँ जा के देखा तो सचमुच समाँ ही कुछ और थी। मीटिंग भी ठाठ-बाट से हुई। उनने प्रेम से मेरा अभिनंदन भी किया। स्वागताध्यक्ष ने जो भाषण दिया वह दूसरे ढंग का था। लोग हैरत में थे। मैं भी चकित था। इतना तो सबने माना कि दो साल के भीतर किसान-सभा की ताकत बढ़ी है काफी। इसीलिए पहले के दुश्मनों को भी लोहा मानना पड़ा है, चाहे उनका मतलब इस बार कुछ भी क्यों न हो। हमारे लिए यही क्या कम गौरव की बात थी कि हमारे दुश्मन भी हमारे ही झंडे के नीचे आके मतलब साधने की कोशिश करें? हाँ, हमें सजग रहना जरूरी था कि कहीं किसान-सभा बदनाम न हो जाए। सो तो हम थे ही और आज भी हैं। उस बदली हालत को देख के हमने यह समझने की भूल कभी न की कि वे लोग किसान-सभा के पक्के भक्त बन गए। ऐसा जानने में ही तो खतरा था और हमने ऐसा किया नहीं। लेकिन उन्हें मजबूरन किसान-सभा का नारा बुलंद करना पड़ा है यह हमने माना। वह उनकी मजबूरी किसान-सभा के महत्त्व को समझ कर हुई और उनने समझा कि इसी का पल्ला पकड़ो तो काम चलेगा, या सचमुच किसान-सभा की सच्ची भक्ति के करते हुई, यह निराला प्रश्न है। इसका उत्तर उस समय दिया जा सकता भी न था। यह तो समय ही बता सकता था कि असल बात क्या है।

लेकिन वहाँ जो आशाजनक असली बात दिखी वह कुछ और ही थी। हमें वहाँ कुछ नौजवान और विद्यार्थी मिले जो कुर्मी समाज के ही थे। हमने उनमें जो कुछ पाया वही दरअसल हमारे काम की चीज थी। उसी पर हम मुग्ध भी हुए। अपनी उस यात्रा की सफलता भी हमने प्रधानतया उसी जानकारी से मानी। उन छात्रों और युवकों में हमने किसान-सभा और किसान-आंदोलन की मनोवृत्ति पाई। हमने यह देखा कि वह लोग इसे अपनी चीज समझने लगे हैं। वह यह मानते नजर आए कि हम किसान हैं और हमारी असल संस्था किसान-सभा ही हो सकती है। इसमें वह अपने किसान समाज का उद्धार देखने लगे थे। यह मेरे लिए काले बादलों में सुनहली रेखा नजर आई।

एक ओर चीज भी थी। उनने मुझे हस्तलिखित एक मासिक पत्र दिखाया। मैं उसका नाम भूलता हूँ। उनने कहा कि प्रतिमास लिख के वे लोग उसे खुद तैयार करते हैं। लेख और चित्र दोनों ही दिखे। दोनों ही हस्तलिखित-हस्तनिर्मित थे। उनने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे आद्योपांत पढ़ के अपनी सम्मति लिख दूँ। समय मेरे पास न था। मगर मैंने उनकी इच्छापूर्ति जरूरी समझ उस 'पत्र' को शुरू से आखिरी तक पढ़ा। लेखक नए-नए छात्र और जवान लोग ही थे जिन्हें उसकी शिक्षा कभी नहीं मिली थी। व्याकरण वगैरह का ज्ञान भी उन्हें उतना न था। फिर भी जिन भावों को मैंने उन लेखों में पाया उनने मुझे मुग्ध कर दिया। लेखों की गलतियाँ तो मैं भूल ही गया। मेरे सामने तो भाव ही खड़े थे। देश के और कांग्रेस के बड़े-से-बड़े नेताओं के बारे में निर्भीक समालोचना उस मासिक पत्र के लेखों में थी, सो भी अनेक में। समालोचना भी ऐसी सुंदर कि तबीअत खुश हो जाए। चुभनेवाली बात बहुत ही अच्छे ढंग से दर्शाई गई थी।

इतना ही नहीं। मुझे ताज्जुब तो तब हुआ जब मैंने देखा कि लेखों में मेरा और अन्य कई किसान-नेताओं का भी जिक्र है, उनकी बड़ाई है, उनके कामों की तारीफ है। साथ ही यह भी पाया कि कांग्रेसी नेताओं के मुकाबिले में हमारे को जन-हित की दृष्टि से अच्छा और महत्त्वपूर्ण बताया गया था। बातें कहने और लिखने का तरीका उनका अपना था। और यही ठीक भी था। बनावटी ढंग से बातें लिखना या लिखने में दूसरों की नकल करना कभी ठीक नहीं होता। हर बात में मौलिकता का मूल्य होता है। चाहे शैली कुछ भी हो-और मैंने तो निराली शैली को हृदय से पसंद किया-मगर बातें तो मार्के की थीं, दुरुस्त थीं। यह भी नहीं कि हमसे उनकी कोई घनिष्ठता थी। हम तो उनमें किसी को जानते-पहचानते भी न थे। इसीलिए उनने जो कुछ लिखा वह उनके हृदयों का उद्गार था। कइयों ने लिखा था, न कि एक दो ने ही। कांग्रेसी नेताओं पर कुछ चुटकियाँ भी थीं, जो भद्दी न थीं। किंतु अच्छी थीं।

लोग कहते हैं कि हमारे देश में जातीयता का अभिशाप कुछ करने न देगा। मैं तो निराशावादी हूँ नहीं, किंतु पक्का आशावादी हूँ। मैंने वहाँ निराशावाद से उल्टी बातें पाईं। हालाँकि घोर जाति पक्षपात का इलाका वह है। हरनौत इसका अड्डा माना जाता है। मेरे खिलाफ तो वहाँ बवंडर खड़ा हो चुका था। फिर भी युवकों के वे स्वाभाविक उद्गार हवा का रुख कुछ दूसरा ही बताते थे। मैं मानता हूँ कि सयाने होने पर उनके दिमाग में जहर भरने की कोशिश होगी,होती है। मगर मैंने वहाँ जो कुछ पाया वह बताता था कि वह जहर मिटेगा जरूर ही।


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सन 1938 ई. के गर्मियों का मौसम था। मेरा दौरा किसान-आंदोलन के सिलसिले में ही बाढ़ और बिहार सब-डिविजनों में हो रहा था। बाढ़ शहर के पास के ही एक बड़े गाँव में सभा करने के बाद मैं घोर देहात में गया। वह देहात बाढ़ से दक्षिण है जिसे टाल का इलाका कहते हैं। मिट्टी निहायत ही चिकनी और काली है। बरसात में तो पाँव में चिपक जाती है ऐसी, कि जल्द छूटना जानती ही नहीं। मगर गर्मियों में सूख के ऐसी सख्त बन जाती है कि कंकड़ों की तरह पाँवों में चुभती है और काट खाती है। दूर-दूर तक पेड़-वेड़ नजर आते नहीं। कहीं-कहीं गाँव होते हैं। बरसात में पचासों मील लंबी और बीसियों मील चौड़ी उस जमीन पर केवल जल ही नजर आता है। बीच-बीच में गाँव ऐसे ही देखते हैं जैसे समुद्र में टापू। लगातार तीन-चार महीने यही नजारा दीखता है। सिर्फ किश्तियों पर चढ़ के ही उन गाँवों में जा सकते हैं। उसी टाल के इलाके का एक भाग, जो बाढ़ से बहुत ज्यादा पूर्व और टाल के आखिरी हिस्से पर पड़ता है, बड़हिया टाल कहा जाता है। बड़हिया एक बड़ा सा गाँव जमींदारों का टाल के उत्तरी सिरे पर रेलवे का स्टेशन है, जैसे बाढ़, मुकामा वगैरह। इन बड़े-बड़े गाँवों की जमींदारियाँ उस टाल में हैं। इसलिए उस टाल के बनावटी टुकड़े बन गए हैं सिर्फ जमींदारियों को जनाने के लिए। उन्हें ही बड़हिया टाल, मुकामा टाल वगैरह कहा करते हैं। उसी टाल की जमीनों को लेकर बड़हिया इलाके के किसानों, जो अधिकांश केवल खेत-मजदूर और तथाकथित छोटी जाति के ही हैं, की लड़ाई हमारी किसान-सभा लगातार कई साल तक लड़ती रही है। इस लड़ाई में किसानों पर घोड़े दौड़ाएगए, लाठियाँ पड़ीं, भाले-बर्छे लगे, सैकड़ों केस चले, कई सौ जेल गए और क्या-क्या न हुआ। हमारे कार्यकर्ता और नेता भी जेल गए। वहीं लालकुर्त्तोंवाले किसान-सेवकों के दल पहले-पहल तैयार किएगए। उनके बारे में तो उस टाल में तैनात अफसरों तक ने कह दिया कि सचमुच ही ये लोग शांतिदल (Peace Brigade) के आदमी हैं। जमींदारों के द्वारा लाठीराज और गुंडाराज कायम कर देने पर भी उन्हीं ने वहाँ किसानों को हर तरह से शांत रखा। वे भी उन्हीं किसानों के बच्चे थे। यही तो उस दल की खूबी रही है। हमने लड़ाई के नेतृत्व के लिए भी उन्हीं पिछड़े किसानों को स्वावलंबी बनाया। पैसे वगैरह का काम भी उनने जैसे-तैसे ज्यादातर खुद ही चलाया।

हाँ, तो उसी टाल के दो गाँवों में हमने मीटिंगें कीं। पहले से ही उन मीटिंगों की तैयारी थी। उसके बाद फिर बाढ़ लौटने के बजाय बाहर ही बाहर बिहार के इलाके में हमें नूरसराय जाना था। रास्ता विकट था। बैलगाड़ी वगैरह से जैसे-तैसे हमें हरनौत जाना था। वहाँ से टमटम से नूरसराय आसानी से जा सकते थे। ठीक याद नहीं कि हमें टमटम की सवारी हरनौत में ही मिली, या उससे पहले ही पहुँची थी। मगर हरनौत के बाद तो हम जरूर ही टमटम से गए यह बखूबी याद है। असल में हरनौत के बाद की ही यात्रा महत्त्वपूर्ण थी। इसीलिए वह अच्छी तरह याद है।

हरनौत से बहुत दूर तक हम पक्की सड़क से ही गए। मगर आगे हमें पक्की सड़क छोड़ देना पड़ा। टमटम कच्ची सड़क से चलने लगा। हम कई साथी उस पर बैठे थे। शायद तीन थे। कुछ दूर जाने के बाद हमें एक अजीब लड़ाई देखने को मिली। जिस गाँव के पास यह हो रही थी उसका नाम-धाम तो हमें याद नहीं। हमने बहुत दूर से देखा कि तीन-चार छोटे-छोटे जानवरों की आपस में ही कुछ खटपट चल रही है। कभी एक खदेड़ता है बाकियों को, जो तीन की तादाद में थे, तो कभी वे तीन उस पर हमला करते हैं। बहुत देर तक मैं यह चीज देखता रहा। जब तक टमटम नजदीक न पहुँचा तब तक तो मुझे पता भी न चल सका कि ये कौन से जानवर आपस में लड़ रहे हैं। मगर धीरे-धीरे चक्कर काटता हुआ टमटम जब कुछ नजदीक आया तो मालूम हुआ कि एक छोटी सी बकरी अपने तीन नन्हें बच्चों के साथ एक ओर है, और तीन कुत्ते दूसरी ओर। इन्हीं दोनों के बीच वह कुश्तमकुश्ता चालू है। वह घंतों चलता रहा, यह मैंने खुद देखा। पहले कब से था कौन बताए। मगर जबसे मेरी नजर उस पर गई मैं बराबर वह निराली समाँ देखता था।

