अस्तित्व नये मोड़ पर/ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जितनी कविताएँ लिखी गई हैं, उसी अनुपात में कविता के बारे में भी बहुत कुछ लिखा गया है। कविता का वास्तविक स्वरूप क्या है? जो सायास लिखा गया है या जो स्वत: स्फूर्त रचा गया है?

मेरा मानना है कि काव्य में सायास लेखन की वैचारिक आयु चाहे जो हो, पर भावनात्मक उम्र ज़्यादा नहीं होती। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि ने जो रचा, वह आज भी हमारी सबसे बड़ी थाती है; क्योंकि भाव और विचार दोनों ही निकष पर-पर वह समय की सीमा को लाँघने में समर्थ है। आज के अच्छे कवि भले ही उतना व्यापक न रच पाते हों; लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जो रचा जा रहा है, वह केवल उसी दिन कालकवलित हो जा रहा है। ऐसा नहीं है कि वह केवल अपने लिए ही है, अपने ही सीमित भावों के दायरे में बँधा है या उसमें व्यापकता की कमी है। आज भी 'स्व' और 'व्यष्टि की कारा को तोड़कर' पर 'और' समष्टि' तक व्यापक क्षेत्र को अपनाने वालों की कमी नहीं है। इस तरह देखा जाए तो ये हमारे जीवन के अन्तरंग हिस्से हैं एक दूसरे के पूरक हैं। एक अकेला भाव विचार शून्य होने पर केवल प्रलाप रह जाएगा, विचार भावरहित होने पर सूखी नदी और बिना उर्वर कल्पना के सब कुछ बेरंग और बदरंग। सबका सन्तुलन ही रचना को मुकम्मल रूप देता है। यह सन्तुलन ही जीवन की तलाश है, उसको जोड़ने और जीभर जीने का उत्सव बन सकता है।

कीर्ति केसर उन्हीं में से एक हैं। 'अस्तित्व नये मोड़ पर' काव्य-संग्रह में इनका रचनाकर्म पाठक को भाव, विचार और कल्पना की जलधारा से अवगाहन कराने में सक्षम है। इनके इस संग्रह के चार खण्ड हैं-अनुभूति, विचार, परिवेश और बोध। मन के प्रसुप्त कोने से प्रकृति के अनन्त और अनुरागमय क्षितिज तक उसकी डोर बँधी हुई है।

'अनुभूति' में ज़िन्दग़ी जीने की तलाश और लालसा का रूप मन को बाँधता है। अहंकार को सन्तुष्ट करने वाला व्यक्ति तलाश का मार्ग खो देता है। कीर्ति जी " मैंने कह दिया मिर्ज़े से' में कहती हैं—मैंने बहुत जगाया / समझाया- / चल किसी खूबसूरत वादी में

ढूँढ़ेंगे तितलियों के साथ / खुश्बू को / धुंध में धूप को / रेत में पानी की बूँद को। (32)

लेकिन जब वह तलाश नहीं हो सकी तो लगा ज़िन्दगी ही छूट गई. सब सपनों का अवसान हो गया; लेकिन यह अवसान ही लालसा का मार्ग प्रशस्त करता है-

छूट गई ज़िन्दगी / मर गए सपने / न मिले पराए / न रहे अपने /

पर अब मैं / नहीं मरूँगी उनके साथ (33)

इस कविता में कीर्ति केसर 'साहिबाँ' के मिथक को नए और यथार्थ रूप में पेश करती है, उसको नई अर्थवत्ता प्रदान करती है और यह सब है ' अपनी ज़िन्दगी को / कोई ख़ास / मायने देने के लिए!

'तेरे जाने के बाद-1' की उदासी मन के गहरे गह्वर में उतरती चली जाती है। ज़िन्दगी के अहम लम्हें जाने के बाद भी नहीं जाते, आसपास अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहते है-

खाली घर / चाँदनी जैसी रेशमी-सी / ठण्डी रोशनी से / भरा-भरा-सा लगता है /

तेरा पूजा वाला कमरा / आज भी / अगरबत्तियों की / सुगन्ध से महकता है। (38)

'तेरे जाने के बाद-2' अपेक्षाकृत छोटी कविता है; लेकिन मार्मिकता से ओतप्रोत! काव्य में जो गहन अनुभूतिजन्य भाव-सम्पदा होती है, उसका पूर्ण उन्मेष इन पंक्तियों में दृष्टिगोचर होता है-

