असहमति का सम्मान / राजीव रंजन उपाध्याय

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गांधी की भाषा अलग अध्ययन की मांग करती है। यदि उनके लेखन, व्यक्तव या भाषण को देखें तो पायेगें वे अपने विरोधी या विरोधी विचारों को एकदम ख़ारिज नहीं करते।बल्कि सामने वाले के गुणों का पूरा सम्मान करते हुए अपनी विनम्र असहमति व्यक्त करते थे। वे अपने विरोधी विचारों का मखौल नहीं उड़ाते न अपने विरोधी को रौदते हैं। असहमति के साथ उनका संवाद चालू रहता है। देखें, गाँधी की भाषा कैसी होती थी ? मैंने तीन व्यक्तित्व चुने जिनके साथ गाँधी का वैचारिक मतभेद रहा। मोहम्मद अली जिन्ना, बी आर अम्बेडकर और सुभाष चंद बोस। देखें, उनके प्रति गाँधी की भाषा का व्यवहार कैसा था।

मोहम्मद अली जिन्ना

जिन्ना साहब ने जिस मुक्ति-दिवस का ऐलान किया था उस दिन मुझे गुलबर्गा के मुसलमानों की तरह से यह तार मिला - " नजात-दिवस का मुबारकबाद, कायदे-आजम जिन्ना जिंदाबाद।" मैंने समझा कि यह सन्देश मुझे चिढाने के उद्देश्य से भेजा गया है। मगर भेजने वाले क्या जानें कि इस तार का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। जब मुझे वह मिला तो मैं भी मन-ही-मन भेजने वाले की इस प्रार्थना में शामिल हो गया -- " कायदे -आजम जिन्ना बहुत दिन जियें। कायदे -आजम हमारे पुराने साथी हैं। आज कुछ बातों में हमारे -उनके विचार नहीं मिलते तो इससे क्या हुआ ? उनके लिए मेरे सदभाव में कोई अंतर नहीं आ सकता।

मगर कायदे-आजम की तरफ से एक विशेष कारण उन्हें बधाई देने के लिए और मिल गया है। ईद के दिन रेडियो पर उन्होंने जो बढ़िया भाषण दिया था उस पर बधाई का तार भेजने की मुझे ख़ुशी हासिल हुई थी। अब वे और भी मुबारकवाद के हकदार हो गए हैं, क्योंकि वे कांग्रेस की नीति और राजनीति के विरोधी दलों के साथ करारनामा कर रहे हैं। इस तरह वे मुस्लिम -लीग को सांप्रदायिक चक्कर से निकालकर उसे राष्ट्रीय स्वरुप दे रहे हैं! मैं उनके इस कदम को पूरी तरह उचित समझता हूँ। मैं देखता हूँ कि मद्रास की जस्टिस पार्टी और डॉ अम्बेडकर का दल जिन्ना सा से पहले ही मिल चुका है। अख़बारों में खबर है कि हिन्दू महासभा के प्रधान श्री सावरकर उनसेबहुत जल्द मिलने वाले हैं। जिन्ना सा ने खुद जनता को सूचना दी है कि बहुत से गैर -कांग्रेसी हिन्दुओं ने उनके साथ सहानुभूति प्रकट की है। ऐसा होना मैं पूरी तरह लाभदायक समझता हूँ। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है कि हमारे देश में दो ही बड़े -बड़े दल रह जाएँ, एक कांग्रेसियों का और दूसरा गैर कांग्रेसियों का या कांग्रेस विरोध शब्द ज्यादा पसंद हो तो. कांग्रेस-विरोधियों का। जिन्नासाहब की कृपा से कम तादाद वाली जाति शब्द का नया और अच्छा अर्थ हो रहा है। कांग्रेस का बहुमत सवर्ण हिंदुयों, अवर्ण हिंदुयों, मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों और यहूदियों के मेल से बना है। इसीलिए यह एक ऐसा बहुमत है जिसमें एक ख़ास तरह की राय रखने वाले सब वर्गों के लोग शामिल हैं। जो नया दल बनने जा रहा है वह एक खास तरह की राय रखने वाले तादाद के लोगों का दल है। निर्वाचकों की पसंद आने पर इनका किसी भी दिन बहुमत हो सकता है। इस तरह दलों का एक होना ऐसी बात है जिसे हम सबको दिल से चाहना चाहिए। अगर कायदे-आजम इस तरह का मेल साध सकें तो मैं ही नहीं, सारा हिन्दुस्तान एक आवाज़ से पुकारकर कहेगा - " कायदे -आजम जिन्ना जुग -जुग जियें " क्योंकि वे ऐसी स्थाई और सजीव एकता स्थापित कर देगें, जिसके लिए मुझे विश्वास है कि सारा राष्ट्र तड़प रहा है। (ह० से० , 20-1-40)