लड़ाई यों चलती थी। तीनों कुत्ते उस बकरी पर हमला कर के चाहते थे कि बच्चों के साथ उसे मार के खा जाएँ। मगर उनके जवाब में उन बच्चों को अपने पेट के पास जमा कर के वह बकरी मारे गुस्से के अपना माथा और सींगें झुकाती और उन पर धावा बोलती थी जिससे वे तीनों ही भाग जाते थे। असल में जान पर खेल के जब वह उन पर टूट पड़ती थी तो वे हिम्मत हार के भाग जाते थे। मगर जब वह रुक जाती थी तो फिर उस पर टूट पड़ते थे। यही तरीका बराबर घंटों चलता रहा। मेरी नजर एकटक उसी पर टिकी थी। ज्यों-ज्यों मैं नजदीक आता जाता था, त्यों-त्यों वह दृश्य देख-देख के मग्न होता था। मेरे शरीर के अंग-अंग और रोम-रोम खिलते जाते थे। नजदीक आने पर देखा कि बकरी छोटी सी ही थी। मगर गुस्से के मारे मौत की सूरत बनी थी, रणचंडी बनी वह भी काफी परेशान थी। कुत्ते तो थे ही। उसकी अब तक जीत रही, इसलिए हिम्मत बनी थी। मगर कुत्तों का इरादा पूरा न हो सका था। वे तो उसका ही और अगर वह न हो तो कम-से-कम उसके तीनों बच्चों का ही गर्मागर्म खून पीना चाहते थे जो मिल न सका। इसलिए स्वभावतः उनमें पस्ती थी। फिर भी वह कुश्ती चालू थी। इतने में मेरे सामने ही बकरी का मालिक आ पहुँचा। उसने कुत्तों को मार भगाया और बकरी को घर पहुँचाया।

मेरे लिए वह दृश्य क्यों रोमांचकारी था और मैं उस पर क्यों मुग्ध था, इसकी वजह है। मेरे सामने हमेशा ही यह प्रश्न आया करता था कि किसान सब तरह से पस्त और पागल होने के कारण जमींदारों से डँट के मुकाबिला कर नहीं सकते और बिना मुकाबिला किए न तो जुल्मों से ही उन्हें छुटकारा मिल सकेगा और न उन्हें अपना अधिकार ही हासिल हो सकेगा। मैं जहीं जाता वहीं यह सवाल उठता था। मैं भी परेशान था। जवाब तो मैं देई देता। पूछनेवालों को और आम किसानों को भी समझा देता कि वे कैसे विजयी हो सकते हैं, हो जाएँगे। संसार में किसान कहाँ, कैसे विजयी हो चुके हैं यह बातें उन्हें कह के समझाता था। मगर आखिर यह सब कुछ परोक्ष और दिमागी दुनिया की ही बात होती थी। न तो मैंने ही कहीं किसानों की विजय देखी थी और न किसानों ने ही। सारी-की-सारी सुनी सुनाई बातें ही थीं। इसलिए मुझे खुद अपने जवाब से संतोष न होता था। मैं तो प्रत्यक्ष मिसाल चाहता था कि किस प्रकार अत्यंत कमजोर भी जबर्दस्तों को हरा देते हैं। बराबर इसी उधेड़-बुन में रहता था कि बकरी की यह अनोखी और ऐतिहासिक लड़ाई देखने को मिल गई! इससे मेरा काम बन गया। फिर तो यह भी देखा कि अकेली बिल्ली कैसे किसी आदमी पर विजय प्राप्त करती है।

मैंने आँखों देखा कि मामूली सी बकरी अपने तीन बच्चों को और अपने आपको भी, घंटों दिलोजान से तीन कुत्तों के साथ करारी भिड़ंत करने के बाद भी, बचा सकी। यह तो प्रत्यक्ष चीज थी। अगर एक ही कुत्ता चाहता तो डरपोक और पस्त हिम्मत बकरी की हड्डियाँ चबा जाता। और वहाँ तो बकरी के तीन बच्चे भी थे। बकरी को ऐसी हालत में चबा जाना और भी आसान था। क्योंकि उसकी ताकत न सिर्फ अपने बचाने में खर्च हो रही थी, बल्कि उन तीन बच्चों के बचाने की परेशानी में भी बहुत कुछ खर्च होई जाती थी। फिर भी वह सफल रही और अच्छी तरह रही। क्यों? क्या वजह थी कि वह ऐसा कर सकी? इसका जवाब बातों से क्या दिया जाए? जिसने उस समय उस बकरी की सूरत और चेहरा-मुहरा नहीं देखा है और जिसने यह अपनी आँखों नहीं देखा कि वह किस तरह लड़ती थी, उसके दिमाग में इस सवाल का जवाब कैसे समायेगा, बैठ जाएगा यह मुश्किल बात है। इसे ठीक-ठीक समझने के लिए वैसी घटनाओं को खुद देख लेना निहायत जरूरी है। वह एक घटना हजार लेक्चरों का काम करती है। क्योंकि वह तो 'कह सुनाऊँ' नहीं है। किंतु'कर दिखाऊँ' है। और बिना 'कर दिखाऊँ' के कोई बात दिल पर नक्श हो सकती नहीं।

असल में जब कोई पक्का मंसूबा और दृढ़ संकल्प कर के जान पर खेल जाता है तो उसके भीतर छिपी अपार शक्ति बाहर आ जाती है। यही दुनियाँ का कायदा है। ताकत बाहर से नहीं आती। वह हरेक के भीतर ही छिपी पड़ी रहती है, जैसे दूध में मक्खन। जिस प्रकार मथने से मक्खन बाहर आ जाता है, ठीक उसी तरह जान पर खेल के लड़ जाने, भिड़ जाने पर वही भिड़ंत मथानी का काम करती है। फलतः छिपी हुई ताकत को बाहर ला खड़ा करती है। बकरी की लड़ाई से यह साफ हो जाता है। कहते भी हैं कि 'मरता क्या न करता?' अगर मामूली बकरी डट जाने पर सपरिवार अपने को तीन कुत्तों से बचा सकती है, तो किसान डँट जाने पर अपने हक की रक्षा क्यों न कर सकेगा?


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जब जवाबदेह कार्यकर्ता और लीडर ऐसा काम कर डालते हैं जिसे व्यवहार-बुद्धि (Common-Sense)मना करती है तो बड़ी दिक्कत पैदा हो जाती है। जनता में काम करना एक चीज है और केवल राजनीतिक चालबाजी दूसरी चीज। अखबारों में खबर छपवा देना कि फलाँ-फलाँ जगह मीटिंगें हुईं और अमुक-अमुक सज्जन बोले, यह एक ऐसी बात है जिसे हमारे कार्यकर्ता और लीडर आमतौर से पसंद करते हैं। मीटिंग कैसी थी, उसमें ठोस काम क्या हुआ, या नहीं हुआ, इस बात की उन्हें शायद ही परवाह होती है। मैं इसे न सिर्फ गैर जवाबदेही मानता हूँ, बल्कि ठगी समझता हूँ। बाहरी दुनिया पर चंद लोगों के प्रभाव और नेतृत्व का असर इससे भले ही जमे। मगर धोखा होता है। जनता का काम इससे कुछ भी होता नहीं। फिर भी हम इस प्रवाह में बहे चले जाते हैं। अखबारों की रिपोर्टें इसी तरह की अक्सर हुआ करती हैं। हम इतने से ही संतोष करते हैं। अपनी सालाना रिपोर्टों की तोंदें भी इन्हीं बलगमीं रिपोर्टों से भर डालते हैं। बाहरी दुनियाँ हमारी बड़ाई करती है कि हम बहुत काम करते हैं। यदि एक ही दिन में हमारी कई मीटिंगों की खबरें छप जायँ तब तो कहना ही क्या? तब तो हमारी महत्ता और लीडरी आसमान छू लेती है।

जब अपनी सफलता का हिसाब हम खुद इन्हीं झूठी रिपोर्टों से लगाते हैं तब तो किसानों और मजदूरों का भला भगवान ही करे! तब पता लग जाता है कि हम कैसे सच्चे जन-सेवक हैं। हमारे दिलों में पीड़ित जनता की वास्तविक सेवा की आग कैसी जल रही है इसका सबूत हमें मिल जाता है। मगर असलियत तो यह है कि इन हरकतों से गरीबों का उद्धार सात जन्म में भी नहीं हो सकता। वे तो बावजूद इन मीटिंगों के भेड़-बकरियों की तरह कभी एक दल के और कभी दूसरे के हाथों मँड़ते ही रहेंगे। इस तरह हम उनके नेता बन के अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए उन्हें उनके शत्रुओं के हाथ बराबर बेचते ही रहेंगे। उनके उद्धार का रास्ता यह हर्गिज है नहीं। मगर बदकिस्मती से इस बात के कड़घवे अनुभव मुझे किसान आंदोलन के सिलसिले में इतने ज्यादा हुए हैं कि गिनाना बेकार है।

एक बात और है। जवाबदेही का मतलब भी हम ठीक समझ पाते नहीं। किसी काम के पूरा करने में क्या-क्या करना होगा, कौन-कौन दिक्कतें आएँगी, उनका सामना कैसे किया जाएगा, उस संबंध में किस पर विश्वास करें, किस पर न करें, विश्वास करें भी तो कहाँ तक करें, वगैरह-वगैरह पहलुओं पर पूरा विचार करना भी जवाबदेही के भीतर ही आता है और यही उसके असली पहलू हैं। इन पर पूरा गौर किये बिना हम जवाबदेही को पूरा कर नहीं सकते और अगर हम इसमें चूकते हैं तो इसकी वजह या तो यही है कि हमने जवाबदेही को अभी तक जाना नहीं, या हमें इस बात का अनुभव नहीं कि कौन क्या कर सकता है, किसकी कौन सी दिक्कतें और अड़चनें हैं जिन्हें पहले समझ लेना जरूरी है। जब देहात के किसान या कार्यकर्ता किसी मीटिंग के प्रबंध की पूरी जवाबदेही ले लेते हैं तो हम निश्चिंत हो जाते हैं कि अब हमें कुछ करना है नहीं। हम तो मजे से चलेंगे और मीटिंग कर के लौट आएँगे।

मगर यह भारी भूल है। देहात के लोगों के लिए यह समझ लेना और सब बातों का पूरा-पूरा हिसाब लगा लेना आसान नहीं है। सब बातों के तौलने की जवाबदेही उन पर डालना ही भूल है। उस तौल का उनका तराजू भी देहाती ही होता है जो पूरा नहीं पड़ता। इसीलिए हमें खुद सारी चीजों की देख-भाल करना जरूरी है। मैंने देखा है कि हर मीटिंग के करने-करानेवाले आमतौर से यही समझते हैं कि दुनियाँ में बस यही एक मीटिंग है। इसी से सबका काम चल जाएगा। इसके बाद आज ही कहीं और भी मीटिंग हमारे लीडर को करना है या नहीं इसकी परवाह उन्हें होती ही नहीं। कल, परसों भी उन्हें कहीं इसी तरह जाना है या नहीं, और अगर वे नहीं जा सके तो लोगों को वैसी ही निराशा होगी या नहीं, लोग वैसे ही बुरा मानेंगे या नहीं, जैसा कि तैयारी हो जाने पर हमारे यहाँ नेताओं के न आ सकने पर हम मानते हैं, यह बात भी वे लोग साधारणतया सोचते ही नहीं। फिर ठीक समय मीटिंग को पूरा करने की सारी तैयारी वे करें तो कैसे करें? लेकिन यह तो हमारे जवाबदेह कार्यकर्ताओं का ही काम है कि ये सारी बातें सोचें और उसी हिसाब से ऐसा प्रबंध करें कि ठीक समय पर सारा काम पूरा हो जाए। देहात के लोगों के कह देने पर ही सारी बात का विश्वास कर लेना बड़ी भारी गलती है। हमें उन लोगों की कमजोरियों को बिना कहे ही अपने ही अनुभव के आधार पर समझ लेना और तदनुसार ही काम करना चाहिए।

