अश्लीलता का हव्वा किसने खड़ा किया? / जयप्रकाश चौकसे

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अश्लीलता का हव्वा किसने खड़ा किया?
प्रकाशन तिथि :29 अप्रैल 2016


एक निर्माता ने सगर्व कहा कि उनकी फिल्में शयन कक्ष से प्रारंभ होकर विवाह की वेदी तक जाती है। शयन कक्ष प्रेम कहानियों की नर्सरी और कब्रिस्तान दोनों ही रहा है। शयन कक्ष की दीवारें खामोश रहती हैं और अगर वे वाचाल होतीं तो हमारा सामाजिक इतिहास बदल जाता। दीवारें कदाचित खामोश रहने के लिए अभिशप्त हंै परंतु उनके कान होते हैं और वे वह भी सुन लेती हैं, जो मनुष्य बोलना चाहता था परंतु खामोश रहा। विवाह के कालीन के नीचे बीमार समाज का सारा कचरा जमा रहता है। कश्मीर में दुकानदार अपने लटकते हुए कालीनों को डंडों से पीटते रहते हैं, क्योंकि उसमें घुसी मिट्‌टी कीटाणु बनकर उन्हें खा जाती है। मिट्‌टी के कण आणविक शक्ति रखते हैं। शाहजहां ने ताजमहल बनाया परंतु उनकी बेटी जहांआरा की वसीयत के अनुसार उनकी कब्र मिट्‌टी की बनाई गई, जिस पर हरी दूब उगती है। जहांआरा ने 'साहिबा' नामक एक अफसाना भी लिखा है।

शयन-कक्ष नुमा सेट पर नीले फीते का जहर रचा जाता है, जिसे पोर्नोग्राफी कहते हैं। यह समानांतर सिनेमा उद्योग स्वीडन में प्रारंभ हुआ था और अब अनेक देशों में सक्रिय है। नीले फीते के जहर को अवाम ब्ल्यू फिल्में कहता है। इनकी तस्करी होती है, क्योंकि अनेक देशों में इन्हें बनाना प्रतिबंधित है। अनेक टीवी चैनल इसे दिखाते हैं और इनकी विभिन्न शैलियों की फिल्में बनती हैं। टेक्नोलॉजी सेन्सर को धता बताकर अभिव्यक्ति की संपूर्ण स्वतंत्रता की हिमायती बन जाती है। स्टेनली कुब्रिक की फिल्म 'क्लॉकवर्क ऑरेन्ज' में एक कमसिन युवा पर आदतन दुष्कर्मी होने का आरोप है और अदालत की इजाजत से एक शोधकर्ता उसे ले जाता है और निरंतर ब्ल्यू फिल्में दिखाता है। यहां तक कि उसे रस्सी से बांधकर ये फिल्में दिखाई जाती हैं। महीनों तक चले सिलसिले के बाद युवा की यह हालत हो जाती है कि वह महिला को देखने मात्र से कांपने लगता है। उसका 'उपचार' हो जाता है परंतु वह आत्महत्या कर लेता है। संदेश है कि सेक्स एवं हिंसा मानव स्वभाव के अंश हैं, जिनसे वंचित व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। स्टेनली कुब्रिक की मूल चिंता यह थी कि संपूर्ण स्वतंत्रता समाज संरचना को तोड़ सकती है और समाज एवं सरकार शक्तिशाली होने पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण कर लेती है। एक अध्ययन यह भी कहता है कि तानाशाह कुंठित व्यक्ति होते हैं। कवि कुमार अंबुज कुछ लोगों को सूखी नदियां कहते हैं। शैलेंद्र 'मधुमति' के लिए लिखते हैं, 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात जरा सी।' इस तरह के साहित्य और सिनेमा को प्रतिबंधित करने के हिमायती कहते हैं कि ये मनुष्य के लिए घातक है। सत्य यह है कि जनजातियों और ग्रामीण अंचलों में ये हमेशा लोकप्रिय रहे हैं। टुविन नामक रिकॉर्डिंग कंपनी के 'सिपहिया गीत' अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। जोश मलीहाबादी जैसे महान शायर ने भी फिल्म गीत लिखा है, 'जुबना का उभार देखो, फौैज की मौजें देखो' और मजरूह साहब ने सुभाई घई की फिल्म के गीत 'चोली के पीछे क्या है,' की आलोचना की परंतु उन्होंने भी लिखा है, 'आंचल में क्या जी… गजब-सी हलचल।' तथाकथित तौर पर सुसंस्कृत होने की प्रक्रिया में शायद हम बहुत कुछ खो देते हैं। व्यवस्थाएं प्राय: निर्मम होकर उनकी स्वतंत्रता को ही हड़प लेती है, जिन्होंने उन्हें चुना और सत्ता सौंपी। सर्पणी एक कतार में अनेक अंडे देने के बाद अपनी भूख के कारण उन अंडों को ही खा जाती है। हवा के कारण कतार से लुढ़के कुछ अंडे बच जाते हैं। सामान्य सिनेमा और ब्ल्यू फिल्में ऐसे ही अंडे हैं। इरविंग वैलेस का उपन्यास 'सेवन मिनट्स' साहसी किताबों को प्रतिबंधित करने के प्रयासों का लेखा-जोखा है। चर्च के प्रधान पोप भी समय-समय पर ऐसी किताबों की सूची प्रकाशित करते हैं, जिन्हें नहीं पढ़ने की सलाह दी जाती है। किताबों पर फतवे भी जारी होते हैं। पंडित भी मुनादी जारी करते हैं। तमाम सरकारी और धार्मिक संगठनों के विरोध के बावजूद प्रवाह जारी है, क्योंकि मांग है। पांचवें दशक के हर कमसिन ने 'भांग की पकौड़ी' नामक किताब छिपाकर पढ़ी है। सुना है कि इसके लेखक नई कहानी अांदोलन के साथ जुड़े थे और अपनी आर्थिक तंगी के दौर में यह किताब छद्‌म ाम से लिखी थी। हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के कर्कल एपिसोड में इस तरह की किताबों की ओर संकेत हैं।

इरविंग वैलेस की ' सेवन मिनिट्स' में कमसिन किशोर को नपुंसकता के हव्वे से स्वतंत्र करानी वाली तवायफ का उल्लेख है। इस किताब में किशोरवय बालक के अश्लील किताबें पढ़कर दुष्कर्म और हत्या के मुकदमे में जज ही गवाही देते हैं कि किस तरह उन्हें एक प्रेमल तवायफ ने नपुंसकता के हव्वे से स्वतंत्र किया। अपनी सारी उम्र की ख्याति और सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति दांव पर लगाकर जज गवाही देते हैं। इस तरह के काम के लिए 56 इंच की छाती नहीं, नैतिक साहस लगता है। सारी बात आ-जाकर यहीं टिकती है कि यौन शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए। दरअसल, सारे पाठ्यक्रम ही पुन: विचार के लिए प्रस्तुत किए जाने चाहिए। पाठ्यक्रम के नवीनीकरण के साथ यह भी जुड़ा है कि योग्य शिक्षक कहां से लाएंगे? समाज के दहेज बाजार में शिक्षक को कम दामों का रखने और आईएएस तथा डॉक्टर का अधिक दहेज पाने ने बहुत कहर ढाया है। हमारा 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाना महज ढकोसला है।