डॉ भीम राव अम्बेडकर

डॉ अम्बेडकर के प्रति और अछूतों का उद्धार करने की उनकी इच्छा के प्रति मेरा सदभाव और उनकी होशियारी के प्रति आदर होने के बावजूद मुझे कहना चाहिए कि वे इस मामले में बड़ी भयंकर भूल कर रहे हैं। उन्हें कडुवे अनुभवों से गुजरना पड़ा है, शायद इस कारण अभी उनकी विवेक -बुद्धि इस चीज को नहीं समझ पा रही है। ऐसे शब्द कहते हुए मुझे दुःख होता है। मगर यह न कहूँ तो प्राणों से प्यारे इन अछूतों के हितों के प्रति मैं वफादार नहीं रह सकता। सारी दुनिया के राज्य के लिए भी मैं उनके हकों की क़ुरबानी नहीं करूँगा। डॉ अम्बेडकर तमाम हिन्दुस्तान के अछूतों की तरफ से बोलने का दावा करते हैं, मगर उनका यह दावा सही नहीं है, यह बात मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कहता हूँ। उनके कहने के अनुसार तो हिन्दू-समाज में फूट पड़ जाएगी। इसे शांति से देखते रहना मेरे लिए संभव नहीं है। (13-11-31 को लंदन में अल्पमत समिति की आखिरी बैठक में दिए गए भाषण से)

गत मई मास (सन 1936) में लाहौर के 'जात -पांत-तोड़क मंडल' का वार्षिक अधिवेशन होने वाला था और डॉ अम्बेडकर उसके सभापति चुने गए थे। लेकिन डॉ अम्बेडकर ने उसके लिए जो भाषण तैयार किया वह स्वागत समिति को अस्वीकार्य प्रतीत हुआ, जिसके कारण वह अधिवेशन ही नहीं किया गया। यह बात विचारणीय है कि स्वागत- समिति का अपने चुने हुए सभापति को इसीलिए अस्वीकार कर देना कहाँ तक उचित है कि उनका भाषण उसे आपत्तिजनक मालूम पड़ा। जाति-प्रथा और हिन्दू-शास्त्रों के विषय में डॉ अम्बेडकर के जो विचार हैं उन्हें तो समिति पहले से ही जानती थी। यह भी उसे मालूम था कि वह हिन्दू धर्म छोड़ने का बिलकुल स्पष्ट निर्णय कर चुके हैं। डॉ अम्बेडकर ने जैसा भाषण तैयार किया उससे कम की उनसे उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी। लेकिन समिति ने ऐसा मालूम पड़ता है, एक ऐसे व्यक्ति के मौलिक विचार सुनने से जनता को वंचित कर दिया, जिसने कि समाज में अपना एक अद्वितीय स्थान बना लिया है। भविष्य में वह कोई भी वाना क्यों न धारण करे, मगर डॉ अम्बेडकर ऐसे आदमी नहीं हैं जो अपने को भूल जाने देगें।

