अशोक वाजपेयी की कविताएँ - शब्‍द से नि:शब्‍द तक / कुमार मुकुल

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'विवक्षा' अशोक वाजपेयी की कविताओं का राजकमल से 2006 में आया 'वृहत संचयन' है। हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन प्रयाग से 2001 में आधुनिक कवि सीरिज में आए अपनी कविताओं के चयन की भुमिका में अशोक वाजपेयी लिखते हैं -' पहले संग्रह में प्रभाव के तीन केंद्र स्‍पष्‍ट हैं : अज्ञेय, शमशेर और रघुवीर सहाय।' इस भूमिका में एक जगह यह भी जिक्र है कि अज्ञेय के संग्रह 'कितनी नावों में कितनी बार' की सख्‍त समीक्षा के चलते उनसे वाजपेयी के संबंध कुछ समय के लिए खराब हुए थे। विवक्षा में 1960 में लिखी वाजपेयी की कविता 'घाटी' इस वृहत संचयन की पहली कविता है-' घाटी में जाकर गुम हो गयी एक पगडंडी/पर वह जो चलते-चलते पगडंडी पर/उसी में समा गया/घाटी तक पहुंचा वह'?

इसे पढते हुए अज्ञेय की 'कितनी नावों में कितनी बार' की एक कविता की पंक्तियां याद आती हैं, जिसमें वे खुद के नदी के साथ सागर तक जाने की और नदी के सागर में मिल जाने की और खुद के वहीं अवाक खडे रह जाने की बात करते हैं। वह एक अच्‍छी कविता है, वाजपेयी ने उसी बात को घाटी के रूपक में नये ढंग से कहने की कोशिश की है पर उस सफाई से कह नहीं पाए हैं कि उसका कोई असर हो। इसी रूपक को आलोक धन्‍वा ने भी अपनी एक कविता में कुछ अलग ढंग से रखा है, पर इन तीनों में सबसे कमजोर रूपक वाजपेयी का है।

'एक कविता क्रम' की चौथी कविता 'अनुपस्थिति' में किसी ढलती शाम कहीं उदास बैठी एक लडकी का जिक्र करते कवि लिखता है -' ... बेखबर उन शब्‍दों से / जो मैं चुपचाप / उसके पास रख देता हूं / अपने प्रेम में, / - मेरे शब्‍द / जो उसकी उदास गरीबी को / एक चमक-भर दे सकते हैं / कोई अर्थ नहीं।' श्री वाजपेयी की कविताओं से गुजरते मैं देखता हूं कि वे अपनी इन्‍हीं पंक्तियां के अनुरूप कविताई की कोशिश करते दिखते हैं, जो हिन्‍दी कविता में कहीं कहीं एक चमक तो दे पाती हैं पर कोई स्‍पष्‍ट अर्थ नहीं, क्‍योंकि कवि के भीतर कहीं न कहीं विश्‍वास और उस साहस की कमी है जिसके बारे में केदारनाथ सिंह कहते हैं कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्‍द। श्रीवाजपेयी की आरंभ की इन कविताओं से गुजरते हुए कई जगह केदारनाथ सिंह की कविता पंक्तियां याद आती हैं, केदार जी की तरह वाजपेयी भी शब्‍दों से खेलते हैं पर वह खेल दिखा नहीं पाते, वह सम्‍मोहन पैदा नहीं कर पाते, जो थोडा साहस कर अक्‍सर केदार जी दिखा जाते हैं।

साहस और विश्‍वास की इस कमी को उपरोक्‍त कडी की अगली कविता 'निश्‍शब्‍द' में भी अभिव्‍यक्ति मिली है। जिसमें कवि उंची इमारत से कूद जान देने वाले व्‍यक्ति को देखने तक की जहमत उठाए बिना दौडकर अपनी नयी नियुक्ति का पता लगाने चला जाता है। वह लिखता है -' मेरे शब्‍द उछलकर / उसे बीच में ही झेल लेना चाहते हैं / पर मैं हूं कि दौडकर...निश्‍शब्‍द घर जाता हूं '। यह जो शब्‍द और कवि के बीच विभाजन है वह कभी भी कवि को पूरे मन से कविता लिखने नहीं देता, वह उन्‍हें अक्‍सर 'निश्‍शब्‍द' और गूंगा बनाता है और उनकी अधिकांश कविताएं एक आधी-अधूरी अभिव्‍यक्ति की विडंबना को प्राप्‍त होती हैं। एक ही कविता में कवि जिस तरह शब्‍द से निश्‍शब्‍द तक की यात्रा करता है वह उसकी रचना-प्रक्रिया की बनावट को सामने लाता है, कहीं कहीं कवि अपनी इस कमी को छुपाने की भी कोशिश करता है ऐसा करते हुए वह अक्‍सर अर्थों को इतना भीतर छुपा देता है कि वे व्‍यर्थ हो जाते हैं। मजेदार है कि ऐसे जो व्‍यर्थता उदघाटित होती है उसे कवि सच का उदघाटन समझ फूला नहीं समाता। ' सुख और तृप्ति की याद के आर-पार / हृदय स्‍पष्‍ट देखता है / उबड-खाबड उदासीनता .../ एक अकेली खिडकी खुलती है / एक अपरिभाषित आकाश पर / एक निस्‍तब्‍ध सडक पर / अपने शब्‍दों को भय में लपेटे / पर सीटी बजाता हुआ / रोज रात गए / मैं लौटता हूं - अपने घर।' उपरोक्‍त कडी के इस अंतिम कवितांश में चीजें साफ हो जाती हैं, कि कवि का हृदय स्‍पष्‍ट देखता है सब-कुछ पर अपने भय को वह सीटी में बजाता हुआ अपने घर लौट जाता है, देखे हुए को आकाश पर अ‍परिभाषित छोड कर। इसी आसपास की एक कविता में वे लिखते भी हैं -' किसी को दुख नहीं देता / आखिर मैं भी आदमी हूं / कुरसी का थोडा फायदा उठाता हूं-' आदमी होने की ऐसी मजबूरी, मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा, राजेश जोशी की किसी कविता में भी नजर आयी थी, पर थोडे जुदा अंदाज में। यहां देखा जाए तो कवि अपने व्‍यवहार की बेइमानी को वक्‍तव्‍य की इमानदारी से ढकने की कोशिश कर रहा है।

