असीम प्रेम का मार्ग / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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कर्म का मार्ग तो निषेध का रास्ता है नहीं। वह तो विधि का ही मार्ग है और गीताकर्म से ही शुरू करके अकर्म या कर्मत्याग पर - संन्यास पर - पहुँचती है। उसके संन्यास की परख, उसकी जाँच कर्म से ही होती है। गीता में कर्म शुरू करके ही संन्यास को आगे हासिल करते और उसे पक्का बनाते हैं। ऐसी हालत में निषेधपक्ष उसके किस काम का है? सो भी पहले ही? वह तो अंत में खुद-ब-खुद आ ही जाता है। यदि उसका अवसर आए। वह खामख्वाह आए ही यह हठ भी तो गीता में नहीं है। जब ब्रह्म को अपनी आत्मा का ही रूप मानते हैं तो अपना होने से कितना अलौकिक प्रेम उसमें होता है! दो रहने से तो फिर भी जुदाई रही गई यद्यपि वह उतनी दु:खद नहीं है। इसीलिए प्रेम में - उसके साक्षात प्रकट करने में, प्रकट होने में - कमी तो रही जाती है, बाधा तो रही जाती है। दो के बीच में वह बँट जाता जो है - कभी इधर तो कभी उधर। यदि एक ओर पूरा जाए तो दूसरी ओर खाली! यदि इधर आए तो वह सूना! दोनों की चिंता में कहीं जम पाता नहीं । किसी एक को छोड़ना भी असंभव है। यह बँटवारे की पहेली बड़ी बीहड़ है, पेचीदा है। मगर है जरूर।

देशकोश, गाँव, परिवार, घर, स्त्रीी, पुत्र, शरीर, इंद्रियाँ, आत्मा वगैरह को देखें तो पता चलता है कि जो चीज अपने आपसे जितनी ही दूर पड़ती है उसमें प्रेम की कमी उतनी ही होती है। दूर तक पहुँचने में समय और दिक्कत तो होती है और ताँता भी तो रहना ही चाहिए। नहीं तो स्रोत ही टूट जाए, सूख जाए और अपने आप से ही अलग हो जाएँ। इसीलिए ज्यों-ज्यों नजदीक आइए, दिक्कत कम होती जाती है और ताँता टूटने या स्रोत सूखने का डर कम होता जाता है। मगर फिर भी रहता है कुछ न कुछ जरूर। इसीलिए जब ऐसा मौका आ जाए कि देश और गाँव में एक ही को रख सकते हैं तो आमतौर से देश को छोड़ देते हैं और गाँव को ही रख लेते हैं। प्रेम की कमी-बेशी का यही सबूत है। इसी तरह हटते-हटते पुत्र, शरीर और इंद्रियों तक चले जाते हैं। मगर आत्मा की मौज या आनंद में उसके मजा में किरकिरी डालने पर, या कम से कम ऐसा मालूम होने पर कि शरीर या इंद्रियों के करते आत्मा का - अपना - मजा किरकिरा हो रहा है, आत्महत्या - शरीर का नाश - या इंद्रियों का नाश तक कर डालते हैं! क्यों? इसीलिए न, कि आत्मा तो अपने से आप ही है। अपने से अत्यंत नजदीक है? यही बात याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से बृहदारण्यक में कही है और सभी के साथ के प्रेमों को परस्पर मुकाबिला करके अंत में आत्मा में होने वाले प्रेम को सबसे बड़ा - सबसे बढ़ के - यों ठहराया है - 'नवा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' (4। 5। 6)।