तन खाली / खाली मन / दिन खाली। खाली रात / चुप खाली / खाली संवाद। (40)

इन पंक्तियों में खालीपन की व्यापकता को विभिन्न पूरक (तन-मन) और परस्पर विलोम (दिन-रात, चुप-संवाद) से व्यंजना की है। छोटे-छोटे क्रियापद गहन अर्थबोध से सम्पृक्त हैं। इससे भी दो क़दम आगे और यात्रा है-भरी आँखों से भीगी पलकों तक की-

उम्र के इस / खाली-खाली मौसम में / भरी हुई हैं /

मेरी आँखें / उन्हें सहेजती / भीगी पलकें / (40)

'अतृप्त' में इन्तज़ार है उस बादल का जो मन के आकाश पर छा जाए और अतृप्त कामना को सराबोर कर दे और-

' धूल-धुएँ को / धो डाले / धरती की / मिट्टी को / ख़ुश्बू से महका दे

उस गरजते घुमड़ते / बादल का / इन्तज़ार मुझे आज भी है। (43)

यही इन्तज़ार जिजीविषा है, जीवन की एषणा है; और यह बौछार के बाद की तृप्ति मन की भी है, जीवन की भी है!

देह के भूगोल पर लिखी कविताएँ धमाका भले ही कर दें, रससिक्त नहीं करतीं, वासना को भले ही सहला दें रूह को मुअत्तर नहीं करतीं। 'याद' का सौन्दर्यबोध और बिम्बविधान प्रमाता के हृदय को बाँध ही नहीं लेते; बल्कि सराबोर करके अस्तित्व के नए आयाम भी खोलते हैं-

याद है वह पल / जब उसकी निगाहों से / टपकी ओस की बूँदें /

मेरी आँखों की / सीप में आ गिरीं / मैंने उन्हें / पलकों में /

बन्द कर लिया / देखते ही देखते / वे बूँदें / मोती बन गईं। (44)

इस कविता का समापन 'मैं मील-पत्थर-सी / उस / पल में ठहरी रही।' पंक्तियों में एक अनकही उदासी में होता है। 'अनुभूति' खण्ड की अन्तिम कविता है- 'सदमा' । इसमें भरोसे और विश्वास द्वारा की गई वंचना भीतर की पीड़ा का कोलाहल बढ़ाती है तो बाहर की खामोशी को और भी गहरा कर देती है। इस कविता का प्रवाह आद्यन्त छलक उठा है। इसे सहज अनुभूति, सहज भाषा का बेहतरीन उदाहरण कहा जा सकता है-

' लम्हा-लम्हा / दिन बीता / पल-पल करके / रात कटी

क़तरा-क़तरा / लहू जला / तिल-तिल करके / रात घटी. (46)

'विचार' खण्ड में कवयित्री के तीखे सवाल तिलमिला देते हैं। 'मैंने भेजी है ई-मेल रब्ब के नाम' में रब्ब जी की थकान का कारण बताते हुए उसकी विवशता इस अप्रकार रेखांकित की है-

रब्ब जी! / अब नहीं रहे तेरे हाथ। नहीं सँभलते / तुझसे तेरे कारोबार /

तेरे नाम से / होता है भीषण क़त्ले-आम / शोषण, अत्याचार और दुष्कर्म। ' (49)

धर्म की व्याख्या के साथ व्यंग्य और अधिक गहरा हो गया है और हारकर माँगी है मुक्ति-

उस हर त्रास से / तिरस्कार से, यातना से / जिसे सहना

और तेरा शुक्र गुज़ारना / मेरा नसीब बन जाता है।

मेरा शील / भंग तो तूने भी किया था / मेरे उद्धार के लिए (51)

'इतिहास का गुलाबी पन्ना' कविता में कई अनुत्तरित प्रश्नों से मुठभेड़ होती है। इंसान को उसकी इंसानियत से महरूम करके दानवता की ओर धकेलने का काम हर युग में सत्ताधारियों का शग़ल रहा है। यहाँ पहुँचते ही कीर्ति केसर की भावाभिव्यक्ति तीखी होती जाती है। सामाजिक सरोकार से रचनाकार का यह जुड़ाव उसकी मानव में निष्ठा मानवीय संवेदना के कारण है। कुछ तीखे प्रश्न-