इस संबंध के कटु अनुभव मुझे यों तो हजारों हुए हैं और उनसे काफी तकलीफ भी हुई है। मगर कभी-कभी भीतर-ही-भीतर जल जाना पड़ा है। खास कर जब बड़े लीडर कहे जानेवालों ने ऐसी नादानी की है। इस बात की चर्चा एकाध बार पहले ही की जा चुकी है। मगर एक घटना बहुत ही मार्के की है। सन 1939 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। किसान लोग रबी बोने की तैयारी में खेतों को ठीक कर रहे थे। धान की फसल अभी तैयार न हुई थी। खेतों में ही खड़ी थी। मगर बरसात का पानी रास्तों से आमतौर से सूख चुका था। जहाँ तक अंदाज है कार्तिक महीने की पूर्णमासी अभी बीती न थी। ठीक उसी समय पटना जिले के बाढ़ सब-डिविजन के हमारे एक किसान-नेता ने मेरे दौरे का प्रोग्राम तय किया। और मीटिंगों के अलावे उनने एक ही दिन दो मीटिंगों का प्रबंध किया। एक फतुहा थाने के उसफा गाँव में और दूसरी हिलसा थाने में हिलसा में ही। जब मुझे पता चला तो मैंने कहा कि देहात की मीटिंग के साथ दूसरी मीटिंग भी हो यह शायद ही सोचा जा सकता है जब तक कि मोटर का रास्ता न हो। लेकिन उनने न माना।

जब मीटिंग के दिन हम फतुहा स्टेशन पर आए तो मैंने उसफा के बारे में बार-बार पूछा कि कितनी दूर है, रास्ता कैसा है, आदि-आदि। उत्तर मिला कि बहुत दूर तक तो टमटम जाएगा। फिर नदी के बाद तीन-चार मील हाथी से जाना होगा। मगर मेरे दिल ने यह बात नहीं कबूल की। खूबी तो यह थी कि मीटिंग के बाद हाथी से ही 4-5 मील चल के लाइट रेलवे की गाड़ी पकड़ना और शाम तक हिलसा भी पहुँचना जरूरी था। मैंने उनसे साफ कहा कि यह बात गैर-मुमकिन है। मुझे जो देहातों का अनुभव है उसके बल पर मैंने उन्हें साथ चलने से रोका और हिलसा जाने को कहा। उनसे यह भी साफ कह दिया कि हिलसा आने की मेरी उम्मीद छोड़ के आप खुद मीटिंग कर लेंगे। हाँ, अगर मुमकिन हुआ तो मैं भी आ जाऊँगा। मगर मेरी इंतजार में आप कहीं बैठे ही न रह जाएँ। इसी समझौते के अनुसार मैं टमटम पर बैठ के एक कार्यकर्ता के साथ उसफा की ओर चला, इस आशा से कि जहाँ हाथी खड़ा रहने का इंतजाम है वहाँ तक जल्दी पहुँच जाऊँ।

मगर गैर-जवाबदेही का एक नमूना फतुहा में ही मिला, जब हमारा टमटम सदर सड़क छोड़ के गली से चलने लगा। कुछ देर के बाद गली बंद थी और उसकी मरम्मत के लिए पत्थर की गिट्टियाँ पड़ी थीं। बड़ी दिक्कत हुई। टमटम जाने की उम्मीद न थी। बहुत ही परेशानी के बाद जैसे-तैसे टमटम पार किया गया। वह परेशानी हमीं जानते हैं। फिर टमटम बड़ा कुछ दूर-कुछ ज्यादा दूर-जाने के बाद साइकिल से दौड़ा हुआ एक आदमी हमारे पीछे आता था और हमें पुकारता था। मगर देर तक हम उसकी आवाज सुन न सके और बढ़ते गए। जब वह नजदीक आ गया तो उसकी पुकार हमने सुनी। उसने कहा कि हाथी तो स्टेशन पर आ गया है, आप वहीं लौट चलें। हम घबराये और सोचा कि यह दूसरा संकट आया। लौटेंगे तो फिर उसी गली में टमटम निकालने की बला आएगी। इसलिए साइकिलवाले से कह दिया कि जाओ और हाथी वहीं भेजो जहाँ पहले भेजने का तय पाया था। क्योंकि तुम भी तो कहते ही हो कि भूल से हाथीवान उसे स्टेशन ले गया है। इस पर वह बेचारा लौट गया। हम आगे बढ़े। मगर कुछी दूर और चलके टमटमवाले ने कह दिया कि “बस, बाबूजी, अब आगे टमटम जा न सकेगा। यहीं तक की बात तय पाई थी।”

हम लोग उतर पड़े और पैदल चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद मालूम हुआ कि इधर नदी-वदी कोई है नहीं। उसफा का रास्ता आगे से खेतों से हो के जाएगा, यह कच्ची सड़क छूट जाएगी। हम लोग कुछ दूर और चल के धान के खेतों के बीच एक पीपल के नीचे जा ठहरे। वहीं इंतजार करने लगे कि हाथी आए तो चलें। पेड़ की छाया में कुछ लेटे भी। मगर चैन नहीं। मीटिंग में पहुँचने की फिक्र जो थी। इसीलिए रह-रह के हाथी का रास्ता देखते। कभी खड़े होते, कभी बैठ जाते। देखते-देखते एक घंटा बीता, दो बीते। मगर हाथी लापता ही रहा। ताकते-ताकते आँखें पथरा गईं। हम परेशान हो गए। मगर फिर भी हाथी नदारद! इधर दिन के दस-ग्यारह बज भी रहे थे। हमने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि हाथी की इंतजार में बैठे-बैठे उसफा की भी मीटिंग चौपट हो। हिलसा जाने का तो अब सवाल ही नहीं। हमारे सामने यह तीसरी दिक्कत आई। मगर हमने तय किया कि पैदल ही आगे बढ़ना होगा। रास्ता भी तो देखा था नहीं। फिर भी हिम्मत की कि पूछते-पाछते चले जाएँगे। हमने पहले से ही होशियारी की थी कि साथ में कोई सामान नहीं लिया था। नहीं तो वहीं बैठे रह जाते। उसका जाना तो दूर रहा। फतुहा लौटना भी दूभर हो जाता। सामान कौन ले चलता? उस घोर देहात में कुली कहाँ मिलता? मुझे तो ऐसे मौके कई पड़े थे। इसीलिए तैयार हो के आया था कि पैदल भी चलूँगा यदि जरूरत होगी। फिर सामान साथ लाता क्योंकर?

हाँ, तो हम चल पड़े। रास्ते की बात पूछिए मत। केवाल की काली मिट्टी सूखी थी। वह पाँवों को कतरे जाती थी। जूता पहनने में दिक्कत यह थी कि रह-रह के कीचड़-पानी पार करना पड़ता था। इसलिए जूता महाराज हाथों की ही शोभा बढ़ा रहे थे। कभी-कभी पाँवों में भी जा पहुँचते थे। रास्ता भी कोई बना बनाया था नहीं। कहीं खेत और कहीं दो खेतों की मेंड़ (आर) से ही चलना पड़ता था। पूछने पर लोगों ने यही बताया कि फलाँ कोने में उसफा है। बस, वही दिशा देख के चल रहे थे। फिर भी काफी भटके। दूर-दूर तक कहीं गाँव नजर आते न थे कि किसी से रास्ता पूछें। सूनी जगह में पेड़ भी थे नहीं कि रामचंद्र की तरह सीता का हाल उन्हीं से पूछते। पशु भी नदारद ही थे। यही हालत पक्षियों की थी। बहुत चलने पर कहीं-कहीं एकाध हल चलानेवाले किसान मिलते तो उन्हीं से पूछ लेते कि उसफा का रास्ता कौन है? फिर उसी अंदाज से आगे बढ़ते। कातिक की धूप भी ऐसी तेज थी कि चमड़ा जला जाता था। प्यास भी लगी थी। मगर रास्ते में पानी पीना आसान न था। कहीं गाँव में कुआँ मिले तभी तो पिया जाए। मगर कुओं की हालत यह थी कि उनमें मुँह तक पानी भरा था। ऐसी हालत में उनका पानी पीना बीमारी बुलाना था। इसलिए प्यासे बढ़ते जाते थे। रास्ते में एक-दो गाँव भी मिले। वहाँ हमने उसफा की राह पूछ ली और बढ़ते गए।

चार या छः मील की तो बात ही मत पूछिये। आठ-नौ मील से कम हमें चलना न पड़ा। बराबर चलते ही रहे। फिर भी तीन घंटे से ज्यादा ही वक्त वहाँ पहुँचने में लगा। हम परेशान थे। मगर चारा भी दूसरा था नहीं। मीटिंग में तो पहुँचना ही था, चाहे जो हो जाए। अंत में एक गाँव मिला। हमने समझा यही उसफा है। किंतु हमारा खयाल गलत निकला। आगे बढ़े। पता चला कि आगेवाला उसफा है। मगर नदी-नाले और पानी कीचड़ के करते रास्ता चक्कर काटता था। अंत में कुछ लोग मिले जो सभा में जा रहे थे। तब हमें हिम्मत हुई कि अब नजदीक आ गए। अंत में बाजे-गाजेवालों की भीड़ मिली। ये लोग स्वागतार्थ जमा थे। हमें इनके भोले-भाले पन पर दया आई। हम पहुँचेंगे भी या नहीं इसका खयाल तो इनने किया नहीं और स्वागतार्थ बाजे-गाजे के साथ जम गए। हमने समझा कि अब सभा-स्थान पास में ही होगा। मगर सो बात तो थी नहीं। अभी मीलों चलना था। बहुत देर के बाद गाँव में पहुँचे तो सारे गाँव में जुलूस घूमता फिरा। हमें क्या मालूम कि जुलूस घुमाया जा रहा है? गाँव भी शैतान की आँत की तरह लंबा है। हम तो प्यासे मरे जा रहे थे और लोगों को जुलूस की पड़ी थी। पर, किया क्या जाए? देहात के लोग तो सीधे होते हैं। वे अगर सारी बातें समझ जाएँ तो फिर जमींदारी कैसे रहने पाएगी? महाजनों की लूट चालू क्योंकर रहेगी? उनकी नासमझी और उनका भोलापन यही तो लूटनेवालों की─शोषकों की-पूँजी है, यही उनका हथियार है।

जैसे-तैसे जुलूस का काम पूरा हुआ और हम लोग गाँव से बाहर बाग में पहुँचे जहाँ सभा का प्रबंध था। मगर मेरा तो गला सूख रहा था। इसलिए कुएँ से पानी मँगवा के भरपूर स्नान किया तब कहीं कुछ ठंडक आई। फिर पानी पिया। जरा लेटा। इतने में लोग भी जमा होते रहे। मुझे पता चला कि वहाँ शायद ही कोई पहुँच पाता है। बरसात में फतुहा से ले कर वहाँ तक केवल जलमय रहता है। जाड़े में भी आना गैरमुमकिन ही है। हाँ, गर्मी में शायद ही कोई आ जाते हैं। आमतौर से यही होता है कि मीटिंगों की नोटिसें बँट जाती हैं, लोग जमा भी होई जाते हैं। मगर नेता लोग ही नहीं पहुँच पाते। फलतः लोग निराश लौटते हैं। इस बात की आदत सी वहाँ के लोगों में हो गई है। मोटर वगैरह का आना तो असंभव है। बैलगाड़ी की भी यही हालत है। हाथी या घोड़े से आ सकते हैं। नहीं तो पैदल। मगर नेता और पैदल? मेरे बारे में भी लोग समझते थे कि शायद ही पहुँचूँ। इसीलिए मरता-जीता, थका-प्यासा जब मैं पहुँच गया तो लोगों को ताज्जुब हुआ!

