अविज्ञापित / रमेश उपाध्याय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'अलका एडवर्टाइजर्स' की मालकिन अलका अग्निहोत्री की कहानी बड़ी अजीब है...

वह दिल्ली के एक संपन्न, शिक्षित और प्रगतिशील विचारों वाले पंजाबी परिवार की लड़की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में बी.ए. तक पढ़ने के बाद चित्रकला में रुचि उत्पन्न हुई, तो कॉलेज ऑफ आर्ट में चली गई। वहाँ से फाइन आर्ट्स में एम.ए. किया। चित्रकार बनना चाहती थी और इसके लिए घर-गृहस्थी के झंझटों से मुक्त रहना चाहती थी। माता-पिता चाहते थे कि वह विवाह कर ले। उनकी पसंद से नहीं, तो अपनी पसंद से ही कर ले, पर कर ले और सामान्य जीवन जिए। लेकिन अलका का कहना था कि “सामान्य जीवन एक जेल है। स्त्री विवाह नामक अपराध करके उस जेल में जा पहुँचती है और फिर कभी बाहर नहीं आ पाती। जो स्त्रियाँ यह न जानती हों, या जानते हुए भी उम्र-कैद को आजादी से बेहतर मानती हों, या परतंत्रता में ही स्वयं को सुरक्षित समझती हों, वे करें शादी और जिएँ सामान्य जीवन! मगर जो जानती हैं और स्वयं को स्वतंत्र मानती हैं, वे जान-बूझकर उस जेल में क्यों जाएँ?”

अतः उसने अपने माता-पिता से कह दिया, “शादी नहीं करनी, नहीं करनी, नहीं करनी!”

“तू आखिर चाहती क्या है?” माता-पिता ने उसकी जिद के आगे परास्त होकर पूछा।

“मैं स्वतंत्र रहना चाहती हूँ। आप लोगों से भी अलग। अकेली।”

“रह लेगी?”

“कलाकार हूँ। नौकरी किए बिना भी आराम से इतना कमा सकती हूँ कि ठाठ से रह सकूँ। अभी एक फ्लैट किराए पर लूँगी, पर जल्दी ही आप लोग देखेंगे कि मेरे पास अपनी कोठी है, अपनी गाड़ी है और अपनी आजादी है।”

और तीन साल में ही अपनी धुन की पक्की उस लड़की ने यह कर दिखाया। कलाकार के रूप में अभी वह प्रतिष्ठित नहीं हुई थी, इसलिए उसकी पेंटिंग्स तो नहीं बिक पाती थीं, लेकिन कमर्शियल काम करके अच्छा कमा लेती थी। उसी के सिलसिले में एक विज्ञापन एजेंसी में जा पहुँची। वहाँ के मालिक और मैनेजर पवन बत्रा से उसका कोई परिचय नहीं था, लेकिन वह किसी से पूछेताछे बिना सीधे उसके केबिन में घुस गई। पोर्टफोलियो से निकालकर अपनी कला के कुछ नमूने दिखाए और सीधे ही पूछ लिया, “फ्रीलांसर हूँ, कुछ आर्ट वर्क मिलेगा?”

“हाँ, पर फ्रीलांसर क्यों?” पवन बत्रा ने उसमें रुचि लेते हुए पूछा, “नौकरी क्यों नहीं कर लेतीं?”

“आजाद रहना चाहती हूँ।” अलका अग्निहोत्री ने अपनी नफीस अंग्रेजी में उत्तर दिया, “दरअसल मैं एक कलाकार हूँ, लेकिन कलाकार जब तक प्रसिद्ध न हो जाए, उसकी कलाकृतियाँ बिकतीं नहीं। यही कारण है कि कई कलाकार भूखों मर जाते हैं। लेकिन मैं भूखों नहीं मरना चाहती, प्रसिद्ध होने तक आराम से जीना और अपना काम करना चाहती हूँ।”

पवन को बातचीत में रस आने लगा। उसने कहा, “इसका मतलब है, आप हमारे लिए जो काम करेंगी, अपना समझकर नहीं करेंगी?”

“नहीं-नहीं, आपका काम मैं पूरे मन से, मेहनत से और ईमानदारी से करूँगी; अपना ही काम समझकर करूँगी; लेकिन आप जानते हैं, साबुन का विज्ञापन करने के लिए बनाए जाने वाले चालू चित्र में और सावन की ऋतु के आनंद की अनुभूति कराने वाली कालजयी कलाकृति में अंतर होता है। साबुन का विज्ञापन बनाना भी कला है, लेकिन सावन का चित्र बनाने से भिन्न कला है। एक काम आपकी आजीविका है, दूसरा काम आपका जीवन है। एक काम सिर्फ जिंदा रहने के लिए किया जाता है और दूसरा...”

“अमर हो जाने के लिए! क्यों?” पवन ने कहा और हँस पड़ा, मानो कह रहा हो, “मैं व्यंग्य नहीं, विनोद कर रहा हूँ।”

अलका भी हँस पड़ी, पर तुरंत गंभीर होकर बोली, “अमर होना अपने हाथ में नहीं होता, लेकिन हर कलाकार की अभिलाषा तो अमर हो जाने की ही होती है।”

“हूँ!” पवन भी गंभीर हो गया। कुछ देर चुप रहकर अलका के चेहरे को ताकता रहा और फिर अचानक बोला, “आप मॉडलिंग करेंगी?”

“मॉडलिंग? मैं?”

“आजीविका के लिए।” पवन ने मुस्कराते हुए कहा, “साबुन का विज्ञापन करने के लिए एक चित्र बनाने और उसके लिए स्वयं एक चित्र बनने में क्या बहुत अंतर है?”

“नहीं, लेकिन...”

