अहदे अकबर में हिन्दुस्तान की हालत / प्रेमचंद

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अब यह बात पक्की हो गई है कि हिन्दुस्तान के इतिहासकार इतिहास-लेखन की कला से अनभिज्ञ थे। हिन्दू तो हिन्दू प्रायः यूनान से शिक्षा लेकर आने वाले मुस्लिम इतिहासकार भी शाही अभियानों और सफलताओं का वर्णन करना ही इतिहास का अन्तिम ज्ञान समझते थे। यद्यपि अकबर के युग के अनेक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध हैं, तथापि उनके अनुशीलन से लोकतांत्रिक सांस्कृतिक परम्परा, जीवन शैली और स्पष्ट वैचारिकता पर बहुत मद्धम सा प्रकाश पड़ता है। लेकिन क्योंकि राज्य-विधान और सांस्कृतिक शैली में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए उनके अनुशीलन से हम देश की दशा का पर्याप्त अनुमान कर सकते हैं।

हिन्दुओं के धार्मिक विचार

क्योंकि राष्ट्रीय जीवन का सर्वाधिक कार्यकारी तत्त्व धर्म है, इसलिए हम सबसे पहले इसकी चर्चा करते हैं। अकबर के युग से कुछ पहले ही हिन्दू रिफार्र्मेशन (जिसका आशय एक ईश्वर की पूजा और कर्मकाण्डों से पृथक् रहना है) शुरू हो गया था। स्वामी रामानुज, रामानंद, कबीर, चेतन और वल्लभ स्वामी जैसे-जैसे महान्, शुद्ध अन्तःकरण वाले, अध्यात्म में रुचि रखने वाले पूर्वजों ने मूर्खतापूर्ण मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के अंधानुकरण के विरुद्ध शंखनाद कर दिया था, फिर भी अकबर के युग में उन सामंजस्यपूर्ण विचारों का प्रभाव सम्भवतः इससे भी कम था जो आजकल जनता पर आर्य समाज या ब्रह्म समाज का है। उस काल की सामान्य बोलचाल की भाषा में कहे गए कबीर के भजन और साखियाँ उस समय भी लोकप्रिय हो चुकी थीं और प्रायः गाई जाती थीं। लेकिन उनसे जनता उसी सीमा तक प्रभावित होती थी जितनी आजकल होती है क्योंकि इन भजनों और गीतों से आत्मा को एक आश्चर्यजनक आनन्द का अनुभव होता है। लेकिन उसका प्रभाव इतना शक्तिशाली नहीं होता कि उस झूठे आचरण को मिटा दे जो दीर्घ काल से चले आते रहने के कारण हमारा स्वभाव बन गया है। ध्यातव्य है कि प्रत्येक सभ्य देश में श्रेष्ठ तथा सामान्य जनों के धर्मों का पृथक्-पृथक् रूप पाया जाता है। श्रेष्ठजनों की श्रद्धा दार्शनिक विचारों पर आधारित होती है और जनता मात्र अपने बाप-दादा के पदचिह्नों पर चलने को ही धर्म मानती है। इसलिए अकबर के दरबार में निरन्तर वैचारिक स्वतन्त्रता की चर्चा होते रहने पर भी अकबर ने हिन्दुओं से आत्मीय सम्बन्ध जोड़ने के लिये जो ढंग अपनाया उससे ज्ञात होता है कि उस काल में जनता पर ब्राह्मणों का प्रभाव उससे कहीं अधिक था जो आजकल है। उसने दाढ़ी मुँड़वा ली थी और उसके दरबारी उमरा भी प्रायः बिना दाढ़ी के रहना पसन्द करते थे। वह ब्राह्मणों का सम्मान करता था, हिन्दू विद्वानों को सर-आँखों पर बैठाता था, हिन्दुओं को ऊँचे-ऊँचे पद प्राप्त थे, सूर्य की पूजा करता था, अग्नि के समक्ष नतमस्तक होता था, गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, स्वयं मांसाहार नहीं करता था। किसी अभियान पर निकलता तो ब्राह्मणों से मुहूर्त निकलवाता। विष्णु भगवान् ने जिन-जिन रूपों में अवतार लिया था, वे पवित्र समझे जाते थे, यहाँ तक कि सूअर भी पवित्र था। तुलादान होता था, यज्ञ किए जाते थे, हवन होते थे, यहाँ तक कि वह साधुओं और योगियों को अपने बराबर में बैठा लिया करता था।