हिन्‍दी कविता में एक कुत्‍ता जीभ

वक्‍तव्‍य की इस इमानदारी के प्रमाण श्रीवाजपेयी की कविता में अक्‍सर मिलते रहते हैं -'... मेरी चाहत की कोशिश से सटकर / खडी थी वह बेवकूफ लडकी // थोडा दमखम होता / तो मैं शायद चाट सकता था / अपनी क‍ुत्‍ता जीभ से / उसका गदगदा पका हुआ शरीर।/ आख्रिर मैं अफसर था ...अब सवाल है कि चीख का क्‍या हुआ ? / क्‍या होना था ? । वह सदियों पहले / आदमी की थी / जिसे अपमानित होने पर / चीखने की फुरसत थी।' यहां देखें कि श्रीवाजपेयी में इस कुत्‍ता जीभ को बयान करने की हिम्‍मत कहां से आ रही है वह इमानदारी के चौखटे से नहीं आ रही है वह अफसरी की ताकत से आ रही है वह ताकत ही है जो चीख को फुरसत का उत्‍पाद बना रही है। यहां चीख की ताकत की अभिव्‍यक्ति देखनी हो तो आप आलोक धन्‍वा को याद कर सकते हैं जिन्‍हें कविता एक ली जा रही जान की तरह या चीख की तरह बुलाती है।

ऐसा नहीं है कि कव‍ि को अपने चौखटेपन का अहसास नहीं है, इस चौखटे को वह पार भी करना चाहता है और कभी उसे लगता है कि 'अब वक्‍त आ गया है' कि

'एक अलगंट नारा बनाउं
और बेवकूफ और गधाचेहरा लोगों को
बार-बार धिक्‍कारता दुतकारता हुआ
प्रजातंत्र की ओर निकल जाउं।'

यहां कवि की दिक्‍कत यह है कि वह नारा लगाना नहीं बनाना चाहता है। पर कवि के भीतर का डर उसे कुछ करने नहीं देता

'कितना सुखद है
इस तरह अपने डर को
भाषा के तांडव में छुपाना'

क्‍यों कि उसमें इस छुपा छुपी के आनंद के बाहर जाकर नारा लगाने के लिए जो जमीन चाहिए उसे अर्जित करने का माददा नहीं है। इसलिए वह उसे भाषा के तांडव में छुपाना चाहता है। ना जाने कवि का वह बना बनाया प्रजातंत्र कहां रखा है जिधर वह निकल जाना चाहता है, वह खुद को या लोगों को धिक्‍कारने से आगे जाना ही नहीं चाहता है। दरअसल वह अपना आत्‍मविश्‍वास खो चुका है, अफसरी के चलते जो असुरक्षा बोध उसे घेरे रहता है वह उसे अपने आत्‍म और विश्‍वास के बारे में जानने ही नहीं देता -

'आत्‍मा के अंधेरे को
अपने शब्‍दों की लौ उंची कर,
अगर हरा सकता
तो मैं अपने को
रात भर
एक लालटेन की तरह जला रखता।
अगर इतने से काम चल जाता- '

अब आत्‍मविश्‍वास काम चलाने की चीज तो है नहीं, वह तो आर-पार जाने के साहस की प्रविधि है। इसलिए वह अपनी कामना को सही शब्‍द भी नहीं दे पाता। क्‍योंकि जो दुनिया उसके लिए ' सच है, सुंदर है' वह उसके लिए 'असहय' भी है और उसके 'संभाले नहीं संभलती'।

अपनी कामनाओं की कवि की पहचान सही है क्‍योंकि वह कविता की परंपरा से आ रही है जिसका जिक्र कवि करता भी है अपनी भूमिकाओं में। पर जो अफसरी उसे मिली है उसका तालमेल इस कामना से बन नहीं पाता। हालांकि आशा मरती नहीं है, 'कुछ तो' कविता में वह लिखता भी है -

'झर जाएंगे सारे पाप
पर बचा रह जाएगा एकाध
असावधानी से हो गया पुण्‍य-'

आत्‍मविश्‍वास की कमी से पैदा दोमुंहे रूपक

यही मुश्किल है, पुण्‍य यहां असावधानी से हो रहा है और पाप सुविचारित है। यह पाप-पुण्‍य की अवधारणा के कवि के मानस के साथ रूढ हो जाने के चलते हो रहा है। चीजें अपने संदर्भ के साथ नहीं हैं यहां, बल्कि वे कवि के पूर्वाग्रहों के दबाव में हैं, जो पुण्‍य-पाप से जुडी हैं। ये पूर्वाग्रह उसे नये सिरे से विचार करने ही नहीं देते आत्‍मविश्‍वास अर्जित ही नहीं होता, नतीजा बस परंपरा से चला आया न्‍यायबोध जब तब सिर मारता है कवि के जेहन में और वह उसे कविता में ढाल देता है। ' प्रार्थना के अंतिम अक्षय शब्‍द की तरह / बची रह जाएगी कामना'। कवि को लगता है कि बिना पसीना और खून बहाए बस परंपरा से सुनते आते रहने के चलते कि सच बचा रह जाएगा आखिर में, वह बचा रह जाएगा। उसकी अक्षयता का पूर्वाग्रह ही कवि की आशा और कामना के क्षय का कारण बनता है, क्‍यों कि इस चलते वह उसे बचाने की कोई जीवंत कोशिश नहीं कर पाता। यहां जो बच पा रहा है वह कमजोर है और बच जा रहा है संयोगवश। सच को बचाने की कूबत नहीं हैं कवि में इसलिए वह बस कामना बनकर रह जाती है। इसलिए वह कभी ' कुछ ' बचाना चाहता है कभी ' थोडा-सा ' बचाना चाहता है -' वही थोडा-सा आदमी- / अगर बच सका / तो वही बचेगा।' पूरा आदमी वह बचाना ही नहीं चाहता है कभी तो वह बचे कैसे, वह पूरा आदमी है नहीं उसके अंतर में जिसे कि वह रूपाकार दे शब्‍दों में।