छतनार ख़ुश्बूदार / हरियाले चनारों पर / ख़ून किसने छिड़का

बादाम बारी क्यों उदास / हरि पर्वत क्यों हताश।

XX

ग़ुलमर्ग़, सोनमर्ग़ / की बर्फ़ में / आग किसने लगाई

डल झील के / नीले पानी में / उतरते सिन्दूरी सूरज को / चिंगारी किसने दिखाई

इन सवालों का उत्तर आज किसी के पास नहीं है। जिनके पास है, वे स्वयं को शफ़्फ़ाक़ सिद्ध करने में लगे हैं। 'फ़ासलों के पार' में भी 'विभाजन रेखा के / बाँटे-काटे लोग' अपनी पीड़ा के साथ मुखर हैं। 'अनासक्त' में स्वार्थ लिप्सा की दु: खद परिणति की अनुगूँज सुनाई देती है। 'बहुत व्यस्त है अर्जुन' में कवयित्री को अर्जुन के बड़ा होने की चिन्ता व्याकुल करती है क्योंकि-

अपनी उम्र से / कहीं ज़्यादा बड़ी- / बड़ी चिन्ताओं के साथ /

बड़ा हो रहा है / छोटा-सा नाज़ुक-सा अर्जुन

'तुम्हीं कहो' कविता बहुत सारे सवाल खड़े करती है। यही नहीं हमारे चिन्तन पर कुछ खरोंच डालती है। झूठे आदर्शों और गलित मान्यताओं को बेनक़ाब करती है और उस 'विष बीज' की तलाश करती है; जो औरत को केवल उपभोग की वस्तु ही समझता रहा है।

'नन्हे भीखी के नाम' कविता में कीर्ति केसर का प्रहार और तीखा हो उठता है। जिसका पिता कारगिल की सीमाओं पर शहीद हुआ है, उस भीखी को सम्बोधन के व्याज से कटु यथार्थ सामने आता है-

इस देश की यह रिवायत है / जो उसके लिए / लहू बहाता है

भुला दिया जाता है / जो लहू पीना जानता है / पीढ़ियों तक सत्ता का सुख पाता है

इस कविता में सत्ता की अनैतिकता के सारे मुखौटे उतार दिए गए हैं।

'कुत्ते गली के' में क्रूर निरपेक्षता और संवादहीनता पर गहरा कटाक्ष किया है। आत्मकेन्द्रित होने का सुख एक प्रकार से स्वार्थपरता और असामाजिकता ही है। गली के कुत्तों के बहाने कवयित्री संवेदना के क्षरण पर कटक्ष करती है।

तीसरे खण्ड 'परिवेश' में बिम्ब-योजना बहुत मन भावन है। कवयित्री की सम्पूर्ण कल्पना भाषिक सौन्दर्य की चूनर ओढ़कर कण-कण को मुग्ध कर लेती है। 'मुझे अच्छा लगता है-1' में फूलों से रची-बसी वही कोमल भाव-सरिता बह उठती है-

' पत्तों से छन-छन टपकती / ओस की बूँदों में भीगना /

अकेले उदास पलों में / तुमसे लिपट के रोना / अच्छा लगता है

मुझे अच्छा लगता है-2' के बिम्ब और गहरे हो उठते हैं। ठुमक कर चलती चाँदनी रात का बिम्ब

' ठुमक-ठुमक चलती / पूनम की रात के साथ / सपनों गजरे बाँटते /

चाँद को देखना / मुझे अच्छा लगता है। '

शिशु बादलों के पीछे चाँद का छिप जाना कितना मनमोहक हो जाता है और फिर-

उन्हें सुनहरी गोट से / बाँधना फिर मुस्कुराना / मुझे अच्छा लगता है।

'गीत सावन का' में भी विविधवर्णी प्रकृति के सौन्दर्य के मनभावन चित्र उकेरे हैं। 'चन्दा मामा उदास है' में चन्द्रमा की चिन्ता है, उसका अस्तित्व। मानव द्वारा प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ ख़तरे की घण्टी है। बौद्धिकता से संत्रस्त व्यक्ति केवल लाभ के गणित को वरीयता दे रहा है। आने वाला समय मानव-सभ्यता के लिए कठिन चुनौती बनने वाला है, इसकी दुश्चिन्ता इस कविता में बखूबी उभरी है। 'सावन की चाँदनी सुबह' में एक ओर अभिभूत करने वाला प्रकृति का मोहक सौन्दर्य है- -टिमटिमाते नन्हे तारे / खुशी के मारे / छलकाते हैं रोशनी / धानी-मखमली घास पर /

