असफल / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वह लम्बे-लम्बे डग भरता है। उसे मालूम है कि मॉर्निंग वाक् के समय जोर-जोर से चलना चाहिए. धीमे टहलने से कोई फायदा नहीं। परन्तु तेज कदमों से चलने से वह थक जाता है, हांफने लगता है और सिर्फ़ एक ही चक्कर लगा पाता है। उसे कम से कम दो चक्कर तो लगाने ही हैं। दूसरा चक्कर वह बहुत ही धीमे-धीमें लेता है। इसलिए अक्सर वह लम्बे-लम्बे डग नहीं भरता।

इस धीमें-धीमें टहलने में ही, वह सर्र से उसे पार कर के निकल गई. फिर वह ठिठकी। रूकी। उसके पास आने का इन्तजार किया।

'अंकल, समय क्या है?' वह भौचक, अपलक उसे निहार रहा था। उन्नीस-बीस वर्ष की गोरी-चिटठी, मध्यम कद-काठी, एकहरे बदन आकर्षक सलोनी, काली चमकदार ऑखंे और हिरनी-सी चपल थी। लड़की जब स्थिर हुई तो वह गजब ढा रही थी। उसे लगा कि वह बेहोश हो जायेगा अद्भुद अप्रतिम था उसका सौन्दर्य, जो पहले कभी उसने नहीं देखा था। उसने अपने आप को सम्भाला और अपने आप को यकीन दिलाया कि वह उसी से मुखातिब है। लड़की ने एक बार अपने प्रश्न को दोहराया। आदमी ने उत्साहित हो समय बताया।

अब लड़की उसके साथ चलने लगी थी। आदमी को उसका साथ अच्छा लग रहा था अब तक की पूरी ज़िन्दगी में कभी भी उसे इतना हसीन साथ मयस्सर नहीं हुआ था और अब इस उम्र में अकल्पनीय था। अचंभित करने वाला था। वह सुख से सिकुड़ गया था।

आदमी पर उदासी की घनीभूत पर्तें हमेशा जमीं रहती थी। निराशा हर समय डेरा डाले रहती थी। अवसाद की काली छाया उस पर छाई रहती थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह व्यक्ति जल्दी ही आत्महत्या करने वाला है, परन्तु यह विचार कभी भी उसके जेहन में अवतरित नहीं होता था। आदमी नियमित मार्निग वाकर नहीं था। अक्सर उसे देर से नींद आती थी। कभी-कभी उसे पूरी रात जगते हुये भी काटनी पड़ती थी। हॉं, जिस दिन वह सुबह पांच-छै बजे के करीब उठ जाता था तो, थोड़ी दूर पर स्थित गार्डेन ज़रूर जाता था। स्वास्थ्य लाभ के लिए कम कुछ समय काटने के ख्याल से ज्यादा। कभी-कभी तो वह ऊँघते हुुए भी टहलता रहता था।

वह लड़़की पहली बार उसे दिखी थी। ताज्जुब की बात यह है कि उसने उससे बड़ी अंतरंगता से बात की थी, जैसे कोई अपना करता है। अब वह इस बात का ध्यान रखता था कि किसी भी दिन उसका मार्निंग वाक् मिस न हो। उसे उस लड़की को देखना उससे बातें करना अच्छा लगता था। उससे मिलने में उसमें ऊर्जा का संचार होता था। वह लड़की भी उसे देखकर अपनी जागिंग छोड़कर उसके साथ वाक करने लगती थी। बाद वह दोनों एक पीपल पेड़ के नीचे बने चबूतरे में बैठकर सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक बातें किया करते थे। कभी-कभी उनकी बातें फ़िल्मों और फैशन पर भी सिमट जाया करती थी। बहसों पर उलझने के कारण उन्हें देर हों जाया करती। वह कालेज देर जा पाती और उसे आफिस में झिड़की झेलनी पड़ती।

आदमी को अंकल सुनना अच्छा नहीं लगता। हालांकि वह जानता था कि यदि उसकी शादी न टूटती तो उसकी सन्तान भी इतनी ही उम्र की होती। परन्तु वह मना करने का साहस नहीं जुटा पाया। लड़की बेफ्रिक थी। वह बेलौस, बेलाग थी। वह स्वछंद तितली की तरह उड़ती और कोयल की मानिंद कूकती थी।

'अंकल! आपकी शादी हो गई है?' इतनी उम्र में कोई कुवाँरा कैसे रह सकता है? फिर भी उसने आश्वस्त हो जाना चाहा।

'हाँ और टूट भी गई है।' अब मैं अकेला हूँ। उसने उॅसास भरी और ढीला पड़ गया।

' क्यों?

