अवाम के जख्मों पर गीतों का मलहम / जयप्रकाश चौकसे

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अवाम के जख्मों पर गीतों का मलहम
प्रकाशन तिथि :12 अप्रैल 2018


फिल्मकार सुभाष घई अपने स्थायी गीतकार आनंद बक्षी की मृत्यु के बाद कोई सफल फिल्म नहीं बना पाए। वे उस गेंदबाज की तरह हो गए, जिसकी गेेंदों पर रन तो नहीं बन रहे हों परंतु वह विकेट नहीं ले पा रहा है। गुजरे जमाने में बापू नाडकर्णी साठ ओवर में बमुश्किल बीस रन देते थे परंतु उन्हें विकेट नहीं मिलता था। संभवत: विश्व क्रिकेट में उन्होंने सबसे अधिक मेडन ओवर किए हैं। अब सुभाष घई राजशेखर से चर्चा कर रहे हैं। उन्हें निर्णय पर पहुंचने में समय लग सकता है। ज्ञातव्य है कि राजशेखर 'तनु वेड्स मनु' के गीतकार रहे हैं। इस फिल्म के गीतों में मध्यम वर्ग परिवार के चौके में छौंक लगाने की गंध-सी महसूस होती थी। कभी लगता था हींग का तड़का लगाया गया है। पूरा परिवार तनु की शादी के लिए रेलगाड़ी से दिल्ली जा रहा है। दूल्हा दिल्ली रहता है। रेल के डिब्बे में गीत गाया जा रहा है 'अम्बिया इलाइची दाल चीनी और केसर सुखाएगी तनु करोल भाग की छत पर, छत पर फिर पुस्तक से ना कलौंजी कट्‌टेगी पुस्तक से ना कलौंजी कट्‌टेगी मर्तबान से अफवाह उठेगी… क्या करेंगे मन्नू भाई क्या करेंगे…' इस गीत में प्रयुक्त एक भी शब्द का इस्तेमाल किसी गीतकार ने पहले कभी नहीं किया। बहार, प्यार, खुमार या बहुत हुआ तो हरे-हरे कांच की चूंडि़यां, मेहंदी और महावर का जिक्र होता रहा है। कभी-कभी वाद-विवादनुमा गीत भी बनाए गए हैं जैसे 'एक सवाल मैं करूं एक सवाल तुम करो/हर सवाल का सवाल ही जवाब हो/एक सवाल मैं करूं..। यहां यह कहने की चेष्टा नहीं है कि राजशेकर सर्वश्रेष्ठ गीतकार हैं। सच तो यह है कि हमारे फिल्मों में गीतकारों की परम्परा रही है- कवि प्रदीप, भरत व्यास, मजरूह सुलतानपुरी, साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, हसरत, गुलशन बावरा, आनंद बक्षी, गुलजार, जावेद अख्तर, निदा फाज़ली। इसके साथ ही कभी-कभी पाकिस्तान से आए शायरों ने भी हमारी फिल्मों को सार्थकता प्रदान की है।

गुरुदत्त की 'प्यासा' की केंद्रीय ऊर्जा तो साहिर लुधियानवी के गीत हैं। राज कपूर की फिल्मों में शैलेन्द्र ने सरल शब्दों में उनकी फिल्मों की आत्मा को प्रस्तुत किया है। भारतीय संस्कार गीतों में ध्वनित हुए हैं। 'संगम' के एक गीत में नायिका पंक्ति गाती है, 'करते-करते जाने सावन बीते/ जाने कब आंखों का शरमाना जाएगा/ दीवाना सैकड़ों में पहचाना जाएगा।' स्मरण रहे कि कुंवारी कन्याएं संस्कारवान पति के लिए सावन में उपवास करती हैं। शैलेन्द्र ने बिमल राय की 'मधुमति' में सभी प्रकार के गीत लिखे हैं- लोकगीत, प्रेम गीत, मुजरा इत्यादि एक गीत में कबीर यूं ध्वनित होते हैं, 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/ भेद यह गहरा बात जरा सी/…आ जा रे मैं तो कब से खड़ी इस पार' गोयाकि जन्म-जन्मांतर की इस प्रेम कथा में समय की नदी के दूसरे किनारे पर खड़ी है अनंत प्रेयसी।