यों तो उसफा में मिडिल स्कूल है। लाइब्रेरी भी है। फुटबाल वगैरह की खेल भी होती है। कांग्रेस की लड़ाई में वहाँ के कुछ लोग कई बार जेल भी गए हैं। फिर भी वह समूचा इलाका ही पिछड़ा हुआ है। सभाएँ शायद ही होती हैं। छोटे-मोटे जमींदार, जो उस इलाके में हैं, खूब जुल्म करते हैं। पुलिस का भी वहाँ पहुँचना आसान नहीं है। इसलिए जालिम लोग स्वच्छंद विचरते हैं। लगातार कई साल के बीच मेरी वही एक मीटिंग थी जहाँ पुलिस पहुँच न सकी, सी. आई. डी. रिपोर्टरों का पहुँचना तो और असंभव था। वे लोग हिलसा की मीटिंग में चले गए। यह भी एक अजीब बात थी। तमाशा तो यह हुआ कि मुझे लेने के लिए भेजा गया हाथी मीटिंग खत्म होते न होते वहाँ लौटा।

सभापति उस सभा में बनाएगए इलाके के एक छोटे से जमींदार। मुझे यह बात पीछे मालूम हुई। नहीं तो शायद ही ऐसा होने पाता। मगर मैंने लेक्चर जो दिया वह तो जमींदारी-प्रथा और जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ ही था। फिर भी न जाने सभापति जी कैसे पत्थर का कलेजा बना के सुनते रहे। मुझे उनके चेहरे से मालूम ही न पड़ा कि वे मेरे भाषण से घबरा रहे हैं। यदि घबराते भी तो मुझे परवाह क्या थी? मैं तो अपना काम करता ही। मैंने यह जरूर देखा कि लोग मस्त होके मेरी एक-एक बातें सुनते थे। मालूम पड़ता था, उन्हें पीते जाते हैं। उनका चेहरा खिलता जाता था, ज्यों-ज्यों सुनते जाते थे। मुझे यह भी पता चला कि उसफा के किसान जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ लड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। औरों की तरह पुलिस से भी वे भयभीत नहीं होते। यदि पुलिस जमींदारों या महाजनों का पक्ष अन्यायपूर्वक ले, तो उससे भी उनकी दो-दो हाथ हो जाती है। भविष्य के खयाल से यह सुंदर बात है। हक के लिए मर-मिटने की लगन के बिना किसानों के निस्तार का दूसरा रास्ता हई नहीं।

हाँ, सभा के अंत में एक मजेदार घटना हो गई। कुछ नौजवान लोग स्कूलों या कॉलिजों के पढ़नेवाले से प्रतीत हुए। उनने यह कहा कि बिना स्वराज्य मिले ही यह आप जमींदार-किसान कलह क्यों लगा रहे हैं? थे वे जमींदारों के ही लड़के। मगर चालाकी से उनने आजादी की दलील की शरण ली और कांग्रेसी बन बैठे। मैंने उत्तर दिया कि झगड़े के लगाने की क्या बात? यह तो पहले से मौजूद ही है। अगर आपकी जायदाद कोई लूटने लगे तो क्या स्वराज्य की फिक्र में उससे लिपट न पड़िएगा? क्योंकि झगड़ने पर तो आपकी ही दलील से स्वराज्य की प्राप्ति में बाधा होगी। हम तो किसानों को यही बताते हैं कि जो स्वराज्य उन्हें लाना है वह कैसा होगा, क्योंकि जमींदारों और किसानों का स्वराज्य एक न होगा-अलग-अलग होगा। जो एक का स्वराज्य होगा, वह दूसरे के लिए बला बन जाएगा।

वे फिर बोले कि आप तो मिस्टर जिन्ना की सी बात कर रहे हैं। जैसे वह स्वराज्य मिलने के पहले उसका बँटवारा कर रहे हैं आप भी वैसा ही कर रहे हैं। इस पर मैंने उन्हें बताया कि आप मेरी स्थिति को ठीक समझी न सके। मैं तो किसानों को सिर्फ यही बताता हूँ कि सजग हो के स्वराज्य के लिए लड़ो ताकि वह उनका स्वराज्य हो, न कि जमींदारों और सूदखोरों का। मगर वह लड़ें जरूर। जमींदार वगैरह न भी लड़ें, तो भी वे अकेले ही लड़ें। अगर वे लोग भी लड़ें तो साथ मिल के ही लड़ें। मगर चौंकन्ने रहें ताकि मौके पर जमींदार लोग उन्हें चकमा दे के स्वराज्य को सोलहों आने हथिया न लें। लेकिन मिस्टर जिन्ना तो मुसलमानों को लड़ने से ही रोकते हैं। वे तो नौकरियों और असेंबली की सीटों का बँटवारा चाहते हैं। उसके लिए हिंदुओं से मिल के लड़ना नहीं चाहते। बल्कि बार-बार मुसलमानों को लड़ने से रोकते हैं। फिर मेरी उनके साथ तुलना कैसी? क्या कोई कह सकता है कि मैंने, किसान-सभा ने या किसानों ने कांग्रेस की लड़ाई में साथ नहीं दिया है? क्या मैंने कभी किसानों को रोका है?

इसके बाद वे लोग चुप हो गए। मगर किसानों ने सभी बातें समझ लीं। मैंने उनसे पूछ दिया कि तुम्हारे गाँव के जमींदार जो नवाब साहब हैं उनके स्वराज्य के लिए लड़ोगे या अपने स्वराज्य के लिए। उनने एक स्वर से सुना दिया कि अपने स्वराज्य के लिए! तब मैंने कहा कि ये सवाल करनेवाले तो नवाब साहब का ही स्वराज्य चाहते हैं, गोकि साफ-साफ बोलते नहीं। मगर गोलमोल स्वराज्य का तो यही मतलब ही है। इन्हें डर है कि गोलमोल न कह के अगर स्वराज्य का स्वरूप बनाने लगेंगे तो किसान हिचक जायँगे। जिस स्वराज्य में जमीन के मालिक किसान न हों, अपनी कमाई को पहले स्वयं सपरिवार भोगें नहीं, उन्हें काफी जमीन मिले नहीं, सूदखोरों से उनका पिंड छूटे नहीं, जमींदारों के जुल्म से उनका पल्ला छूटे नहीं और भूखों मर के भी लगान, कर्ज वगैरह चुकाना ही पड़े वह उनका स्वराज्य कैसा? और अगर यह बातें न हों तो फिर जमींदार मालदारों का स्वराज्य कैसा? इसीलिए कहता हूँ कि किसान और जमींदार मालदार का स्वराज्य एक हो नहीं सकता। इस पर जय-जयकार के साथ सभा विसर्जित हुई। सभी अपने-अपने गाँव-घर गए।

अब सवाल आया वापस जाने और फतुहा में ठीक समय पर गाड़ी पकड़ने का। क्योंकि प्रायः शाम हो चली थी। हिलसा पहुँचने का तो प्रश्न ही न था। खतरा यह था कि फतुहा में भी बिहटा जानेवाली ट्रेन मिल सकेगी नहीं। यदि तेज सवारी मिलती तो मुमकिन था उसका मिलना। इसलिए मैंने इस बात पर जोर दिया कि अच्छी सवारी जल्द लाई जाए। मैंने सभा के पहले भी वहाँ पहुँचते ही कह दिया था कि सवारी का इंतजाम ठीक रहे। आने में जो हुआ सो तो हुआ ही, जाने का तो ठीक रहे। नहीं तो कल का प्रोग्राम भी चौपट होगा। हिलसा तो रही गया। लोगों ने हाँ-हाँ कर दिया और सब ठीक है सुनाया। लेकिन मुझे तो शक था ही। क्योंकि “सब ठीक है” वाला जवाब जो फौरन मिल जाता है, बड़ा ही खतरनाक होता है। ऐसा मेरा अनुभव है सैकड़ों जगहों का। फिर भी करता ही आखिर क्या? इसलिए मीटिंग खत्म होते ही सवारी की चिल्लाहट मैंने मचाई। जवाब मिला, आ रही है। कुछ देर बाद फिर पूछा, तो वही 'आ रही है' का उत्तर मिला। कई बार यही सुनते-सुनते ऊब गया। आने के समय की पस्ती होने के कारण ही सवारी के लिए परेशानी थी। नहीं तो पैदल ही चल पड़ता। मगर जब देखा कि कुछ होता जाता नहीं, तो आखिर चल देना ही पड़ा पैदल ही। लोग रोकने लगे कि रुकिए, सवारी आती है। मगर मुझे अब यकीन न रहा। अतः रवाना हो गया। पीछे देखा कि वही पुराना हाथी चींटी की चाल से चला आ रहा है। मुझे रंज तो बहुत हुआ कि ये लोग धोखा देते हैं। भला इस मुर्दा सवारी से फतुहा कब पहुँचूँगा। ऐसी गैर जवाबदेही! इसके पीछे से लोग पुकारते जाते थे कि मैं रुकूँ। मगर मैं बढ़ता ही चला जाता था। सवारी की यह आखिरी दिक्कत ऐन मौके पर बहुत ही अखरी। किंतु लाचार था। एक-दो मील चला गया। शाम हो रही थी। दूध भी न पी सका था। अतएव आगे के गाँववालों ने रोका। वे भी सभा में गए थे। एक वैष्णव ब्राह्मण ने बाहर ही कुएँ पर कंबल डाल के मुझे बिठाया और फौरन ही गाय का दूध दुहवा के मुझे पीने को दिया। इतने में कुछ देर हो गई और बूढ़ा हाथी भी आ पहुँचा। मैं उस पर चढ़ने में हिचकता था। इसके लिए तैयार न था। मगर लोगों ने हठ किया। रात का समय और अनजान रास्ता। कीचड़-पानी से हो के गुजरना, सो भी आठ-दस मील। टेढ़ी समस्या थी। दिन रहता तो पैदल ही चल देता खामख्वाह। मगर अँधेरी रात जो थी। इसलिए मजबूरन हाथी पर बैठना ही पड़ा। एक लालटेन भी आई रास्ता दिखाने के लिए, मगर वह ऐसी मनहूस थी कि रोशनी मालूम ही न होती थी। फिर भी दूसरी थी नहीं। इसलिए वही साथ ली गई। लेकिन वह फौरन ही बुझ गई। अतएव पुकार के उसके मालिक के हवाले उसे हमने कर दिया और अँधेरे में ही अंदाज से चल पड़े। आखिर करते ही क्या? हाथी एक तो बूढ़ा और कमजोर था। दूसरे थका भी था हमारी ही तरह। क्योंकि अभी-अभी स्टेशन से वापस आया था। तीसरे भूखा था। भलेमानसों ने उसके खाने का कोई प्रबंध किया ही नहीं और मेरे साथ उसे फिर चला दिया। यह अजीब बात थी। और अगर रात न होती तो वह भूखों ही मरता। एक कदम बढ़ता भी नहीं, लेकिन रात होने से उसका काम चालू था। हाथी तो रास्ते के खेतों में खड़ी फसल को नोचता-खाता ही चलता है। यही तो उसकी गुजर है। दिन में खेतवाले सजग रहते और चिल्लाते हैं, तूफान करते हैं। इसलिए पीलवान हाथी को रोकता-डाँटता चलता है जिससे उसका घात शायद ही लगता है। मगर रात में तो यह खतरा था नहीं। इसलिए हाथी का स्वराज्य था। धान के हरे-हरे खेत खड़े थे। उन्हीं से हो के हम गुजर रहे थे। हाथी खाता चलता था। किसानों की फसल की इस तरह तबाही हमें खलती जरूर थी। इसलिए आमतौर से हम हाथी पर चढ़ते नहीं। मगर हाथी की भूख को देख के हम भी मजबूर थे और हाथीवान से उसे रोकने की बात कहने की हिम्मत हमें न थी।

