असहमति / प्रकाश मनु

Gadya Kosh से
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वे दोनों अभी नए आए थे, एक वो, एक उसकी वो। वो चश्मा लगाए गोरा और लंबा और उसकी वो साधारण नाक-नक्श की साँवली-सी। पूरी लाइन में एक ही कमरा खाली था—बिजली दफ्तर के महेंद्र बाबू का, जो उन्होंने अपनी अधेड़ावस्था की फुरसत में बनवा लिया था, बुढ़ापे के आश्रय या किराए वगैरह के लिए। ये लोग उसी में आए थे। कमरा यों तो अच्छा था, पर आसपास के सब घरों की दीवारों, खिड़कियों, आवाजों और सब लड़के-लड़कियों, स्त्री-पुरुषों के चेहरों के बीच इस तरह फँसा हुआ कि सबको यह अचरज ही लगता था कि कोई उसमें आए और बाकायदा रहने लगे। फिर ये लोग तो कुछ अजीब ही थे। पहले पुरुष (हाँ, उसे पुरुष ही कह लो, वैसे था लड़का ही, शरीर, चेहरे-मोहरे और एक खास तरह के हलके-फुलकेपन की वजह से, जिसे शायद ठीक से बताया नहीं जा सकता।) बगल में वर्मा जी से चाबी लेकर मकान देख गया। फिर शाम को वह साथ में एक साँवली-सी युवती को भी लाया, जो जाहिर है उसकी बीवी ही होगी, पर लिपस्टिक, लज्जा आदि परंपरागत सुहाग-चिह्नों से ऐसी शून्य कि सवाल पर सवाल उठते थे! फिर दोनों ने कुछ रुचि, कुछ अरुचि से कमरा, एक छोटे से लॉन की वजह से चाहे तो मकान कह लीजिए, पसंद किया था। वहीं खड़े-खड़े देर तक वे बातें करते रहे थे। लेट्रीन, बाथरूम की टोंटियों से लेकर आसपास के माहौल तक की चर्चा की थी उन्होंने। मकान को बराबर पिंजरा कहा था, पर साथ में यह भी कि चलो कोई बात नहीं, हवा और रोशनी तो आती ही है, और मजे से जिंदा रहा जा सकता है। आखिर वे एडवांस दे गए और अगले दिन आने के लिए कह गए। वर्मा जी की सेहतमंद आधुनिक बीवी ने आसपास की औरतों के कानों में फुस-फुस कर कुछ कहा। उन्हें शायद दाल में कुछ काला दिखाई पड़ गया था। आसपास की औरतों ने और आगे बात सरकाई। बात चार से चालीस कानों तक पहुँची। फिर उन औरतों ने रात अपने-अपने मर्दों के कान में कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। मर्द कुछ हँसे, कुछ सीरियस हुए...और फिर जैसे रातें गुजरती हैं, वह रात भी गुजर गई। अगले दिन लोगों ने देखा कि केवल एक ताँगा, आधा भरा हुआ आधा खाली, उस मकान के सामने आ खड़ा हुआ है। उसमें सामान के नाम पर कुछ छोटी-बड़ी बेतरतीब गठरियाँ हैं, दो चारपाइयाँ, एकाध कुर्सी सी, एकाध संदूक, बस। पीछे-पीछे साइकिल पर हाँफता हुआ वह लंबा आदमी आया, कैरियर पर टेबल फैन लिए, हैंडल में एकाध टोकरी लटकाए। पसीने से नहाया हुआ। उसके पीछे वह साँवली-सी युवती हाथ में दो छोटे-छोटे थैले लटकाए आराम से चलती आ रही थी। इस अच्छे-खासे तमाशे को देखने का सुख छोड़ पाना आसान नहीं था, इसलिए लोग आए और उनके चेहरों पर हँसी फूट पड़ी। पर इन्होंने परवाह नहीं की। उस आदमी ने साइकिल खड़ी की, फटाक से ताला खोला, दरवाजा धकियाया...और...