असेंबलियों का चुनाव / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1937 ई. के शुरू में ही नए विधान के अनुसार, प्रांतीयअसेंबलियों का चुनाव हुआ। बिहार में प्रांतीय कांग्रेस की कार्यकारिणी के ही माथे कांग्रेसी उम्मीदवारों को नामजद करने का काम था। मैं भी उसका एक सदस्य था। फलत:, उम्मीदवारों की नामजदगी और चुनाव में जो कटु अनुभव मुझे हुए वह उल्लेखनीय है। बहुत पहले से बातें चलती थीं और कभी-कभी गाँधीवादी लोगों में किसी-किसी ने, जो प्रांत की पूरी खबर आज भी रखते हैं और पहले भी रखते थे, मुझसे कहा था कि आपको तो मिनिस्टर बनना और खेती वगैरह का चार्ज लेना चाहिए। क्योंकि किसानों की बात आप ही समझते हैं।

साथ ही एक बात और थी। पटना के बिहटावाले इलाके से अब तक जो हजरत चुने जाते थे उन्हें तथा गया के श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह को हराना भी जरूरी था। मगर किसी को भी हिम्मत न थी कि वहाँ खड़ा हो। बड़े-बड़े लीडर आज चढ़ा-बढ़ा के बातें भले ही करें। मगर सबों की रूह काँपती थी। इसलिए एक जगह तो मैं ही खड़ा होऊँ यह इशारा भी होता था। लेकिन मेरा सदा उत्तर यही होता कि मैं वैसे कामों के सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझे तो जनता में काम करना चाहिए।

फिर भी मैं चौंक पड़ा था कि मौके पर दबाव पड़े और कहीं मुझमें कमजोरी आ जाए तो ठीक न होगा। इसलिए जब वोटरों की लिस्ट बन रही थी तभी मैंने बड़ी ताकीद के साथ अपना नाम उस लिस्ट में न आने दिया। हालाँकि,साथियों का बड़ा हठ था। मेरी धारणा यही है कि मेरा नाम वोटर लिस्ट में कभी न आए। फिर भी लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि कांग्रेसी मंत्रियों के जमाने में जब मुझसे और प्रांतीय कांग्रेस के लीडरों से तनातनी चली तो सत्य और अहिंसा के पुजारियों ने चंपारन, सारन और दूसरे जिलों में यहाँ तक प्रचार कर डाला कि मैं तो मिनिस्टर बनना चाहता था और जब ऐसा न हो सका तो कांग्रेस का शत्रु बन गया!

हाँ, तो प्रांतीय कार्यकारिणी जब कांग्रेसी उम्मीदवार चुनने लगी तो मैंने गजब का तमाशा देखा! मुझे पता ही न चला कि किस सिध्दांत पर उम्मीदवार नामजद हो रहे हैं। कहीं तो खाँटी कांग्रेसी जो जेल गए और तबाह हुए, छोड़ दिएगए और बड़े जमींदार एवं उनके दोस्त ले लिएगए, जो न जेल गए और न कल तक खद्दर ही पहनते थे? कहीं ऐसे लग लिएगए जो अपने जुल्म के लिए किसानों में मशहूर थे। कहीं जो खद्दर तक न पहनते थे एवं गवर्नर के स्वागत एवं दरबार में शामिल रहते थे तथा आगे भी रहे उनको भी लेने की सिरतोड़ कोशिशें बड़े-बड़े नेता करते थे। कहीं ऐसी गुटबंदी की गई कि वैसों के खिलाफ कोई उम्मीदवार मिलने न पाए, ताकि वही लिएजाए! मुझसे तो कइयों ने, जो पूरे जवाबदेह थे,यहाँ तक कहा डाला कि'लाला'के खिलाफ कोई खड़ा न होगा।'लाला'एक निराले सज्जन का नाम है जो बड़े महाभारत के बाद कांग्रेस उम्मीदवार बनने से वंचित रहे। कहीं जाति-पाँति की बात चलती थी, तो कहीं अपने प्रिय पात्रो और सगे-संबंधियों की।

ऐसी पैंतरेबाजी मैंने कभी न देखी थी। इसलिए हैरान था। रह-रह के सोचता था कि क्या यही लोग मुल्क को आजाद करेंगे और क्या इसे ही राष्ट्रीयता कहते हैं? असल में जातीयता (Communalism) और राष्ट्रीयता (Nationalism) इनमें बहुत ही कम अंतर है, जो एक दशा में जाकर लापता सा हो जाता है!

