अहमदाबाद कांग्रेस / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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जैसा पहले कहा है, साल बीतते-न-बीतते मैं गाजीपुर चला गया और वहीं काम में लग गया। वहीं से हम कई साथियों के साथ अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होने के लिए रवाना हो गए। हमने रास्ते में कई बातें देखीं। एक तो जयपुर में उतर कर वहाँ का जेलखाना देखा। हमें यह देख कर खुशी और आश्चर्य दोनों ही हुए कि वहाँ के कैदी पशु बना कर या अपमानित कर के नहीं रखे जाते थे। उन्हें हमारी जेलों जैसे धारीदार कपड़े भी नहीं मिलते थे। गाँछिया, टोपी आदि न दे कर धोती, गमछी दी जाती थी। वायुमंडल ऐसा था कि वे अपने को उठा सकें, न कि और गिराते जाए जैसा कि ब्रिटिश-भारत की जेलों में होता है। सबसे बड़ी बात यह थी कि गलीचे, दरी आदि कारीगरी के ऐसे काम उन्हें सिखाए जाते थे कि बाहर जा कर दो-चार रुपए रोजाना आसानी से कमा सकें। ऐसा हमें बताया गया। हमने वहाँ की बनी चीजें देखी भी। यह भी कहा गया कि एक बार जो इस जेल से बाहर जाते है वे शायद ही फिर कभी आते हैं!

दूसरी बात यह थी कि रास्ते में हमारी गाड़ी जयपुर के आगे नहीं रुकती थी वहीं पंजाबियों का एक दल चट करताल आदि ले कर स्टेशन पर उतर पड़ता और,'नहि रखनी सरकार जालिम, नहि रखनी' गीत गाने लगता। इस उमंग और तानसुर के साथ मस्ती में यह गीत वह लोग गाते थे कि दंग रह जाना पड़ता था। इससे स्टेशनों पर भीड़ एकत्र हो जाती थी।

कांग्रेस के अध्यक्ष देशबंधु चितरंजन दास थे। मगर सरकार ने उन्हें पहले ही कैद कर लिया। फलत: हकीम साहब अजमल खाँ को सदारत करनी पड़ी। कांग्रेस में जोश की बात तो कहिए मत। लहरें उमड़ रही थीं। उसी अधिवेशन में सत्याग्रह के नियम और प्रतिज्ञा-पत्र पास हुए थे। वहीं मौलाना हसरत मुहानी ने कांग्रेस के ध्येय से (स्वराज्य) पद निकाल कर (पूर्ण स्वतंत्रता) रखने का संशोधन पेश किया था जो गाँधी जी की बातों का अंध भक्त था। अत: मुझे मौलाना की बात कुछ रुची नहीं। यह तो न जाने कितने दिनों के बाद ठीक जँची हैं और अब तो उतने से भी मेरा काम चलता नहीं दीखता। अब तो उस पूर्ण स्वतंत्रता की भी पूरी सफाई चाहता हूँ। मौलाना वहीं पर मुसलिम लीग के अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उसी पद से जो भाषण उन्होंने दिया उसी पर पीछे उन पर केस चला और वे कैद हो गए। आज की मुसलिम लीग में और तबवाली में जमीन-आसमान का अंतर था। आज कवि के शब्दों में “वह बुलंदी यह तबाही, वह जलाल और यह जवाल” उसके बारे में अक्षरश: चरितार्थ होता है।

गाँधी जी का भाषण मैंने बहुत ही ध्यान से सुना, सुनने ही लायक था। टेबल पर बैठ कर बोल रहे थे। सारा शरीर खास कर चेहरा सुर्खी लिए हुए था। मालूम होता था बड़ी गंभीरता के साथ काल के रूप में कोई शक्ति सरकार को ललकार रही और चेतावनी दे रही है कि सँभल जाए। घंटों बोलते रहे। पंडाल में पूर्ण शांति बिराजती थी। उनका वैसा भाषण और वैसा चेहरा मैंने फिर कभी नहीं देखा। उनके एक-एक शब्द सरकार के लिए वज्र की तरह मालूम पड़ते थे। मालूम होता था कि कालाग्निरुद्र बोल रहा हैं, गर्ज रहा है और इसके बाद ही प्रलय लाएगा।

