आँखों देखा ईरान - 1 / अमृतलाल "इशरत" / राजेश सरकार

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आँखों देखा ईरान

मेरा यह प्रयास समर्पित है, ईरान के उन नवयुवक छात्र-छात्राओं के नाम जिन्होनें लोकतन्त्र, मानवता एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करते हुये अपने प्राणों की आत्माहुति कर दी।

प्रो.अमृतलाल “इशरत”


प्राक्कथन

भारत (यदि पाकिस्तान खुद को इस उपमहाद्वीप की संस्कृति का अटूट हिस्सा माने तो) का सब से पहला पड़ोसी ईरान, जो अपने गौरवशाली अतीत, संस्कृति-सभ्यता और रहस्यमयता की वजह से हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है।

आज पूंजीवाद और अमेरिका द्वारा प्रायोजित बाज़ारवाद ने एक ऐसे अजीबो-ग़रीब परिदृश्य का निर्माण कर दिया है, जिसमें हम अपने सबसे नज़दीक वालों से सबसे दूर और दूर वालों से सबसे नज़दीक हो गए हैं। हम अपने पड़ोस के बारे में या तो कुछ नहीं जानते या कुछ दूसरा ही जानते हैं। शायद यही हमारी सबसे बड़ी विडम्बना है।

भारत और ईरान सांस्कृतिक ऐतिहासिक रिश्तों की पड़ताल करने में इतिहासकारों की दूर तक पहुँच जाने वाली निगाहें भी तह तक पहुँचने में नाकाम रही हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में लगभग चार वर्षो से फ़ारसी के अध्ययन करने के क्रम में ईरान को जितना जान सकता था, जानने की कोशिश की। अपने गुरु डॉ.सैयद हसन अब्बास (अध्यक्ष फारसी विभाग, काहिविवि) डॉ. रजनीश विज(शोधछात्र तेहरान विश्वविद्यालय, संप्रति गृहमंत्रालय, भारतसरकार में कार्यरत) एवं ईरानी मित्रों से ईरान के बारे में बहुत कुछ जानने की कोशिश की। इस अनुवाद के पूर्व ईरान और ईरान की यात्रा से संबन्धित कई किताबें पढ़ी जिनमें कुछ उल्लेखनीय रहीं जिनमें एशिया के दुर्गम भूखंडों में महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, मेरी ईरान यात्रा-मौलवी महेश प्रसाद, मेरी ईरान यात्रा मौलवी महेश प्रसाद(उर्दू अनुवाद)-डॉ.सैयद हसन अब्बास, चलते तो अच्छा था (ईरान एवं आज़रबाईजान की यात्रा)-असग़र वजाहत, आज का ईरान-शीरीन इबादी वग़ैरा। इन किताबों में अलग-अलग दौर के ईरान के हालात का जायज़ा लिया गया है।

यह अनुवाद मशहूर विद्वान, शायर प्रो.अमृतलाल ‘इशरत’की किताब“ईरान सदियों के आईने में के कुछ अंशों पर आधारित है। जिसमें आप ने 1967 ई. में आपके द्वारा की गई ईरान यात्रा के रोचक पहलुओं से अवगत कराया है । यह वह दौर था, जब रज़ा शाह पहलवी का शासन ईरान पर चल रहा था। जिसे अमेरिका के राष्ट्रपति आइजनहावर ने मोसद्दिक़ की जननिर्वाचित सरकार को एक सैन्यकार्यवाही के ज़रिये हटाकर बैठाया था। जहाँ ईरान का सबसे उज्ज्वल पक्ष उसका आधुनिक युग में प्रवेश था, वहीं अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय शक्तियों का वर्चस्व दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था। पेट्रोलियम की सियासत शुरू हो चुकी थी। वह दौर, जो उनके द्वारा देखा और महसूस किया गया, हम सभी के लिए विशेष महत्त्व रखता है।

इस अनुवाद की भाषा पर मैंने अपने मित्र राजन राय (मास्टर ऑफ एजुकेशन , काहिविवि) जो ख़ुद उर्दू- फ़ारसी के अच्छे जानकार हैं, से चर्चा की। उन्होनें मुझे इसकी भाषा सरल सहज रखने को कहा। उस हिन्दी का प्रयोग करने की सलाह दी, जिसे आम तौर पर हिन्दुस्तानी कहा जाता है। पूरी तरह से स्पष्टता के लिए परिशिष्ट का भी प्रयोग किया गया है।

इस यात्रा वृत्तान्त के अनुवाद में मेरे द्वारा लेखक की मूल भावना को अक्षुण्ण रखने की पूरी कोशिश की गई है, फिर भी अनुभवहीनता आड़े आती रही। इस प्रयास से आपकी थोड़ी भी रुचि जुड़े, यह मेरे लिए सुखद होगा। इन्ही शब्दों के साथ...