आत्‍मविश्‍वास की इस क‍मी के चलते अक्‍सर वह दोमुंहा रूपक गढता है -' वे एक पिंजडा लाएंगे / अदृश्‍य, / पर जिसे छोडकर फिर / उडा नहीं जा सकेगा।' यहां 'वे' भी कवि ही है, जिसे कभी कभी, परंपरा से आ रही आत्‍मालोचना की रव में वह पहचानता है, पर अपने समय में अर्जित किया गया उसका सोने का पिंजडा उसे उससे मुक्‍त नहीं होने देता। एक उधेडबुन उसे हमेशा घेरे रहती है। तब वह समय के सामने रिरियाता है, ' समय से अनुरोध ' कविता में वह लिखता है -' समय, मुझे सुझाओ / कैसे मैं अपनी रोशनी बचाए रखूं / तेल चुक जाने के बाद भी।' तेल ही चुक गया है और रोशनी बचाए रखनी की जिद यह, कमाल है, मुक्तिबोध-शमशेर की माला ही जपता रहा कवि सीखा नहीं कुछ उनसे, अज्ञेय तक से नहीं सीखा बस नकल की। दरअसल कवि को तो समय काटने के लिए कुछ उदाहरण चाहिए समय से, पर वह खुद ऐसा अच्‍छा उदाहरण क्‍यों नहीं बनना चाहता। क्‍योंकि उसे विश्‍वास है कि 'रास्‍ता' ऐसे ही निकलेगा ...' निष्क्रिय निराशा से - / अवसन्‍न प्रतीक्षा से।'

शायद ब्रांड उम्‍मीद

'एक खिडकी' कविता में वह लिखता है -' हमें उम्‍मीद की / कम से कम / एक खिडकी तो खुली रखनी चाहिए।' अरे भाईआ अगर उम्‍मीद है तो बाकी खिडकियां क्‍यों बंद रखना चाहते हो, कवि का यह कामचलाउं रवैया ही उसकी पहचान है , पूरे मन से वह कोई काम ही नहीं करना चाहता है। कवि की बीमारी यह है कि वह आम आदमी से कहीं बात करता दिखता ही नहीं अलबत्‍ता 'रात देर गए' वह ईश्‍वर से जरूरी गप्‍प लडाना चाहता है 'स्‍वर्ग की नीरसता आदि के बारे में'। उसे पता नहीं कि आम आदमी को नहीं जान पाने के चलते ही उसके तथाकथित स्‍वर्ग में नीरसता है। असल में बेपर की उडाने की अच्‍छी आदत है कवि को, उडाते अपने केदारनाथ सिंह भी हैं, वे भी 'पक्षी' को 'मुकुट' की तरह उडता देखने लगते हैं जब तब, पर ऐसी बेपर की उडाना तो बस अकेले अशोक जी के खाते में आता है।

अशोक जी ने कविता में उलटबंसियां भी बहुत रची हैं, बेमतलब 'पीछे-आगे' करते रहने का उन्‍हें शौक चर्राता रहता है नतीजा -' उम्‍मीद से डर और डर से उम्‍मीद और तुर्रा यह कि ऐसे ही रास्‍ता कट जाता है, हम कहीं पहुंचे या न पहुंचें।' कुछ उलटबंसियां मंगलेश के यहां भी मिल जाती हैं पर एक अंतरलय वहां मिलती है जो राहत देती है पर उस रास्‍ता को काटने के लिए जिसमें कहीं पहुंचने की ईच्‍छा शक्ति ही नहीं इस तरह आगे पीछे करना तो अशोक जी के ही बस में है। अब कवि की अपनी मजबूरी है कि वह कहीं आगे पीछे नहीं जाना चाहता क्‍योंकि उसे नाउम्‍मीद वाली उम्‍मीद है कि ' देवता हमें पुकारेंगे '। पर वे भी तब पुकारेंगे ' जब पाप या प्रेम करने की बची न होगी शक्ति,'। मतलब कि जब कवि पाप कर के थक जाता है तो उसे देवता की याद आती है। उसके लिए पाप और प्रेम में कोई अंतर नहीं यूं उसकी आत्‍मा जरूर 'लहूलुहान' हो जाती है इस पचडे में।

अशोक जी की उम्‍मीद का रंग भी अलहदा है, उनकी 'उम्‍मीद चुनती है 'शायद', और यह शायद ब्रांड उम्‍मीद है कि 'चिपचिपाती भक्ति के नीचे' भी 'प्रचीन पवित्रता' का संधान करती है। अशोक जी की अधिकांश कविताएं एक कवियश:प्रार्थी की कविताएं हैं। अक्‍सर वे सायास कविता रचने की कोशिश करते हैं, इसके मुकाबले उनकी आलोचना में सायसता की जगह सहजता ज्‍यादा जगह पाती है। कविता में भी जहां वे सहज रचते हैं, सार्थक रचते हैं जैसे उनकी एक कविता याद आ रही है जिसमें अंचार के बारे में वे लिखते हैं कि अंचार के लिए सुबह नहीं होती, मतलब अंचार जैसी जड वस्‍तु के लिए सुबह नहीं होती।

कवि को थोडा सा इतिहास क्‍यों चाहिए

पर अधिकांशत: कवि पर उनकी अफसरी हावी रहती है। अब उन्‍हें इतिहास भी चाहिए तो 'थोडा-सा इतिहास' चाहिए। इतिहास इतिहास होता है थोडा तो बहुत भ्रामक है, हर तानाशाह थोडा सा इतिहास चाहता है, अपने काम भर।