इस प्रकार चलते-चलाते एक नदी के किनारे चलने लगे। मालूम हुआ कि यह आम रास्ता फतुहा जाने का है। अब हमें यकीन हुआ कि रास्ता भूले नहीं हैं। ठीक ही जा रहे हैं। कुछ दूर यों ही चलते रहे फिर वह नदी हमें छोड़ के जाने कहाँ भाग निकली। नदियों की तो चाल ही टेढ़ी-मेढ़ी होती है। फिर उनकी किससे पटे? जो वैसी ही चाल के अभ्यासी हों वही उनके साथ निभ सकते हैं। हमें तो जल्दी थी फतुहा पहुँचने की। घड़ी पास ही थी। रह-रह के वक्त देखते जाते थे। अब हमें डर हो गया कि ट्रेन पकड़ न सकेंगे। क्योंकि अंदाजा था कि फतुहा अभी दूर है। इतने में ही ट्रेन की रोशनी नजर आई। हमने देखा कि पूरब से पच्छिम धक्धक-चकमक करती रेलगाड़ी चलती जा रही है। उसे हमारी क्या परवाह थी। अगर उसके भीतर दिल नाम की कोई चीज होती और हमारा पता उसे होता तो शायद हमारे भीतर मचनेवाले महाभारत को वह महसूस कर पाती। फिर भी हमारे लिए रुकती थोड़े ही। जो लोग समय के पाबंद हैं और उसकी पुकार सुनते हैं वह किसी की परवाह न कर के आगे बढ़ चलते हैं, बढ़ते ही जाते हैं। यही खयाल उस समय हमारे माथे में घूम गया। अपनी विफलता में भी इतनी सफलता, यह शिक्षा हमें मिली। हमने इसी से संतोष किया।

हाथी चलता रहा। इतने में लाइट रेलवे की ट्रेन भी दक्षिण से आई और चली गई। हम टुक-टुक देखते ही रह गए। आखिर चलते-चलाते हम भी फतुहा के नजदीक पहुँचे। जब हम पक्की सड़क पर आए तो हमें दो साल पहले की एक घटना याद आई। हमें ऐसा लगा कि फतुहा के पास हमें बराबर दिक्कतें होती हैं, खासकर हिलसा के प्रोग्राम में। दो साल पहले भी ऐसा ही हुआ था कि हिलसा में मीटिग कर के हम लोग टमटम से ही फतुहा चले थे ट्रेन पकड़ने। ट्रेन तो हमें मिली थी। मगर पास में पहुँचने पर उसी पक्की सड़क पर मरते-मरते बचे थे। बात यों हुई कि रात हो गई थी और जिस टमटम से हम लोग आ रहे थे वह था हिलसा का ही। ज्यों ही वह उस स्थान पर पहुँचा जहाँ एक पुल है और दो सड़कें मिलती हैं त्यों ही एक बैलगाड़ी आगे मिली। टमटमवाले ने चाहा कि टमटम को बगल से निकाल दें। मगर उसके ऐसा करते ही घोड़ा पटरी के नीचे उतर गया और औंधे मुँह गिर पड़ा। असल में वहाँ सड़क के बगल में बहुत गहराई है। अगर टमटम उलटता तो हममें एक की भी जान न बच पाती। सभी खत्म हो जाते। मगर घोड़े के गिर जाने पर भी टमटम कैसे रुक गया यह अजीब बात है। हमारे साथी नीचे गिर पड़े। टमटम लटक के ही रह गया। उलटा नहीं। मगर मैं उसी पर बैठा ही रह गया। मेरे सिवाय सबों को चोट भी थोड़ी-बहुत आई। घोड़ा तो मरी जाता अगर झटपट हम लोग टमटम से अलग उसे न कर देते और उठा न देते। खैर, वह उठाया गया और जैसे-तैसे स्टेशन के नजदीक पहुँचा। उस दिन की घटना हमें कभी नहीं भूलती। ऐसी ही घटनाएँ किसान-सभा के दौरे में दो-एक बार और भी हुई हैं। मगर इस बार की थी सबसे भयानक। हम तो बाल-बाल बचे। सो भी मुझे कुछ भी न हुआ। वही घटना हमें उस दिन स्टेशन पर फिर याद आ गई कि हम उसी मनहूस स्थान पर पहुँच गए।

हाथी वहाँ से आगे बढ़ा और हम स्टेशन के दक्षिण रेलवे लाइन की गुमटी पर ही हाथी से उतर पड़े। हमें ऐसा मालूम हुआ कि किसी वीरान से आ रहे हैं जहाँ न रास्ता हो और न कोई सवारी-शिकारी। गाड़ी तो कभी की छूट चुकी थी। अब हमें उसकी फिक्र न थी। बल्कि इस बात की खुशी थी कि खैरियत से हम इस भयंकर यात्रा से लौट के स्टेशन तो पहुँचे। असल में एक चिंता के रहते ही अगर उससे भी खतरनाक बात सामने आ जाए तो चिंता खुद काफूर हो जाती है और नया खतरा आँखों के सामने नाचने लगता है। हमारी यही हालत हो गई थी। हम स्टेशन पहुँचेंगे या नहीं, पहुँचेंगे भी तो कब और किस सूरत में, हाथ-पाँव टूटे होंगे, या खैरियत से होंगे, आदि बातें हमारे दिमाग में भर रही थीं। हमें फिक्र यही थी कि किसी सूरत से स्टेशन पर सकुशल पहुँच जाएँ। यही वजह है कि पहुँच जाने पर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा।

स्टेशन पर जाने के बाद दिक्कत हुई सोने की। सोने का सामान तो पास था नहीं। वह तो ट्रेन से चला गया था। यहाँ तक कि हाथ-पाँव धोने के लिए पानी लाने का लोटा भी नहीं था। इसलिए वेटिंग रूम में चुपके से अँधेरे में ही जा पड़े। मगर थोड़ी देर बाद स्थानीय कबीर-पंथी मठ के कुछ विद्यार्थी हमें ढूँढ़ते आए । वे महंत के जुल्म से ऊबे थे और हमारी प्रतीक्षा में थे। ट्रेन के समय खोज के लौट गए थे। वे फिर आए और हमें अपनी जगह लिवा ले गए। उस समय हम उनकी कुछ खास मदद कर न सके। फिर भी रास्ता बता दिया। सुबह की ट्रेन से हम बिहटा चले गए।

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किसान-सभा की स्मृतियाँ हैं तो इतनी कि पोथे लिखे जा सकते हैं। यह भी नहीं कि केवल कहानियों जैसी हैं। हरेक स्मृति मजेदार है। घटनाओं से पता चलता है कि किन-किन संकटों को, कब-कब, कैसे पार कर के सभा की नींव मजबूत की गई थी। कई बार तीन-तीन, चार-चार मील लगातार दौड़ते रह के ही किसी प्रकार सभा-स्थान में पहुँच सका, जैसा कि एक बार पटना जिले के दांतपुर इलाके मगर पाल दियारे की रामपुरवाली सभा में हुआ था। सवारी का प्रबंध वे लोग न कर सके और जब देर से हम शेरपुर पहुँचे तो शाम हो चली थी। यदि कस के चार मील दौड़ते नहीं तो लोग निराश हो के चले जाते।

इसी प्रकार एक बार खटांगी में, गया जिले में, सभा करनी थी। गया से मोटर से चले। पानी पड़ चुका था। सड़क पर नई मिट्टी पड़ी थी─कच्ची सड़क नई-नई बनी थी। मोटर धँस जाती थी। छः मील में छः घंटे लग गए। रात हो गई। अंत में मोटर छोड़ के कई मील पैदल रात में ही अंदाज से गए। तब तक सभा से लोग चले गए थे। मगर चारों ओर पुकारते हुए लोग दौड़े और मीटिंग की तैयारी में लगे। नतीजा यह हुआ कि रास्ते से ही लोग लौट पड़े। देर से तो खटांगी से लोग चले ही थे। इसीलिए रास्ते में ही थे। सभा भी दस-ग्यारह बजे रात में जम के हुई और खूब हुई।

सबसे मजेदार बात तो मझियावाँ बकाश्त संघर्ष के वक्त हुई। मझियावाँ खटांगी से उत्तर दो-तीन मील है। दोपहर को टेकारी पहुँचे थे। वहाँ से मझियावाँ चौदह मील है। बरसात का दिन, कच्ची सड़क, सवारी आने में देर। बस, पैदल ही चल पड़े। छः-सात मील चल चुकने पर सवारी मिली। बड़ी दिक्कत से अँधेरा होते-होते मझियावाँ पहुँचे। संघर्ष चालू था। चटपट लोगों को जमा किया। मीटिंग की, और सबों को समझा के चल पड़े। आधी रात को गया में गाड़ी पकड़नी थी। अगले दिन का प्रोग्राम फेल न हो इसीलिए ऐसा करना पड़ा। सवारी उतनी जल्दी कहाँ मिलती? पैदल ही चल पड़े। वह मामूली रास्ता नहीं है। केवाल की मिट्टी थी। पानी खूब पड़ा था। रात का वक्त था। ट्रेन पकड़ने की फिक्र थी। साथ में कुछ लोग थे। यही अच्छा था। एक टट्टू भी साथ कर दिया गया। ताकि थकने पर उस पर चढ़ लूँ। मेरी तो आदत टट्टू पर चढ़ने की नहीं। जब एक बार चढ़ा तो थोड़ी देर बाद मारे तकलीफ के उतर पड़ा। एक बजे के करीब जैसे-तैसे टेकारी पहुँचा। मोटर खड़ी थी। चढ़ के मोटर दौड़ाई। ट्रेन खुलते न खुलते दो बजे के करीब गया पहुँच के गाड़ी पकड़ी और पटना आया। खुशी इस बात से हुई कि इस परेशानी ने काम किया और मझियावाँ के किसानों ने-मर्दों से ज्यादा औरतों ने-लड़ के अमावाँ राज्य को अपनी माँगें स्वीकार करने को मजबूर किया। लाखों रुपए बकाया लगान के छूट गए और सस्ते लगान पर नीलाम जमीन वापस मिली। मझियावाँ श्री यदुनंदन शर्मा की जन्मभूमि है।