और सीरियली जुट गया। औरत अपनी सामर्थ्य के मुताबिक मदद करती रही। थोड़ी देर में सामान भीतर आ गया तो उस आदमी ने इक्के वाले को पैसे दिए, धन्यवाद दिया और शायद चाय पीने का भी आग्रह किया। फिर बाहर का दरवाजा बंद हो गया और भीतर खटर-पटर होती रही। फर्श धोने और चारपाइयाँ तथा अन्य सामान एडजस्ट करने की आवाजें थीं वे। इन्हीं के बीच कभी-कभी पुरुष के हँसने और औरत के हलके ढंग से डाँटने का स्वर भी मिल जाता। या कभी दोनों भी साथ-साथ हँसते थे। “यानी कि यह साँवली लगती तो खुशमिजाज-सी है।” मिसेज वर्मा ने मन ही मन नोटिस लिया था। शाम को सब औरतें दिल में कौतूहल, आँखों में सवाल लेकर मिसेज वर्मा के घर के बाहर इकट्ठी हुईं। सबके भीतर कुछ खुदबुदा रहा था और वे कोई बढ़िया नजारा लेना चाहती थीं। पर वे बुरी तरह निराश हुईं, क्योंकि दरवाजा तब से अभी तक खुला ही नहीं था। एक खिड़की खुली थी, पर उसमें आते ही परदा लटक गया था। परदा कभी-कभी हिलता था तो अंदर के बरतन वगैरह दिख जाते थे या कभी परदे पर कोई एकाध परछाईं आकर टिकती और फिर गुजर जाती, मगर इससे दिल तो नहीं भरता था। भीतर हलचल के नाम पर केवल दो बार स्टोव जला और बुझा था। हलकी-सी बातचीत भी सुनाई पड़ी थी। पर वे तो ऐसी नहीं थीं जैसी मर्द-औरत करते हैं। यानी कहीं ‘ए जी’, ‘ओ जी’ वगैरह नहीं। फिर औरत या आदमी की कभी-कभी गुनगुनाने की आवाज। “औरत शायद अच्छा गाती है, और मर्द...?” मिसेज वर्मा हँसी थीं, “एक ही ट्यून में जाने क्या आल्हा-सा गाता रहता है।” पर मिसेज वर्मा की दी हुई इस सूचना में किसी की दिलचस्पी नहीं थी। वे कोई ज्यादा हैरानी वाली बात जानने और उस पर टीका-टिप्पणी करने आई थीं। “हे भगवान, इत्ती घुटन में कोई कैसे रह सकता है?” राजरानी से अब नहीं रहा गया तो उसने हवा में हाथ हिलाकर कह ही दिया। खूब ऊँची आवाज में, कि हो सके तो भीतर वाले भी सुन लें। फिर बंद दरवाजे को लक्ष्य करके बोली, “आदमी तो वही अच्छे लगते हैं जो आदमियों के बीच उठें-बैठें, आदमियों की तरह रहें...” “और ये क्या जानवर...खी...खी...खी-खी-खी-खी!” राजरानी की ननद बोली कम, हँसी ज्यादा थी। “भई, हमने कब कहा जानवर? पर मुहल्ले में रहें तो मुहल्ले वालों की कद्र तो करनी ही चाहिए। चार दिन सबको रहना है, भाईचारे से ही अच्छा लगता है।” अब लच्छो दादी ने आगे की बात सँभाली और अपने अनुभवों का पिटारा खोलने के मूड में आ गईं। “दादी, हो जाता है सब ठीक...! अब ये बंतो शुरू-शुरू में आई तो कितनी दूर-दूर रही थी निगोड़ी?” मिसेज वर्मा ने चुटकी ली। “हाँ जी, मैं क्यों रहती दूर? मुझमें क्या कोई खोट था?” बंतो ने कठोर-सा मुँह बनाया। फिर कहा, “हाँ, कोई शुरू-शुरू में आए तो थोड़ी लाज-सरम...” “और तब पेट में भी तो गुब्बारे फूल रहे थे हमारी बंतो के!” राजरानी ने कहा और हँसते-हँसते दोहरी हो गई।