मेरे सामने तो तीन कसौटियाँ थीं और तीनों पर खरे उतरनेवाले ही मेरे लिए सबसे अच्छे थे। नहीं तो दो पर और अंत में एक पर भी। मैं चाहता था कि उम्मीदवार लोग सबसे पहले तो कांग्रेस और देश के लिए जेल जुर्माने की सजा आदि काफी भुगत चुके हों, गरीब हों या गरीबों के पूरे हिमायती और किसान-सभावादी हों। यदि ये तीनों गुण न मिलें तो किसान-सभावादी होना छोड़ देता और दो भी न मिलने पर गरीब होना भी छोड़ता था। जो मुल्क के लिए तबाह बर्बाद न हुआ तो उसे तो मैं देख भी न सकता था। मगर दिक्कत यही थी कि मैं अकेला ही इस विचार का था। फलत: बार-बार जहर के घूँट पीने पड़ते थे। सोचता था,कांग्रेस की प्रतिष्ठा की बात है। यदि कहीं विरोध कर के इस झगड़े से अलग हो जाऊँ तो गड़बड़ हो सकती है। इसीलिए बर्दाश्त करता गया। लेकिन आते-आते जब अति हो गई तो मैंने साफ कह दिया कि अब नहीं चलने का। मामला यहीं बिगड़ेगा। 'I have reached here the breaking point' फिर भी दोस्तों के गले के नीचे बात न उतरी और मैं इस्तीफा दे के कार्यकारिणी से अलग हो गया। उसमें साफ लिख दिया कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं कांग्रेस काविरोधकरूँगा या उसकी मदद न करूँगा।विरोधकी तो बात ही नहीं। मदद भी करूँगा। मगर इन नामजदगियों की जवाबदेही नहीं ले सकता और जहाँ-जहाँ उचित समझूँगा वहीं मदद करूँगा। इस्तीफा देकर उत्कल चला गया। पुरी में उत्कल प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व करना था।

जब वहाँ से लौटा तो बाबू राजेंद्र प्रसाद की सात पृष्ठ की चिट्ठी मिली। उसमें नामजदगियों को ठीक ठहराने की कोशिश के साथ ही मुझसे इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया गया था। मैंने कभी बहुत पहले उनसे कहा था कि इस साल आप प्रांतीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनें तो हमारे साथ न्याय होने के साथ ही कांग्रेस की जीत की आशा भी हमें है। इसी बात की याद उनने दिलाई और कहा कि आप ही के कहने से सभापति बना और आपने बीच में ही साथ छोड़ दिया! मैं बीमार हूँ। अब सोचिए मुझ पर क्या गुजरती होगी। इस इस्तीफे का असर बुरा होगा। मुझे यह भी पता चला कि जिस दिन मैंने इस्तीफा दिया उस दिन वे सारी रात सोए नहीं। फलत: मैंने उन्हें लिखा कि आपकी दलीलों का तो मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन यदि आप सोचते हैं कि मेरे इस्तीफे का असर कांग्रेस की सफलता पर जरूर पड़ेगा तो लीजिए उसे लौटाए लेता हूँ। और इस्तीफा वापस ले लिया।

उसके बाद चुनाव में मैंने सारी ताकत लगा दी। जिन जमींदारों के विरुध्द मैंने किसान को काफी लड़ाया था और उन्हें उन जमींदारों के शत्रु बनाया था जब उन्हीं जमींदारों को वोट दिलाने के लिए मैं स्वयं गया,क्योंकि अन्यथा हार जाने की नौबत थी,तो मेरे सामने पहेली खड़ी हो गई। विरोधियों के उकसाने से और स्वभावत: भी किसानों ने मुझसे पूछा कि इस जल्लाद को ही वोट दें, ऐसा आप कहते हैं? क्यों इसे भूल गए? जमींदारों के सामने ही ऐसा सुनाया। मैंने उन्हें बड़ी कठिनाई से समझा कर राजी किया। कहा कि बातें तो ठीक हैं। किसान-सभा की दृष्टि भी वही है। मगर यहाँ तो कांग्रेस की बात है न और कांग्रेस बड़ी है। वे मान गए और कहा कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।