“फूल स्वयं नहीं जानता कि वह कितना सुंदर है!” पवन ने गंभीरतापूर्वक कहा, “आप जाने की बहुत जल्दी में न हों, तो एक फोटो सेशन कर लें?”

“फोटो सेशन?” विज्ञापन जगत की शब्दावली से अनभिज्ञ अलका ने पूछा।

“आपको अलग-अलग पोज बनाकर कुछ फोटो खिंचवाने होंगे। हमारे आर्ट डाइरेक्टर को तस्वीरें पसंद आईं, तो आप जो आर्ट वर्क हमारे लिए करना चाहती हैं, उससे मिलने वाले पैसे से कहीं ज्यादा पैसा एक विज्ञापन में अपनी तस्वीर देकर पा सकेंगी। यह मैं पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों की बात कर रहा हूँ। विज्ञापन-फिल्म में काम करेंगी, तब तो सैकड़ों आर्ट वर्क्स के पारिश्रमिक से ज्यादा पारिश्रमिक मिलेगा।”

अलका को याद आया, बचपन में उसकी सुंदरता की प्रशंसा करने वाले कहा करते थे - “यह लड़की तो फिल्मों की हीरोइन बनने लायक है।” और किशोरावस्था तक वह सचमुच हीरोइन बनने के सपने देखा करती थी। लेकिन बड़ी होकर पढ़ाई, खेल-कूद और चित्रकला के शौक लगे, तो वे सपने बचकाने लगने लगे। मगर वह चलते-फिरते, कोई भी काम करते और खास तौर से कोई किस्सा-कहानी सुनाते समय विभिन्न प्रकार की मुख-मुद्राएँ और देह-भंगिमाएँ सहज रूप से बनाती रहती। उसके हाव-भाव देखकर कुछ लोग मुग्ध होकर उसे देखते रह जाते, तो कुछ लोग आलोचना भी करते, “बड़ी नाटकीय है... एक्ट्रेसों वाली अदाओं के साथ बातें करती है।”

एक क्षण में अलका को ये बातें याद आ गईं और उसने पवन की विज्ञापन एजेंसी के लिए मॉडलिंग करने का इरादा कर लिया, लेकिन अगले ही क्षण उसे भय-सा लगा : जान न पहचान, पहली ही भेंट में मॉडलिंग का प्रस्ताव और तत्काल फोटो सेशन कर लेने की बात? ...कहीं यह इस आदमी की कोई चाल तो नहीं? कहीं कोई जाल तो नहीं, जिसमें फँसने जा रही हूँ?

“फोटो सेशन में मुझे किस तरह के पोज बनाने होंगे?” उसने हिचकिचाते हुए पूछा, “उनमें कोई अश्लीलता तो नहीं होगी?”

“क्यों? आपको अश्लीलता से क्या डर?” पवन ने मूँछों में मुस्कराते हुए कहा, “सुना है, कॉलेज ऑफ आर्ट में तो बाकायदा न्यूड्स पेंट करना सिखाया जाता है। उसके लिए भी तो मॉडलिंग करते हैं लोग...?”

“माफ कीजिए, मुझे यह काम नहीं करना।” अलका अपना पोर्टफोलियो सँभालकर उठने लगी।

“बैठिए-बैठिए।” पवन ने हँसते हुए कहा, “घबराइए नहीं। अभी हमारे देश ने इतनी तरक्की नहीं की है कि विज्ञापनों में न्यूड्स दिखाए जा सकें।”

अलका को फिर भी असमंजस में देख पवन ने अपने दफ्तर में काम करने वाली एक अधेड़ महिला को बुलाया और कहा, “मिसेज मनचंदा, ये अलका अग्निहोत्री हैं, इनका फोटो सेशन करना है। लेकिन उससे पहले इन्हें कुछ चाय-वाय पिलाइए। मैं तो इनकी सुंदरता से इतना प्रभावित हो गया कि पानी को पूछना भी भूल गया।”

“अग्निहोत्री दो तरह के होते हैं - पंजाबी और गैर-पंजाबी।” मिसेज मनचंदा ने केबिन से बाहर निकलते हुए पूछा, “तुम कौन-सी हो?”

“पंजाबी।”

“फिर ठीक है। पवन को छोड़ यहाँ बाकी सारे गैर-पंजाबी काम करते हैं। मैं तो यहाँ पंजाबी जबान सुनने को तरस जाती हूँ।” मिसेज मनचंदा ने पंजाबी में कहा और चलते-चलते एक दरवाजा खोलकर अंदर किसी से कहा, “खान साहब, एक फोटो सेशन करना है। आप तैयारी करें, लड़की भूखी-प्यासी आई है, मैं इसे कुछ खिला-पिलाकर लाती हूँ।” फिर दरवाजे को अपने-आप बंद होने के लिए छोड़ उन्होंने कैंटीन की ओर चलते हुए कहा, “कुछ खा-पी लेने से बंदा तरोताजा हो जाता है, फोटो चंगी आती है।”

वह अलका अग्निहोत्री का पहला फोटो सेशन था। स्टूडियो में छत से लटकी असंख्य छोटी-बड़ी लाइट्स। तेज रोशनी में स्टेज पर खड़े होकर तीन अलग-अलग कोणों पर कैमरों के साथ खड़े फोटोग्राफरों के सामने विभिन्न मुद्राएँ बनाकर फोटो खिंचवाना। मिसेज मनचंदा बराबर अलका के साथ न रहतीं और लगातार कुछ हँसने-हँसाने वाली बातें कहकर उसे सहज न बनाए रखतीं, तो अलका घबराकर भाग खड़ी हुई होती। लेकिन उसका फोटो सेशन बहुत सफल रहा था। अगले दिन आर्ट डाइरेक्टर ने पहला ही फोटोग्राफ देखकर कह दिया था, “सुपर्ब! एक्सीलेंट! अ रीयल ब्यूटी!”

