अशोक वाजपेयी के नाम पत्र / दूधनाथ सिंह

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दूधनाथ सिंह, बी-7, ए.डी.ए. कॉलोनी, प्रतिष्ठानपुरी (नई झूँसी) इलाहाबाद-211019, फोन: 2569123, मो. 09415235357

दिनांक 18.04.2011

प्रिय अशोक जी,

‘हरा चेक’ कविता भेज रहा हूँ।

मुझे तो बहुत अच्छी लगती है यह कविता — आपको भी भाएगी। मैं लगातार इधर-उधर बहक रहा हूँ। मुख्य काम (उपन्यास) करते-करते कुछ दूसरा करने लगता हूँ। घबराहट और अवसाद में जिधर, जो करने में मन लगता है, ख़ुशी मिलती है, मन में हिलोर उठती है... एक तरह का सान्द्र आनन्द, वह काम उठा लेता हूँ। जैसे शमशेर वाली किताब। उसके सबसे बड़े पारखी आप रहे। करते वक़्त सोचता था कि 13 जनवरी, 2011 को आप द्वारा प्रस्तावित किताबों में एक किताब (वन्दना के प्रिय स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो) यह भी हो जाएगी। ख़ैर, उस किताब का सबसे बड़ा सौभाग्य यह रहा कि उसे आपकी वजह से सैयद रजा साहब ने रिलीज की।

बहरहाल... फिर मैं केदार जी वाले चयन में फँस गया — उनकी निपट सादगी और मेरे प्रति जो उनका स्नेह था, उसकी वजह से। अभी अचानक शमशेर का सब कुछ निकाला और उलझ गया। लेकिन इस ‘उलझन’ में राग है, रस है, निपट-निराला आनन्द है। पत्नी कहती है, ‘यह फिर तुम क्या ले बैठे। अपना कुछ करो। उसे छोड़ दिया।’ लेकिन ‘शमशेर’ छूट नहीं रहे। पाँच बार सारी कविताएँ पढ़ने के बाद चयन बनाया। इतना काटा-कूटा, निकाला-पैठाया। क्या छोड़ें, यह समस्या। और एक जगत शंखधर हैं ! लगता है, जिन संग्रहों का भी उन्होंने चयन किया, उसमें कुछ भी छोड़ने लायक नहीं। फिर भी चयन बनाओगे तो छोड़ना तो पड़ेगा। यह तय करना मुश्किल है, शमशेर में क्या सर्वश्रेष्ठ नहीं है। आपने जो बनाया, वह बहुत अच्छा है।

लेकिन अभी देखिए न, एन०बी०टी० से नामवर जी ने ‘अज्ञेय’ का चयन (और भूमिका भी) कितने बेमन से किया है। ‘चयन’ शब्द पर विचार ही जैसे नहीं किया। अब इसकी क्या ज़रूरत है ! इसलिए कि नामवर सिंह ‘नामवर’ सिंह हैं? इससे अच्छा तो होता कि आचार्य जी (श्री नन्द किशोर आचार्य) को दे देते। उनमें वात्स्यायन जी के प्रति भक्ति, आस्था और समझ तो है। और एन०बी०टी० ने कितना ख़राब प्रोडक्शन किया है। वहाँ सब लोग सिर्फ़ ‘नौकरी’ करते हैं। फिर ‘अज्ञेय’ जी की रचनावली के सम्पादन को देखिए। पता नहीं, ‘वत्सल निधि’ ने कृष्णदत्त पालीवाल को क्यों दिया। पालीवाल जी तो एक सरल मूर्ख हैं। अज्ञेय का सम्पादन किसी रिसर्चर का काम नहीं, उसका जिसको साहित्य की गहरी समझ हो और जिसके भीतर अज्ञेय के प्रति एक प्रकार की ‘भाव-भगति’ हो।

मैत्री-सम्पादन नहीं चलेगा, जैसे कालिया ने अपने मित्र कन्हैया लाल नन्दन से वात्स्यायन जी का एक चयन करवाया। तो कालिया तो अपनी ‘कान्सीट्यूएंसी’ बनाता है। इस प्रयत्न में उसने पिछले वर्षों में टनों कूड़ा ‘ज्ञानपीठ’ के सिर पर लाद दिया। वे प्रकाशन अभी से बेकार हो गए। लेकिन बिक्री के आँकड़े दिखाकर वह ‘ट्रस्ट’ को भरमाने में माहिर है। ये सब बातें हैं। तो क्या कर सकते हैं। मैंने ‘रूपाम्बरा’ के पुनर्संस्करण के लिये कितनी बार उससे बातें कीं। क्या हुआ?

शमशेर का चयन छपने की परेशानी नहीं है। मेरे दिमाग में उसकी भूमिका को लेकर बहुत सारी बातें चल रही हैं। रातों को बार-बार उठता हूँ और अन्धेरे में कोई शब्द ‘नोट’ करके फिर पड़ जाता हूँ। और अब उम्र हो रही है। डर भी लगता है। सब कुछ अधूरा भी छूट सकता है। इन बातों के अलावा जीवन में कोई रस, कोई लालच, कोई उद्देश्य नहीं है। मन उबल रहा था तो आपको लिख दिया, अन्यथा कौन है, जो अब सुनता है।

आपका

दूधनाथ सिंह