मैं आज सोचता हूँ कि मैंने ठीक किया था या उन्हें धोखा दिया। क्योंकि वह जमींदार आज तो कई गुना भयंकर बन गए हैं और वे किसान रो-रो के मेरे पास आते हैं। लेकिन बात असल यह है कि हमें उस परिस्थिति से गुजरना बहुत जरूरी था। एक-न-एक दिन वैसी बात करनी ही पड़ती। चलो अच्छा हुआ और पहले ही वह बात गुजर गई। अब वैसा मौका नहीं ही आएगा, यह ध्रुव सत्य है। फिर भी हमारी इतनी भूल तो जरूर थी कि हमने किसान-सभा के कुछ गिने-चुने भी स्वतंत्र उम्मीदवार खड़े न किए।

कांग्रेसी मंत्रिमंड बनने के पहले इस चुनाव के सिलसिले में ही, बीच की चन्द किसान आंदोलन संबंधी जरूरी बातों को छोड़, कुछ दूसरी बातें यहाँ कहना जरूरी है। बीच की और बातें पीछे लिखी जाएगी। चुनाव में कांग्रेस का बहुमत हुआ। एकाध को छोड़ सभी उम्मीदवार जीत गए। गया के रामेश्वर बाबू को, जो ललकारते रहते थे, हमने एक मध्यम कोटि के उम्मीदवार को ही खड़ा कर के बुरी तरह हराया और उनकी बुरी गत की। उन्हें अंत में कहना पड़ा कि किसान-सभा ने सब मामला चौपट कर दिया। नहीं तो देखते कि कांग्रेस कैसे जीतती। बिहटा के इलाके मे श्री रजनधारी सिंह इस तरह हारे कि होश न रहा! जमानत बची यही गनीमत! हालाँकि, उन्हें अत्यधिक विश्वास था कि खामख्वाह जीतेंगे। जिन पर उनका पूरा विश्वास था वह भी उनके विरोधी हो गए! सबसे अच्छा अनुभव हमें उस चुनाव में यह हुआ कि जो लोग पैसे के लोभ से जाली (bogus) वोट उनकी ओर से देने गए थे उनमें भी तीन चौथाई ने कांग्रेसी उम्मीदवार श्री श्याम नंदन सिंह को ही वोट दिया। उनमें जो पकड़े जाते थे वह हाथ जोड़ के कहते थे कि हम गरीब हैं पैसे के लिए जाते हैं। जाने और खाने दीजिए। मत रोकिए। उसी चुनाव में यह गीत भी खूब ही प्रचलित हुई कि 'मगर कोठरी में जाकर बदल जाएगे' इसका मतलब है कि अगर दबाव के करतेविरोधी की ओर से ही जाना पड़े, वही खिलाए, पिलाए और सवारी पर चढ़ाए तो कबूल कर लो। मगर वोट देने की कोठरी में जाकर कांग्रेस को ही वोट देना। इसका असर खूब ही हुआ। वह उसी वक्त से ऐतिहासिक चीज बन गई है।

गया के जहानाबाद इलाके से बड़ी मुश्किल से हमारे पुराने किसान-सभावादी डॉ. युगल किशोर नामजद किए जा सके। कांग्रेस के लीडरों ने तो औरों से यहाँ तक कह डाला कि डॉ. युगल किशोर को नामजद करवाया जो जिद्द कर के। मगर वह हारेंगे जरूर और कांग्रेस एक जगह खो बैठेगी! पता नहीं, उनकी आँखें नतीजा देखकर भी खुलीं या नहीं कौन बताए? जहानाबाद के इलाके में तो किसान-सभा का कुत्ता भी जीत सकता था। मगर हमारे दोस्तों के दिमाग ही निराले हैं! अन्य सभी जगह हजारों हजार रुपए कांग्रेस के चुनाव कोष से फूँके गए। मगर जहानाबाद में एक कौड़ी भी न दी गई! यह दूसरा जुल्म था। मगर किसानों ने जिताया ही और बहुत अच्छी तरह जिताया।