तभी दरवाजा खुला। वे दोनों बाहर आए। दरवाजा बंद करके एक नजर बाहर चारपाई पर बैठी औरतों पर डाली, फिर वे हौले-हौले बातचीत करते, मुसकराते हुए आगे बढ़ गए। आदमी घर के धुले और इस्तिरी किए हुए सफेद कुरते-पाजामे में था और दोपहर की तुलना में इस समय ज्यादा चुस्त और खुश लग रहा था। औरत बादामी रंग के ब्लाउज और इसी रंग की साड़ी में थी। शरीर आदमी से कुछ भारी, मगर इन कपड़ों में फब रही थी। साँवलापन एक सहज कांति से भर उठा था। कुछ थोड़ी बहुत बातचीत भी उनकी सुनाई पड़ी या अनुमान लगा गया। “क्यों भई, किस तरफ से चलें अनु?” “कहीं से भी। मौसम खुशनुमा है आज तो, अच्छा लगेगा। पीछे वाली सड़क से चलें?” “काफी सन्नाटा-सा रहता है वहाँ, रास्ता भी नहीं देखा हुआ। डर तो नहीं लगेगा तुम्हें?” “डर...? हाँ जी, मुझे तो कोई उठाकर न ले जाएगा!” वह मुसकराई, “ऐसा करो, तुम अपना विजय छोड़कर पराजय रख लो, डरपोक कहीं के!” “दुष्ट कहीं की!” पुरुष धीरे से हँसा। फिर वे बात करते हुए काफी आगे निकल गए। इधर रुकी हुई महफिल भी शुरू हो गई। “इस उमर में कुरता-पाजामा तो कुछ ठीक नहीं लगता। ये तो बड़े बुजुर्गों को ही सोहता है। एक तो वैसे ही सींकिया हो आदमी, ऊपर से...हुँह!” राजरानी ने मुँह बनाया। “औरत ज्यादा मजेदार है। मौसम का मजा लेने गई है ठंडी सड़क पर, बलम जी के साथ, खी-खी-खी-खी!” पुष्पा अपने दिल की गुदगुदी को रोक नहीं पाई थी। “अरे, हमें लगता है, कोई मार-मूर न डाले इन्हें। हाँ, और क्या? पूरा जंगल है वो। रात में तो कोई परिंदा भी वहाँ पर नहीं फड़कता।” लच्छो दादी ने गरदन हिलाकर गुस्सा जताया, “फिर कोई कहेगा कि पहले दिन ही ये हादसा...! बदनामी सारे मुहल्ले की होगी।”

उनके आपस में एक-दूसरे को बुलाने से उन्हें पता लगा कि औरत का नाम अनु है, पुरुष का विजय। दोनों का एक-दूसरे को नाम लेकर बुलाना उन्हें अजीब लगता। औरत का पति को नाम लेकर बुलाना तो करीब-करीब अश्लील ही लगता। “यह कोई ऐसी-वैसी औरत है!” वे एक दूसरे को फुसफुसाकर समझातीं। हालाँकि इसके लिए कोई खास कारण उन्हें नहीं मिलता था। उस औरत की शालीनता में कोई कमी या औरत-मर्द दोनों के व्यवहार में कहीं कोई अभद्रता उन्होंने नहीं देखी थी। वह बाहर ही दरअसल बहुत कम निकलती थी। कभी-कभी ठेले पर सब्जी बेचने आए बाबा से थोड़ी बहुत सब्जी लेने निकलती थी। औरतें अजीब-सी निगाहों से उसे घेरने या तोलने की कोशिश करतीं, पर वह सब्जी लेकर निश्चिंत भाव से वापस आ जाती। खुद को लेकर एकाध ऊटपटाँग-सी बात उसके कानों में पड़ती तो भी वह चुप ही रहती थी। हाँ, कभी कोई औरत उससे कुछ पूछती तो वह मुसकराकर संक्षिप्त-सा जवाब दे दिया करती थी। आसपास की औरतें चाहती थीं कि वह उनके बीच आ जाए, उनकी मंडली में—और उन्हीं की तरह बातें करे, कभी जोर से, कभी फुसफुसाकर और कभी खूब खुलकर हँसे, पर यह शायद उससे हो नहीं पाता था। वह या तो गंभीर रहती थी या केवल हौले से मुसकरा