डॉ अम्बेडकर स्वागत समिति से यों हार जाने वाले नहीं थे। उसके इंकार कर देने पर, उसके जबाब में उन्होंने उस भाषण को अपने खर्चे से प्रकाशित किया है। उन्होंने आठ आने उसकी कीमत रखी है; लेकिन मैं उनसे कहूँगा कि वह उसे घटाकर दो आना या कम- से -कम चार आना कर दें तो ठीक रहेगा। वह भाषण ऐसा है कि कोई सुधारक इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। रूढ़िग्रस्त लोग भी इसे पढ़कर लाभ ही उठायेगें! लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि भाषण में एतराज करने लायक कोई बात नहीं है। इसे तो पढना ही इसीलिए चाहिए, क्योंकि इसमें गहरे ऐतराज की गुंजाईश है। डॉ. अम्बेडकर तो हिन्दू धर्म के लिए मानों एक चुनौती है। हिन्दू की तरह पलने और एक जबरदस्त हिन्दू द्वारा शिक्षित किए जाने पर भी, सवर्ण कहे जाने वाले हिन्दुओं द्वारा अपने और अपनी जातिवालों के साथ होने -वाले व्यवहार से इतने निराश हो गए हैं कि वह न केवल उन्हें, बल्कि उस धर्म को भी छोड़ने का विचार कर रहे हैं जो उनकी तथा और सबकी संयुक्त विरासत है। उस धर्म को मानने का दावा करने वाले एक भाग के कारण सारे धर्म से ही निराश हो गए हैं।

लेकिन इसमें अचरज की कोई बात नहीं है; क्योंकि किसी प्रथा या संस्था का निर्णय कोई उसके प्रतिनिधियों के व्यवहार से ही तो कर सकता है। अलावा इसके, डॉ. अम्बेडकर को मालूम पड़ा है कि सवर्ण हिंदुयों के विशाल बहुमत ने अपने उन सहधर्मियों के साथ, जिन्हें उन्होंने अस्प्रश्य शुमार किया है, न केवल निर्दयता या अमानुषिकता का ही व्यवहार किया है, बल्कि अपने व्यवहार का आधार भी अपने शास्त्रों के आदेश को बनाया है और जब उन्होंने शास्त्रों को देखना शुरू किया तो उन्हें मालूम पड़ा कि सचमुच उनमें अस्प्रश्यता और उसके लगाए जाने वाले तमाम अर्थों की काफी गुंजाईश है। शास्त्रों के अध्याय और श्लोक उद्धत कर-करके उन्होंने तिहेरा दोषारोप किया है:

  1. उनमें निर्दय व्यवहार करने का आदेश है
  2. ऐसा व्यवहार करने वालों के व्यवहार का ध्रष्टता-पूर्वक समर्थन किया गया है, और
  3. परिणाम स्वरुप यह अनुसन्धान किया गया है कि वह समर्थन शास्त्र-विहित है।