खाला का घर नाहीं

सायास कविता आशु कविता का ही एक रूप है जो आजकल प्रचलन में है। हम किसी भी वस्‍तु पर अपनी अक्‍ल आरोपति करते हैं और कविता लिखते नहीं बना देते हैं। इस सायासता के उदाहरण आपको हिंदी कविता के नवतुरियों के यहां भी काफी मिल जाएंगे। अपने ज्ञान और विसमवेदना की ताकत से वे मेज को भी गदगद करते या आंखों में मोच लाते या जंगल में तल ढूंढते (अतल जंगल) नजर आते हैं। अशोक जी के यहां तो खैर यह आधार ही है। चमत्‍कार करने के लिए अक्‍सर वे शब्‍दों को अर्थ से या भाव से अलग कर इस तरह प्रयोग करते हैं कि कविता पढना व्‍यर्थ प्रतीत होने लगता है। जैसे थोडा सा इतिहास लिखेंगे वे, अब नये कवि इसे चम्‍मच भर इतिहास कर दें तो क्‍या आश्‍चर्य। अशोक जी अपनी सायासता का प्रयोग अक्‍सर अपने किए की सफाई देने में करते हैं -

'बुहारकर कचरे में नहीं फेंकी पवित्रता
....किया बहुत सा प्रेम
लिखीं ढेर सी कविताएं'

एक तो यह पवित्रता की फेंका-फेंकी ही अजीब शै है। भइया आप निर्गुण भक्ति के उपासक लगते हैं तो सगुण वालों की पवित्रता को इस तरह क्‍यों फेंक रहे हैं। आखिर दोनों भक्ति ही है , इस पवित्रता के चक्‍कर से ही बाहर आ जाते, आपके गुरूदेव अज्ञेय भी कम से कम इस चक्‍कर से तो बाहर आ ही गये थे। फिर यह बहुत सा प्रेम क्‍या है। अब ऐसे टन भर प्रेम कीजिएगा और कविताओं का ढेर लगाइएगा तो बात कैसे बनेगी, आलोचना लिखते वक्‍त तो इतना कचरा नहीं फैलाते आप, काफी सूझ-बूझ की बातें करते दिखते हैं वहां, फिर इस कविता को ही बखशिए ना। अब मैं कहूं कि पवित्रता का रायता फैलाने वाले लोग अलग होते हैं और उसे बुहारने वाले मजदूर, पवित्रता नहीं, अपनी रोटी, बुहार नहीं, बटोर रहे होते हैं, तो क्‍या आप समझेंगे इसे...।

कई बार अशोकजी को पढते हुए लगता है कि ज्ञान और उसकी ताकत के दबाव से पैदा यह सायासता उनकी अच्‍छी खासी कविताओं का भी कबाडा कर देते हैं। अब 'जल के पास' कविता को ही लीजिए जिस जड तरीके से वह आरंभ होती है कि खीज होती है पर आगे जाकर वह अपनी रवानी पकडती है और अच्‍छी कविता बनती जाती है पर संपादन के अभाव में शुरू का कबाडा वैसा का वैसा रह आता है, ज‍बकि उसके बिना भी शेष कविता मुकम्‍मल लगती है। लगता है अफसरी की व्‍यस्‍तता में वे इस पर ध्‍यान नहीं दे पाते, और वे बताते भी हैं कि टाइपराइटर पर सीधे कविता लिखते पहले ड्राफट को ही अंतिम रहने देते हैं वे। 'जल के पास' कविता का आरंभ इस तरह होता है -

'मैं जल के पास गया
वह व्‍यस्‍त था,
उसे जल्‍दी थी,
जल के पास मेरे लिए समय न था।'

अब जल को भी आपने अपना अर्दली समझ रखा हो तभी तो उससे समय की आशा रखेंगे आप। अपनी जल्‍दी को आप जल पर क्‍यों आरोपित कर रहे हैं हुजूर, गति उसका स्‍वभाव है उसकी कोई व्‍यस्‍तता नहीं। पर इसी कविता में चौथे पैरे तक आते आते अशोक जी का कवि उनके अफसरान पर हावी होता है और वे लिखने लगते हैं -

'मेरे पास उसे देने लुभाने के लिए कुछ न था,
ऐसी भाषा तक नहीं
जिसमें जल से बात की जा सके।
मुझे पता है उसके कई रंग हैं :
किन्‍हीं आखों में वह प्रेम से नीला है
और कई समुद्रों में दूर से हरा -
इतनी सारी नदियों में
जब बस्तियों को दूर-दूर फैलाकर वह डुबो देता है
वह बिल्‍कुल मटमैला है।
शरणार्थी औरत की आंखों में सूखकर वह निर्मल है
भूखे बच्‍चे की आंखों में वह अकेला है।'

अब देखिए एक ही कविता में जब अशोक जी अपने भीतर उतरने लगते हैं तो जीवन के रंगों को किस तरह पकडते हैं उसकी बहुआयामिता में। इस पैरे में भी देखिए तो कि आरंभ में उनका रवैया पहले पैरा सा ही संलग्‍नता हीन है पर यहां तक आते आते औलौकिक वाला महाभाव तिरोहित हो चुका है सो जैसे ही वे कविता की जमीन पर उतरते हैं रंग बोलने लगते हैं। और यह तब होता है जब अपनी हे‍कडी छोड कि जल उनके लिए समय निकाले इस सच्‍चाई को वे जानने की कोशिश करते हैं उनके पास उसे लुभाने को कुछ नहीं, दरअसल वह लुभाने वाली चीज ही नहीं, और जब इसका अहसास कव‍ि को होता है तब उसे ख्‍याल आता है कि अबतक जिस भाषा में वह जल को समझने की कोशिश कर रहा था वह नाकाफी थी। मजेदार है कि कवि को उसके रंग पता थे पहले से पर ज्ञान की ताकत का दबाव उसके अंतर की कवि सुलभ भाषा को उभरने नहीं दे रहा था पर जीवन की भाषा का बोध होते ही झूठा आत्‍मगौरव बिला जाता है और कविता आंरभ होती है।