पाती थी। इसका यह अर्थ निकाला गया कि वे बेहद घमंडी औरत है। यह अपने मर्द पर हावी है, इसका मर्द इससे डरता है, यह भी कहा जाता रहा। “तभी बेचारा कभी इधर-उधर देखता नहीं है। निगाहें बचाता हुआ निकल जाता है।” राजरानी ने हँसकर सबको समझाया। “पर पति को तो आँखों पर रखती है। सुबह कई बार मैंने देखा है जब पति को विदा करती है। ऐन तब तक दरवाजे पर खड़ी देखती रहती है, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो जाता।” मिसेज वर्मा ने आँखों में शरारत लाकर कहा। “ठीक है, लेकिन मर्द मर्दों में अच्छे लगते हैं, औरत औरतों में। यह क्या कि दोनों सारा दिन गुफा में घुसे रहें, साथ-साथ घूमें? आखिर सभ्यता भी कुछ होती है कि नहीं? हमारे बुजुर्ग लोग भी पढ़े-लिखे थे, अँगरेजी नहीं पढ़े तो क्या? पर आचार-विचार कोई उनसे सीखे। सारे दिन शक्ल देखने को तरस जाते थे, पर मजाल है कि भीतर पैर भी रखें। बाहर बैठकर खाना खाया, हुक्का पिया और वहीं से उठकर चले गए। ये होती है मर्यादा!” माया चाची को भी अपनी बात कहने का मौका मिल गया था। फिर धीरे-धीरे उन्हें पता कि काम पर आदमी ही नहीं जाता, कभी-कभी औरत भी साथ जाती है, साइकिल पर बैठकर। फिर वे साथ-साथ वापस आते हैं, किताबों से लदे हुए। आकर साथ-साथ खाना बनाने में जुट जाते हैं। “चाय अकसर आदमी ही बनाता है।” मिसेज वर्मा ने पड़ोस की औरतों को बताया, “कभी-कभी तो जूठे बरतन भी साफ करता है। सच, मुझे तो बड़ा तरस आता है...” “हमारा मर्द तो पानी का गिलास तक अपने हाथ से न उठाए। वहीं से आवाज लगाएगा—राजराणिए...पाs...णीss...!” राजरानी ने पति की नकल उतारी। कभी-कभी वे हालचाल पता करने के लिए बच्चों को भेज देतीं। वह साँवली-सी युवती प्यार से उन्हें बिठाती और बातें करती। कभी-कभी टाफियाँ या बिस्कुट भी खाने को देती। आदमी भी कभी-कभी उन बच्चों को कहानियाँ सुनाता, उनके साथ हँसता-बोलता रहता। मुहल्ले वालों को यह कमोबेश बहुत अजीब लगता था। हालाँकि इससे उन्हें कोई प्रत्यक्ष कठिनाई नहीं थी। पर भीतर ही भीतर कहीं कुछ हिलता था, जड़ता काँपती थी और इससे वे डर जाते थे। वे सोचने लगे थे कि ये लोग चले जाएँ तो अच्छा हो। असल बात यह थी कि यह लंबा-सा विजय और साँवली-सी अनु अपने ढंग से जीवन जीने के आदी थे। इसलिए किसी से बहुत ज्यादा संबंध बढ़ाने की जरूरत भी उन्होंने कभी नहीं समझी। न ही वे किसी की बुराई या चुगली ही करते थे, जिसमें दूसरे लोगों को खासा रस मिलता है। बस, अपने ही काम में दोनों लीन रहते थे। एक बोलता रहता, दूसरी लिखती रहती। एक पढ़ता रहता, दूसरी घर का काम कर लेती। एक बीमार पड़ता तो दूसरी साइकिल पर दवाई लेकर आ जाती। और अगर औरत अस्वस्थ होती तो वह सिर दबाता, चाय बनाता, खाना बनाता और ट्रांजिस्टर लगाकर या गाना गाकर उसे खुश रखने की कोशिश करता। सारा दिन वे पढ़ते या लिखते, शाम को घूमने जाते और