और अलका उस विज्ञापन कंपनी की मॉडल बन गई थी। कुछ समय तक उसकी तस्वीरें पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों में आती रहीं, फिर सिनेमाघरों में दिखायी जाने वाली विज्ञापन फिल्मों में भी आने लगीं, जिनमें वह चलती-फिरती और हँसती-बोलती नजर आती थी।

पवन जब-तब अलका को छेड़ता, “आजीविका ठीक चल रही है न?”

“जरूरत से कुछ ज्यादा ही ठीक।” अलका धन्यवाद देते हुए कहती।

“और जीवन? मतलब, पेंटिंग?”

“जीवन तो जीवन ही है।” अलका कहती, “पेंटिंग तो मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह है।”

अलका ने कुछ ही विज्ञापन फिल्मों में काम किया था, लेकिन तभी एक फिल्म में उसे आकाशवाणी केंद्र के किसलय गांगुली नामक एक युवा अधिकारी ने देखा और उसकी आवाज तथा बोलने की अदा उसे इतनी पसंद आई कि उसने अलका को ढूँढ़ निकाला और प्रस्ताव कर दिया कि वह रेडियो पर फिल्मी गीतों पर आधारित एक लोकप्रिय कार्यक्रम प्रस्तुत करे।

“नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। मैं पहले ही बहुत व्यस्त हूँ।” अलका ने इनकार किया।

“लेकिन आपकी आवाज रेडियो के लिए बेहतरीन आवाज है। यह आवाज आकाशवाणी के श्रोताओं तक पहुँचनी ही चाहिए।” किसलय ने कहा।

“मैंने यह काम कभी नहीं किया है...”

“इसकी चिंता आप न करें, साथी उद्घोषक के रूप में मैं आपके साथ रहूँगा। दरअसल यह कार्यक्रम जो कलाकार मेरे साथ किया करती थीं, वे विदेश चली गई हैं और लौटने वाली नहीं हैं।”

“लेकिन आकाशवाणी में अच्छी आवाजों की क्या कमी?”

“मुझे सिर्फ अच्छी आवाज नहीं, आपकी खुशमिजाजी और हाजिरजवाबी भी चाहिए। यह कार्यक्रम प्री-रिकॉर्डेड नहीं, लाइव होता है और लाइव प्रोग्राम के लिए सिर्फ अच्छी आवाज का होना काफी नहीं। प्लीज, मान जाइए। यह प्रस्ताव स्वीकार कर लीजिए। सप्ताह में आपको अपनी दो ही शामें तो देनी हैं!”

“अच्छा, ठीक है। लेकिन कुछ गड़बड़ हो गई, तो आप जानें।”

“वह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए।”

इस प्रकार अलका अग्निहोत्री कलाकार और मॉडल होने के साथ-साथ आकाशवाणी के उस लोकप्रिय कार्यक्रम की एनाउंसर भी बन गई।

बंगाली युवक किसलय गांगुली और पंजाबी युवती अलका अग्निहोत्री की जोड़ी आकाशवाणी केंद्र में तो सर्वप्रिय थी ही, आकाशवाणी के श्रोताओं में भी खूब लोकप्रिय थी। अलका को इस काम में आनंद आने लगा।

मॉडलिंग में पैसा काफी था, पर नाम नहीं था; यहाँ पैसा कम था, पर नाम इतना कि उस कार्यक्रम को सुनने वाले लाखों लोग अलका अग्निहोत्री को जानने लगे; उसके द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रम की प्रतीक्षा करने लगे।

लेकिन अलका नाम और पैसा कमाना चाहती थी कला के क्षेत्र में - पेंटिंग के जरिए। पेंटिंग ही उसके लिए प्राथमिक थी, और सब चीजें द्वितीयक। लेकिन पता नहीं क्यों और कैसे उसके जीवन में द्वितीयक चीजें ही प्राथमिक हो गई थीं। पवन बत्रा की विज्ञापन कंपनी में उसे रोजाना नहीं जाना होता था, लेकिन जिन दिनों कोई विज्ञापन-फिल्म बन रही होती, उसे एक साथ कई-कई दिन जाना होता था और कुछ भी निश्चित नहीं होता था कि काम कब तक चलेगा और कब वह घर लौटेगी। जिन दिनों मॉडलिंग का काम न होता, पवन उसे कुछ आर्ट वर्क दे देता, जिसे वह अपने घर ले जाकर किया करती। वह काम इतना अधिक होता था कि घरेलू काम के लिए एक आया रख लेने के बावजूद उसे इतनी फुर्सत न मिलती कि अपना मनचाहा कुछ पेंट कर सके।

आकाशवाणी का कार्यक्रम उसे सप्ताह में दो दिन, बुधवार और शुक्रवार, प्रस्तुत करना होता था। पवन से उसने कह रखा था कि उन दिनों वह मॉडलिंग के लिए उसे न बुलाए, क्योंकि रेडियो का कार्यक्रम तो निश्चित दिन निश्चित समय पर प्रसारित होना ही है। कार्यक्रम शाम को सात बजे से साढ़े सात बजे तक प्रसारित होता था। कहने को आधे घंटे का कार्यक्रम, लेकिन उसकी तैयारी के लिए अलका को चार बजे ही आकाशवाणी केंद्र पहुँचना होता था। कार्यक्रम अधिकारी और अलका का साथी उद्घोषक किसलय भी अलका की भाँति 'परफेक्शनिस्ट' था, इसलिए दोनों मिलकर खूब बहस करते कि कार्यक्रम में क्या बोला जाए और कैसे बोला जाए। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद किसलय अनुरोध करता कि अलका उसके साथ कनॉट प्लेस चलकर किसी रेस्टोरेंट में चाय पिए। वहाँ जाकर चाय पीते और बतियाते हुए नौ-साढ़े नौ बज जाते और घर दूर होने के कारण वापस घर पहुँचते-पहुँचते दस-साढ़े दस। तब तक वह इतनी थक चुकी होती कि प्रतीक्षा करते परेशान हो चुकी आया से कुछ बातें करते हुए खाना खाते-खाते उसे नींद आने लगती।