पर यह आत्‍मगौरव ज्‍यादा देर दबा नहीं रहता कविता के अंतिम पैरा में वह फिर हावी होता है और प्रेम के घर को खाला का घर बना डालता है। अंत में वे फिर लिखते हैं - ' मुझे ठीक से पता नहीं कि मुझे उससे क्‍या काम है।' और अंत में उनकी अफसरी सर चढ कर बोलने लगती है वह उन्‍हें सहज रहने ही नहीं देती, वे लिखते हैं -' मैं जल के पास जाकर / उसे आपबीती कहते सुनना चाहा हूं।' अब कवि क्‍या चाहता है वह साफ है, आम लोगों की आपबीती सुनते देखते उसका आनंद लेते वह ऐसा रूढ हो गया है कि वह जल थल आकाश सबकी आपबीती सुनना चाहता है। पहले तो कवि यह सोचता है कि वह जल के पास गया क्‍यों जब कोई काम ही नहीं फिर सोचता है कि एक ही काम के लिए वह किसी के पास जा सकता है उसकी आपबीती का मजा लेने क्‍योंकि कवि और अफसर होने की बिडंबना है यह कि आपबीती उसके लिए मजे की चीज हो जाती है। एक शासक एक दाता की तरह उसे बस आपबीतियां सुनने की आदत पड गयी है, आपबीतियों बनी रहें इसी में उसकी सेहत है पर अब जल को क्‍या पडी है कि वह आपबीती सुनाए, आप उसके पास आएं जाएं, ठेंगे से।

अब देखिए कि सायासता कितनी कूडा करने वाली चीज है जैसे लगे हाथ मैं ऐसी कविता करने की कोशिश करता हूं, मान लीजिए कि एक कविता का शीर्षक है 'उबलता हांडा' तो मैं लिखूंगा -' मैं उबलते हांडे के पास गया / तो एक दाना / उछलकर / बाहर / मेरी गोदी में आ गया।'

अशोक जी की एक दिक्‍कत यह है कि हर समय उनका अपराध बोध उन्‍हें कोंचता रहता है। उन्‍हें बारहा लगता है कि उनकी चादर मैली-कुचैली है। श्रमिक चेतना के अभाव के चलते ऐसा लगता है, क्‍यों खामखा अपनी मैली चादर को कबीर की चादर बनाने पर तुले हैं, लग भिड कर उसे साफ कर डालिए, पर नहीं, वे तो लिखेंगे -' अपनी मैली-कुचैली चादर के बारे में सोचता हूं...'। अरे यहां सोचने की नहीं करने की बात है उसे साफ कर डालिए, कितनी भी कविता करने से वह साफ नहीं होगी वह श्रम से साफ होगी, यह तो अज्ञेय ही लिख गये हैं कि दुख मांजता है, तो कुछ मंजने देते खुद को घिसने देते चादर को तो मैली-मैली कह के बिसूरे जा रहे। जबकि आपको पता है कि वह कैसे मैली हुयी -' प्रेम और ईर्ष्‍या ने / लालच और चाहत ने /

...जिंदगी को इतना और इतनी बार मैला किया है...पास-पडोस कोई कबीर नजर नहीं आता / जिसे यह चादर दे आउं / वक्‍त मिले तो इसे रफू कर दे / या किसी भरोसेमंद साबुन से धोकर / कुछ तो उजला कर दे।'

अब देखिए चीजें कितनी साफ हैं। आपकी चादर मैली हो आपकी ईर्ष्‍या से और उसे साफ और रफू करे कोई कबीर। तो भइया कबीर ऐसे नजर नहीं आने वाला, खुद उठाइए चादर, और साबुन ले, कर डालिए कुछ कसरत, वह साफ हो जाएगी आखिर उनसे भी आप साबुन वाली सफाई ही खोज रहे हैं ना, ऐसा क्‍यों खोज रहे हैं, कोई आन बाट से तो आए नहीं हैं आप।

रोने-बिसूरने की अजीब आदत है अशोकजी में, जहां देखो टेसुए बहाए जा रहे हैं, उपर से शिकायत भी कि ' रोने को कंधे कम मिले।' पर बिना कंधे के आपकी कुल कवितायी रोना ही तो है, अब जनाब अपनी दुनिया को थोडा सा बदलना चाहते थे पर अफसरी ने समय ना दिया तो इसका भी रोना -' पर अगर वक्‍त मिलता / तो एक छोटी सी कोशिश की जा सकती थी / हारी होड सही...।' नाम तो जबतब काल से होड लेने वाले शमशेर का भी लेते हैं, खुद हारी होड भी नहीं लगा पाते तो इतना रोना क्‍या, कुल 'अकाटू-बकाटू' लोग हैं ही कविता की परंपरा भरने को। परंपरा में तो दिक्‍कत होनी ही नहीं है दिक्‍कत तो नयी शुरूआत करने में है, नयी जमीन तोडने में है, ऐसा तो आपका इरादा रहा नहीं।

किसी अत्‍याचार की खबर जान-सुनकर कवि की प्रतिक्रिया होती है -' मैं नहीं था / पर होता तो चुप होता।' यह आप पहले से कैसे तय कर लेते हैं, घटना की जगह होने पर कौन जाने आपको पता चलता कि अभी खून है बाकी और वह बाकी खून खौल उठता, या कि चेतना सोई है और वह जाग उठती, ऐसे कुंठित भू-लुंठित बयान के क्‍या मायने। जिम्‍मेवारी का बोध बाकी है तभी आप प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो फिर उस बोध को ऐसा बेजान क्‍यों घोषित करते हैं आप, क्‍योंकि अगर वह बोध है तो उसमें प्रतिरोध की चेतना भी होगी, नहीं तो वह कोई मानसिक विकृति है, और उसके निदान की जरूरत है। शायद वह खंडित चेतना है क्‍यों‍कि 'आश्विटज' 1,2 और 3 में कवि की चेतना में आ रहे अंतर को देखा जा सकता है। पहली कविता में तो वह होकर भी निष्क्रिय रहने की बात कहता है पर दूसरी में उसकी चेतना खुद को अभिव्‍यक्‍त करती है और वह अपने 'पोते के तोतले प्रश्‍न' पर 'उम्‍मीद की एक नई वर्णमाला लिखना' चाहता है। और तीसरे भाग तक आते आते सच्‍चाई का बोध उनकी भाषा को वह तल्‍खी प्रदान करता है जो उसे करना चाहिए -' प्रार्थना न अब उनका घर थी, / न शिविर ...मृत्‍यु की ओर जाते हुए: / उनके पास काला होता हुआ 'नहीं' था।' यह काला होता हुआ 'नहीं' बोध की चेतना के चलते अभिव्‍यक्‍त हुआ है, नहीं तो अक्‍सर यह 'नहीं' उनकी आत्‍मग्रस्‍तता के बाहर अपना स्‍वर निकाल ही नहीं पाता।