बातचीत करते। रात देर तक पढ़ते, खबरें सुनते और आल इंडिया रेडियो से तामीले इरशाद भी। फिर सो रहते। वे अपने आप में पूरे थे, इस बात से सबको तकलीफ होती थी। वे इनका घमंड तोड़ने का कोई बहाना ढूँढ़ना चाहते थे, पर वह मिलता ही नहीं था, क्योंकि एक तो ये बोलते कम थे, फिर जब भी बोलते, विनम्रता और आदर से। पर एक दिन औरतों को बहाना आखिर मिल ही गया। हुआ यह कि एक दिन सुबह-सुबह एक शैतान से लड़के ने परदा उठाकर अंदर का दृश्य देखा, फिर उसने दूसरे लड़कों को भी बुला लिया। दरअसल, वे दोनों अस्त-व्यस्त कपड़ों में एक-दूसरे से लगे सो रहे थे। बच्चों का यह कुतूहल उन तक ही सीमित नहीं रहा, औरतों तक भी पहुँचा। पर जब एकाध औरत परदा उठाकर झाँकने आई, तब तक वे जग चुके थे। साड़ी ठीक करती हुई उस साँवली-सी औरत यानी अनु को बहुत गुस्सा आ रहा था। न दबाई गई नफरत से वह बोली, “कितने ओछे और बदतमीज है यहाँ के लोग!” औरतें तो चली गईं, पर बच्चों ने घर जाकर सब हाल कहा कि आंटी रोती रहीं और देर तक अंकल समझाते रहे। कुछ ‘दकियानूस-दकियानूस’ दो-तीन दफा कहा। फिर कहा, “बेचारे पुराने ढंग से सोचने के आदी हैं, गुस्सा नहीं करना चाहिए।” उधर अनु का गुस्सा तो थम गया, पर उन औरतों का नहीं। उन्होंने जाकर मुहल्ले की लीडर औरतों से भड़ककर और भड़भड़ाकर सब कुछ कहा, बल्कि सबका सवाया कहा। लीडर औरतों ने आसपास की सब औरतों को उस घटना को ड्योढ़ा और दोगुना करके बताया। सब औरतों ने रात को अपने-अपने मर्दों से कानाफूसी से दूना-तिगुना कहा।

सुबह मर्दों ने तय किया कि मुहल्ले में मर्यादा बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। आखिर मुहल्ले में यह अनैतिकता कब तक बर्दाश्त की जाएगी? इन्हें जरूर बोल देना चाहिए कि अगर रहना है तो हमारी तरह ठीक से रहो, नहीं तो कहीं और ठिकाना ढूँढ़ो! पर मि. वर्मा और बंतो का पति हवासिंह—दोनों शामिल नहीं हुए। मि. वर्मा ने यार लोगों से माफी माँग ली थी। बोले थे, “भई, हमारे तो पड़ोसी हैं। हमारा जाना ठीक नहीं लगता।” वैसे असल बात तो यह थी कि मिसेज वर्मा ने ही पति को मना किया था। हुआ यह था कि उनकी थोड़ी बहुत बातचीत इस साँवली गंभीर औरत से शुरू हो गई थी और थोड़ा बहुत सब्जी-वब्जी या कम पड़ गई गृहस्ती की चीजों का लेन-देन भी। बाजार यहाँ से खासा दूर था, सो इसमें उन्हें सुविधा थी। फिर यह औरत उन्हें घमंडी भी नहीं लगी थी। जीने का सबका अपना ढंग होता है, कोई किसी को क्या कह सकता है, उन्होंने सोचा था। एक खास बात यह थी कि उनके बच्चे जब उधर जाते तो वह औरत उन्हें खूब प्यार करती और टाफियाँ देती थी। हालाँकि उन्होंने यह बात छिपाए रखी थी और किसी से कहा नहीं था। बंतो ने भी अपने पति को रोक लिया था। उसे शुरू से ही यह ज्यादती लग रही थी कि किसी को अकेला देखकर सब उस पर वार करने लगें। उसे याद था, जब वह यहाँ आई थी तो किस तरह