पेंटिंग के लिए कोई समय ही नहीं बचा था।

समय बचाने के लिए उसने कार ले ली और ड्राइवर रख लिया। लेकिन इससे अलका की व्यस्तता कम नहीं हुई, कुछ बढ़ ही गई। अब कार्यक्रम के बाद किसलय को केंद्र से निकलकर कनॉट प्लेस पहुँचने की जल्दी न होती। कार है, कोई बस या स्कूटर से तो जाना नहीं है। हालाँकि अलका का घर किसलय के घर की विपरीत दिशा में था, लेकिन वह उदारतापूर्वक कह देती, “चलो, साथ ही चलते हैं। मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़कर अपने घर चली जाऊँगी।” या किसलय कह देता, “चलो, तुम्हारे घर तक मैं भी साथ चलता हूँ, वहाँ से अपने घर चला जाऊँगा।”

किसलय अविवाहित था और एक कमरा किराए पर लेकर अकेला रहता था, इसलिए अलका उसके पुरजोर आग्रह पर भी कभी उसके 'घर' को देखने के लिए अपनी गाड़ी से नहीं उतरी, लेकिन किसलय उसके घर तक साथ आता, तो न चाहते हुए भी वह उसे अपने 'घर' में आमंत्रित कर लेती। और किसलय उसका आमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लेता। वह खाना खाकर जाने के लिए कहती, तो खुश हो जाता। कहता, “अहोभाग्य! कुँवारों को क्या चाहिए? स्त्री के हाथ का बना खाना। चाहे वह किसी की आया के हाथ का बना ही क्यों न हो!”

पहली बार जब अलका ने उससे खाना खाकर जाने के लिए कहा, तो उसने नहीं-नहीं करते हुए कहा, “कहते संकोच होता है, अलका! डर भी लग रहा है कि कहीं तुम मुझे गलत समझकर बुरा न मान जाओ। लेकिन पहले ही बता देना अच्छा है। मैं खाना खाने के पहले एक क्वार्टर व्हिस्की पीता हूँ। तुम्हें पसंद न हो, तो स्पष्ट कह दो।”

“नहीं-नहीं...” अलका ने औपचारिकतावश कहा, लेकिन आगे वह कहना चाहती थी, “मुझे तो एतराज नहीं, पर मेरी आया को हो सकता है। वह क्या सोचेगी?”

मगर किसलय ने “नहीं-नहीं” सुनते ही खुश होकर सोफे पर पसरते हुए कहा, “तुस्सी ग्रेट हो, यार! ऐसी उदारता, ऐसा खुलापन मैंने पंजाबियों में ही देखा है।”

अलका कुछ कहे, इसके पहले ही उसने अपने कंधे पर टँगे रहने वाले झोले से व्हिस्की का क्वार्टर निकालते हुए पूछा, “तुम पीती हो?”

“नहीं।” अलका ने कुछ सख्त स्वर में कहा।

“कभी नहीं? बिलकुल नहीं? साथ देने के लिए एक पेग भी नहीं?”

“नहीं! बिलकुल नहीं! एक बूँद भी नहीं!”

“तुम कैसी पंजाबी हो?” किसलय खिसियानी हँसी हँसते हुए बोला, “खैर, मैं अकेला ही पी लूँगा... हमारे रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब कोई तुम्हारी न सुने, तो अकेले ही चलो! सोडा होगा? नहीं, तो कोई बात नहीं, थोड़ा पानी ही मँगवा दो और साथ में टूँगने के लिए कुछ चना-चबैना।”

अलका के लिए शराब कोई नई चीज नहीं थी। उसके पिता भी रोजाना खाना खाने के पहले दो पैग रम पीते थे, सिर्फ रम, और जब दोस्तों को खाने पर बुलाते थे, या रिश्तेदार घर आते थे, तो सबकी पसंद पूछ-पूछकर अलग-अलग चीजें खरीद लाते थे। किसी के लिए व्हिस्की, किसी के लिए जिन, किसी के लिए ब्रांडी, किसी के लिए बियर। लेकिन खुद रम ही पीते थे। मेहमानों में कोई और भी रम पीने वाला होता, तो खुश होकर कहते, “इसको कहते हैं हमप्याला!”