' अब क्या बताएँ? तुम अभी बच्ची हो।

समझ नहीं पाओगी। बेबी.

' मैं बेबी नहीं हूँ। उन्नीस साल की हूँ।

बालिग से भी एक साल ज्यादा।

'मैं, उन्चास साल का अंकल हँू तो तुम उन्नीस साल की बेबी क्यों नहीं?'

परन्तु वह उससे सहमत नहीं थी। वह नाराज होकर चली गई. उसने एक बार भी पलट कर नहीं देखा। उसे उसका इस तरह से जाना अच्छा नहीें लग रहा था। परन्तु उसने उसे मनाने की कोई कोशिश नहीं की।

दो-तीन दिनों से वह दिखाई नहीं पड़ रही थी। वह नियमित थी और उसका कोई शिड्यूल नहीं था। अब वह उसको देखने मिलने की उत्सुकता के कारण नियमित हो गया था। परन्तु लड़की को क्या हुआ? वह क्या उससे बचना चाह रही थीं या अपनी नाराजगी प्रदर्शित कर रही थी। वह कयास लगाने में असमर्थ था। वह बेचैन हो उठा। उसने आज गार्डेन का हर कोना छाना। आखिर में वह दिखाई पड़ गईं। वह एक उजाड़ कोने में ऐरोबिक एक्सरसाइज कर रही थी। वह दृष्टि लगाये, उसकी हरकतों को निहारने लगा। वह उसे अनदेखा कर रही थी। उससे रहा नहीं गया।

'नाराज हो,' उसने समझौते की पेशकश की।

'हाँ। आप मुझे बेबी कहते हैं,'

'इसमें ग़लत क्या है?'

'आप बेबी नहीं कहेंगे। आप मेरा नाम ले सकते हैं...वर्षा।'

'अच्छा, मैं ऐसा ही बोलूगां।' उसने अपनी सहमति दी।

'तो फिर मिलाओ हांथ। आज से हम दोस्त हुए.'

लड़की ने अपना दायाँ हाथ आगे कर दिया। उसने हाथ तो मिलाया पर हाथ मिलाते-मिलाते उसके मुँह से निकल गया।

'दोस्ती और दुश्मनी तो बराबर वालों में होती है। एक तो तुम लड़की और फिर उम्र में इतना फर्क। ठीक रहेगा?'

'दोस्ती नहीं हो सकती तो प्यार तो हो सकता है।' उसने तपाक से कहा। वह हतप्रभ। अवाक रह गया।

प्यार के मामले में वह गरीब था। प्यार तो क्या वह शुरू से ही हर मामले में गरीब था। उसका पिता एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक। तीन लड़कियों के बाद, बड़ी मन्नतों के बाद उसका जन्म हुआ था। पिता गरीब तो परिवार गरीब था। परिवरिश गरीबी में। पढ़ाई में भी वह गरीब था, वह कभी अव्वल नम्बरों से पास नहीं हुआ। पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए उसे एक दो ट्यूशनें करनी पड़ती थी। समय नहीं था तो मित्रो के मामले में भी गरीबी. वह शक्ल सूरत और कद-काठी में भी गरीब था। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक गरीबी के कारण उसे प्यार में भी गरीबी मिली। उसकी कभी कोई गर्लफ्रैण्ड नहीं बनी। यानी कि सम्पूर्णरूप से गरीब। उसे अपनी स्थिति का अहसास था, इस कारण वह संतुष्ट था। उसे उम्मीद थी कि शादी वाली लड़की उसे अवश्य प्यार करेगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ।

अब इस उम्र में कोई कमसिन हसीन लड़की उससे प्यार करेगी? वह अकल्पनीय और अविश्वसनीय था। ...आखिर उसे भी आत्मीय का प्यार स्नेह पाने का अधिकार होना चाहिये...वह भी मनुष्य है। ...उसे भी साथ चाहिए ...अपनेपन का साथ...जो उसके दुख को ढक सके. उसे लगा कि उसके पत्थर होते मन से झरना फूट पड़ा है जो उसे सिक्त करता जा रहा है। ...इस खालीपन में कोई एक चाहिए था जिसका चेहरा ऑखों में छाया रहे। ...बगैर प्यार के ज़िन्दगी क्या होती है? ...प्यार सबसे बड़ी दौलत होेती है और इस दोैलत के बगैर वह जिन्दा है। ...कोई भी हो ...हो तो अपना। चाहे दूर हो, पर हो चाहने वाला उसे ज़रूर चाहिए था। अगर यह मिल जाये ...स्वर्ग मिल जायेगा। क्या बचकानी बातें है...ऐसा कहीं हो सकता है? ...असम्भव है ऐसा सोचना। यह ठीक नहीं है। ।