एक बात कहना मैं भूल ही गया। सरकार का रवैया दिसंबर आते-न-आते बदल चुका था। क्रिमिनल लाँ एमेंडमेंट कानून लागू कर के उसने स्वयं सेवक भर्ती करने या बनने की मनाही कर दी थी। इसलिए जगह-जगह से लोग जिलों के मजिस्ट्रेटों को पत्र लिखने लग गए थे इस बात की सूचना के रूप में, कि हम स्वयं सेवक भर्ती करते और बनते हैं। सरकार को ललकारने का सोचा गया था। अभी शीघ्र ही युक्त प्रांत की कांग्रेस कमिटी के 55 सदस्य मीटिंग के समय एक ही साथ पकड़े गए भी थे। कारण, वह गैर कानूनी संस्था करार दी गई थी। इसलिए सरकार को ललकारना जरूरी हो गया था। हम जो तीन-चार आदमी गाजीपुर से डेलिगेट हो कर अहमदाबाद गए थे उनमें कुछ ने रवाना होने के पहले ही मजिस्ट्रेट को यह सूचना भेज दी थी। बाकियों ने, जिनमें मैं भी था, ट्रेन से ही लिख भेजा। इसका परिणाम यह हुआ कि अहमदाबाद से लौटते ही मेरी जेल यात्रा की तैयारी हो गई।

यहाँ जेल यात्रा की तैयारी के संबंध में यह भी लिख देना है कि मैंने जेल की तकलीफों को सोच कर उनके लिए अपने को पूर्व से ही, कई महीने से, तैयार किया था। अभी तक तो जेल का मौका आया ही नहीं था। सिर्फ लोगों की जबानी उसके कष्ट सुने थे। तदनुसार ही तैयारी की थी।

मेरी एक आदत पढ़ने के समय से ही थी। मैं सिर में सोने के समय कोई ठंडा तेल, आम तौर से तिल का बराबर लगाया करता था। वह निहायत जरूरी था। हालत यह हो गई थी कि एक दिन भी न लगने पर सारा माथा ही गर्म हो जाता था और दर्द करने लगता था। मैंने सोचा कि बीसियों साल की यह आदत जेल में बहुत परेशान करेगी। इसलिए पहले से ही तेल छोड़ कर अभ्यास कर लेना चाहिए। ताकि उसके बिना काम चल सके। इसलिए बक्सर में रहने के समय से ही मैंने उसे छोड़ दिया था। मैंने पहली बार विशेष रूप से अनुभव किया कि मनुष्य के संकल्प और दृढ़ निश्चय में बड़ी ताकत है और इसके बल से वह जो चाहे कर सकता है। इसीलिए संकल्प कर के तेल का सेवन छोड़ देने पर मुझे एक दिन भी कष्ट नहीं प्रतीत हुआ। प्रत्युत बराबर तेल की चिंता उसे लगाने और कपड़ों के गंदे हो जाने की फिक्र से मैं सदा के लिए बच गया। तब से आज तक मैंने सिर में तो कभी तेल लगाया नहीं। देह में तो उससे पहले से ही लगाना और मालिश करना न जानें कब से छूटा था। आज भी छूटा ही है। फलस्वरूप ज्वर होने पर भी देह में दर्द भले ही हो। लेकिन सिर में दर्द होता ही नहीं। यों भीसिर दर्द ने मुझे तब से कभी नहीं सताया। जाड़े के दिनों में तेल न लगाने से शरीर में रुखड़ापन आने की बात भी मैंने नहीं पाई। बेशक ईधर दो वर्षों से दोनों पाँवों के तलवों में सोने के समय जरा सा कड़घआ तेल की मालिश करता हूँ। क्योंकि ईधर उम्र ज्यादा होने से जब कभी ज्यादा बोलता या लंबा भाषण करना पड़ता है तो सिर में एक तरह की खुश्की सी मालूम पड़ती है इस मालिश से खत्म हो जाती है। जाड़ों में खुश्की से होठ भी अब कभी नहीं फटते।