कवि की मूल थाती है उनका दिगंबर बडबोलापन जो उनके कथन को सच की सहजता से दूर रखता है। 'अब मैं क्‍या बताउं ' कविता में इस बडबोलेपन की मिसाल देखिए। कविता आरंभ होती है -' ...कोई बडी आग भी मुझे नहीं मिली कि / मैं उसे जलाकर एक मशाल यहां तक ला सकता '। अगली पंक्ति में उनका बडबोलापन उनकी अपनी ही इस स्‍वीकारोक्ति को खारिज करता है -' कि दरअसल रोशनी कुल मिलाकर दमकता हुआ अंधेरा है ' पर खुद कवि को अपनी दिगंबरता इस कदर परेशान करती है कि फिर वह खुद को ढकने के लिए इस विकल्‍प को सामने लाता है -' कि श्रम या प्रेम से उतप्‍त हाथ / एक मात्र सम्‍भव दीप-शिखाएं हैं ' पर कवि को खुद पर विश्‍वास नहीं तो वह फिर एक तर्क देता है -' तो मैं जानता हूं कि आप यकीन नहीं करेंगे।' अब कवि को लग‍ता है कि यह भी काफी नहीं तो वह फिर अपने यकीन को ही यह कह कर खारिज करता है कि -' कह तो मैं यह भी सकता हूं / कि यकीन भी सिर्फ समझौता है...'। मतलब किसी शब्‍द का कोई निश्चित अर्थ वे कभी निकलने ही नहीं देते, चित भी मेरी पट भी मेरी की बचकानी जिद में वे अपने कथन के अर्थों को ही व्‍यर्थ करते रहते हैं। अगर-मगर-लेकिन टाइप बातें कवि की सच्‍ची जिच और बेबाकी की धार को कुंठित करती रहती हैं, साहस की कमी से उनके शब्‍द मरते रहते हैं, इसीलिये केदारनाथ सिंह जैसी हवाई उडान वे भी अक्‍सर लेते हैं पर कभी उनकी तरह साबुत जमीन पर फिर खुद को उतार नहीं पाते, मतलब कविता पूरी नहीं कर पाते। उनके खुद के मूल्‍यांकन का बोध उन्‍हें हमेशा बीच में मुंह के बल जमीन पर ला देता है। एक जगह अशोक जी लिखते हैं -' कविता की नैतिकता दूसरों पर दोषारोपन करने और अपनी जिम्‍मेदारी से बचने की अनुमति नहीं देती। आप उसकी अदालत में सिर्फ अपने गुनाहों के लिए हलफ उठा सकते हैं ... कविता मेरे लिए एक लंबी यात्रा रही है पर अगर वह न की होती तो मैं उतना आदमी भी न रह पाता जितना अच्‍छा-बुरा हो सका ... एक कव‍ि का अपना आदमीनामा जरूर वह है...कविता पर अपना नाम दर्ज करा पाना कठिन काम है और उसकी प्रतिभा बिरलों में होती है ...मैंने कवित‍ा में अपने सिवाय कुछ और होने की कभी कोई अकांक्षा या चेष्‍टा नहीं की।' अपनी कविताओं में दोषारोपन तो नहीं करते वे पर अपनी जिम्‍मेवारी से हमेशा बचते नजर आते हैं, नतीजा इस जिम्‍मेवारी से भागने के अपराध बोध में बारहा वे अपने गुनाहों के लिए हलफ उठाते दिखते हैं। अपना होना तय करने की कवि की जो सतत चेष्‍टा है यह उन्‍हें हमेशा बाधित करती है जहां वे इससे मुक्‍त हो सके हैं वहां उनकी कवितायी के रंग अलग दिखते हैं।

मैं मैं की रट उनकी कविता को अक्‍सर बेरंग करती है। वे लिखते हैं 'मैं अपने गुनाह' कबूल तो कर लेता'। क्‍या गुनाह किया है यह कहना उसे कबूल करने से अलग होता है। या जब तक आपको सजा ना दी जा सके तब तक आपका गुनाह कबूल किया गया नहीं माना जाएगा। 'रूक तो जाता' कविता में कवि लिखता है -' मुझे पता है कि बिना बताए / एक दिन उम्‍मीद ऐसे चली जाती है / जैसे कभी थी ही नहीं।' दरअसल कवि को इतना कुछ पता है कि निष्‍कर्ष 'कुछ पता नहीं' हो जाता है। 'पता है' शब्‍दावली के बहुप्रयोग वाली भाषा है कवि की, पर कविता 'ढाई आखर' जानने वाले की भी उतनी ही खफीफ होती है जितनी सर्वज्ञानी की, यह कविता का लोकतंत्र है। 'उन्‍हीं में से एक' कविता में कवि की पीडा है कि -' दूसरे जिस रास्‍ते जा रहे थे / वही मैंने चुना था / लेकिन पता नहीं कब और कैसे मैं एक अंधी गली में फंस गया।' जबकि कव‍ि के पास एक 'दर्दमंद दिल' और 'चौकन्‍ना दिमाग' और 'भरी पूरी जिंदगी' थी। अब जरा सोचिए कि इतनी मार तमाम कविताएं कवि के पास अपराध बोध की क्‍यों हैं, जिसमें मैं नीच नहीं, मैं पापी नहीं, या मैं तलघर के अंधेरे में कैसे उतर आया जबकि चला था रोशनी की ओर, जैसी बातें हैं। अशोक जी की कविताएं बस उनकी आत्‍मस्‍वीकृतियां हैं, कंफेशंस हैं।