उसकी आर्थिक गरीबी तो उस दिन दूर हो गई, जब एम0बी0ए0 करने के बाद उसे नगर निगम में अफसरी मिल गई. तब तक पिता तीनों बहनों की शादी कर चुके थे। उसने कर्ज में डूबे गिरवी रखे मकान को साल भर के भीतर छुटा लिया था। मकान फ्री हो गया और वह भी शादी के लिये पूरी तरह से तैयार था उसने सोचा शादी होते ही उसकी प्यार की गरीबी भी खतम। अफसोस...ऐसा न हो सका। उसकी पत्नी उसे प्यार नहीं करती थी। कर सकती थी। करना नहीं चाहती थी। उसे यह बहुत अजीब लगा था।

शादी से पहले वह और उसकी औरत एक दूसरे को देखने, पसन्द करने के लिये मिले थे। सफेद पत्थर से बने विशाल मंदिर के प्रांगण में, एकान्त में। उसने पहल की और कहा था।

'मुझे आप पसन्द है।' क्या मैं भी तुम्हें पसन्द हूँ। ' उसकी भावी पत्नी ने कोई जबाब नहींे दिया था। परन्तु वह उससे शादी करने को तत्पर थी। थोड़ा ठहरकर औरत ने कहा था।

'मुझे एक बात शेयर करनी है। ...मैं किसी और से प्यार करती हॅू। हम दोनों कालेज में साथ-साथ पढ़ाते थे। उसका सेलेक्सन आई.ए.एस. में हो गया और उसने मुझसे किनारा कर लिया। अब वह अपने बैचमेट से शादी करना चाहता है। मैं परित्यक्ता हूँ।' ...यह कहकर वह सुबकने लगी थी। उसने उसे ढाढस बंधाया और अतीत को भूलने को कहा था। उसने कहा था कि उसे उसके अतीत से कोई मतलब नहीं हैं। हम दोनों एक नयी ज़िन्दगी की शुरूआत करेंगें। परन्तंु ऐसा भी नहीं हो पाया।

वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था। उसे बहुत पसंद करता था। ...उसकी पत्नी गेहुंएँ रंग की लम्बी छरहरी और सुन्दर थी। वह अपनी पत्नी से बहुत प्रभावित था। वह स्थानीय डिग्री कालेज में प्रवक्ता थीं उसे वह विदुषी लगती थी। शालीन संस्कारी और स्पष्टवादीं परन्तु उसकी पत्नी उसे नापसंद करती थी और प्यार तो कतई नहीं करती थी। अभिसार से वह चिढ़ती थी। एक तरह से नफरत करती थीं उनके बीच शारीरिक सम्बंध न के बराबर थे। हर बार उसे जबरदस्ती करनी पड़ती थी जांे उसे बहुत नागवार गुजरती थी। इसका परिणाम भी घातक होता था, महीने-दो महीने का अबोला और पत्नी के चेहरे पर छायी निस्तब्धता और तिस्कारता।

अब लड़की रविवार को उसके फ्लैट पर भी आने लगी थी। वह हर रविवार उसकी बेशब्री से प्रतीक्षा करता। वह किसी भी समय आ जाती थी, इस कारण वह छुटृटी के दिन फ्लैट में ही रहता था। उसके आने से रूकी हवा बहने लगती थी। उसके उदास दिनों में चमक बिखरने लगी थी। उसके मन का कायाकल्प होने लगा था। लड़की के अपनेपन से सिंचित सुगन्धित महक पसरने लगी थीं। एक जुड़ाव तक सुकून महसूसने लगा था। ...इसके बाद क्या? ...आखिर इस रिश्ते की परिणति क्या है, विछोह...संत्रास। जीवन भर क्या वह यही करता रहेगा। उसमें ठहराव कब आयेगा? उसके जीवन की मंजिल क्या है? सिर्फ़ एक चेहरा और कुछ नहीं? उसकी प्यास का कोई किनारा नहीं। ...वह किस कैद में घिरता जा रहा था। उसका प्रेम वायावी है। ं क्या धरातल पर आ पायेगा? ...नहीं वह डरता है। यह ठीक नहीं है। फिर भी...उसको देखने मिलने से जो आध्यात्मिक प्रेमानुभूति प्राप्त होती है, वह अतुलनीय है, अवर्णनीय हैं। सोचते-सोचते वह थक जाता है।