राजेश सरकार

आँखों देखा ईरान

यूरोप और अमेरिका से आने वाले पर्यटकों के लिए नए ईरान का माहौल पहली बार मे बहुत कुछ अलग नज़र नही आता है, लेकिन एक भारतीय को यह दुनिया पूरी तरह से नई दिखाई देती है । पश्चिमी संस्कृति की छाप यद्यपि बहुत गहरी नहीं दिखाई पड़ती, लेकिन नए आए हुये को थोड़ी देर तक यह एहसास ज़रूर रहता है, कि यह हाफिज़ शीराज़ी और उमर ख़ैयाम का वह देश नही है, जिसकी झलक उसे फ़ारसी साहित्य में मिली थी। पश्चिमी कपड़ों में लिपटी औरतें ईरानी से ज़्यादा अमेरिकी दिखाई देती हैं। ब्लाउज़, स्कर्ट, कोट, पैंट और नेकटाई ने देहातों और गांवों में भी अपना दबदबा बना लिया है। गोरे चिट्टे ईरानियों का हुस्न हमेशा से दुनिया में बेमिसाल रहा है। पगड़ी, टोपी, चोंगे और नक़ाब से आज़ाद होकर अब इसके हुस्न की शोहरत पूरी दुनिया में फैल रही है। शीराज़ और इस्फ़हान जैसे शहरों में कहीं-कहीं पुराने रिवाज भी दिख जाते हैं । उनकी गलियों से गुज़रते वक़्त कभी-कभी यह सोचना भी कठिन हो जाता है कि हम एशिया के किसी मुल्क कि राजधानी में हैं। ईरान कि आबादी लगभग दो करोड़ है । उसमें से लगभग बीस लाख लोग क़बाइली ज़िंदगी गुज़ारते हैं। तीस लाख कि आबादी शहरों में रहती है । बाक़ी के लोग देहातों में काश्तकारी करते हैं। लोगों के लगातार देहातों से शहरों की ओर बसने से शहरों की आबादी में इज़ाफ़ा हो रहा है, और गांवों वीरान हो रहे हैं । इसीलिए राजधानी तेहरान की आबादी बीस-पचीस सालों में दोगुनी हो गई है। अब भी यहाँ कम से कम पचीस लाख लोग रहते हैं।

ईरानी और भारतीय एक ही नस्ल के हैं। इन आर्य नस्ल में सातवीं सदी के अरब हमलावर और दसवीं-चौदहवीं सदी के दौरान आने वाले तुर्क या तूरानी क़बीले इस तरह घुलमिल गये हैं कि अब इन सब को अलग-अलग करना नामुमकिन है। ईरान को एक लड़ी में पिरोने का काम भाषाई एवं धार्मिक एकता ने किया है। शिया मत ने सारी जातियों को एक ही रंग में रंग दिया है। लेकिन इसके बाद भी दूसरी जातियों एवं धर्मों के लिए सम्मान के भावों की भरमार है। खानाबदोश जातियों में काशकाई, बख़्तयारी, ख़म्सा शाहसिओन, बलूच, कुर्द क़ाबिले ज़िक्र हैं । कुर्द, बख़्तयारी और सुरक़बीले की बोलियाँ प्राचीन फ़ारसी से निकली हैं। काशकाई, खम्सा और शाहसिओन क़बीले की बोलियाँ तुर्की है । ईरान के सीस्तान- बलूचिस्तान प्रांत के रहने वाले बलूच अपनी भाषा को बलूची कहते हैं । लेकिन यह बोली प्राचीन पहलवी भाषा की एक शाखा है, और पाकिस्तान के हिस्से वाले बलूचिस्तान की बलूची से अलग है । इस क़बीले के लोग प्रायः बहुत बहादुर और निडर होते हैं । खुली हवा में रहने की वजह से बहुत तंदरुस्त और मज़बूत क़द काठी के हैं। बहुत से ईरानी शाही ख़ानदान इन्हीं क़बीलो से सम्बन्ध रखते थे । गर्मी के मौसम में यह घुमंतू क़बीले इराक़ की सीमा के क़रीब या फ़ारस की खाड़ी के तटवर्ती इलाक़ो में रहकर खेती-बाड़ी में लग जाते हैं, और बसंत की शुरुआत में पहाड़ी इलाकों की ओर चले जाते हैं। जहां उनके मवेशियों के लिए चारागाह का इंतज़ाम हो जाता है। क़बीले का सरदार ख़ान कहलाता है । सब लोगो के लिए उसका हुक्म क़ानून की हैसियत रखता है। इन सरदारों में से अक्सर उच्चशिक्षित हैं । शीराज़ के पास क़ाज़रोन इलाक़े में गार ए शाहपुर की तलहटी में रहने वाले सरदारों में से कई ऐसे भी हैं, जिन्होनें यूरोप में शिक्षा पाई है, और इनकी बीबियाँ भी यूरोपियन हैं। इन सरदारों ने शहरों में भी अपनी जायदाद बनाई है, लेकिन इसके बाद भी वह अपने क़बीले के साथ इसी तरह रहना ज़्यादा पसंद करते है। ये लोग भेड़ों की ऊन से बने तम्बुओं में रहते है। क़ीमती क़ालीनों, कम्बलोंऔर विदेशी बंदूकों को शान ओ शौक़त का सामान समझते हैं। सरदारों के तम्बू का हिस्सा मेहमानख़ाने का काम देता है । यहाँ मेहमानों के लिए हर तरह का आराम और सामान मुहैया करवाना क़बीले का अहम फ़र्ज़ समझा जाता है । आबादी से कोसो दूर रहने के बावजूद इनके मेहमानख़ानो में फ्रिज और उन में जर्मन बीयर तक की कमी नही दिखती है। पहले इनका पेशा राहज़नी और लूटमार था । लेकिन अब यह लोग काफी हद तक सुधर गए हैं। जानवरों और क़ालीनों को ख़रीदना बेचना इनका कारोबार है।