मुसलमानों की धार्मिक दशा

आलिमों और शेखों की तूती बोलती थी। उनके विरुद्ध बादशाह भी चूँ तक न कर सकता था कि कहीं उस पर भी काफिर होने का फतवा न सुना दिया जाए। हरेक बात में चाहे धार्मिक हो या शासकीय, उनमें धार्मिक आधार पर दिए गए निर्णयों तथा आदेशों का पालन किया जाता था। अदालत के सभी विषय उनके ही हाथों में थे। शिया व सुन्नी, हनफी व शाफईं प्रायः वाद-विवाद और छींटाकशी किया करते थे जिनसे उनकी मूर्खता और अन्यायप्रियता ही प्रकट होती थी। अन्ततः जब बादशाह उनके अज्ञान से बहुत अप्रसन्न हो गया तो धीरे-धीरे उनको दरबार से निकालना आरम्भ कर दिया जिस पर मुल्लाओं ने बादशाह को काफिर बताया और बंगाल प्रान्त में विद्रोह फैला दिया। उस समय के मुल्लाओं की हालत बहुत खराब हो गई थी जो हजरत आजाद देहलवी की अनमोल रचना ‘दरबारे अकबरी’ के एक अद्भुत लेख से स्पष्ट होती है।

एक समारोह में कोई मुल्ला साहब ही आ गए। बात यह चल रही थी कि मौलवियों में गणित की योग्यता कुछ कम होती है। मुल्ला साहब उलझ गए। एक व्यक्ति ने कहा, ‘अच्छा बताओ, दो और दो क्या?’ मुल्ला घबराकर बोले, ‘चार रोटियाँ!’

पनाहे खुदा! ये मस्जिदों के आज्ञापालक! दिन का खाना दोपहर ढले और रात का खाना आधी रात गए खाते हैं कि शायद कोई अच्छी चीज आ जाए, और शायद कोई बुलाने ही आ जाए। रात की घड़ियाँ गिनते हैं और बैठे रहते हैं। हवा से कुंडी हिली और दरवाजे को देखने लगे कि कोई कुछ लाया। मस्जिद में बिल्ली की आहट हुई और चौकन्ने हुए कि देखें क्या आया। ऐसे लोग राज्य की समस्याओं को क्या समझें, उन्हें तो अपने हलवे-मांडे से काम है। यद्यपि हजरत आजाद ने हास्यपूर्ण अतिशयोक्ति से काम लिया है लेकिन इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि उस समय के धार्मिक नेताओं की दशा इससे कुछ ही अच्छी थी और वे ही देश के वास्तविक शासक थे। बादशाह और उसके उमरा हथेली पर जान लेकर लड़ते थे और शासन का आनन्द मुल्ला लूटते थे। अन्ततः अकबर ने उनकी रगें ढीली कर दीं।

दरबार के उच्च विचारवान उमरा - धार्मिक निर्णय से पृथक् रहने वाले राज्य के कार्यकर्ता कुछ और ही रंग में डूबे दिखाई देते हैं। उनका व्यवहार शान्तिप्रियता का प्रतीत होता है। इस वर्ग का नेता अकबर है फिर भी उसका प्रभाव दरबार की चहारदिवारी के अन्दर ही सीमित है।

हिन्दुओं की सांस्कृतिक पद्धति

सांस्कृतिक सुधार के लिए अकबर ने जो विधान लागू किए उनसे स्पष्ट होता है कि हिन्दुओं में वे समस्त सामाजिक बुराइयाँ विद्यमान थीं जिन्हें दूर करने के लिए आज इतने प्रयास किए जा रहे हैं। सती प्रथा आम थी यद्यपि अधिकांश असहमत महिलाएँ बलात् सती होने के लिए विवश की जाती थीं। सामान्य रूप से प्रत्येक वर्ग में अल्पायु में विवाह हो जाया करते थे। विवाह से पूर्व दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित रहते थे। ये वही बुराइयाँ है जो आज भी पूरे संसार में हमारी संस्कृति को बदनाम कर रही हैं। यद्यपि अकबर ने उनकी विधिक वर्जना की, लेकिन उसका बहुत कम प्रभाव पड़ा।

किसानों की दशा

हिन्दुस्तान विशेष रूप से कृषि प्रधान देश है और किसानों की दशा परखने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं है कि उस समय के कृषि कानूनों का विहंगावलोकन किया जाय। अकबर के युग से पहले खेती की दशा बहुत खराब थी। न लगान का कोई नियत शुल्क था, न उसे वसूल करने का कोई निश्चित समय था। अकबर के युग में ये सभी असंगतियाँ दूर कर दी गईं। जमीन की पैमाइश की गई, उसे उपज की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया गया और औसत निकालकर प्रत्येक भूखण्ड पर लगान की धनराशि निर्धारित की गई। गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के माध्यम से वसूली होती थी। ईख और अन्य ऐसी जिन्सों पर जिनमें अधिक मेहनत लगती है, लगान औसत उपज का पाँचवाँ, छठा या सातवाँ भाग निर्धारित किया गया। शेष रबी तथा खरीफ की अन्य जिन्सों पर राज्याधिकार एक चौथाई से अधिक नहीं था। स्थान-स्थान पर कुँए बनवाए गए। अकाल के समय में किसानों की सहायता करने का प्रबन्ध किया गया। किसानों को अधिकार था कि लगान चाहे उपज के रूप में दें अथवा नकद। उन कानूनों की जब हम आज के कानूनों से तुलना करते हैं तो सिद्ध होता है कि उस समय के किसानों की दशा इतनी बिगड़ी हुई नहीं थी। विशेषकर इस कारण से कि उनकी आवश्यकताएँ तुलनात्मक रूप से बहुत सीमित थीं और वे भी बहुत आसानी से पूरी हो जाती थीं क्योंकि आज की तुलना में वस्तुओं के दाम बहुत कम थे।