लड़की ने कब उसे अंकल कहना बंद कर दिया था, उसे पता नहीं चला। शायद दोस्ती वाले दिन के बाद से, वह अनुमान लगाने में असमर्थ था। लड़की अनिश्चित थी उसके प्रति और वह भी उसके प्रति कोई राय कायम नहीं कर पाया था कि वह क्या चाहती है? अब वह उससे खुल गई थी। उससे अंतरंग से अंतरंग बातें पूछने में उसे संकोच नहीं होता था। वह प्रश्नों की गठरी थी। आदमी के विषय में जानने की उत्सुक्तता एवं आतुरता उसमें सदैव वि़द्यमान रहती थी। ऐसे ही एक दिन उसने उसके तलाक के विषय में जानना चाहा। उसने आनाकानी की। उसने जिद पकड़ ली। उसके बोलते समय वह उसकी आखों में आंखें डालकर बैठ गई. वह उसके सच-झूठ का आकलन करने के लिए. आदमी की आंखों और आवाज में दर्द था, उसकी निजी ज़िन्दगी की गुप्त दास्ता। आसमान में उड़ते सपनों के धूल धूसरती होने की कहानी। टूटती आशाओं और जख्मों से भरी रूदन की कहानी।

...' मैं समझता था कि जन्नत सिर्फ़ औरत के पहलू में है। परन्तु वह मेरे नसीब में न था। क्योंकि प्यार का न तो कोई सिद्धान्त होता है और न कोई गणित। पत्नी मेरी थी परन्तु प्यार किसी और को करती थीं प्रथम दिवस से ही वह अनिच्छुक थी प्यार साझा करने को। पहले वह शर्म एवं संकोच समझता रहा। परन्तु काश ऐसा होता। वह अभिसार के लिए कभी सहमत नहीं होती थीं उसका स्त्रीत्व छीनना पड़ता था। ऐसे ही एक रात बलपूर्वक सम्भोग करने में असफल होने पर, मैं हिंसक हो उठा था। खिसियांहट में उस पर बुरी तरह टूट पड़ा और उसे लहुलुहान कर दियाँ। वह नील और लाल धब्बों सहित घर छोड़कर चली गई. उसने घरेलू हिंसा, बलात्कार और दहेज मांगने का केश कर दिया। ं मैं मुकदमा हार गया। नौंकरी चली गई और मिली सात साल की कैद। हमारे सम्बंधों की इतिश्री। बाहर आया तो मां-पिता मर चुके थे। मर तो मैं भी गया था सिर्फ़ सांसें बाकी थीं। उनकी चिंता करनी थी। सब कुछ छूट गया था...कोई गम बाकी नहीं था...पीछे मुड़कर क्या देखना? ...जिंदगी रूकती नहीं है। अब पूरी तरह अकेला और तनहा हूँ। ...वह उजबक की तरह देख कर सोचने लगी। कैसा है यह आदमी? कैसे संस्कारों को ढोता है? ...अपना बोझ खुद ढोता है। अपने को तलाश करता ...अपने ही अंधेरे में कैद घुट-घुट कर जीने को अभिशप्त। उसकी अपनी सोच क्या है? क्या सही है? क्या ग़लत है? ...आदमी को ग्लानि होती है कि उसे ही क्यों सफाई देनी पड़ती हैं।

कमरा, चार दीवारों का कमरा। बिस्तर पर चादर गुड़ी-मुड़ी हो चली हैं। लगातार बैचेनी उसके पास चक्कर लगाती रहती है। आज रात भर कलहरता रहा है। उसे लगता है इस कमरे में उसकी पत्नी की आत्मा रहती है। जोर-जोर से चीखों, चिल्लाहट की आवाजें, उसके रोने की सुबकने की आवाजें और फिर सभी मध्यिम पड़ती आवाजें। उसे जाने क्या हो जाता है? उसमें एक सांस चलती है, एक के बाद एक। अंधेरे में जैसे एक शरीर बैठा हो और हिकारत से उसे निहार रहा हो। उसे अहसास दिला रहा हो कि औरत को ऐसे भोगा जाता है? उसकी पत्नी हमेशा अपने दुख में महान थी। वह अकेला थां। निपट निःसहाय। अपने दुख, निराशापन और अकेलेपन को भोगता हुआ। अपने से रूठा आदमीं।