अपने अपराध बोध अपने कथन की विचित्रता से जहां कवि बाहर आता है वह अच्‍छी कविता रचता है, 'वृक्ष ने कहा' कविता को देखिए -

'इधर-उधर भटकने से क्‍या होगा?
अपनी जडों पर जमकर रहो,
वहीं रस खींचो,
वहीं आएंगे फूल, फल, पक्षी
धूप और ओस,
वहीं आकाश झुकेगा -
वहीं पृथ्‍वी करेगी पूतस्‍पर्श-'

काश वृक्ष के इस कथन को कवि खुद पर भी लागू करता और अपनी जडों पर जमकर रहता और 'अनंत' पर 'इतना एकाग्र' नहीं होता कि आकाश को 'दाल-रोटी' खिलाने लगता तो उसका रूदन कुछ कम होता और वहां भी कुछ फूल,फल,पक्षी,धूप और ओस दिखाई दे सकती थी जिससे कि उसमें अपनी खोयी 'उम्‍मीद' के लौटने की आस जगती। देवताओं की तरह आकाश पर खुद को एकाग्र करने का नतीजा हुआ कि -

'देवता बेचारे
शब्‍दों की तलाश में
अनंत और संसार के बीच
भटकते हैं।'

कवि का यह अपराध बोध भी ओढा हुआ नकली है यह देवता बनने की गुप्‍त अकांक्षा का फल है जब कि कवि जानता है कि, -' अगर पतित न होते लगभग सभी देवता' , सभी देवता पतित हैं। यह देवता होने की अकांक्षा, 'द्विज' होने की चाह यही मारती है कवि को। कवि का मानना है कि -' कवि द्विज होता है...अगर वह प्रतिभाशाली और भाग्‍यवान हुआ तो उसका यह दूसरा जीवन उसके मूल भौतिक जीवन से अधिक टिकाउ, सार्थक और स्‍मरणीय होता है।' उनकी कविताओं से गुजरते हुए आप देख सक‍ते हैं कि यह दो दो जनम, प्रतिभाशाली और भाग्‍यवान होने का चक्‍कर कवि को कैसे घेरता है और मारे डालता है।

जहां कहीं भी कवि दो जन्‍मों के इस चक्‍कर से बाहर आ खुले मन से आकाश से नजरें हटा इस धरती को देखने की कोशिश करता है वहां वह इस जमीन के संगीत को सुन पाता है और उसे बखूबी अभिव्‍यक्‍त भी कर पाता है तब उसके साथ-साथ 'शब्‍द' ही नहीं गाते सारा 'ब्रहमांड' ही गाने लगता है -

'शब्‍द नहीं गाते,
गाता है नक्षत्रों के बियावान पर चंदोवे की तरह तना आकाश,
अपनी कक्षा पर परिक्रमा करती हुई पृथ्‍वी,
शाम के रंगों के पार बहती क्षीणतोया नदी,
चटटान पर उडान के पहले सुस्‍ताती पीली चिडिया,

...

किसी भी छोर से
अमेजान के जंगल की असूर्यम्‍पश्‍य छांह में
धीरे-धीरे रेंगती हुई एक वीरबहूटी सिर उठाकर अकस्‍मात
शुरू करती है उजाले का एक हलका-सा-गान
जिसे उठाकर ले जाती है पक्षियों की एक कतार,
बादलों की घनघमंड गरज के पार...'।

इस कवितांश को देखिए, यहां भी आदतन कवि आकाश के चंदोवे से आरंभ करता है पर धरती पर नजर पडते ही जो उसके शब्‍द गाने लगते हैं तो फिर संगीत क्‍या कहना, पीली चिडिया से वीरबहूटी तक सब गाने लगते हैं, और यह गान सिक्‍कों के संगीत को भी किनारा करता हुआ ब्रहमांड तक उठता चला जाता है -

'जहां सिक्‍कों की खनक को नजरंदाज करते हुए उठता है गान-
पलाश पर फूलों की तरह सुलगता हुआ
जिसे खिडकी से हाथ बढाकर लपक लेती है
प्रेम में उद्धत हो गई लडकी
जिसकी शांत आग में भस्‍म होता है सारा संगीत :
शब्‍द नहीं गाते, गाता है सारा ब्रहमांड।'

अपने भटकाउ आकाश के बाहर जाकर जहां भी कव‍ि एक नयी 'शुरूआत' करना चाहता है, कर पाता है -

'वे सब चले गए
सब कुछ रौंदकर, ध्‍वस्‍त कर
आश्‍वस्‍त कि उन्‍होंने कुछ भी अक्षत नहीं छोडा।
तब सूखी पत्तियों के ढेर में गुम हुए कीडे की तरह
एक शब्‍द आया
और उसने अपने मुंह में थोडी सी मिटटी
और तिनके उठाकर रचने की शुरूआत की।'

यहां कवि देखे कि चरम निराशा और अंत की स्थिति में भी वह कैसे जीने का संबल ढूंढ पाता है, वह सोचे कि शुरूआत की आशामयी उपस्थिति के बावजूद वह क्‍यों बार-बार आकाश का मुंह निहारता है कि कोई देवता उसे शरण दे, शरण यहीं है इसी धरती पर, और वह उसे जानता भी है।

अनंत और आकाश आदि का राग कवि के यहां बाद के सालों में बढता गया है, ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं कि 'कोई नहीं जाता अनंत की ओर-'। 'अन्‍तत:' उसे पता है कि-

'चोर दरवाजा कोई नहीं है
सब रास्‍ते जाते हैं-
जन्‍म से मृत्‍यु की ओर
कोई नहीं जाता अनन्‍त की ओर-
प्रार्थना सिर्फ एक खिडकी है
जो एक असंभव अदृश्‍य रास्‍ते पर
कुछ देर खुलती है
और
फिर बंद होती है।'