न्याय व्यवस्था

जिस समय अकबर ने सिर पर राजमुकुट पहना था, उसकी अवस्था तेरह वर्ष से अधिक नहीं थी। राज्य का भला-बुरा बैरम खान (खाने खानखाँ) के हाथों में था। वह शासन करने की योग्यता रखता था लेकिन शासन के सिद्धान्तों से उतना ही परिचित था जितने उसके अयोग्य सहायक। प्रत्येक बात में पहले के शाहों के अनुकरण की अदालत के सभी विवाद काजियों और मुफ्तियों के हाथों में थे। ये जिसे चाहते बनाते, जिसे चाहते बिगाड़ते। उनकी अपील कहीं नहीं हो सकती थी। हिन्दुओं के मुकदमे भी उन्हीं के दरबार में निर्णीत होते थे और उनके मामलों में भी हदीस और शरीयत का पालन किया जाता था। हिन्दुओं पर किये जाने वाले पीरों के अत्याचार अकबर देखता था और दाँत पीसकर रह जाता था।

अन्ततः जब बैरम खान के काल का पतन हुआ और अकबर ने हाथ-पाँव सँभाले तो उसने धार्मिक विद्वानों की खूब किरकिरी की, कितने ही लोगों को देशनिकाला दे दिया, कितनों को कैदखाने में भिजवा दिया और हिन्दुओं के मुकदमों के फैसले ब्राह्मण विद्वानों के हाथों में दे दिए ताकि शास्त्र के आदेशों के अनुसार व्यवहार करें।

राजनीतिक पद्धति पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि उस समय अपराधियों के साथ बड़ी सख्ती की जाती थी। आजकल बेंत मारना बुरा समझते हैं, उस जमाने में शपथ की यह परम्परा थी कि जलते तवे पर हाथ रखा जाता था और कुछ अपराधों का दण्ड यह था कि हाथ काट डाला जाए या नाक या कान। लेकिन उस काल में लगभग प्रत्येक देश में ऐसे ही कठोर दण्ड लागू थे, यहाँ तक कि इसी देश में आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व बहुत से अपराधों का दण्ड मृत्यु था।

सेवा कार्य

प्रतिष्ठित लोगों की आर्थिक सहायता के दो उपाय थे - एक वजीफा, दूसरे नौकरी। वजीफा जागीर थी जो मस्जिदों के इमामों और श्रेष्ठ धार्मिक जनों के लिए होती थी। इसमें सेवा क्षम्य थी, नौकरी में सेवा भी होती थी। यह दस सरदारों से लेकर पाँच हजारी तक। जो मुलाजिम होते थे सब तलवार वाले होते थे। दस सरदारों को दस, बीसी को बीस आदि-आदि सिपाही रखने होते थे। इसी प्रकार दो बीसी, पाँच नायक, तीन बीसी, चार बीसी, सौ बीसी आदि-आदि पाँच हजारी तक। वेतन की पद्धति यह थी कि हिसाब के अनुसार उतनी जमीन का भाग या इलाका या देहात या प्रान्त मिल जाता था जिसके राजस्व से वह अपने लिए निर्धारित सेना रखें और अपनी हैसियत और इज्जत तथा दशा को ठीक रखें। उपर्युक्त मुलाजिमों में से जिसकी जैसी योग्यता देखते थे वैसा काम लिखित में भी देते थे। युद्ध का अवसर आता तो जिन-जिनके नाम प्रस्तावित होते क्या तलवार वाले, क्या लेखक; उनके नाम आदेश पहुँचते। वे सरदारों से लेकर सौ-दो सौ आदि-आदि तक सभी मनसबदार अपने-अपने जिम्मे की सेना पोशाक, हथियार और सामान से सुसज्जित करते और उपस्थित होते।

बदनीयत मनसबदारों ने यह ढंग अपना लिया कि सिपाही तैयार करके मुहिम पर जाते। जब लौटकर आते तो अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ आदमी रख लेते, बाकी निकाल देते। उनके वेतन आप हजम। रुपये से मौज मस्ती करते या घर भरते। जब मुहिम की फिर आवश्यकता होती और ये इस भरोसे पर बुलाए जाते कि सुसज्जित सेनाएँ, लड़ाकू सिपाही लेकर उपस्थित होंगे, वे कुछ अपने दस्तरख्वानों के पुलाव, कुछ कुँजड़े, भटियारे, धुनिये, जुलाहे, पक्के जंगली मुगल, पठान, तुर्क, जो हजारों की संख्या में बाजारों में फिरते थे और सरायों में पड़े रहते थे, उन्हीं को पकड़ लाते थे। कुछ अपने सेवक, कुछ साईस, शागिर्द पेशा आदि लेते। घसियारों के घोड़ों, भटियारों के टट्टुओं पर बैठाते, किराए के हथियार, माँगे-ताँगे के कपड़ों से लिफाफा चढ़ाते और जा उपस्थित होते। लेकिन तोप-तलवार के सामने उन लोगों से क्या होता था। ठीक लड़ाई के समय बड़ी दुर्दशा होती थी।

