अष्‍टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–168

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जीवन की एक मात्र दीनता: वासना

ऐसा हुआ कि स्वामी विवेकानंद अमरीका से वापिस लौटे। जब वे वापिस आए तो बंगाल में अकाल पड़ा था। तो वे तत्‍क्षण आ कर अकालग्रस्त क्षेत्र में सेवा करने चले गए। ढाका की बात है। ढाका के कुछ वेदांती पंडित उनका दर्शन करने आए। स्वामी जी अमरीका से लौटे, भारत की पताका फहरा कर लौटे! तो पंडित दर्शन करने आए थे, सत्संग करने आए थे। लेकिन जब पंडित आए तो स्वामी विवेकानंद ने न तो वेदांत की कोई बात की, न ब्रह्म की कोई चर्चा की, कोई अध्यात्म, अद्वैत की बात ही न उठाई, वे तो अकाल की बात करने लगे और वे तो जो दुख फैला था चारों तरफ उससे ऐसे दुखी हो गए कि खुद ही रोने लगे, आंख से आंसू झरझर बहने लगे। पंडित एक—दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुराने लगे कि यह असार संसार के लिए रो रहा है। यह शरीर तो मिट्टी है और यह रो रहा है, यह कैसा ज्ञानी! उनको एक—दूसरे की तरफ व्यंग्य से मुस्कुराते देख कर विवेकानंद को कुछ समझ न आया। उन्होंने कहा, मामला क्या है, आप हंसते हैँ? तो उनके प्रधान ने कहा कि हंसने की बात है। हम तो सोचते थे आप परमज्ञानी हैं। आप रो रहे हैं? शास्त्रों में साफ कहा है कि देह तो हैं ही नहीं हम, हम तो आत्मा हैं! शास्त्रों में साफ कहा है कि हम तो स्वयं ब्रह्म हैं, न जिसकी कोई मृत्यु होती, न कोई जन्म होता। और आप ज्ञानी हो कर रो रहे हैं? हम तो सोचते थे, हम परमज्ञानी का दर्शन करने आए हैं, आप अज्ञान में डूब रहे हैं! विवेकानंद का सोटा पास पड़ा था, उन्होंने सोटा उठा लिया, टूट पड़े उस आदमी पर। उसके सिर पर डंडा रख कर बोले कि अगर तू सचमुच ज्ञानी है तो अब बैठ, तू बैठा रह, मुझे मारने दे। तू इतना ही स्मरण रखना कि तू शरीर नहीं है। विवेकानंद का वैसा रूप—मजबूत तो आदमी थे ही, वे हट्टे—कट्टे आदमी थे—और हाथ में उनके बड़ा डंडा! उस पंडित की तो रूह निकल गई। वह तो गिड़गिड़ाने लगा कि महाराज, रुको, यह क्या करते हो? अरे, यह कोई ज्ञान की बात है? हम तो सत्संग करने आए हैं। यह कोई उचित मालूम होता है? वह तो भागा। उसने देखा कि यह आदमी तो जान से मार डाल दे सकता है। उसके पीछे बाकी पंडित भी खिसक गए। विवेकानंद ने कहा : शास्त्र को दोहरा देने से कुछ ज्ञान नहीं हो जाता। पांडित्य ज्ञान नहीं है। पर—उपदेश कुशल बहुतेरे! वह जो पंडित ज्ञान की बात कर रहा था, तोतारटत थी। उस तोतारटंत में कहीं भी कोई आत्मानुभव नहीं है। शास्त्र की थी, स्वयं की नहीं थी। और जो स्वयं की न हो, वह दो कौड़ी की है। तो अष्टावक्र पहली परीक्षा खड़ी करते हैं। पहली परीक्षा, वे यह कहते हैं : जनक, ध्यान कर! तू कहता है, आत्मा को तत्वत: तूने जान लिया, पहचान गया अविनाशी को, अब क्या तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन कमाने में थोड़ी भी रुचि है? इसका मुझे उत्तर दे। गुरु तो दर्पण है। गुरु के दर्पण के समक्ष तो शिष्य को समग्र—रूप से नग्न हो जाना है। उसे तो अपने हृदय को पूरा उघाड़ कर रख देना है, तो ही क्रांति घट सकती है।