लेकिन जितनी स्मृतियाँ अब तक लिपिबद्ध की जा चुकी हैं, उनसे हमारे आंदोलन की प्रगति पर काफी प्रकाश पड़ता है और जाननेवालों को मालूम हो जाता है कि यह किसान-सभा किस ढंग से बनी है। आसाम, बंगाल, पंजाब और खानदेश आदि की यात्राओं से इन्हीं बातों पर प्रकाश पड़ता है। उनका वर्णन स्थानांतर में है भी। इसीलिए यहाँ लिखना आवश्यक समझा नहीं गया है। बिना खास जरूरत के पुनरुक्ति ठीक नहीं। इसीलिए चलते-चलाते एक मजेदार और महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र कर के इसे समाप्त करना चाहता हूँ। वह घटना बहुत पुरानी नहीं है। बल्कि यूरोपीय युद्ध छिड़ जाने के बाद की है। अब तक मेरे साथ मिल के जिन लोगों ने किसान-सभा और किसान-आंदोलन के चलाने की खास तौर से बिहार में और दूसरी जगह भी जिम्मेदारी ली थी उनकी मनोवृत्ति पर इस घटना से काफी प्रकाश पड़ता है। किसान-आंदोलन को आगे ठीक रास्ते पर चलानेवालों के लिए इस बात का जान लेना निहायत ही जरूरी है। नहीं तो वे लोग धोखे में पड़ सकते हैं, गुमराह हो सकते हैं। असल में मुझे खुद इन बातों को समझने में कम से कम आधे दर्जन साल लग गए हैं तब कहीं इन्हें बखूबी समझ पाया हूँ। इसीलिए दूसरों के सामने इन्हें रख देना मुनासिब समझता हूँ। ताकि उन्हें भी आधे या एक दर्जन साल इनकी जानकारी के लिए गुजारने न पड़ें। यह पहले ही कह देना चाहता हूँ कि किसी का नाम न लूँगा। मुझे यह बात लाभकारी नहीं जँचती है।

जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने अपनी अहिंसा का जामा उतार फेंका और गाँधी जी को सलाम कर के यह फैसला सन 1940 के मध्य में कर लिया कि यदि('मेरा जीवन संघर्ष' में स्वामीजी ने जयप्रकाश नारायण का नाम लिया है─संपादक)अंग्रेजी सरकार भारत में भी राष्ट्रीय सरकार (Natioal Governmeat) बना दे और यह घोषित कर दे कि भारत को पूर्ण आजादी का हक है तो कांग्रेस इस यूरोपीय लड़ाई की सफलता के लिए मदद करेगी। गोकि प्रस्ताव के शब्द कुछ गोल-मटोल और वकालती थे। फिर भी राष्ट्रपति और दूसरे जिम्मेदार नेताओं के वक्तव्यों से उनका आशय यही निकला। ठीक उस समय जेल में हमारे साथ ही रहनेवाले कुछ सोशलिस्ट नेताओं को एक नई पार्टी बनाने की सूझी। इसके लिए उनने लंबी-चौड़ी दलीलें दीं। और उनके आधार पर एक कार्य-पद्धति भी तैयार की। उनने यह भी साफ-साफ स्वीकार किया कि अब कांग्रेस एक प्रकार से खत्म हो गई। अब वह आजादी के लिए नहीं लड़ेगी। वह हमारे काम की अब रह नहीं गई। गो सरकार ने फिलहाल वर्किंग कमेटी की माँग कबूल नहीं की जिससे वह दफना दी गई है। मगर किसी भी समय वह कब्र से खोद निकाली जाकर जिलाई जा सकती है। अब कांग्रेसी नेता अंग्रेजी साम्राज्यशाही से गँठजोड़ा कर के उसी के हथियारों से उठती हुई जनता को दबाना चाहते हैं। क्योंकि अब उन्हें इस मुल्क की आम जनता (Masses)से भय होने लगा है। इसलिए उनके साथ संयुक्त मोर्चे का सवाल अब रही नहीं गया।

ऐसी हालत में अब हमें क्या करना चाहिए, इसके बारे में उनने अपना निश्चित मत प्रकट किया कि अब हमें किसान-सभा को ही किसानों की राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित करना होगा। इसी बात पर हमें पूरा जोर देना जरूरी है। साथ ही, मजदूरों के भी संगठन पर काफी जोर देंगे और समय पा के इन दोनों संस्थाओं को एक सूत्र में बाँधेंगे। इस तरह जो एक सम्मिलित संस्था बनेगी वही भारत की पूर्ण आजादी के लिए लड़ेगी और उसे लाएगी भी। इसलिए अब हम लोगों की सारी शक्ति उसी और लगनी चाहिए। इसीलिए उनने यह भी निश्चय किया कि एकाध को छोड़ बाकी सभी वामपक्षी दलों का भी एक सम्मिलित दल बनना चाहिए। वही दल इस नए कार्यक्रम को अच्छी तरह पूरा करने में सफल होगा। सब दलों के मिल जाने से हमारी ताकत बढ़ जाएगी। उन्हें इस बात का विश्वास भी था कि एक को छोड़ सभी दल मिल जाएँगे।

उनने अपना यह मंतव्य मुझसे भी प्रकट किया। मैंने भी उस पर पूरा गौर किया। लेकिन वामपक्षी कमिटी (Left consolidation committee) के इतिहास को देखकर मुझे विश्वास न था कि सबको मिला के कोई ऐसा एक दल बन सकेगा। वामपक्ष कमिटी का जितना दर्दनाक और कटु अनुभव मुझे है उतना शायद ही किसी को होगा। मैंने उसके सिलसिले में वामपक्षियों की हरकतों से ऊब के कभी-कभी रो तक दिया था। किसी का दिल उसमें लगता न था। मालूम होता था जबर्दस्ती फँसाएगए हैं। सभी भागना चाहते थे। यदि एक दल उसमें दिलचस्पी लेता तो दूसरा और भी दूर भागता था। अजीब हालत थी। पहले तो मुझे उसमें लोगों ने फँसा दिया। मगर पीछे पार्टियों के नेता इधर-उधर करने लगे। सभी भाग निकलने का मौका देखते थे। भला फँसा के भी कोई संयुक्त दल बन सकता है?

जब मुझसे उनने राय पूछी, तो मैंने अपना पक्का खयाल कह सुनाया। मैंने कहा कि वामपक्षी दलों को एक-दूसरे पर विश्वास हई नहीं। और जब तक यह बात न हो मेल मुवाफिकत कैसी? वह तो परस्पर विश्वास के आधार पर ही बन सकती और टिक सकती है। लेफ्टकंसोलिडेशन की बात मैंने उन्हें याद दिलाई और कहा कि मेरे जानते उसके विफल होने की बात वजह यही थी उस समय एक दल उसकी जरूरत समझता था तो दूसरा नहीं। अगर दो ने जरूरत समझी तो बाकियों ने नहीं। यही हालत आज है। आज आप लोग उसकी जरूरत समझते हैं सही। मगर दूसरे नहीं समझते। और जब तक सभी दल इस बात को महसूस न करेंगे कि एक पार्टी सबकों को मिलाकर बनाए बिना गुजर नहीं, तब तक कुछ होने-जाने का नहीं। तब तक आपकी यह नई पार्टी बनी नहीं सकती। मैंने यह भी कह दिया कि मैं तो अब किसी पार्टी में शामिल हो नहीं सकता। मैंने तो यही तय कर लिया है कि किसान-सभा के अलावे और किसी पार्टी-वार्टी से नाता न रखूँगा। मैं पार्टियों की हरकतें देख के ऊब सा गया हूँ। इसलिए मैं पार्टी से अलग ही अच्छा। मिहरबानी कर के मुझे बख्श दें। इसके बाद उस समय तो मुझ पर इसके लिए जोर न दिया गया और दूसरी-दूसरी बातें होती रहीं। मगर पीछे जब तक एक बार कइयों ने मिला के फिर दबाव डालने की कोशिश की, तो मैंने धीरे से उत्तर दे दिया कि पहले और पार्टियाँ मिल लें तो देखा जाएगा। अगर मैं अभी उस नई पार्टी में शामिल हो जाऊँ तो किसान-सभा की मजबूती में बाधा होगी। क्योंकि आप लोग पार्टी की ओर से मुझ पर दबाव डालेंगे ही कि जिम्मेदार जगहों पर उसी पार्टी के आदमी किसान-सभा में रखे जाएँ, और पार्टी-मेंबर की हैसियत से मुझे यह मानना ही पड़ेगा। नतीजा यह होगा कि दूसरी पार्टियों के अच्छे से अच्छे कार्यकर्ताओं के साथ मैं न्याय न कर सकूँगा और वे ऊब के हमारी सभा से खामख्वाह हट जाएँगे। फिर सभा मजबूत हो कैसे सकेगी? इसलिए मैं इस झमेले में नहीं पड़ता।

मगर इस आखिरी बात के पहले ही कुछ और भी बातें हुईं। नई पार्टी के बारे में उनके दो महत्त्वपूर्ण निश्चय थे और वे थे भी कुछ ऐसे कि मैं घबराया। मुझे पता चला कि उनके वे दोनों ही निश्चय अटल से हैं। इसीलिए मुझे ज्यादा घबराहट हुई। फिर भी उन पर मैंने इसे प्रकट न किया। मैं भी चाहता था कि जरा उनके हृदय को टटोल देखूँ। उन दोनों में एक बात यह थी कि बहुत ही विश्वासपूर्वक तीन ही महीने के भीतर वे कम से कम पच्चीस हजार पक्के क्रांतिकारियों का सुसंगठित दल तैयार करने का मंसूबा बाँध चुके थे। उनकी बातों से साफ झलकता था कि यह कोई बड़ी बात न थी। इस बारे में उनने औरों को कितनी ही दलीलें दी थीं। वह इस मामले में इतने विश्वस्त और निश्चिंत मालूम पड़ते थे कि मुझे आश्चर्य होता था।

इसीलिए मैंने उससे दलीलें शुरू कीं। कहा कि मैं तो जिंदगी में अभी पहली ही बार सुनता हूँ कि तीन ही महीने में अव्वल दर्जे के क्रांतिकारियों की पचीस हजार की संख्या में तैयारी आसानी से की जा सकती है? क्या आप इतिहास में ऐसी एक भी मिसाल पेश कर सकते हैं? कांग्रेस के चवन्नियाँ मेंबर भी अगर हम किसानों और मजदूरों के भीतर बनाने लगें तो तीन महीने में पचीस हजार सदस्य बनाना आसान न होगा। मगर उसी मुद्दत में उन्हें संगठित भी कर देना जिससे जवाबदेही का कोई काम कर सकें, यह असंभव सी बात है। क्रांतिकारियों का संगठन और भेड़-बकरियों का जमावड़ा क्या दोनों एक ही बातें हैं। मुझे तो हैरत मालूम पड़ती है। किसी भी क्रांतिकारी पार्टी में आने के लिए बरसों परीक्षा करना ही चाहिए। तभी हम मेंबरों की असलियत और उनकी कमजोरियाँ समझ सकते हैं, उन्हें हमें बरसों सख्ती से जाँचना होगा। तब कहीं कुछी लोग खरे उतर सकते हैं। यह कोई खोगीर की भर्ती तो है नहीं कि जिसे ही पाया भर्ती कर लिया।

उनसे दलीलें करने के साथ ही मेरे दिल में यह खौफ पैदा हो गया कि क्रांति और रेवोल्यूशन के नाम पर यह एक निहायत ही खतरनाक पार्टी बनेगी अगर उसके मेंबर इसी ढंग से बनाएगए। मध्यम वर्ग और काम-धाम से खाली लोगों में जोई बहुत ऊँचे मनोरथ रखता होगा, जिसे ही लीडरी का नशा होगा, जोई देश-सेवा और क्रांति के नाम पर न सिर्फ अपनी पूजा करवाना चाहेगा, बल्कि मौज उड़ाने की फिक्र रखेगा, जोई लंबी-लंबी बातें हाँक के लोगों को धोखा देना चाहेगा, जिसी के भीतर कोई मजबूती न होगी, किंतु सिर्फ देखावटी और बाहरी वेश-भूषा ही जिसकी सारी संपत्ति होगी ऐसे ही भयंकर और खतरनाक लोग इसमें आसानी से आ धमकेंगे, यदि उनके आराम का सामान मुहैया हो जाए। मैंने सोचा कि किसानों और मजदूरों की सेवा के नाम पर ये लोग उनके लिए प्लेग बन जाएँगे। जो लोग कहीं चोरी-डकैती वगैरह की शरण लेते उनके लिए यह बहुत ही सुंदर पेशा हो जाएगा। हाँ, पैसे की आसानी होना जरूरी है।