उस समय के जागीरदारों का कैसा सच्चा चित्र है। और ये बेईमानियाँ कोई विशेष रूप से हिन्दुस्तान के साथ ही जुड़ी हुई नहीं हैं, योरुप में भी सेनाएँ रखने का पहले यही तरीका था और ऐसी ही धोखेबाजियाँ होती थीं। अकबर ने इनकी रोकथाम के लिए दाग का कानून जारी किया। योरुप वालों ने उनका अधिक ठोस उपाय किया। उन्होंने जागीरों की परम्परा ही समाप्त कर दी और स्थायी सेना रखने लगे। उस समय अकबर चाहता तो भी ऐसा न कर सकता, क्योंकि विद्रोह हो जाने की आशंका थी।

जागीरें देने की परम्परा चाहे निरंकुश बादशाहों की जिम्मेदारियों को कम करती हो लेकिन प्रजा के लिए अत्यंत हानिकर थी क्योंकि जब किसी को जागीर मिलती तो केवल उसके युद्ध व संघर्ष की क्षमता के विचार से। और ऐसे लोग जब जागीरों पर जाते तो शान्त न बैठते, सदा ऊधम मचाया करते। ऐसा बहुत कम होता है कि हर व्यक्ति में लड़ाई के साथ शासन की योग्यता भी पाई जाए। ऐसे उदाहरण अप्राप्य भले ही न हों लेकिन दुष्प्राप्य अवश्य हैं।

कभी-कभी ये लोग जागीरों की ओर मुँह नहीं करते थे, केवल विश्वासपात्र कारिन्दों के भरोसे शासन करते थे। जैसे स्वामी वैसे ही उनके नौकर, बल्कि उनसे भी दो अंगुल ऊँचे। ये कारिन्दे प्रजा को सताते और अपने घर भरते थे।

ज्ञान के कार्य

जिस काल में फैजी जैसा कालजयी कवि और अबुल फजल जैसा चमत्कारिक लेखक हो उस काल के ज्ञान के विकास का क्या पूछना। क्या शिल्प की कसावट की दृष्टि से और क्या रोचकता की दृष्टि से केवल ‘अकबरनामा’ एक ऐसी अनुपमेय पुस्तक है जो संसार की अत्यन्त प्रसिद्ध रचनाओं के बराबर रखे जाने योग्य है।

अकबर स्वयं तो अनपढ़ था लेकिन उसने ज्ञान तथा उसकी महत्ता का जितना सम्मान किया वैसा किसी अन्य ने बहुत कम किया होगा। और जितनी पुस्तकें और संकलन उसके युग में हुए उतने शायद ही किसी दूसरे बादशाह के समय में हुए हों। अंग्रेजी इतिहास में सम्राज्ञी एलिजाबेथ का युग ज्ञान के विकास की दृष्टि से स्मरणीय समझा जाता है। लेकिन वहाँ जो पुस्तकें लिखी गईं वे रसज्ञता और सामान्य गुणग्राहकता का परिणाम थीं, न कि एलिजाबेथ के प्रयासों का। इसके प्रतिकूल अकबर के युग में जितनी पुस्तकें लिखी गईं सभी उसकी गुणग्राहकता तथा उत्साहवर्धन का परिणाम थीं। जितने भी लेखक थे सभी समुचित पदों पर प्रतिष्ठित थे। यदि उस काल की सभी पुस्तकें इकट्ठी की जाएँ तो एक अच्छा बड़ा पुस्तकालय ही बन जाए। उनमें अधिकांशतः संस्कृत पुस्तकों के फारसी अनुवाद हैं। ‘सिंहासन बतीसी’, ‘अथर्ववेद’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘नलदमन’, ‘लीलावती’, ‘अय्यार दानिश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं और आज तक रुचिपूर्वक पढ़ी जाती हैं। इन अनुवादों के अतिरिक्त मुल्ला अब्दुल कादिर बदायुँनी ने कश्मीर के प्रसिद्ध व प्रामाणिक संस्कृत इतिहास ‘राजतरंगिणी’ का फारसी में अनुवाद किया। हकीम हमाम, मुल्ला शीरीं और अब्दुर्रहीम खानखाना भी प्रसिद्ध लेखकों में हैं। अब्दुर्रहीम खानखाना तो संस्कृत की अच्छी योग्यता रखता था और प्रायः हिन्दी भाषा में लिखा करता था। उसके लिखे हुए दोहे हिन्दी में अब तक बहुत लोकप्रिय हैं। समीक्षकों का विचार है कि वे तुलसीदास के दोहों से टक्कर लेते हैं।

