अशान्त युवक दल / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

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कुछ महानुभावों की प्रकृति होती है कि अपनी कुछ शान जमाना या अपने आप को बड़ा दिखाना अपना कर्त्तव्य समझते हैं, जिससे भयंकर हानियां हो जाती हैं। भोले-भाले आदमी ऐसे मनुष्यों में विश्‍वास करके उनमें आशातीत साहस, योग्यता तथा कार्यदक्षता की आशा करके उन पर श्रद्धा रखते हैं। किन्तु समय आने पर यह निराशा के रूप में परिणित हो जाती है। इस प्रकार के मनुष्यों की किन्हीं कारणों वश यदि प्रतिष्‍ठा हो गई, अथवा अनुकूल परिस्थितियों के उपस्थित हो जाने से उन्होंने किसी उच्च कार्य में योग दे दिया, तब तो फिर वे अपने आपको बड़ा भारी कार्यकर्त्ता जाहिर करते हैं। जनसाधारण भी अन्धविश्‍वास से उनकी बातों पर विश्‍वास कर लेते हैं। विशेषकर नवयुवक तो इस प्रकार के मनुष्‍यों के जाल में शीघ्र ही फंस जाते हैं। ऐसे ही लोग नेतागिरी की धुन में अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाया करते हैं। इसी कारण पृथक-पृथक दलों का निर्माण होता है। इस प्रकार के मनुष्‍य प्रत्येक समाज तथा प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं। इनसे क्रान्तिकारी दल भी मुक्‍त नहीं रह सकता। नवयुवकों का स्वभाव चंचल होता है, वे शान्त रहकर संगठित कार्य करना बड़ा दुष्कर समझते हैं। उनके हृदय में उत्साह की उमंगें उठती हैं। वे समझते हैं दो चार अस्‍त्र हाथ आये कि हमने गवर्नमेंट को नाकों चने चबवा दिए। मैं भी जब क्रान्तिकारी दल में योग देने का विचार कर रहा था, उस समय मेरी उत्कण्ठा थी कि यदि एक रिवाल्वर मिल जाये तो दस बीस अंग्रेजों को मार दूं। इसी प्रकार के भाव मैंने कई नवयुवकों में देखे। उनकी बड़ी प्रबल हार्दिक इच्छा होती है कि किसी प्रकार एक रिवाल्वर या पिस्तौल उनके हाथ लग जाये तो वे उसे अपने पास रख लें। मैंने उनसे रिवाल्वर पास रखने का लाभ पूछा, तो कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सके। कई नवयुवकों को मैंने इस शौक को पूरा करने में सैंकड़ों रुपये बरबाद करते भी देखा है। किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के सदस्य नहीं, कोई विशेष कार्य भी नहीं, महज शौकिया रिवाल्वर पास रखेंगे। ऐसे ही थोड़े से युवकों का एक दल एक महोदय ने भी एकत्रित किया। वे सब बड़े सच्चरित्र, स्वाभिमानी और सच्चे कार्यकर्त्ता थे। इस दल ने विदेश से अस्‍त्र प्राप्‍त करने का बड़ा उत्तम सूत्र प्राप्‍त किया था, जिससे यथारुचि पर्याप्‍त अस्‍त्र मिल सकते थे। उन अस्‍त्रों के दाम भी अधिक न थे। अस्‍त्र भी पर्याप्‍त संख्या में बिलकुल नये मिलते थे। यहां तक प्रबन्ध हो गया था कि हम लोग रुपये का उचित प्रबन्ध कर देंगे, और यथा समय मूल्य निपटा दिया करेंगे, तो हमको माल उधार भी मिल जाया करेगा और हमें जब किसी प्रकार के जितनी संख्या में अस्‍त्रों की आवश्यकता होगी, मिल जाया करेंगे। यही नहीं, समय आने पर हम विशेष प्रकार की मशीन वाली बन्दूकें भी बनवा सकेंगे। इस समय समिति की आर्थिक अवस्था बड़ी खराब थी। इस सूत्र के हाथ लग जाने और इसके लाभ उठाने की इच्छा होने पर भी बिना रुपये के कुछ होता दिखलाई न पड़ता था। रुपये का प्रबन्ध करना नितान्त आवश्‍यक था। किन्तु वह हो कैसे? दान कोई न देता था। कर्ज भी न मिलता था, और कोई उपाय न देख डाका डालना तय हुआ। किन्तु किसी व्यक्‍ति विशेष की सम्पत्ति (private property) पर डाका डालना हमें अभीष्‍ट न था। सोचा, यदि लूटना है तो सरकारी माल क्यों न लूटा जाये? इसी उधेड़बुन में एक दिन मैं रेल में जा रहा था। गार्ड के डिब्बे के पास गाड़ी में बैठा था। स्टेशन मास्टर एक थैली लाया, और गार्ड के डिब्बे में डाल दिया। कुछ खटपट की आवाज हुई। मैंने उतर कर देखा कि एक लोहे का सन्दूक रखा है। विचार किया कि इसी में थैली डाली होगी। अगले स्टेशन पर उसमें थैली डालते भी देखा। अनुमान किया कि लोहे का सन्दूक गार्ड के डिब्बे में जंजीर से बंधा रहता होगा, ताला पड़ा रहता होगा, आवश्यकता होने पर ताला खोलकर उतार लेते होंगे। इसके थोड़े दिनों बाद लखनऊ स्टेशन पर जाने का अवसर प्राप्‍त हुआ। देखा एक गाड़ी में से कुली लोहे के, आमदनी वाले सन्दूक उतार रहे हैं। निरीक्षण करने से मालूम हुआ कि उसमें जंजीरें ताला कुछ नहीं पड़ता, यों ही रखे जाते हैं। उसी समय निश्‍चय किया कि इसी पर हाथ मारूंगा।