ईरान में हमेशा बहने वाली नदियों की कोई कल्पना ही मौजूद नहीं है। खेती-बाड़ी का काम तालाबों, नहरों, नालों के किनारे अंजाम दिया जाता है। इन्हीं खेतों के आस-पास गाँव बसाये जाते हैं। ईरानी गाँव अक्सर मिट्टी के बने होते हैं। गाँव की मस्जिदों का रंग नीले या हरे रंग की टाइलों से तैयार किया जाता है। जो सूरज की रोशनी में झिलमिलाता रहता है। आज से पंद्रह-बीस साल पहले डाकुओं के डर से हर गाँव के चारो ओर एक मज़बूत दीवार बनाई जाती थी। जिसमें सिर्फ़ एक दरवाज़ा रखा जाता था। अब यह दीवारें गिरा दी गई हैं। ईरानी किसान की ज़िन्दगी शायद भारतीय किसान से बेहतर है, एक तो इसके पास गलीचे - कंबल वगैरा होते है । और दूसरा की इन सबका खान-पान अच्छा है, क्योकि दही, दूध, मट्ठा, अंगूर, सेब वगैरा की अधिकता है, यह सब चीज़े इनके रोज़ाना के खान-पान का ज़रूरी हिस्सा है। आम तौर पर हर देहाती घरों के आगे एक चौड़ा कच्चा सहन होता है, जिसके बीचों-बीच एक तालाब बनाया जाता है। पेड़ों और फूल पौधों से घिरा यह तालाब नहाने धोने के काम आता है। पीने का पानी तालाबों से ही लिया जाता है। पुरुष खेती-बाड़ी का काम करते हैं और औरतें क़ालीन बुनाई का काम देखती हैं। मेहमाननवाज़ी में पुरानी परम्पराएँ बहुत अच्छी तरह से निभाई जाती हैं। ईरान के शहर व्यापारिक सड़कों पर बसाये जाते थे, ताकि दूसरे देशों को जाने वाले क़ाफिलो और कारवों से लेन देन हो सके । कुछ शहर राजधानियाँ बनाई गई, इसलिए इन की अहमियत में इज़ाफ़ा होता गया । तबरेज़, मुरागां, सुल्तानिया, कज़्वीन, इसफ़हान, शीराज़ और तेहरान इसी तरह के शहर हैं। मशहद, किरमान, क़ुम, यज़्द धार्मिक दृष्टि से महत्त्व रखते हैं । रज़ा शाह कबीर पहलवी के सत्ता में आने के बाद ईरानी शहरों की काया पलट हो गई है । लगभग सभी शहर एक ही नमूने पर बनाए गए हैं । यहाँ सड़के चौड़ी और साफ सुथरी हैं । बाज़ार शहर के पुराने हिस्से में बनाए गए हैं। इनके ऊपर दूर तक छतें होती थीं। कुछ पुराने बाज़ार इसी हालत में आज भी मौजूद हैं । लेकिन शहरों में पश्चिमी शैली के बिजनेस सेंटर और शापिंग माल खुल जाने से इन बाज़ारों की चमक फीकी पड़ गई है।