सत्कलाएँ (निर्माण एवं मूर्तिकला)

अकबर के युग में ये कलाएँ अपने उत्कर्ष पर पहुँच गई थीं। अकबराबाद1 का किला, फतहपुर सीकरी के भवन और हुमायूँ का मकबरा वे अद्वितीय निर्माण हैं जिन्हें देखने वालों की आँखें पथरा जाती हैं लेकिन दृष्टि नहीं थकती। विश्व-यात्री कहते हैं कि संसार में ऐसे भवन अत्यल्प हैं। इन्हीं शिल्पियों के वंशजों ने दिल्ली के वे भवन बनाए जो आज तक इस कला का पूर्ण तथा अनुपम उदाहरण स्वीकार किए जाते हैं।

1. अकबर ने आगरा का नाम बदलकर अकबराबाद रखा था।

चित्रकला

उस युग में चित्रकला भी अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची हुई थी। चित्रकला के सामान पर बहुत ध्यान दिया जाता था। चित्रण और रंजन का भी विकास हो गया था। मीर सैयद अली तबरेजी और अब्दुस्समद शीरीं, कलम शीराजी और दसवंत हिन्दी बड़े उच्च कोटि के कलाकार थे। इन्हीं चित्रकारों ने अकबर और उसके दरबार के जो चित्र चित्रित किए थे, वे जिन्होंने देखे हैं वे स्वीकार करते हैं कि वे अपने आप में निराले हैं। उस काल के अमीर और प्रतिष्ठित व्यक्ति शिक्षा की पूर्णता के लिए इस कला को सीखना आवश्यक समझते थे। अकबर स्वयं कहता है, ‘जो लोग चित्रकला के कार्य की निन्दा करते हैं मैं उन्हें पसन्द नहीं करता। मैं समझता हूँ कि ईश्वर को पहचानने के लिए एक चित्रकार बहुत से व्यक्तियों से कहीं अच्छा होता है।’

दीनों की सहायता

अकबर के युग की एक विशेषता यह है कि असहाय तथा बेरोजगारों की सहायता भी की जाती थी ताकि ये लोग आवश्यकताओं से विवश होकर धनोपार्जन के अनुचित साधन न अपना लें। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित चार वर्ग शाही सहायता के अधिकारी माने जाते थे -

1. वे लोग जो अपना समय लेखन तथा संकलन में लगाएँ।

2. जो लोग संसार से विरक्त होकर इन्द्रिय-शुद्धि और ईश्वराराधन में व्यस्त हों।

3. जो लोग फटेहाल हों लेकिन श्रम करने के योग्य न हों।

4. जिन लोगों की नसों में शराफत का खून हो लेकिन अज्ञान या अयोग्यता के कारण धनोपार्जन न कर पाते हों।

जो सरकार इतनी उदार हो उसकी प्रजा की समृद्धि और सम्पन्नता के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है। कुछ लोगों का विचार है कि अकबर के काल में प्रजा को चाहे कैसा भी सुख-चैन क्यों न हो मगर अंग्रेजी राज का उससे क्या मुकाबला! शायद ऐसा ही हो, मगर अन्तर केवल यह है कि अकबर की प्रजा के मन में बादशाह के प्रति सच्चा विश्वास उत्पन्न हो गया था, वह उसे अपना बादशाह समझती थी। मगर इसके प्रतिकूल अंग्रेजी राज चाहे कितना भी सुख-सुविधा क्यों न पहुँचाए, अभी तक एक पराया शासन माना जाता है क्योंकि वह प्रजा से अपनत्व उत्पन्न करने का प्रयास नहीं करता।

शिक्षा

प्राचीन काल में न कोई यूनिवर्सिटी थी न आजकल जैसे मदरसे और कालेज। विद्यार्थियों को विद्वान् अपने मकानों पर या मस्जिदों में बैठकर पढ़ाते थे। अकबर ने शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया। उसके आदेश से शिक्षा की ऐसी पद्धति लागू की गई कि लड़के थोड़े ही दिनों में लिखना-पढ़ना सीखने लगे। मगर सच्चाई यह है कि शिक्षा नये जमाने के उच्च विचारों की देन है। आज प्रायः शासन अपनी कुल आय का सातवाँ या आठवाँ भाग इस भलाई के काम पर व्यय करना भी अपव्यय नहीं मानते।

अकबर के युग में प्रारम्भ में गणित हिन्दी में प्रचलित था। टोडर मल ने हिन्दी के स्थान पर फारसी में प्रचलित किया। पहले तो हिन्दू लोगों को यह परिवर्तन अरुचिकर लगा लेकिन बहुत शीघ्र इसका अच्छा प्रभाव प्रकट हुआ क्योंकि हिन्दुओं को फारसी पढ़ने की आवश्यकता पड़ी और वे विद्वान् होकर मुसलमानों के साथ उच्च पदों पर प्रतिष्ठित होने लगे।