ऐसा कोई भी हिन्दू, जो अपने धर्म को अपने प्राणों से अधिक प्यारा समझता है, इस दोषारोप की गंभीरता की उपेक्षा नहीं कर सकता, और फिर इस तरह निराश होने वाले अकेले डॉ. अम्बेडकर ही नहीं है। वह तो उनमें के एक ऐसे व्यक्तिमात्र हैं जो इस बात के प्रतिपादन में कोई समझौता नहीं करना चाहते और ऐसे लोगों में वे सबसे योग्य हैं! निश्चिय ही इन लोगों में वह अत्यंत जिद्दी स्वाभाव के हैं। ईश्वर की कृपा समझो जो बड़े नेताओं में ऐसे विचार के वही अकेले हैं और अभी भी वह एक बहुत छोटे अल्पमत के ही प्रतिनिधि हैं। मगर जो कुछ वह कहते हैं, कम या ज्यादा जोश के साथ वही बातें दलित जातियों के और नेता भी कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि दूसरे - जैसे, राव बहादुर एम.सी. राजा और दीवान बहादुर श्रीनिवासन - हिन्दू धर्म छोड़ने की धमकी नहीं देते, पर उसी में इतनी गुंजाईश देखते हैं कि जिसमें हरिजनों के विशाल जन-समूहों को जो शर्मनाक कष्ट भोगने पड़ रहा है उसकी क्षति-पूर्ति हो जायेगी। पर उनके अनेक नेता हिन्दू- धर्म नहीं छोड़ते, इसी बात से हम डॉ. अम्बेडकर के कथन की उपेक्षा नहीं कर सकते। सवर्णों को अपने विश्वास और आचरण में सुधार करना पड़ेगा। इसके अलावा, सवर्णों में जो लोग अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर शास्त्रों की प्रमाणिक व्याख्या कर सकें उन्हें शास्त्रों के यथार्थ आशय का भी स्पष्टीकरण करना होगा। डॉ. अम्बेडकर के दोषारोप से जो प्रश्न उठते हैं, वे हैं:

  1. शास्त्र क्या हैं?
  2. आज जो -कुछ छपा हुआ मिलता है वह सभी क्या शास्त्रों का अभिन्न भाग है, या उनके किसी भाग को अप्रमाणिक क्षेपक मानकर छोड़ देना चाहिए?
  3. इस तरह काट-छांट कर जिस अंश को हम स्वीकार करें वह अस्प्रश्यता, जाति प्रथा, दर्जे की समानता, सहभोज और अंतर्जातीय विवाहों -के संबंध में क्या कहता है? इन सब प्रश्नों की अपने

निबंध में डॉ. अम्बेडकर ने योग्यतापूर्वक छानबीन की है।

(ह. से. 11-07-36)

…………… अम्बेडकर साहब से तो दूसरी आशा ही नहीं थी। मेरा हमेशा विरोधी रहा है। वह मुझे मार भी डाले तो मुझे अफ़सोस न होगा। (का.क. 20-09-42)

सुभाष चंद बोस

आज सुभाष बाबू की जन्म-तिथि है। मैंने कह दिया है कि मैं तो किसी की जन्म तिथि या मृत्यु -तिथि याद नहीं रखता। वह आदत मेरी नहीं है! सुभाष बाबू की तिथि की मुझे याद दिलाई गई। उससे में राजी हुआ। उसका भी खास कारण है। वे हिंसा के पुजारी थे। मैं अहिंसा का पुजारी हूँ। पर इससे क्या? मेरे पास गुण की ही कीमत है। तुलसीदास जी ने कहा है न:

जड़-चेतन गुन-दोषमय विश्व कीन्ह करतार।
संत-हंस गुन गहहि पय परिहरि बारि बिकार।!

हंस जैसे पानी को छोड़कर दूध ले लेता है, वैसे ही हमें भी करना चाहिए। मनुष्य मात्र में गुण और दोष दोनों भरे पड़े हैं। हमें गुणों को ग्रहण करना चाहिए। दोषों को भूल जाना चाहिए। सुभाष बाबू बड़े देश प्रेमी थे। उन्होंने देश के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी और वह करके भी बता दिया। वह सेनापति बने। उनकी फौज में हिन्दू, मुसलमान, पारसी सिख सब थे। सब बंगाली ही थे, ऐसा भी नहीं था। उसमें न प्रांतीयता थी, न रंग भेद, न जाति भेद। वे सेनापति थे, इसीलिए उन्हें ज्यादा सहूलियत लेनी या देनी चाहिए, ऐसा भी नहीं था (प्रा प्र 21-01-48)

अब एक पत्र

नई दिल्ली
30 मार्च 1939
प्रिय सुभाष,

अपने तार का जबाब पाने की खातिर मैंने तुम्हारे 25 तारीख के पत्र का उत्तर देने में देर की है! सुनील का तार मुझे कल रात मिला। अब प्रातः काल की प्रार्थना के समय से पहले उठकर यह उत्तर लिख रहा हूँ।