तो दूसरी ओर गहरी चिन्ता की अभिव्यक्ति चेतावनी दे रही है-

पेड़-घास / तोते-बादल / ढूँढ़ते रह जाएँगे / ओस के अनमोल मोती

धरती की / बदहवास ज़िन्दगी के दंगल में।

कवयित्री का भाषा-माधुर्य इस कविता में पूरे निखार पर है। बिम्ब-विधान की ताज़गी के साथ एक दुश्चिन्ता अन्तर्निहित है, जो प्रकृति की आत्मीयता से जुड़े हर सजग रचनाकार को होती है।

'उत्पीड़न' में हरी घास का मानवीकरण करते हुए 'कमसिन धानी घास का मौन रुदन' आहत करता है। घास की खूबसूरती कुचली जा रही है-

वह अपनी भीगी काया / कोसी धूप में सुखाती / यौवन की ख़ुमारी में /

थिरकती / गुनगुनाती / आसपास खड़े दरख़्तों से / बातें करती अपनी धुन में /

आज के बेखबर उन्मादी लड़के घास को नहीं वरन् अपने 'हरे-भरे भविष्य को' रौंद रहे हैं।

कीर्ति केसर की लेखनी इस कविता में वेगवती पहाड़ी नदी की तरह बहती है-कल-कल छल-छल करती हुई. भाव और अभिव्यक्ति अपने पूरे कलात्मक सौन्दर्य के साथ यहाँ उपस्थित हैं।

अन्तिम खण्ड 'बोध' में शीर्षक कविता 'अस्तित्व नए मोड़ पर' गहन अनुभूति, जीवन के यथार्थ का ऐसा सम्पृक्त गणित सामने आता है जिसमें सारे समीकरण गड़बड़ा जाते हैं-

जो पाया उसे / बाँटा नहीं जा सकता / जो खोया उसे / लौटाया नहीं जा सकता

खोया / उन रिश्तों को / जिन्हें देने को / कुछ नहीं बचा मेरे पास।

'द्वार खोलो' में उदासी को चीरकर आशा की किरणों का आह्वान है, रंग और रस को पहचानने पर बल दिया है, जो फ़रिश्तो, न की तरह आते हैं-

तुम्हारे द्वार पर। दस्तक देते हैं / दस्तक सुनो / द्वार खोलो

यही सन्देश प्रकारान्तर से 'थोड़ा इन्तज़ार' में भी ध्वनित होता है, जिसमें तूफ़ान के गुज़रने का इन्तज़ार करना होगा-

सूरज निकलेगा / आसमान के माथे पर / लाल बिन्दी-सा

दिशाएँ खुद बोलेंगी अपना-अपना नाम / बस थोड़ा इन्तज़ार

कीर्ति केसर का यह संग्रह अनुभव के ताप से पिंघले मानस की अनुकृति है, जो हर पंक्ति में पानीदार मोतियों की तरह अनुस्यूत है। सहृदय पाठकों के हृदय को यह संग्रह आप्लावित करेगा, सोच को भी विस्तार देगा; ऐसी आशा है।

अन्त: मन, भाईयों, मराना, निर्पेक्ष, निर्वेर, रचियता, औपनिवेशवाद, श्रीमति, गोष्ठि, हथिआने, श्राप, अनाधिकार, टकराओ जैसी मुद्रण की त्रुटियाँ खटकती हैं।

अस्तित्व नये मोड़ पर (काव्य-संग्रह) : कीर्ति केसर, मूल्य: 150 रुपये (सज़िल्द) , पृष्ठ: 116, प्रकाशन वर्ष: 2012, प्रकाशक: यूनिस्टार बुक्स प्रा लिमि, लोकगीत प्रकाशन, एस-सी ओ 26-27, सेक्टर-34 ए चण्डीगढ़-160022