मेरी दलीलों का उन पर कुछ ज्यादा असर होता न दिखा। ऊपर से उनने सर हिलाया जरूर और कबूल किया कि यह दिक्कतें तो हैं। फिर बोले कि अच्छा देखा जाएगा। उतने नहीं तो कम लोग ही मेंबर होंगे। यह कोई जरूरी नहीं कि पचीस ही हजार खामख्वाह बनें। मैंने देखा कि मेरे विचारों का उन पर कोई असर न पड़ा। उनने केवल संख्या को ही पकड़ा है। मैं इस प्रकार की मेंबरी की बुनियाद को ही बुरा और खतरनाक मान कर उनसे बातें करता था। मगर उनने इतना ही माना कि इतनी बड़ी तादाद शायद आसानी से मिल न सके। उनने यह गलती महसूस ही न की कि मेंबरीवाला उनका सारा खयाल और रास्ता ही गलत है, धोखे का है। हम दोनों इस मामले में, उतनी बातचीत के बाद भी दोनों ध्रुवों पर रहे। हम दोनों की नजरें एक-दूसरे के खिलाफ थीं। उनका मेल न था। फिर भी मैंने उन्हें याद दिलाया कि ऐसे ही कच्चे मेंबरों को लेके तो आप ही लोग अब तक झगड़ते रहे हैं। ऐसे लोग तो बराबर बेपेंदी के लोटे की तरह कभी इधर कभी उधर लुढ़कते ही रहते हैं। कभी इस पार्टी में तो कभी उसमें जाते रहते हैं। इसी से झगड़े होते हैं कि दूसरे दल आपके मेंबरों को फोड़ते हैं। हालाँकि इसमें भूल आप ही की है कि कच्चे लोगों को सदस्य बनाते हैं। आप खुद 'रहे बाँस न बाजे बाँसरी' क्यों नहीं करते? उनने कहा कि “हाँ, यह तो ठीक है।”

फिर उनके एक दूसरे खयाल पर भी मैंने उज्र किया। नयी पार्टी के लिए पैसे का प्रश्न था। बिना आर्थिक संकट पार किए कोई भी पार्टी चल नहीं सकती। इसीलिए उनने इस मसले का भी हल सुझाया था। मगर मैं उससे और भी चौंका। मुझे साफ मालूम हो गया कि ऐसा होने पर ऐरे-गैरे मनचले लोगों की भर्ती आसानी से हो सकेगी। आर्थिक झमेले हल हुए और पैसे की दिक्कत नहीं कि मेंबर बननेवालों का ताँता बँधेगा। वह तो यही मजा चाहेंगे-”जो रोगी को भाए सोई वैद्य बताए” वाली बात यहाँ सोलहों आने ठीक उतरेगी।

असल में पैसा जमा करने का जो उपाय उनने सुझाया वह यह न था कि हम किसान-मजदूर जनता से थोड़ा-थोड़ा कर के जमा करेंगे। इस बात का तो उनने नाम ही न लिया। बूँद-बूँद कर के तालाब भरने का खयाल उन्हें रहा ही नहीं। उनके सामने लंबे-लंबे प्रोग्राम और खर्च के मद थे। पार्टी का प्रेस, अखबार, ऑफिस, साहित्य, दौरा वगैरह ऐसी बातें थीं जो उनके दिमाग में चक्कर काट रही थीं। और इनके लिए तो काफी पैसा चाहिए ही। मेंबरों को भी तो आराम से रखना ही होगा। नहीं तो उनके डटने में दिक्कत का खयाल था। और पचीस हजार की तादाद भी काफी बड़ी होती। वर्तमान समय के मुताबिक उनका खर्च-वर्च भी कम नहीं ही चाहिए। चबेनी और सत्तू या सूखी रोटी खा के तो क्रांति हो नहीं सकती। इस प्रकार तो क्रांतिकारी लोग गुजर कर सकते नहीं। इसलिए महीने में कई लाख रुपए उनके खर्च के ही लिए चाहिए।

यह साफ ही है कि इतना रुपया गरीब लोग दे सकते नहीं। पैसे-पैसे कर के उनसे इतनी लंबी रकम वसूल करना गैर-मुमकिन ही है। क्रांतिकारी लोग ऐसा मामूली काम करने के लिए होते भी नहीं। उनका काम बहुत बड़ा होता है। यह तो छोटे लोगों का-मामूली वर्करों का काम होता है। इसलिए पैसा जमा करने का कोई दूसरा ही रास्ता होना चाहिए, उनने यही सोचा। बताया भी ऐसा ही। खासी रकम हाथ लगने का रास्ता ही उनने ढूँढ़ निकाला था और उसी का जिक्र मुझसे भी किया था। मैं सुनता था। साथ ही हँसता भी और घबराता भी। उनके लिए वह क्रांति का चाहे सुगम से भी सुगम मार्ग क्यों न हो, मगर मेरे लिए तो वह बहुत ही खतरनाक दीखा। वैसे पैसे से उनकी नई पार्टी मठ भले ही बन जाए जहाँ मौज उड़ानेवाले ही रहते हैं। मगर मेरे जानते वह किसानों और मजदूरों की पार्टी हर्गिज नहीं बन सकती थी।

मैंने उनसे बातें शुरू कीं। मैंने कहा कि यह भी कि निराली सी बात है कि आपकी पार्टी के लिए पैसे का मुख्य जरिया किसान-मजदूर या शोषित जनता हो नहीं, किंतु कुछ दूसरा ही हो। आपने मेंबरों की भर्त्ती ही जो बात बताई है उससे तो स्पष्ट ही है कि केवल मध्यमवर्गीय लोग ही उसमें आएँगे। किसान-मजदूर तो आएँगे नहीं, शायद ही एकाध आएँ तो आएँ। इस प्रकार जितने नेता होंगे वह तो उनमें से आएँगे नहीं। वह तो बाहरी ही होंगे। और पैसे की दिक्कत जब पूरी हो जाती है तब तो खामख्वाह बाहरी ही लोग रहेंगे ही। इसे कोई रोक नहीं सकता।

अब रही पैसे की बात। सो भी उस दुखिया जनता से आनेवाला है नहीं जैसा कि आप ही बताते हैं। वह भी तो बाहर से ही आएगा-बाहरी ही होगा। उसी पैसे से काम का सारा सामान मुहैया किया जाएगा-पेपर, लिटरेचर, ऑफिस वगैरह। इस प्रकार आदमी, पैसा और सामान ये तीनों चीजें बाहर की ही होंगी। किसानों और मजदूरों के भीतर से तीन में एक भी चीज न होगी। हरेक लड़ाई के लिए जरूरी भी यही तीन हैं─आदमी, पैसा और सामान। और ये तीनों ही बाहर से ही मिल गए। इन्हीं से क्रांतिकारी लड़ाई चलाई जाएगी ऐसा आप कहते हैं चलाई जा सकती है और संभव है उसे सफलता भी मिले और क्रांति भी आ जाए। मगर वह क्रांति किसानों और मजदूरों की होगी यह समझना मेरे लिए गैर-मुमकिन है। वह तो उसी की होगी जिसके आदमी, पैसे और सामान से वह आएगी। दूसरे के सामान से दूसरे के लिए कोई भी चीज आए यह देखा नहीं गया। फिर क्रांति जैसी चीज के बारे में ऐसा सोचना निरी नादानी होगी।

मैं तो यही जानता हूँ और पढ़ा भी ऐसा ही है कि अगर किसानों और मजदूरों के हाथ में हुकूमत की बागडोर लानी है जिसे क्रांति कहिए या कुछ और ही कहिए, तो उन्हीं को इससे लड़ना और कट मरना होगा। जब तक उन्हीं के बीच से नेता और योद्धा पैदा न होंगे, पैदा न किए जाएँगे तब तक उनका निस्तार नहीं। लड़ते तो वे हईं। जेल जाते हैं, लाठी खाते हैं, गोलियों के शिकार होते हैं मगर उनके नेता बाहरी होते हैं। उनके बीच से नहीं आते। अब तक एकाध जगह को छोड़ सर्वत्र ऐसा ही होता रहा है। नतीजा यह हुआ है कि क्रांति होने पर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है। उनकी गरीबी, लूट, परेशानी, भूख, बीमारी, निरक्षरता ज्यों की त्यों बनी रह गई हैं। दुनियाँ की क्रांतियाँ इस बात का सबूत हैं। फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी, अमेरिका, इटली वगैरह देशों में क्रांतियाँ तो हुईं। मगर कमानेवाले सुखी होने के बजाय और भी तकलीफ में पड़ गए। गोकि लड़ने और मरने में वही आगे थे। यह क्यों हुआ। इसीलिए न, कि उन लड़ाइयों और क्रांतियों का नेतृत्व, उसकी बागडोर दूसरे के हाथ में थी? इसलिए मैं यही मानता हूँ कि जो बाहरी नेता हैं उनका काम यही होना चाहिए कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर दें। उसके बाद क्रांति वही खुद लाएँगे। हमारा प्रधान काम क्रांति लाना न होकर उसके लिए किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर देना मात्र है। इतना कर देने के बाद उन्हीं के नेतृत्व में जो क्रांति होगी उसमें हम जो भी सहायता कर सकेंगे वह उचित ही होगी। मगर अपने ही नेतृत्व में क्रांति लाने के मर्ज से हमें सबसे पहले बरी होना होगा। यह दूसरी बात है कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही पैदा होनेवाले नेताओं के नेतृत्व और हमारे नेतृत्व में कोई अंतर हो-दोनों एक ही हो। यह खुशी की बात होगी। मगर नेतृत्व की जाँच की कसौटी हमारा नेतृत्व न हो कर उन्हीं वाला होगा यह याद रहे। हमारे नेतृत्व से उनका नेतृत्व मिलने के बजाय उनके ही नेतृत्व से हमारा नेतृत्व मिलना चाहिए।

यही बात पैसे-रुपए की भी है। जिसे विजयी होना है उसको अपने ही पैसे रुपए से-उसी के बल पर-लड़ना होगा। तभी सफलता मिल सकती है। उधार या मँगनी की रकम से लड़ने में धोखा होगा-अगर बीच में नहीं तो जीत के बाद तो जरूर ही होगा। कहने के लिए वह जीत किसान-मजदूरों की होगी। मगर होगी वह दरअसल उन्हीं की जिनके पैसे लड़ाई में खर्च हुए हैं। पैसेवाले आदमियों को, उनके ईमान को, उनकी आत्मा को ही खरीदने की कोशिश करते हैं और आमतौर से खरीद भी लेते हैं। ऊपर से चाहे यह भले ही न मालूम हो। मगर भीतर से तो हमारी आत्मा बिक जाती ही है अगर हम दूसरों के पैसों का भरोसा करें। जबान से हम हजार इन्किलाब और किसान-मजदूर राज्य की बातें बोलें। मगर इनमें जान नहीं होती। ये बातें कुछ कर नहीं सकतीं। दिल से हम पैसे वालों की ही जय बोलते हैं, उन्हीं की राय से, उन्हीं के इशारे पर चलते हैं जैसे मोटर का हाँकनेवाला उसे अपने कब्जे में रखता है, नहीं तो वह कहीं की कहीं जा गिरेगी, किसी से लड़ जाएगी। ठीक वैसे ही पैसेवाला हमें और हमारी लड़ाई को अपने काबू में ही सोलहों आने रखता है। यही वजह है कि हमारी राय में किसानों और मजदूरों की लड़ाई उन्हीं के पैसे से चलाई जानी चाहिए। उस लड़ाई के लिए असली और खासा भरोसा किसान मजदूरों के ही पैसे पर होना चाहिए। दूसरों की परवाह हर्गिज नहीं चाहिए। इतने पर भी अगर कहीं से कुछ आ जाए तो उसे खामख्वाह फेंक देने से हमारा मतलब नहीं है। मगर उस पर दारमदार होने में ही खतरा है। उधर से लापरवाही चाहिए।