अतः पहली बार जब किसलय ने उसके घर बैठकर व्हिस्की पीना शुरू किया, तो उसने आया की मदद से पीने का सारा सरंजाम जुटा दिया और अपने लिए काली कॉफी बनवा ली। लेकिन अगली बार किसलय ने “साथ देने के लिए सिर्फ एक सिप” ले लेने का आग्रह किया, तो उसने व्हिस्की से भरे गिलास को होठों से छुआ और उबकाई-सी लेते बुरा मुँह बनाकर कहा, “इतनी बदजायका चीज कैसे तुम इतनी-इतनी देर तक पीते रहते हो?” लेकिन धीरे-धीरे “किसलय का साथ देने भर के लिए” वह पहले एक छोटा पैग, फिर एक बड़ा पेग और फिर दो बड़े पेग तक पीने लगी थी। साथ-साथ सिगरेट भी।

फिर यह भी होने लगा कि किसलय अलका के घर रात का खाना खाने आता, तो व्हिस्की का क्वार्टर या हाफ खरीदने के बजाय पूरी बोतल ही खरीद लेता और पीने के बाद जो बच जाती, उसे वहीं छोड़ देता। सिगरेट भी वह एक पैकेट की जगह दो पैकेट खरीदता और दूसरा अलका के लिए छोड़ जाता। फिर जिस दिन किसलय साथ न आता, अलका अपना काम करते हुए अकेली ही शराब और सिगरेट पीती रहती। यहाँ तक कि कुछ ही समय में ये दोनों चीजें उसकी आदत या जरूरत बन गईं।

आया की हिम्मत नहीं थी कि मालकिन को रोके-टोके और दूसरा कोई घर में उसे रोकने-टोकने वाला था नहीं। अतः यह भी होने लगा कि रात का खाना खाने के बाद किसलय अलका के घर ही सो जाता। अंततः यह भी हो ही गया कि अलका के कहने पर एक दिन किसलय अपना मुख्तसर-सा सामान उठाकर उसी के यहाँ चला आया और दोनों साथ रहने लगे।

“हम बाकायदा शादी क्यों नहीं कर लेते?” एक दिन किसलय ने प्रस्ताव किया।

“नहीं, मैंने फैसला कर रखा है कि शादी कभी नहीं करूँगी।” अलका ने दृढ़तापूर्वक कहा।

“लेकिन हमें जानने वाले सब लोग हमें पति-पत्नी ही समझते हैं।”

“समझते रहें।”

“शादी न करने और इस तरह रहने में तुम्हें कुछ अजीब नहीं लगता?”

“मैंने शादी न करने का फैसला किया है, प्रेम न करने का नहीं।” अलका ने मानो दोनों का अंतर स्पष्ट करते हुए अपना अंतिम फैसला सुनाया, “मैं आजाद ही रहना चाहती हूँ।”

अलका के इसी फैसले के मुताबिक वे दोनों पति-पत्नी की तरह रहते हुए भी दूसरों को अपना संबंध कुछ और ही बताते - कभी मित्र, कभी सहकर्मी। कोई बहुत कुरेदकर एक साथ रहने का कारण पूछता, तो अलका झुँझला जाती और कह देती, “वह मेरा पेइंग गेस्ट है, और कुछ नहीं।” संबंध की इस अस्पष्टता के कारण उन्हें दूसरों के आगे अंतरंग न होने का नाटक भी करना पड़ता था। यहाँ तक कि अलका के ड्राइवर के साथ भी।

यही कारण था कि किसलय को अलका के साथ उसकी कार में आते-जाते असुविधा होती थी। ड्राइवर की उपस्थिति के कारण वह अलका से अंतरंग बातें नहीं कर पाता था। मजाक में वह ड्राइवर को कभी 'सास' कहता, कभी 'सेंसर बोर्ड'।

आखिर एक दिन उसने घोषणा कर दी, “मैं ड्राइविंग सीखूँगा और इस ड्राइवर की छुट्टी कर दूँगा।”

“तुम्हारा यह निर्णय तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल ही है।” अलका ने मुस्कराते हुए कहा, “जीवन में ही नहीं, कार में भी पीछे बैठना तुम्हें पसंद नहीं। आगे ही बैठना चाहते हो। ड्राइविंग सीट पर! ठीक है, सीख लो ड्राइविंग।”

लेकिन उस दिन कही गई अपनी इस बात पर अलका बाद में बहुत पछताई। बहुत रोई। किसलय कार चलाना सीखते-सीखते एक भयानक एक्सीडेंट कर बैठा और मारा गया। अन्य लोगों को ही नहीं, स्वयं अलका को भी लगा कि वह अविवाहित होते हुए भी विधवा हो गई है।

लेकिन कैसी विधवा? लखनऊ में रहने वाले किसलय के परिजनों को उसने किसलय की मृत्यु की सूचना देकर उसके अंतिम संस्कार के लिए बुलवाया, तो पहले तो उन्होंने उस पर किसलय की हत्या का आरोप लगाकर उसे जेल कराने और फाँसी दिलाने जैसी बातें कीं, फिर ऐसा कोई मामला बनते न देख उसे कुलटा, व्यभिचारिणी आदि कहा और उसके मकान पर इतना हंगामा किया कि उस मकान में उसका रहना मुश्किल हो गया। फिर दिल्ली के उसके मित्रों, परिचितों और सगे-संबंधियों ने उसका जीना दूभर कर दिया।

अलका नहीं चाहती थी कि उसके प्रति कोई सहानुभूति प्रकट करे। सहानुभूति प्रकट करने वाले दरअसल सहानुभूति प्रकट करने नहीं, बल्कि उसे यह जताने आते थे कि वह किसलय के साथ एक अवैध और अनैतिक संबंध जीती रही है। वे उसका साथ देने के लिए नहीं, बल्कि लांछित-अपमानित करने आते थे। अंततः वह इतनी क्षुब्ध हो गई कि कोई उससे किसलय की बात शुरू करता, तो वह चीख उठती, “मैं उसके बारे में कुछ भी सुनना नहीं चाहती। मेरा वह कौन लगता था?”