अपेक्षाकृत पहले की कविताओं में जीवन के प्रति कवि की दृष्टि ज्‍यादा सहज और सच के करीब है, वह जब तब जीवन की कठोर सच्‍चाईयों का अनुसंधान भी करता है-

' कोई नहीं जानता कि
... उडती चिडिया कब सुस्‍ताने बैठ जाएगी
बिजली के एक तार पर और
आहलाद से झूलकर छू लेगी दूसरा तार भी।'

बाद की कविताओं में एक तरह का सतहीपन बढता जाता है, जैसे 'अगर मैं हो पाता' कविता में प्रेम की नयी नयी पढाई करने वाले कवियों की तरह वे लिखते हैं -' अगर मैं हो पाता /... उसके कुचाग्रों का कत्‍थईपन, / उसकी जांघ पर पसीने की बूंद' आदि। अगर आप यह सब होते तो फिर वह 'कुत्‍ता जीभ' कौन होता।

अशोक जी की प्रेम कविताओं में भी सहजता का अभाव है, उर्जा का अभाव है, अक्‍सर ऐसे चित्र आते हैं कि बाकी दुनिया उनके प्रेम के लिए कुछ करे तो वे प्रेम करें -

'उसकी निश्‍छल आत्‍मा गढी गयी है / पवित्र उज्‍जवलता से,...उसे सम्‍हालकर / मेरे पास लाना, देवताओ।' यहां कविता पढते हुए लगता है कि देवता कवि व्‍यंग्‍य में कह रहा हो, दरअसल वह वह प्रेम भी सीढियों के सहारे करना चाहता है। अब कोई देवता या मजदूर उसकी प्रेमिका को लाए संभालकर तो वह प्रेम करे। अजीब है प्रेमी खुद अपने को दवार पर टिकाए हुए है कि -

' मोड पर मिलते हैं जितने देवता / उनसे कहता हूं कि पालकी ढोकर ले आओ । मैं अगवानी में अपने दवार खडा हूं।' मतलब इस महान प्रेम में भी कवि पालकी ढोने वाले श्रमिक वर्ग पर आश्रित सा है, उन्‍हें बरगलाने को देवता कह दे रहा जबकि उन्‍हें गली के मोड से बुला लाया है और उनसे आशा कर रहा है कि वह उनके मन में प्रेमिका के प्रति प्‍यार की भावना को समझे और उसका ख्‍याल रखे, ऐसा सामंती प्रेम तो हिन्‍दी क्‍या किसी भी कविता में दुर्लभ है।

'वह बांहों के घेरे में, शब्‍दों के नहीं-
उसके कत्‍थई कुचाग्र, उसके ओठों के बीच, शब्‍दों के नहीं-
वह उस पर मदनारूढ शब्‍दों पर नहीं-'

शब्‍दों में मदनारूढता का ऐसा नमूना ना इससे पहले कहीं दिखा है ना आगे दिखेगा, लीजिए कविता हो गयी अकालजयी। इस तरह की कविताओं को पढते लगता है कि कविता नहीं पढ रहा होउं, डिसकवरी चैनल देख रहा होउं।

एक ओर तो कवि की अतुलनीय उत्‍तरोत्‍तराधुनिक मदनारूढता है दूसरी ओर संकोच भी है उस जमाने का जो अब कथाओं में ही बाकी रह गया है- 'वह कैसे कहेगी हां-/ हां कहेंगे / उसके अनुरक्‍त नेत्र / उसके उदग्र-उत्‍सुक कुचाग्र...'।

मजेदार बात है कि एक ओर जहां अशोक जी के यहां आकाश ताकना बहुत है वही इस आकाश में पत्‍थर भी बहुत हैं। पत्‍थर भी कैसे-कैसे। कहीं वह रास्‍ते का पत्‍थर है कहीं केली करता पत्‍थर है। आशोकजी के यहां केलि शब्‍द जिस तरह से आता है उसे पढते हुए अक्‍सर मुझे मनोहरश्‍याम जोशी का शब्‍द पहुंचेली याद आता है और अशोकजी को पहुंचेला कहने का मन करता है। पत्‍थर को लेकर भी अशोक जी के विचार आकाश और धरती की तरह दो किनारे पर हैं। एक कविता , 'पत्‍थर से केलि करता है पत्‍थर' में जब वे पत्‍थर से केलि कराने पर आ जाते हैं तो उनका पत्‍थर चूमने, भींचने, मर्दन करने, कांपने से लेकर पसीजने तक तमाम केलि क्रियाएं करता है। ऐसी केलि पढकर मन पथरा जाता है पर हर जगह ऐसा पथरीलापन ही नहीं है। 'छब्‍बीसवीं बरसी' कविता में वे पत्‍थर को पत्‍थर की तरह भी देख पाते हैं -' पत्‍थरों का जीवन लंबा होता है मनुष्‍यों के जीवन से / लेकिन स्‍मृतिहीन, / उनकी शिराओं में कभी कोई स्‍पंदन नहीं होता / जो याद रख सके कुछ भी।' पता नहीं इन पत्‍थरों में सही कौन सा पत्‍थर है, केली करने वाला पत्‍थर या यह स्‍पंदन हीन पत्‍थर।

यहां गौर से देखें तो अशोक जी की गडबडियों को हम देख सकते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव में वे पत्‍थरों का जीवन देख नहीं पाते। पत्‍थरों का जीवन होता है पर उसे आप मनुष्‍य के जीवन के साथ रख कर नहीं देख सकते उसे आप ब्रहमांड के जीवन में रखकर ही देख सकते हैं उनके भीतर भी झरने और ज्‍वाला‍मुखियां स्‍पंदित होती रहती हैं पर उस स्‍पंदन को आप मनुष्‍य के स्‍पंदन से जोड कर नहीं देख सकते , यह तुलना ही बेमानी है। तो जिस तरह पत्‍थर को मनुष्‍य की तरह देखकर उससे केलि कराना गलत चित्र है उसी तरह उसे स्‍पंदन हीन बताना भी, क्‍यों कि ये संदर्भहीन उपक्रम हैं।