समाज के कुछ नीति नियम हैं जो मानने ही पड़ते हैं। वह पूरी तरह से अपने को मुक्त करने की ईमानदारी से कोशिश करता है, कर नहीं पाता हैं। लोगों को चितरंजन करने की आदत होती है। उसे ऐसी आवाजें सुनाई पड़ती हैं। लड़की के घर वाले क्या जानते हैं? उन्हें कुछ पता है? उसने प्यार करने को कहा ज़रूर था, परन्तु उसका व्यवहार मित्रता तक ही सीमित था, वह भी ऐसा मानता है। उनके बीच वायवी प्यार था। क्या स्त्री-पुरूष के बीच स्वस्थ मित्रता नहीं हो सकती? लड़की उसकी भावात्मक आवश्यकता बन चुकी थी। दोनों के बीच अजीब-सी प्यारानुभूति उनके हृदयों में उल्लसित थी। उत्कंठित थी। जो किसी भी स्पर्श से परे थी। लड़की स्त्री-पुरूष की दोस्ती को मनबुद्धि के तल पर लेती थी। उसके संस्कारों में देह का संसर्ग स्वीकार न था।

ल़ड़की आती रहती है। जब आती है, हर कमरें में जाती है। हर खुशबू सुंघती है। उसके आते ही चॉंदनी मंद-मंद बहने लगती है। आदमी के शरीर में जाने क्या होने लगता है? उस पर मदहोशी छाने लगती है बुझी आग में चिंगारी लगती है। आग भड़कने लगती है। बदन में आग लगी है। उसे प्यास लगी है। उसकी इठलाती हंसी का फंदा उसे लपेटने लगा है। उसने खुलकर इजहार कर दिया। वह उधेड़बुन में पड़ गई. उसे लगा धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। उसकी अश्लील बातों से उसे बेहद तकलीफ होती है। ऐसे अवसरों पर वह निहायत शर्मिदा होती है। उसके भीतर की औरत अंगारे की तरह धधकने की होती है। सब कुछ जला डालने को आतुर। कमरें के चारों कोनों पर जंगल, काटें झाड़ियाँ उग आयी है। वह भयभीत है। आगे की कल्पना मात्र से ही कंपकंपी छुटने लगी है। वह खीज उठी है। चलती हॅू। अन्तिम वाक्य बोलते हुये बहुत ज़्यादा शक्ति जुटानी पड़ी। आदमी की जलती ऑखें बुझ गई. उसकी आवाज दब गई और वह ढह गया। वह अस्त-व्यस्त हो उठा था।

मनुष्य के भीतर अपार सम्भावनायंे है। लेकिन मन का भटकाव उसे कुछ करने नहीं देता। वह सोचता है, मन को एकाग्र रखना चाहिए, ः तभी वह विवादरहित सार्थक जीवन जी पायेगा। शालीन, सुसंस्कृत और उन्मुक्त दरिया-सी वह लड़की उसके घर आती ही रहती है और उसे पेशोंपेश में डालती ही रहती है। वह बेफिक्र थी और उस पर विश्वास करती थी। उनके बीच एक जुड़ाव था, सुकून था और उनके बीच पसरा बीस वर्ष का अन्तर था जो उन्हें कहीं से अलग करता था। वह कुछ अवांछित नहीं चाहती थी। वह अपनी तरह जीना चाहती थी। वह उन लड़कियों की तरह नहीं थी जो आडम्बर में जीती और विनम्रता का आवरण ओढें़ रहती थी। उसका सौन्दर्य दिव्य था, जो कुत्सित विचारों को आने ही नहीं देता था। वह प्रकृति प्रदत्त इस स्वरूप को थामकर हवा में उड़ना चाहता था। खनकती-सी उसकी हंसी उसे स्वार्गानुभूति कराती थी। ज़िन्दगी इस तरह हसीन कभी न थी। वह कल्पना लोक में विचर रहा था। क्या जीवन के आखिरी छोर तक ऐसा ही चलता रहेगा? नहीं। क्या किया जा सकता है? क्या करना चाहिये? कुछ नहीं। सब कुछ आभासी है। वह उलझता ही चला जा रहा है। सर दर्द से फटा जा रहा है। वह नींद की गोली खाकर सो जाता है, जहॉं सब अँधेरा है, शुन्य है और मौत की खामोशी है।