वह नहीं चाहती थी कि लोग उसे “बेचारी अकेली औरत” समझकर उस पर तरस खाएँ। अतः वह किसलय की मृत्यु के दुख को दिल में ही दफनाकर उठ खड़ी हुई। कई दिनों बाद वह पवन बत्रा की विज्ञापन कंपनी में काम के लिए पहुँची। इस बीच पवन बत्रा और मिसेज मनचंदा किसलय के साथ हुए हादसे के लिए अपनी शोक-संवेदना प्रकट करने उसके घर आ चुके थे और कह गए थे कि वह अपने को सँभाले और जल्दी से जल्दी अपने काम में व्यस्त हो जाए।

लेकिन वहाँ उसे देखते ही मिसेज मनचंदा ने पंजाबी में कहा, “अरी लड़की, यह तुझे क्या हो गया, तू तो दस दिनों में ही कोई दूसरी अलका हो गई!”

“क्या हुआ है मुझे?” अलका को अपना अस्तित्व अस्थिर होता-सा लगा।

“आईने में शक्ल देख अपनी!”

“देखकर ही आ रही हूँ।” अलका ने हँसकर कृत्रिम बेपरवाही के साथ कहा, “पवन जी हैं केबिन में?”

“हाँ, जा मिल ले उससे। कल ही उसने कुछ नई लड़कियों के फोटो सेशन कराए हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह तेरी जगह किसी और को रख ले।”

अलका का जी धक् से रह गया। फिर भी वह आगे बढ़ गई।

पवन बत्रा ने उसे बिठाया, उसके लिए पानी मँगवाया, चाय-कॉफी के लिए पूछा और मॉडलिंग के लिए आई नई लड़कियों के फोटो उसके सामने रखते हुए कहा, “इन्हें देखो और बताओ, कैसी हैं?”

“अच्छी हैं।” अलका ने कहा और अचानक वह इतनी उत्तेजित हो उठी कि पूछ बैठी, “तो क्या मैं यह समझूँ कि अब आपके पास मेरे लिए काम नहीं है?”

“अरे! ऐसा मैंने कब कहा?” पवन बत्रा ने मौके की नजाकत समझते हुए बात बनाई, “मैं तो तुम्हें फोन करके बुलाने की सोच ही रहा था। जल्दी ही एक विज्ञापन-फिल्म बनानी है।”

“तो मैं कब आऊँ?” अलका ने राहत-सी महसूस करते हुए पूछा।

“प्रोजेक्ट अभी फाइनल नहीं हुआ है, ज्यों ही होगा, मैं तुम्हें फोन करूँगा।” अलका उठने लगी, तो उसने जोड़ा, “तब तक तुम भी थोड़ा रिलैक्स कर लो। तुम्हारे चेहरे पर दुख और तनाव चिपक-सा गया है। इसे धो डालो। और सुनो, तुम इन कुछ ही दिनों में स्थूल-सी हो गई हो, कुछ व्यायाम वगैरह किया करो।”

“ध्यान रखूँगी।” अलका ने पुनः अपने अस्तित्व की अस्थिरता का अनुभव किया और पवन बत्रा नई लड़कियों के फोटोग्राफ समेटकर रखने लगा, तो वह उठ खड़ी हुई।

केबिन से बाहर निकली, तो उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। वह सीधे दरवाजे की ओर चल दी। मिसेज मनचंदा पुकारती ही रह गईं। वह रुकी नहीं और बाहर खड़ी अपनी कार में बैठकर उसने दरवाजा इतने जोर से बंद किया कि ड्राइवर चौंक गया।

“कहाँ चलना है, मैडम?” ड्राइवर ने पूछा।

“वापस, घर।” अलका ने कहा और पीछे सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं।

बंद आँखों से आँसू बह चले। अलका ने उन्हें पोंछा नहीं। वे बाहर से आती गर्म हवा में स्वयं ही सूख गए।

घर पहुँचकर उसने ड्राइवर को छुट्टी देते हुए कहा, “असलम, आज मुझे और कहीं नहीं जाना है, तुम जाओ, कल सुबह दस बजे आ जाना।”

असलम ने गाड़ी खड़ी की, चाबी अलका को पकड़ाई और सलाम करके चला गया। घर के अंदर अलका की आया स्टेला बाथरूम में मोंगरी से पीट-पीटकर कपड़े धो रही थी। आवाज बाहर तक आ रही थी। अलका ने घंटी बजायी, तो वह स्कर्ट से हाथ पोंछती हुई आई और दरवाजा खोलकर उसके चेहरे को देखने लगी, “क्या हुआ, मैम?”

“कुछ नहीं।” अलका पर्स और कार की चाबी मेज पर फेंककर सोफे पर ढह-सी गई।

आया ने पंखा चला दिया और पूछा, “चाय बनाऊँ?”

“नहीं, एक ड्रिंक बना दो।”

“दिन में ही?”

“बहुत थक गई हूँ।”

“कुछ खाने को लाऊँ?”

“नहीं, सिगरेट दे दो।”

आया दोनों चीजें दे गई। अलका ने व्हिस्की का एक घूँट भरा और सिगरेट सुलगाकर खिड़की के बाहर देखने लगी, जहाँ चढ़ती गर्मी में अमलतास का एक पेड़ पीले फूलों से लदा हुआ खड़ा था। कहीं से किसी पक्षी के बोलने की आवाज आ रही थी।

अलका को किसलय की याद आई। वह कहा करता था, “पीने में कोई बुराई नहीं, लेकिन मुझे पीना सिखाने वाले मेरे दारू-गुरु ने पीने के तीन कायदे बताए हैं। पहला : दिन में कभी मत पियो, दिन भर के अपने काम निपटाकर शाम या रात को तसल्ली से पियो। दूसरा : अकेले कभी मत पियो, अगर कोई साथ देने वाला न हो, तो किताब पढ़ते हुए पियो, संगीत सुनते हुए पियो। और तीसरा : तभी तक पियो, जब तक नशा तुम पर हावी न हो, बल्कि तुम उस पर हावी रहो।”