उसकी गरीबी और साधारण कपड़ों को लेकर उसकी हँसी उड़ाई गई थी। वह तो उसका पति हवासिंह अक्खड़ और भारी डील-डौल का मजबूत आदमी था, इसलिए कोई उसकी ओर देखती नहीं थी। वरना उसका पेट जो कुछ ज्यादा ही फूला हुआ और बेडौल लग रहा था, को देखकर आँखों-आँखों में किसने उसका मजाक नहीं बनाया था? सो उसने हवासिंह को जाने नहीं दिया। फिर भी प्रत्यक्ष विरोध उन दोनों ने नहीं किया। दिनेशकुमार, सोहनलाल और ठाकुर ज्ञानसिंह से कहा कि वे ही पूरे मुहल्ले के प्रतिनिधि बनकर हो आएँ। पूरी भीड़ के जाने की क्या जरूरत है? आखिर तीनों धड़धड़ाते हुए गए और जाकर जोरों से दरवाजा खटखटा दिया। दरवाजा औरत ने खोला। बिना सकपकाए हुए, मुसकराकर कहा, “आइए...!” “वो...मास्टर जी हैं?” उनकी समझ में कुछ और नहीं आया तो उसके दिन भर पढ़ने-लिखने की आदत को याद करके अचानक ही ‘मास्टर जी’ उन्होंने कहा। “हाँ-हाँ, आप बैठिए। विजय, देखो, ये मिलने आए हैं।” औरत ने निभ्र्रांत भाव से पुरुष को बुलाया। पुरुष आया, हाथ में पैन और किताब लिए हुए। उसी तरह प्रसन्नचित्त, जैसे वह हमेशा रहता था। हँसते हुए बोला, “आप लोगों ने बड़ी मेहरबानी की। कहिए, कैसे आना हुआ?” “कुछ नहीं, वैसे ही। सोचा, थोड़ा मिल आएँ।...आखिर हम एक ही मुहल्ले के हैं।” दिनेशकुमार ने अवसर के अनुकूल यथासंभव आवाज को दबाया। “क्यों नहीं, क्यों नहीं! बड़ी खुशी की बात है।...चाय पिएँगे?” फिर बिना उनका जवाब सुने, भीतर आवाज लगाई, “अनु, चाय बनाओ भई!” “आप जूनावस्टी में हैं?” ठाकुर ज्ञानसिंह ने जानना चाहा। हालाँकि वे यूनिवर्सिटी का ठीक उच्चारण नहीं कर पा रहे थे। “जी।” लगता था कि पुरुष इस अटपटे उच्चारण पर हँसी दबाने की चेष्टा कर रहा है। “वो तो हम लोगों ने सोच ही लिया था।” ठाकुर ज्ञानसिंह बोले, “दिन भर पढ़ते ही रहते हैं...किताबें ही किताबें। इसी बात से।” “हाँ, काम ही कुछ ऐसा है।” पुरुष ने हँसकर कहा। “क्या काम करते हैं जी आप...?” “यों समझिए...कि घास खोदता हूँ। वैसे जो काम मैं करता हूँ, उसे रिसर्च कहते हैं, यानी नई बात खोजना। लेकिन नया-वया कुछ नहीं, घास खोदनी पड़ती है रात-दिन।” वह हँसा। इतने में चाय आ गई। साँवली सी युवती ने सबको चाय दी, फिर खुद भी एक कप लेकर कुर्सी पर बैठ गई। यह उनके लिए अप्रत्याशित था, वे ज्यादा कांशस हो गए और बात करने की भूमिका तलाशने लगे। इतने में आदमी ने परिचय कराया, “अनु, देखो भई, ये अपने मुहल्ले के लोग आए हैं—दिनेश जी, सोहनलाल जी और ये हैं ठाकुर ज्ञानसिंह जी।” औरत ने बारी-बारी से नम्रतापूर्वक हलका-सा सिर झुकाते हुए उन्हें नमस्कार किया। फिर बोली, “यह तो सौभाग्य है हमारा, जो आप खुद मिलने आए।” “आप...आप कौन जात हैं?” चाय पीते हुए बड़ा साहस करते ठाकुर ज्ञानसिंह ने पूछा। “हम जात-पाँत को नहीं मानते।” पुरुष के चेहरे पर अप्रत्याशित कठोरता आ गई थी। “फिर भी अ...वैसे ही!”