सामान की भी यही बात है। खाना, कपड़ा, अखबार, साहित्य, ऑफिस वगैरह सभी चीजें जिसके हाथ में रहेंगी वही लड़ाई को चाहे जैसे चलाएगा। ये सामान लड़ाई के मूलाधार हैं, बुनियाद हैं, प्राण हैं। इसीलिए हम इनके लिए गैरों पर निर्भर कर नहीं सकते। नहीं तो ऐन मौके पर खतरा होगा, रह-रह के खतरे खड़े होते रहेंगे। जब न तब इन सामानों के जुटानेवाले नाक-भौं सिकोड़ते रहेंगे और हमसे मनमानी शर्तें करवाना खामख्वाह चाहेंगे। यही दुनियाँ का कायदा है─यही मानव-स्वभाव है। आखिर कोई दूसरा आपको पैसा क्यों देगा? या कहीं और जगह से पैसा लाने में हजार खतरे का सामना करने के बाद पैसा मिलने पर उसे हमें क्यों देगा? अपने लिए, अपने बाल-बच्चों के लिए उसी पैसे से जमीन-जायदाद क्यों न खरीद लेगा? कोई रोजगार, व्यापार क्यों न चलाएगा? धर्म और परोपकार का नाम इस संबंध में, इस स्वार्थी और व्यवहारतः जड़वादी (materialist in practice)संसार में, लेना अपने आपको धोखा देना है, व्यावहारिकता से आँख मोड़ लेना है। झूठी कसमें खाई जाती हैं और कचहरियों में गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान तक की शपथें जो आए दिन ली जाती हैं वह क्या धर्म और परोपकार के ही लिए?वह काम दुनियावी फायदे और जमीन-जायदाद के ही लिए किया जाता है यह कौन नहीं जानता? इसी प्रकार धर्म और परोपकार के नाम पर देनेवाले धनी और चतुर आमतौर से हजार गुना फायदे को सोचकर ही देते हैं चाहे कहीं चुनाव में वोट मिलने में आसानी हो, कारबार में आसानी हो या मौके पर बड़ी जमा और बड़ा अधिकार मिल जाने में ही उससे मदद मिले। मगर यही बात होती है जरूर। वे लोग पहले से ही हिसाब-किताब लगा के और दूर तक सोच के ही इस धर्म और उपकार के काम में पड़ते हैं, यह हमें हर्गिज भूलना न चाहिए।

इसीलिए हमारा तो पक्का मन्त्रा होना चाहिए कि अपने हकों के हासिल करने के लिए जो लड़ाई किसान-मजदूर लड़ना चाहते हैं उसके लिए आदमी, रुपया और सामान (Men, Money and Material) खुद जुटाएँ, अपने पास से ही मुहय्या करें। खुद भूखे नंगे रहके यह काम उन्हें करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। हमें उनसे दो टूक कह देना चाहिए कि अगर वे ऐसा नहीं करते, इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हम उनकी लड़ाई से बाजी दावा देते हैं─हम उसमें हर्गिज न पड़ेंगे। हम उनसे साफ-साफ कह दें कि इस तरह उसमें पड़ने पर तो हम उन्हें खामख्वाह धोखा देंगे, गो हमें सस्ती लीडरी जरूर ही मिल जाएगी। इतना ही नहीं, बिना किसानों के धन, जन के गैरों की आशा पर उनकी लड़ाई छेड़ने में हमें जमींदार मालदारों से सौदा करने में भी आसानी हो जाएगी और हमारा अपना काम बन जाएगा। मगर ऐसा घोर पाप और धोखेबाजी करने को हम तैयार नहीं।

मगर मेरी इतनी लंबी-चौड़ी दलील और बातचीत का असर उन पर कहाँ तक पड़ा यह कहना आसान नहीं है। मुझे तो कुछ ऐसा मालूम पड़ा, लक्षण कुछ ऐसे ही दिखे कि मेरी बातों को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। मुझे खुश करने के लिए कुछ मीठी बातें जरूर कह दी गईं। मगर उनके दिले में मेरी बात घुस न सकी ऐसी मेरी पक्की धारणा है। ऐसी बात मानने और कहने के लिए मेरे पास सबूत भी है। उनने जो कुछ निश्चय किया था वह न तो किसी के दबाव से और न झोंक में आ के। वह तो वर्षों ठंडे दिल से सोचने-विचारने और महीनों बार-बार अपने दिल-दिमाग के मथने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे। यह कोई नई बात भी नहीं थी। पढ़े-लिखे भी वह काफी हैं। इसीलिए इन बातों की पूरी जानकारी रखते हैं। ऐसी हालत में यह तो उनके दिल की आवाज थी, दिल का प्रवाह था जो इस रूप में प्रकट हुआ था। उनके विचार की जो सरसवाही धारा थी, खयाल का जो कुदरती बहाव था वही इस तरह जाहिर हुआ था, उसी की यह शक्ल बाहर आई थी। इन्सान के दिल-दिमाग की जैसी बनावट और तैयारी होती है वह ठीक वैसा ही सोचता है। लोगों के जो विचार और खयाल बनते-बनते पक्के होते और बाहर आते हैं वह आसानी से बदले जा नहीं सकते। फिर मेरी बातों का असर क्यों होने लगा?इतना ही नहीं। उसके बाद जो बातें उनने इधर-उधर कीं उसमें यहाँ तक कह डाला कि स्वामी जी भी हमारे साथ हैं। इस पर मैंने उलाहना भी दिया। मगर चुप्प! इतना ही नहीं। एक बार उसके बाद भी फिर ऐसा ही कह डाला।

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अंत में इन संस्मरणों के संबंध में दो एक बातें कह के इस लंबी गाथा को, जिसका खात्मा होना आसान नहीं, खत्म कर देना चाहता हूँ। हो सकता है कि कभी मौका आने पर बची बचाई हजारों घटनाओं को लिपिबद्ध किया जा सके। क्योंकि वे बहुत कुछ महत्त्व रखती हैं। सबों में कुछ न कुछ खूबी है। सबकी सब किसान-आंदोलन के किसी न किसी पहलू पर प्रकाश डालती हैं। यों तो जाने कितनी हजार मीटिंगें हो गई हैं जो कोई खास महत्त्व नहीं रखती हैं। असल में हमारे मुल्क में यह किसानों का संगठित आंदोलन-किसान-सभा का आंदोलन-बिलकुल ही नया है। इसीलिए इसमें हजारों दिक्कतें आती गई हैं। हम सभी इस मामले में एकदम नए रहे हैं─हमें इसकी कुछ भी जानकारी नहीं रही है। अनुभव के बल पर ही आगे बढ़े हैं इसीलिए मुसीबतों का सामना होना जरूरी था। दूसरे देशों के आंदोलनों की भी हमें जानकारी विशेषरूप से थी नहीं। मोटी-मोटी बातें जहाँ-तहाँ लिखी मिलती थीं। वह भी अधूरी ही थी। आंदोलन की प्रगति कैसे हुई, इसका पता कतई न था। कब, किन दिक्कतों का मुकाबला, किस परिस्थिति में वहाँवालों ने कैसे किया, इसे हममें से कौन जानता था? मैंने हजार कोशिशें कीं, एतत्संबंधी साहित्य ढूँढ़ने में सर मारता रहा। जाने कितने ही क्रांतिकारी कहे जानेवालों से ऐसी किताबें बताने या देने को कहा। मगर कौन सुनता था? असल में पता भी किसे था कि वहाँ कब, क्या हुआ। इसीलिए सभी मजबूर थे। इसीलिए फूँक-फूँक के हम आगे बढ़े।

जब आज चौदह साल के बाद पीछे नजर घुमाते हैं तो हमें पता लगता है कि हम कहाँ से कहाँ चले गए। हमें यह भी आश्चर्य होता है कि हमें क्यों इतनी कम दिक्कतों और मुसीबतों से जूझना पड़ा। अनजान आदमी के रास्ते में तो पग-पग पर रोड़े अटकते हैं। सो भी किसान-आंदोलन जैसी विकट चीज की कोशिश में। हमारे चारों ओर विरोधियों का गुट था। सभी कमरबंद खड़े थे कि कब मौका पाएँ और सारी चीज खत्म कर दें। हम तो पहले-पहल सन 1920 ई. में कांग्रेसी राजनीति में ही आए थे। वहीं से सन 1927 ई. में किसान-सभा बनाने की ओर झुके। मगर हमारे इस काम में कांग्रेसी साथियों ने और नेताओं ने भी, पहले तो कम पीछे ज्यादा, विरोध किया। पहले वे लोग समझी न सके कि क्या हो रहा है। इसलिए यदि किसी का विरोध भी था तो वह दबा था। पीछे तो जैसे-जैसे किसान-सभा मजबूत होती गई वैसे-वैसे विरोध भी प्रबल होता गया। यहाँ तक कि इधर कुछ दिनों से कांग्रेस की सारी ताकत सभा के खिलाफ हो गई। हमारे पुराने साथियों में भी बहुतेरे डूब के पानी पीने लगे। वे भी इस आंदोलन से भयभीत हो गए। मगर हम बढ़ते ही रहे हैं और बढ़ते ही जाएँगे यही विश्वास है।

अब तक जो कुछ संस्मरण लिखे गएहैं वे मधुर तो हईं। साथ ही पढ़नेवालों के लिए आंदोलन के भीतर झाँकी का काम देते हैं। जिन्हें कुछ भी किसान-सभा में चसका है उन्हें इनसे काफी हिम्मत और सहायता मिलेगी जिससे काम बढ़ा सकें। वे देखेंगे कि किसान-आंदोलन कोई फूलों का ताज नहीं है। इसीलिए कमजोर लोग शुरू में ही हिचक जाएँगे। यह ठीक ही है। इसमें कितना धोखा है इसकी भी जानकारी पढ़नेवालों को हुए बिना न रहेगी। इससे सच्चे और ईमानदार किसान-सेवकों को खुशी होगी और खतरे की जानकारी भी। तभी तो उससे मौके पर बच सकेंगे। अब तक तो सभा की जड़ कायम करनी थी। मगर अब उसे आगे बढ़ के असली काम करना है। इसलिए बहुत ढंग के खतरों से खामख्वाह बचना होगा। इस बात में संस्मरणों से मदद मिलेगी। गरम बातें और नरम काम का खतरा हमें अब ज्यादा है। इसलिए अभी से सजग हो जाना होगा। हमें मन भर बातें नहीं चाहिए। बल्कि बिना उन बातों के यदि केवल काम ही हो और रत्ती भर भी हो तो कोई हर्ज नहीं। उसमें धोखा नहीं होगा। बातें तो धोखा देती हैं। किसान-सभा का पूरा इतिहास और उस सिलसिले की सारी मुसीबतें मैंने अपनी जीवनी में लिखी हैं।

अंत में एक बात कह देनी है। हमारी आदत है तारीखें भूल जाने की। ठीक साल और तारीख याद रखी नहीं सकते। इसी तरह स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। ये संस्मरण इस भूल से मुक्त नहीं हो सकते। इसीलिए क्षमा चाहते हैं। हमें इस बात से थोड़ा ढाँढ़स मिला जब हमने चीन के महान कम्युनिस्ट नेता के बारे में पढ़ा कि वे तारीखें याद रख नहीं सकते हैं। मगर क्षमा तो फिर भी हम चाहते ही हैं।