किसलय जब तक था, अलका पीने के इन नियम-कायदों का पूरा पालन करती थी, लेकिन उसके जाने के बाद सब बेकायदा हो गया।

वह विज्ञापनों में आने वाली मॉडल थी, रेडियो के एक लोकप्रिय कार्यक्रम की लोकप्रिय एनाउंसर थी, लेकिन सबसे पहले वह एक सृजनशील कलाकार थी। जब उसे कहीं बाहर न जाना होता, वह सुबह से ही उस कमरे में चली जाती, जिसे उसने अपना स्टूडियो बना रखा था। एप्रन बाँधती और काम में जुट जाती। पेंटिंग करते समय उसे कोई विघ्न-बाधा पसंद नहीं थी। उस समय स्टेला ही फोन और दरवाजे की घंटियों का जवाब देती और जवाब होता - “मैडम घर पर नहीं हैं।” स्टेला ही दबे पाँव स्टूडियो में जाकर चाय, काफी, नाश्ता और खाना रख आती। अलका अधिक व्यस्त न होती, तो कहती, “वापस ले चलो, तुम्हारे साथ ही खाऊँगी।” और व्यस्त होती, तो काम करते-करते ही कुछ खा-पी लेती, बाकी यों ही पड़ा रहता। कई बार किसलय स्टूडियो के दरवाजे पर खड़ा देर-देर तक उसे काम करते देखता रहता, लेकिन वह इतनी दत्तचित्त होती कि उसे देख ही न पाती।

पवन बत्रा की विज्ञापन एजेंसी में भी वह अपने काम के प्रति सबसे ज्यादा समर्पित मॉडल थी। बार-बार कपड़े बदलना, बार-बार मेकअप बदलना, बार-बार पोज बदलना, लाइन या संवाद बोलते समय बार-बार लहजे या उच्चारण को दुरुस्त करना... एक-एक फोटोग्राफ के लिए कई-कई घंटों का फोटो सेशन... एक मिनट या कुछ ही सेकेंड की विज्ञापन फिल्म के लिए कई-कई घंटों, या कभी-कभी तो कई-कई दिनों की शूटिंग... लेकिन अलका को कभी किसी ने थकते, झुँझलाते या परेशान होते नहीं देखा। छोटे-बड़े सब उसे आदेश देते रहते और वह खुशी-खुशी सबके आदेशों का पालन करती रहती। खुद अपनी तरफ से भी अच्छे से अच्छा करने की कोशिश करती। कहती भी थी - “मैं परफेक्शनिस्ट हूँ... काम की क्वालिटी से समझौता कभी नहीं करूँगी, चाहे काम करते-करते मेरी जान ही निकल जाए।”

आकाशवाणी में किसलय के साथ कार्यक्रम प्रस्तुत करने से पहले भी वह स्क्रिप्ट लिखने और बोले गए शब्दों के बीच बजाए जाने वाले गीत चुनने में इतनी मेहनत करती थी कि कभी-कभी किसलय भी, जो स्वयं परफेक्शनिस्ट था, कह उठता - “अलका, तुम कुछ ज्यादा ही परफेक्शनिस्ट हो!”

लेकिन किसलय के जाने के बाद जैसे दुनिया ही बदल गई। अलका ने अपने स्टूडियो की तरफ झाँकना भी बंद कर दिया। आकाशवाणी का कार्यक्रम तो छूटा ही, पवन बत्रा की एजेंसी में जाना भी उसने छोड़ दिया। सुबह देर तक सोती रहती। उठकर भी कोई काम न करती। इधर-उधर लेटी-बैठी रहती या खिड़की में खड़ी सूनी-सूनी आँखों से न जाने क्या देखती हुई न जाने क्या सोचती रहती। शाम होते ही पीना शुरू कर देती और तब तक पीती रहती, जब तक बेहोश न होने लगती। स्टेला, जो उम्र में उससे छोटी थी और जिसे वह अपनी छोटी बहन जैसी ही मानती थी, उसकी बड़ी बहन बनकर उसे सँभालती थी। वह गिर पड़ती, तो स्टेला उसे उठाती। वह भूखी ही सोने लगती, तो स्टेला उसे अपने हाथ से खाना खिलाकर सुलाती। सोने से पहले वह नहाना चाहती, तो स्टेला उसे बाथरूम में ले जाकर नहलाती, कपड़े पहनाती और सहारा देकर बिस्तर तक ले जाती। कभी-कभी नशे में अलका उसे भी अपने बिस्तर पर खींच लेती और कहती कि वह उसे प्यार करे... किसलय की तरह प्यार करे! लेकिन स्टेला उसे किसलय की तरह प्यार कैसे कर सकती थी? वह अलका को समझाने-बुझाने लगती, बहलाकर सुलाने लगती, तो अलका नाराज हो जाती। स्टेला से लड़ने लगती। कभी-कभी स्टेला को मार भी बैठती। अगली सुबह स्टेला नौकरी छोड़कर जाने की तैयारी करने लगती, तो अलका चकित होकर कारण पूछती। स्टेला उसे रात वाली बातें बताती, तो वह रोने लगती, माफी माँगने लगती, भविष्य में फिर कभी वैसा व्यवहार न करने की कसमें खाती और स्टेला रुक जाती, तो वह उसे बाँहों में भरकर चूम लेती, उसके साथ नाचने लगती, उसे खुश करने के लिए बाजार ले जाती, उसकी पसंद की चीजें उसे खिलाती-पिलाती और उसके पहनने-ओढ़ने की कोई अच्छी-सी चीज खरीद देती।

एक दिन स्टेला ने पूछ लिया, “काम पर जाना कब शुरू करेंगी, मैम?”