“तो हरिजन समझ लीजिए! अगर आप जात-पाँत को मानते ही हैं तो मैं खुद को हरिजन कहूँगा। जिस जाति-प्रथा को आप मानते हैं, उसे मैं नहीं मानता। उस हिसाब से हमारी शादी भी एक जाति में नहीं हुई।” उन्होंने अचानक चाय के कप रख दिए, “नहीं साहब, ऐसा मत कहिए। हरिजन तो बहुत गंदे होते हैं।” “हरिजन कैसे गंदे हो सकते हैं? वे तो हरि के जन है, ईश्वर के खास लोग। उनसे पवित्र कौन होगा?” “लेकिन असलियत में तो ऐसा होता नहीं, साहब।” अब तक चुप और सहमे बैठे सोहनलाल ने अपना मुँह खोला। “नहीं होता, तो होना भी नहीं चाहिए। यह नतीजा आपने कैसे निकाला?” विजय का आक्रोश बढ़ता जा रहा था। उन लोगों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। इसलिए भीतर ही भीतर कसमसाते हुए भी वे चुप ही रहे। थोड़ी देर बाद सोहनलाल ने मौन तोड़ा, “यूनिवर्सिटी में तो बहुत लोग काम करते होंगे, विजय साहब।” वह मन ही मन कुछ कहने की भूमिका बना रहा था।

“बहुत लोग काम करते हैं। अरे, आपके इत्ते नजदीक है यूनिवर्सिटी, कभी ठीक से देखी नहीं क्या?” विजय ने अपने आक्रोश को कम करते हुए यथासंभव सहज होने की चेष्टा की। “बस साहब, कामकाजी आदमी हैं, दुकान से फुर्सत ही नहीं मिली।” सोहनलाल ऊपरी ढंग से हँसा। फिर असल बात पर आ गया, “साहब, हमारे साले को भी कहीं लगवा दीजिए। बी.ए. पास है, क्लर्क ही लग जाए।” उसने दीन भाव से कहा। “भई, सिफारिश की तो मेरी औकात ही क्या है, दूसरे मैं इसे मानता नहीं हूँ। वांट्स निकलती हैं, उसे एप्लाई करना चाहिए। हाँ, अगर पढ़ने में किसी मदद की जरूरत हो तो यहाँ भेज दीजिए। मैं या अनु पढ़ा दिया करेंगे।” “बीबी जी भी पढ़ी हुई हैं क्या?” ठाकुर ने हैरानी से पूछा।

“हाँ, मेरे बराबर ही। बल्कि मुझसे एक कदम आगे। इनका एम.ए. में फर्स्ट डिवीजन है, मेरा सेकंड...!” पुरुष हँसा। “इसलिए ये घर के कामकाज रोब डालकर मुझसे करवा लेती हैं। कहती हैं, हर चीज बराबरी की होनी चाहिए।” “ये तो ज्यादती है साहब इनकी।” ठाकुर साहिब मूँछों के बीच से हँसते हुए बिल्कुल बच्चों जैसे लग रहे थे। “नहीं साहब, ज्यादाती तो हम लोगों की, हम आदमियों की हजारों सालों से रही है। इससे दिमाग ऐसा उलटा बन गया है कि ये उस ज्यादती का विरोध करती हैं तो हमें अजीब लगता है या कि ज्यादती लगती है, जबकि इसमें कोई गलती नहीं है। यह न्याय का सवाल है। आखिर हमें क्या हक है कि हम औरत को रंगीन कपड़ों, गहनों और विलासिता के थोड़े से सामान के साथ घर की चारदीवारी में बंद कर दें, उसे पैर की जूती या नरक का द्वार कहें? जरूरत इस बात की है कि वह हमारे पूरे जीवन में सहभागी बने। आखिर वह भी हमारे जैसे ही हाड़-माँस की है, उसमें भी दिल है, दिमाग है। वह किस बात में हमसे कम है? क्या वह जिंदगी भर रसोईघर में कैद रहने के लिए बनी है...?” विजय ने बोलना शुरू किया तो बोलता ही चला गया। पता नहीं, उन्हें कितना समझ में आया, पर विजय के चेहरे के आवेश को देखकर वे त्रस्त हो गए थे। फिर वे उठे, नमस्कार किया और चल दिए। वे इस आदमी से ऊपरी तौर से असहमत थे, पर भीतर उसकी सच्चाई और सवालों का जवाब नहीं ढूँढ़ पा रहे थे।

घर आकर उन्होंने अपनी औरतों से कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। उस दिन के बाद वहाँ औरतों का जमघट लगना बंद हो गया। अलबत्ता बच्चे इस घर में कभी खेलने, कभी कहानियाँ सुनने और टाफियाँ खाने आते रहे।