चूँकि तुम्हारे ख्याल में पंडित पन्त का प्रस्ताव अनियमित था और कार्य-समिति-संबंधी धारा स्पष्ट रूप से अवैधानिक और नाजायज हैं, इसीलिए तुम्हारा मार्ग नितांत स्पष्ट है। तुम्हें समिति का स्वेच्छा से चुनाव करना चाहिए। इसीलिए इस विषय में तुम्हारे कई प्रश्नों को मेरे उत्तर की जरुरत नहीं। जब हम फरवरी में मिले थे तब से मेरी यह राय मजबूत हुई है कि जहां तक मौलिक बातों पर मतभेद हों, और हम सहमत थे कि ऐसे मतभेद हैं, वहां मिली- जुली समिति हानिकर होगी। इसीलिए अगर यह माना जा सके कि तुम्हारी नीति को महा समिति के बहुमत का समर्थन है तो तुम्हें बिलकुल उन्हीं लोगों की बनी हुई कार्य-समिति रखनी चाहिए, जो तुम्हारी नीति में विश्वास करते हैं।

हाँ, हमारी फरवरी की मुलाकात में सेंगाँव में मैंने जो यह विचार प्रकट किया था कि मैं किसी भी प्रकार से तुम्हारे आत्म-दमन में भागीदार होने का अपराधी नहीं बनूँगा, उस पर मैं अभी भी कायम हूँ। स्वेच्छापूर्वक आत्म-विलोपन दूसरी चीज है। किसी ऐसे विचार को दबा लेना, जिसे तुम बहुत द्रढ़ता के साथ देश-हित का साधन मानते हो, आत्म-दमन होगा। इसीलिए अगर तुम्हें अध्यक्ष के रूप में काम करना है तो तुम्हारे हाथ खुले रहने चाहिए। देश के सामने जो परिस्थिति है, उसमें किसी मध्यम मार्ग की गुंजाईश नहीं है।

जहां तक गांधीवादियों (वैसे, यह शब्द प्रयोग गलत है) का संबंध है, वे तुम्हें बाधा नहीं पहुंचायेगें। जहां संभव होगा, वे तुम्हारी सहायता करेगें और जहां नहीं कर सकेंगें, वहां अलग रहेंगें। अगर वे अल्पमत में हैं तब तो कुछ भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अगर वे स्पष्तः बहुमत में होगें तो शायद वे अपने-आपको दबाकर न रख सकें। लेकिन मुझे जिस चीज की चिंता है वह यह है कि कांग्रेस के मतदाता फर्जी हैं और इसीलिए बहुमत और अल्पमत का पूरा अर्थ नहीं रह जाता। फिर भी जब तक कांग्रेस की भीतरी सफाई नहीं हो जाती तब तक जो हथियार हमारे पास फिलहाल हैं, उसी से काम चलाना होगा। दूसरी चीज, जिससे मुझे परेशानी है, हमारा भयंकर आपसी अविश्वास है। जहां कार्यकर्तायों में परस्पर अविश्वास हो वहां मिल-जुलकर काम करना असंभव हो जाता है। मेरे ख्याल से तुम्हारे पत्र में अब ऐसा और कोई मुद्दा नहीं रह जाता जिसका जबाब देने की आवश्यकता हो। जो -कुछ करो उसमें भगवन तुम्हारा मार्ग-दर्शन करें। डाक्टर की आज्ञाओं का पालन करके जल्दी अच्छे हो जाओ।

प्यार।

बापू

(पुनश्चः) जहां तक मेरा संबंध है, हमारे पत्र -व्यवहार को प्रकाशित करने की जरुरत नहीं। परन्तु तुम्हारा दूसरा विचार हो तो प्रकाशित करने की मेरी इजाजत है।