ईरान के बाज़ारों में अमेरिका और यूरोप की चीज़े अधिकता से मिलती हैं । कपड़े और हर तरह की मशीनों को छोड़िए, ताज़ा अमेरिकी अंडे और डेनमार्क का ताज़ा मक्खन भी मिल जाता है। जल्द ख़राब होने वाली चीज़े रोज़ाना हवाई जहाज़ से मंगाई जाती हैं । छोटी-छोटी दूकानों पर भी इस तरह के साइनबोर्ड नज़र आ जाते हैं, जिन पर लिखा होता है’चाय जहान ‘पतवी जहान’ यानी दुनियाँ भर की चाय और दुनिया भर के कंबल। यही हाल कपड़ों का भी है, हर देश और हर फैशन के कपड़े आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन बहुत ज़्यादा क़ीमत पर। सट्टे का बहुत रिवाज है। दूकानदार जिस चीज़ की क़ीमत एक सौ तूमान बताए। ग्राहक का यह फर्ज़ है कि इसके दस तूमान पेश करे। अब उधर कमी और इधर से बेसी का सिलसिला शुरू हो जाता है। जिसको आम चलन में ‘चान ए ज़नी’ कहा जाता है। आखिर बीस -पचीस तूमान में मामला तय हो जाता है । विदेशियों से इस तरह का व्यवहार आम है। दस तूमान का सामान सौ तूमान में बेच देना एक ईरानी के बाएँ हाथ का खेल है।

ईरान के हम्माम और कहवाखानों का ईरान की ज़िंदगी में ख़ास अहमियत है। घरों में गुस्लख़ानों(Bathroom)का रिवाज बहुत कम है। हर सड़कों, हर गलियों में एक हम्माम ज़रूर होता है, जिसके दो हिस्से होते हैं-एक मर्दाना और एक ज़नाना। अलग-अलग कमरों में ठंडे और गर्म पानी के नल होते हैं। जहाँ लोग अपनी मर्ज़ी के हिसाब से जाते हैं। मालिश और मसाज़ करने वाले भी मौजूद होते हैं, जो वाजिब क़ीमत पर काम को अंजाम देते हैं। हम्माम में खाने-पीने की चीज़े भी बिकती हैं। राजधानी तेहरान में माडर्न स्टाइल के हम्माम बहुत दिखते हैं। जहाँ एक एक कमरे में बीस-बीस कमरे होते हैं। कमरों की फर्श और दीवारें सफ़ेद टाइलों से बनाई जाती है। गुरुवार और शुक्रवार(जुमा)को यह हम्माम दोस्तों के मिलने की जगह बन जाते हैं। रूमानियत से भरी सुबह गुज़ारने के लिए हम्माम ख़ास ख़याल किए जाते है। अपनी- अपनी बारी का इंतज़ार करते हुये लोगों के लिए चाय, हुक़्क़े और अख़बार इंतजाम किया जाता है। कहवाखानों में चाय और हुक्कों के अलावा फ़िरदौसी के शाहनामें को सुनाने वाले लोग भी मिल जाते है। उन लोगों की याददाश्त बड़ी तेज़ होती है। यह लोग शेर को एक ख़ास अंदाज़ में पढ़ते हैं । बड़े तख़्त लगाकर उन पर क़ालीनें बिछाई जाती हैं। दीवारों पर टंगें हुये गलीचे पर शाहनामा या उमर ख़ैयाम की रुबाइयों के दृश्य बनें होते हैं। चाय गिलासों में पेश किए जाते हैं। इन गिलासों को ‘इस्तकान’ कहा जाता है। इन चायों में दूध का इस्तेमाल नहीं किया जाता है । ये कहवाखाने दोस्तो और मिलने-जुलने वालों की भीड़ से भरे होते हैं । ईरान की जनता फुरसत के वक़्त यहीं गुज़ारती है । बड़े-बड़े शहरों में इन कहवाखानों की जगह होटलों और बीयरबार ने ले ली है । ईरान की सड़कों पर हर तीसरी या चौथी दूकान शराब की है। शराब आम तौर पर बहुत सस्ती है। ईरान में वोदका और शीराज़ी शराब जिसे ख़लार कहते हैं, बहुत सस्ती और बहुतायत से मिलती है । तेहरान के काफी बीयरबार और मयख़ाने ऐसे हैं जहां साक़ी का फर्ज़ औरतें पूरा करती है। यह ज़्यादातर आर्मेनियन या यहूदी औरतें हैं। ऐसी जगहों पर जन्नत की हूरों और गिलमा की कल्पना साकार हो उठती है। इन रंगीन जगहों पर पर बाज़ारू हूरों के साथ साथ गिलमा भी दिखाई देते है। शाम ढले हजारों सूरज चाँद के चमक उठने पर उनकी रोशनी में बड़े बड़े ख़ानदानी लोग भी नंगे नज़र आते हैं।