जनता के मनोरंजन

उस काल में क्योंकि मारकाट का बोलबाला रहता था, जनता की रुचि के काम भी इसी प्रकार के होते थे। कहीं चीते से हाथी लड़ रहा है, कहीं भैंसे लड़ाए जा रहे हैं, कही मेंढ़ों के जोड़ छूटे हुए हैं। उमरा हाथियों की लड़ाइयों और उनकी रेलपेल में आनन्द लेते थे। हाथियों, शेरों, चीतों, भैंसों, हिरणों को फँसाने के विचित्र-विचित्र उपाय किए जाते थे। मुर्गाबियों का शिकार करने का तरीका ऐसा अनोखा है कि हम उसका वर्णन किए बिना नहीं रह सकते। पहले क्या करते कि एक ढाँचा बनाते, उस पर मुर्गाबी की खाल मँढ़ते जिसमें पर, चोंच तथा खून लगा रहता था। उसमें दो छिद्र रखते थे जिनसे शिकारी देखता था। ढाँचा अन्दर से खोखला होता था। उसमें शिकारी सिर रखता, गले तक पानी में डूब जाता और सावधानी से मुर्गाबियों के पास जाकर एक-एक को पकड़ता जाता। क्या बात है!

उस काल में चौगान1 भी उमरा का एक प्यारा खेल था। कभी-कभी पलाश की लकड़ी की गेंद बनाकर उन्हें जलाते और रात में चौगान का आनन्द उठाते थे। कबूतरबाजी, चौपड़, गंजिफा2 भी सामान्य रूप से प्रचलित थे, ताश तो नये युग की खोज है।

1. गेंद-बल्ले का खेल जो पोलो से मिलता-जुलता है।

2. ताश से मिलता-जुलता एक खेल जिसमें 96 गोल पत्ते होते हैं और जिसे तीन खिलाड़ी खेलते हैं।

एक अंग्रेज पर्यटक के यात्रावृत्त से संचयन

प्रायः ऐसा होता है कि जब किसी देश के इतिहासकार उसका इतिहास लिखते हैं तो रोजाना की सोशल बातों को मामूली समझकर विस्मृत कर जाते हैं। लेकिन जो पर्यटक अपरिचित देशों में जाते हैं वे प्रत्येक बात को, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, लिपिबद्ध कर देते हैं। यही कारण है कि किसी देश की जीवन-शैली की दशा जानने के लिए हमें वहाँ के पर्यटकों के यात्रावृत्तों की आवश्यकता पड़ती है। अकबर के युग में सम्राज्ञी एलिजाबेथ से सिफारिशी चिट्ठियाँ लेकर कुछ अंग्रेज पर्यटक व्यापार करने की इच्छा से हिन्दुस्तान में आए थे। उनमें से एक ने संक्षिप्त सा यात्रावृत्त लिखा है। हम उस पुस्तक से आवश्यकतानुसार थोड़ा सा चयन करते हैं।

ये व्यापारी 13 फरवरी 1513 ई. को इंगलिस्तान से रवाना हुए और अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में स्याम देश में त्रिपोली स्थान पर उतरे। कोलम्बस ने नयी दुनिया खोज ली थी लेकिन उस समय तक केप आफ गुड होप होकर आने का मार्ग किसी को ज्ञात नहीं हुआ था। त्रिपोली से ये लोग पैदल बसरा होते हुए फारस की खाड़ी के बंदरगाह हुर्मुज तक आए। उस समय वहाँ पुर्तगाली व्यापारियों ने व्यापार प्रारम्भ किया था। वे जब किसी यूरोपियन को देखते तो ईर्ष्या से तत्काल गिरफ्तार कर लेते और भाँति-भाँति के कष्ट पहुँचाते। उन्होंने इन पर्यटकों पर भी जासूस होने का आरोप लगाया और बंदी बना लिया। एक माह तक बंदी रखने के पश्चात् उन्हें गोवा के लिए चलता कर दिया।

उस समय गोवा पुर्तगालियों के अधिकार में था और आज चार शताब्दियों के बाद भी वहाँ उनका आधिपत्य विद्यमान है। इस स्थान पर उनकी जाँच-पड़ताल की गई और अन्ततः हजारों दिक्कतों और परेशानियों के बाद उन्हें मुक्ति मिली। उनमें से तीन आदमियों ने कपड़े और रत्नों का व्यापार प्रारम्भ किया। लेकिन जब उनका काम चमका तो पुर्तगाली घबराए और फिर उन पर हाथ डालने की घात में लगे। अन्ततः ये लोग भयभीत होकर भागे और बीजापुर तथा गोलकुंडा की सैर करते हुए बुरहानपुर पहुँचे। इस नगर को अकबरी प्रताप ने कुछ ही दिनों पूर्व अपने अधिकृत क्षेत्रों में सम्मिलित कर लिया था। इस जगह तक का विवरण कुछ उखड़ा-पिछड़ा सा है, लेकिन यहाँ से आगे का विवरण क्रमबद्ध है। इन रिमार्कों के पढ़ने से हमको अकबर के युग की समृद्धि, सम्मान, व्यापार, उत्साह और जीवन-शैली की विशेषताएँ ज्ञात हो जाएँगी।