“क्यों, क्या हो गया?” अलका जैसे सोते से जागी।

“असलम कह रहा था कि आपने उसे सेलरी का जो चेक दिया था, बैंक ने वापस कर दिया। बोला, अकाउंट में पैसा नहीं है।”

“अच्छा?” अलका उस समय अलसाई-सी अपने बिस्तर में बैठी दिन की पहली चाय पी रही थी कि स्टेला की बात से उसे करेंट जैसा लगा। वह चाय का प्याला परे रखकर झटके से उठी और पवन बत्रा को फोन मिलाने लगी। पवन बत्रा ने औपचारिकता निभाने में एक क्षण भी लगाए बिना कह दिया, “अलका, मॉडलिंग वाला तो नहीं, पर आर्ट वर्क वाला काम खूब है तुम्हारे लिए। जब चाहो, आकर ले जाओ।”

“धन्यवाद, बत्राजी!” अलका ने क्रोध में काँपते-से स्वर में कहा, “आपसे मिलने के पहले दिन मैं आपसे आर्ट वर्क ही माँगने आई थी। मॉडलिंग का काम तो खुद आपने ही मुझे दिया था। तब आपको साबुन का विज्ञापन करने के लिए एक चित्र बनाने और उसके लिए स्वयं एक चित्र बनने में ज्यादा अंतर नजर नहीं आता था। आज आपने खुद ही वह अंतर बता दिया!”

“बुरा न मानो, अलका! लेकिन यह सच तो तुम्हें स्वीकार करना ही होगा कि समय के साथ चीजें बदलती हैं। मुझे याद है, मैं तुम्हारी सुंदरता देखकर स्तब्ध रह गया था। कई लोग समझते हैं कि विज्ञापन करने वाली स्त्री का चेहरा और शरीर सुंदर होने भर से काम चल जाएगा। लेकिन यह गलत है। मॉडल में कई और खूबियाँ भी होने चाहिए। जैसे अच्छी आवाज, भाषा पर पकड़, शब्दों को सार्थक करने वाला अंग-संचालन और सबसे जरूरी चीज - ऐसी बेफिक्री, ऐसी मस्ती, ऐसी आजादी कि...”

“क्या इन थोड़े-से दिनों में ही ये सब चीजें मुझमें नहीं रहीं?”

“नहीं, ऐसी बात नहीं। ये चीजें स्थायी रूप से हमेशा एक जैसी नहीं रहतीं। आज हैं, कल नहीं भी हो सकती हैं, परसों फिर हो सकती हैं। अभी तुम पर किसलय की मौत का सदमा हावी है, इसलिए तुम सही-सलामत नहीं, बिलकुल टूटी-बिखरी-सी दिखती हो। जब तुम्हारी यह टूटन-बिखरन खत्म हो जाए, तब शायद... तब तक तुम आर्ट वर्क करो। तुम्हारे लिए उसकी कमी यहाँ नहीं है। तुम्हारे लिए मैं उसका पारिश्रमिक भी बढ़ा दूँगा...”

“नहीं, धन्यवाद, बत्रा साहब!” अलका ने निहायत औपचारिक स्वर में कहा, “दया दिखाने की जरूरत नहीं। मैं किसी की विधवा या बेचारी अकेली औरत नहीं हूँ। मैं पहले भी आजाद थी, अब भी आजाद हूँ।”

इसके उत्तर में पवन बत्रा ने क्या कहा, अलका ने सुना ही नहीं। फोन काट दिया। कुछ देर प्रतीक्षा करती रही पवन बत्रा के फोन का, लेकिन फोन नहीं आया तो उसने गुस्से में जोर से चिल्लाकर कहा, “भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारी विज्ञापन एजेंसी! मैं जो ठान लेती हूँ, करके ही रहती हूँ। आर्टिस्ट बनने की ठानी, बन गई। अकेले रहने की ठानी, रह ली। आजाद रहने की ठानी, तो आजाद रही, आजाद हूँ और मरते दम तक आजाद रहूँगी। मैं दिखा दूँगी कि मैं किसलय की विधवा नहीं हूँ, बेचारी अकेली औरत नहीं हूँ। मेरे भेजे में अक्ल और हाथ में हुनर है। मैं खुद एक विज्ञापन एजेंसी खड़ी कर सकती हूँ।”

“लेकिन पैसा कहाँ से आएगा, मैम?” पास खड़ी सब कुछ सुन चुकी स्टेला ने पूछा।

“मैं अपनी सारी पेंटिंग्स बेच दूँगी।”

“पर आप तो अपनी प्रदर्शनी लगाने की सोच रही थीं, उसका क्या?...”

“उस दिन के इंतजार में बैठी रही, तो खुद मेरी प्रदर्शनी लग जाएगी।”

“पर आप ही कहती थीं कि मजबूरी में बेची गई पेंटिंग्स औने-पौने दामों में बिकती हैं...”

“मजबूरी में लोग अपने बच्चों तक को बेच देते हैं! चलो, उठो। असलम को बुलाओ। मेरी सारी पेंटिंग्स गाड़ी में रखवाओ।”

और सोलह साल पहले किए गए उस दृढ़ निश्चय का ही परिणाम है 'अलका एडवर्टाइजर्स' नामक यह विज्ञापन एजेंसी, जिसे देश में ही नहीं, विदेशों तक में प्रसिद्ध कलाकार अलका अग्निहोत्री चलाती हैं।

नहीं, अकेली नहीं। एक पार्टनर के साथ, जिसका नाम स्टेला है।

कई बार प्रेम के हल्के-से अल्पकालिक संबंध जरूरत से ज्यादा विज्ञापित हो जाते हैं, जबकि प्रगाढ़ दीर्घकालिक संबंध अविज्ञापित ही रहे आते हैं।