दिन प्रतिदिन लड़की को उसके प्रति सहानुभूति बढती जाती है। सहानुभूति दया, करूणा और चाहत प्यार में बदलने लगती है। उसे भी महसूस होता है कि शायद उसका नजरिया बदल रहा है। लड़की उसके उदास एवं एकान्त व्यक्तित्व को बदलना चाहती थी। परन्तु कैसे? उसे कोई मार्ग नजर नहीं आता था। उसका आना नाकाफी था। सार्थक-निर्थक किसी प्रकार का हल उसे समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही एक उन्मुक्त क्षणों में लड़की ने उसके रिक्त स्थान की पूर्ति करने का प्रस्ताव रख दिया। आदमी आश्चर्य स्तब्ध रह गया। क्या कह रही है? कुछ सोचा विचारा भी है? इस उम्र में पैर बहक जाते है। संयम न रखा जाये ंतो व्यक्ति पतन के गर्त में डूब जाता है, जिससे डूब कर व्यक्ति कभी उबर नहीं पाता। उसने कोई उत्तर न दिया और लड़कीं ने फिर कोई बात नहीं की।

आजकल उसके स्वप्न और दिवास्वप्न सब एक जैसे हो गये है। वह आशंकित था कि लड़की का जादू चल गया है। हर समय लड़की का दिव्य सौन्दर्य उसे अपनी कोमलता और मादकता में लपेटे जा रहा है। वर्षा बरस रही थी। ...बूॅंद-बूॅद। एकान्त-उदासी खालीपन रिस-रिस कर बह रहा है। उसकी चाह उस पर सिमट कर स्थिर हो गयी है। उसके शरीर में झनझनाहट और गर्माहट मंद-मंद गति से आरूढ हो रही है। अतृप्त प्यास का बवंडर उठने लगा है। उसके भीतर उत्तेजना चरम पर है। ...बमुश्किल वह अपने को काबू कर पाया। सर को एक झटका देकर, उठ खड़ा हुआ और कहीं और ध्यान लगाने की कोशिश की। ...नहीं...इस तरह से उसके विषय में सोचना, महसूसना ग़लत है, बल्कि एक तरह से अपराध है। उसकी क्या उम्र है? और खुद की। ना समझ है। दिगभ्रमित है। वह भावावेश में है। सही-गलत का निर्णय वह नहीं ले पा रही है। परन्तु उसे तो समझना चाहिये। वह बुझ रहा था। यह घोर असहमतियों और संदेहों की बात थी। उलझन, परेशानी और चिंता थी। कैसे? कब तक? आखिर क्यों? काली रात सफेद होने को आ गई थी, परन्तु समस्या का समाधान नादारत था। जीवन के आखिरी छोर पर पहुॅंच कर क्या सपनों को संजोयें रखा जा सकता है? नहीं। कुछ न कुछ तो टूटेगा ही। वह उधेड़बुन में लगा रहा।

आदमी गार्डेन में नहीं जा रहा था। लड़की रोज देख रही थी। वह जानती थी कि वह अक्सर रात में सो नहीं पाता। वही बताता था। इसलिये अनियमति था। परन्तु इधर कई महीनों से वह देर बसेर रोज आता था। लगातार सात दिन हो गये थे, उसे देखे। वह कुछ बेचैन-सी दिखी, चितिंत तो थी ही। आज रविवार है। वैसे वह रविवार को दोपहर में जाती थी, एक लम्बा-सा समय व्यतीत करने, परन्तु हफ्ते की अनुपस्थ्ति ने उसे बेजार कर दिया कि अभी सुबह गोर्डेन न जाकर उसके पास चला जाए. वह फ्लैट में नहीं मिला। कहॉं गया? कोई खोज-खबर नहीं? कोई कॉल नहीं। कोई मेसेज नहीं। क्या करे? उसने वाचमैन से पूॅंछा। उसने बताया, साहब का तो मुम्बई ट्रान्सफर हो गया था और वह कल रात मुम्बई चले गये। वह हतप्रभ रह गई निराशा, हताशा और सदमें में वह वहीं सर पकड़ कर गार्ड की गुमटी में ही बैठ गई.