"बुरहानपुर से हम उमड़ी हुई नदियों को पार करते आगरा पहुँचे। मार्ग में बड़ा कष्ट हुआ। कई बार तो चौड़ी नदियों पर कोई पुल नहीं होता था। विवश होकर हम उस समय तैरकर पार होते थे। आगरा बड़ा आबाद और विस्तृत शहर है। मकान बड़े सुन्दर तथा साफ-सुथरे हैं और गलियाँ भी साफ-सुथरी तथा चौड़ी। शहर के ठीक मध्य में एक नदी बहती है जो बंगाल की खाड़ी में गिरती है (यमुना)। यहाँ एक सुन्दर किला है जिसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई है। यहाँ मुसलमान बहुलता से बसे हैं और बादशाह का नाम जलालुद्दीन अकबर है। उसे लोग मुगले आजम भी कहते हैं। यहाँ से हम फतहपुर सीकरी पहुँचे जहाँ बादशाह दरबार करता है। शहर आगरा से बड़ा है लेकिन गलियाँ और मकान इतने सुन्दर और स्वच्छ नहीं है। यहाँ भी मुसलमान बहुलता से बसे हुए हैं। लोग कहते हैं कि यहाँ पर बादशाह ने एक हजार हाथी, बीस हजार घोड़े, बारह सौ पालतू हिरण रखे हैं और मुर्गों, बाजों और अन्य शिकारी चिड़ियों की संख्या इतनी अधिक है कि देखकर आश्चर्य होता है। अन्तःपुर में आठ सौ बेगमें हैं। बादशाह का दरबार बड़ा प्रतिष्ठित है। उसको दारखाना कहते हैं। आगरा और फतहपुर, दोनों शहर लंदन से बहुत बड़े हैं और इन दोनों शहरों के बीच बारह मील की दूरी है लेकिन यह बीच का पूरा रास्ता खाने-पीने और अन्य वस्तुओं के बाजारों से ऐसा आबाद है कि लगता है शहर का ही सिलसिला है और आदमी इतने अधिक आते-जाते रहते हैं कि मानो बाजार हो। यहाँ रईसों की सवारी छोटी-छोटी बहलियाँ होती हैं जिन पर सुनहरे बेल-बूटे बने रहते हैं। इसमें दो पहिये होते हैं और दो बैल जोते जाते हैं जो इंगलिस्तान के बड़े कुत्तों जितने कद के होते हैं और ऐसे तेज होते हैं कि घोड़ों से शर्त लगाकर दौड़ सकते हैं। इसमें दो या तीन आदमी सवार होते हैं। ये सवारियाँ सुन्दर रेशमी कपड़ों से सजी होती हैं। इस शहर में फारस और तिब्बत और सारे हिन्दुस्तान और अन्य देशों के व्यापारी हजारों की संख्या में इकट्ठे होते हैं और रेशम, कपड़े, मूल्यवान रत्नों जैसे हीरे, मोती, लाल आदि का खूब क्रय-विक्रय होता है।"

दोनों शहरों का यह संक्षिप्त वर्णन करने के पश्चात् लेखक बादशाह के बहुमूल्य वस्त्रों की चर्चा करता है, जिसका उल्लेख करना निरर्थक है।

ये तीनों व्यापारी यहाँ कुछ समय तक रहे। इसके पश्चात् एक तो विदेश चला गया, दूसरे ने शाही दरबार में नौकरी कर ली और तीसरा, जिसका नाम फिंच था, कुछ हिन्दुस्तानी व्यापारियों के साथ हो लिया जो अपनी नावें लेकर बंगाल की ओर जा रहे थे। उन नावों में नमक, हींग, केसर, अफीम, सीसा, कालीन आदि वस्तुएँ लदी हुई थीं। बंगाल के शहरों का वर्णन दृष्टव्य है। फिंच लिखता है-

"पटना से मैं टांडा को गया जो पहले स्वयं एक राज्य था लेकिन अब जलालुद्दीन अकबर के अधिकृत क्षेत्रों में सम्मिलित है। यहाँ रुई और रुई के कपड़े की बड़ी मण्डी है। जनता एक पतली सी धोती कमर में बाँधे नंगे शरीर इधर-उधर घूमती रहती है। यहाँ चीते, जंगली भैंसे और जंगली चिड़ियाएँ बड़ी प्रचुरता से पाई जाती हैं। लोग बड़़े मूर्तिपूजक हैं। आगरा से यहाँ तक आने में पाँच महीने लगे लेकिन यह यात्रा इससे कम समय में हो सकती है।