इसी तरह जन्म-जन्मांतर की प्रेम-कथा चेतन आनंद की फिल्म 'कुदरत' के लिए पाकिस्तान के शायर लिखते हैं, 'खुद को छुपाने वालों का, पल पल पिछा ये करे/ जहां भी हो मिटे निशा, वही जाके पांव ये धरे/फिर दिल का हरेक घाव, अश्क़ों से ये धोती है/ दुख सुख की हर एक माला, कुदरत ही पिरोती है/ हाथों की लकीरों में, ये जागती सोती है।' शैलेन्द्र विजय आनंद की फिल्म 'काला बाजार' के लिए आत्मा का ताप मिटाने वाला भजन लिखते हैं- 'मोह मन मोहे, लोभ ललचाए/ कैसे कैसे ये नाग लहराए/ इससे पहले कि मन उधर जाए/ मैं तो मर जाऊं, हां मैं मर जाऊं/ हे राम मर जाऊं..।' राज खोसला निर्देशित 'बम्बई का बाबू' में बेटा बनकर आया नायक घर के गहने चुराने आया है परंतु उसका हृदय परिवर्तन होता है। घर की बेटी दुल्हन बनकर बिदा हो रही है। गीत है 'चल री सजनी अब क्या सोचे/ कजरा न बह जाए रोते-रोते/ बाबूल पछताए/ काहे दिया परेदस दिल के टुकड़े को/ ममता का आंचल, गुड़ियों का कंगना, छोटी बड़ी सखियां घर आंगन कंगना/ दुल्हन बनकर गोरी खड़ी, कोई नहीं अपना कैसी घड़ी है,कोई यहां, कोई वहां…।

ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुराधा' का संगीत पंडित रविशंकर ने दिया था और शैलेन्द्र के गीत की पंक्तियां देखिए- 'हाय रे वो दिन क्यों न आए/जा जा के ऋतु/जा जा के ऋतु लौट आए/ हाय रे वो दिन क्यों न आए' और 'जाने कैसे सपनों में खो गई अंखियां मैं तो हूूं जागी मोरी सो गई अंखियां।' फिल्म गीतों के खजाने आम आदमियों में से आए शायरों और कवियों ने ही नहीं भरे हैं। औरंगजेब के सुपुत्र मुअज्जम शाह आलम ने अपना नाम बदलकर बहादुर शाह जफर किया और उनकी शायरी का भी फिल्म में इस्तेमाल हुआ है जैसे, 'दो गज जमीं न मिली कू-ए-यार में..।'

बहरहाल, राजशेखर गैर-फिल्मी रचनाएं भी करते हैं। उनकी एक आह इस तरह भी बयां हुई है, 'पता है मुझे कविता से,कम से कम मेरी कविता से, ना निज़ाम बदलता है और न ही प्रेमिका मानती है और न ही बादल आते हैं, बहेलिया नहीं बदलता अपना मन, कुल्हाड़ी लिए हाथ नहीं रुकते कोई, इन्कलाब कहां आ पाता है कविता से फिर भी खुद को ज़िंदा दिखने के लिए लिखता हूं कुछ, क्या पता अगर ज़िंदा रह गया तो प्रेम, बारिश और इन्कलाब सभी आ जाएं एक दिन।'

फिल्मी गीतों ने आम आदमी के दुखों को कम करने का प्रयास किया है। शादी, ब्याह, मृत्यु इत्यादि सभी अवसरों के लए फिल्म गीत लिखे गए हैं। कुछ गीतों में शासकों पर भी तंज किया गया है। मसलन राजशेखर का ही गीत है, 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है।'