हम बंगाल से कूचबिहार की ओर चले। यह स्थान टांडा से पच्चीस मील पर स्थित है। सुनने में आया है कि लड़ाई के दिनों में नोकदार बाँस की मेखें जमीन में गाड़कर पानी से भर देते हैं ताकि कोई आदमी या घोड़ा उधर से न गुजर सके। जब शत्रु चढ़ आता है तो ये लोग कुँओं में जहर मिला दिया करते हैं। यहाँ रेशम और रुई की बहुतायत है। यहाँ लोग कभी जानवर को नहीं मारते और भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्ली, चिड़ियों और अन्य जीवों के लिये औषधालय और दानशालाएँ बनी हुई हैं। जब ये जीव बूढ़े या लँगड़े हो जाते हैं तो उन्हीं दानशालाओं में भोजन पाते हैं। लोग चींटियों को खाद्य सामग्री बाँटते फिरते हैं। जब मीरे शिकार1 कोई चिड़िया या जानवर फँसा कर लाता है तो लोग उसे खाना देकर चिड़िया छुड़ा लेते हैं और उन अस्पतालों में रखते हैं या उड़ा देते हैं।

यहाँ से मैं हुगली को गया। इस शहर में पुर्तगाली लोग बसे हैं। हमने आम रास्ता छोड़ दिया था क्योंकि डाकुओं का भय था। रास्ते में गाँव बहुत कम थे और जंगली सूअर और हिरण और चीते ऊँची-ऊँची घास में टहल रहे थे।"

यह पर्यटक हुगली से अन्य स्थानों को गया। उड़ीसा का हाल इस प्रकार लिखता है -

"यहाँ चावल बहुतायत से होता है और एक प्रकार की घास उत्पन्न होती है जो रेशम के समान होती है। इससे सुन्दर कपड़े बनते हैं। इस बन्दरगाह में नगापट्टन, मलाका द्वीपसमूह, सुमात्रा और अन्य स्थानों से अनगिनत जहाज हिन्दुस्तान आते हैं और चावल, ऊन, सूती कपड़े, शक्कर, लाल मिर्च, मक्खन और अन्य कृषि उत्पाद लादकर ले जाते हैं।

1. वह शाही सेवक जो शिकारी जानवरों की निगरानी हेतु नियुक्त होता था।

बंगाल में प्रतिदिन कहीं न कहीं पैंठ लगती है जिसे ‘चाँदू’ कहते हैं। लोगों के पास बड़ी-बड़ी नावें होती हैं जिन पर सवार होकर इधर-उधर क्रय-विक्रय करते फिरते हैं। यहाँ हिन्दू गंगा-जल का बड़ा सम्मान करते हैं और कुएँ का पानी पास हो, फिर भी दूर से गंगा-जल लाते हैं। यदि वह पीने भर को पर्याप्त न हो तो उसकी कुछ बूँदें छिड़ककर घड़ों को पवित्र किया करते हैं।

उड़ीसा से मैं बाकला (बाकरगंज) को गया जहाँ हिन्दू राजा है और बन्दूक के शिकार का बहुत शौक रखता है। यह देश बहुत विस्तृत और उपजाऊ है। यहाँ चावल, रुई और हर प्रकार के कपड़े बहुत बनते हैं। मकान बड़े और ऊँचे होते हैं, गलियाँ चौड़ी लेकिन जनता अर्धनग्न होती है। कमर में केवल एक धोती होती है। औरतें गले और पाँव में चाँदी के गहने पहनती हैं। पैरों में चाँदी, तांबे या हाथी दाँत के कड़े होते हैं।"

यहाँ से फिंच श्रीपुर को गया। वह लिखता है कि इस जगह भी सूती कपड़े बहुत बनते हैं। श्रीपुर से श्रीरामपुर को आया और कहता है यहाँ हिन्दुस्तान के सभी स्थानों से अच्छा कपड़ा बनता है। बादशाह अफगानी है। सामान्य रूप से मकान छोटे होते हैं और लोग धनी तथा सम्पन्न हैं। मांसाहार नहीं करते। यहाँ से सूती कपड़ा, चावल और रेशम प्रचुरता से हिन्दुस्तान, लंका, पेगू, मलाका द्वीपसमूह, सुमात्रा आदि को जाता है।

इस पर्यटक के ये रिमार्क हमारे लिए अर्थपूर्ण हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि हिन्दुस्तान में उस समय सम्पन्नता का बोलबाला था। मलाका द्वीपसमूह, सरनदीप, सुमात्रा, चीन, तिब्बत, फारस, काबुल आदि से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। रेशमी और सूती कपड़ा सभी दिशाओं में भेजा जाता था। माल की ढुलाई के लिये नावों और जहाजों का प्रयोग किया जाता था। मांस का प्रयोग कम था और जनता प्रत्येक दृष्टि से तृप्त तथा संतुष्ट थी।


[इस महत्त्वपूर्ण लेख में प्रेमचंद ने अकबरकालीन शासन-प्रशासन के समस्त अंगों पर संक्षेपतः परन्तु पूर्णता के साथ विचार किया है, जो उनकी सुस्पष्ट जनोन्मुखी चिन्तन-धारा का प्रबल प्रमाण है।]