ईरानी त्योहारों में जश्न ए नौरोज़ हमेशा से ही जोशो खरोश और उमंग से मनाया जाता रहा है। मौसम ए बहार(बसंतऋतु)की दस्तक देने वाला यह त्योहार तेरह दिनों तक लगातार जारी रहता है। दफ्तरों, स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी हर जगह छुट्टी रहती है। यहाँ तक कि इन दिनों में अख़बार भी बंद रहते है। नौरोज़ इक्कीस मार्च से शुरू होता है। त्योहार से पंद्रह दिन पहले हर घर में गेहूं बोया जाता है, जो कि शुद्ध आर्य परंपरा है। ईरानी नव वर्ष भी नौरोज़ से शुरू होता है। पुराने साल के आखिरी बुधवार को “चहारशम्बासूरी”का त्योहार मनाया जाता है। सूखी लकड़ी को जलाकर घर के हर लोग उस आग को लांघते हैं, और उसके बाद उस आग को चौक में बिखेर दिया जाता है। । पुरानी चीज़े बदल कर नई लाई जाती हैं। नौरोज़ के एक दिन पहले घर के हर कमरे में दिये जलाए जाते हैं, और एक लंबे चौड़े दस्तरख्वान का इंतज़ाम किया जाता है । दस्तरख्वान के बीच में एक आईना और बहुत से दिये जलाकर रखे जाते हैं। इसी पर एक बहुत बड़ी ट्रे में फ़ारसी के सीन अक्षर से शुरू होने वाली सात चीज़े रखी जाती हैं जो ये हैं- सपंद, सेब, सीर(दूध), सिरका, समनू(गेहूं के आटें का बना हलवा)सब्ज़ा(हरी चीज़े) सुमाक(अनार का दाना)। इन दिनों दोस्तो, रिश्तेदारों, मेहमानों का मिलना जुलना शुरू हो जाता है। मेहमानों के स्वागत के लिए एक ख़ास तरह का दस्तरख्वान बिछाया जाता है। मेहमान यहाँ से मिठाई और दूसरी खाने पीने की चीज़े उठाकर खाते पीते हैं, और खाली तश्तरियों प्लेटों को फिर से भर दिया जाता है। हिंदुस्तान की तरह बच्चों और दूसरे प्रियजनों को भेटस्वरूप पैसे भी दिये जाते हैं। नौरोज़ के तीसरे दिन “सीज़्दह बदर” का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन घरों में बोये गए गेहूं को पानी में बहा दिया जाता है। सब लोग आबादी से दूर हरे भरे बाग़ो पहाड़ो में चले जाते हैं । खाने पीने का ज़्यादा से ज़्यादा सामान साथ में रहता है। सारा दिन सैर–सपाटा और मौज मस्ती में बिताने के बाद लोग रात को घरों में लौटते हैं। लोगो का विश्वास है कि इस तरह बहार(बसंत) का स्वागत भी हो जाता है, और बीते साल कि परेशानियाँ भी दूर हो जाती हैं। एक और ख़ास बात जो नौरोज़ के बारे में देखने में आती हैं कि लोग एक शहर से दूसरे शहर सैर भी करते हैं। इन दिनों तेहरान के लोग इस्फ़हान, शीराज़ वगैरा कि तरफ़ जाते हैं, और शीराज़ इस्फ़हान के लोग राजधानी तेहरान में दिखाई देते हैं। हर शहर में नौरोज़ के मुसाफ़िरों कि खूब चहल पहल रहती है। शहर की म्यूनिसिपालिटी की ओर से मुसाफ़िरों के ठहरने का बहुत अच्छा इंतज़ाम किया जाता हैं। होटलों का किराया पहले से ही तय कर दिया जाता है, जिससे मुसाफ़िरों से ज़्यादा पैसे न लिए जाये। शहरों के दर्शनीय स्थानों के लिए बसों और टैक्सी का इंतज़ाम किया जाता है। नाचने, गाने, गीत संगीत के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। चारों ओर उमंग ही उमंग दिखाई देती हैं। नौरोज़ के समय ईरान की आबोहवा कुछ इस तरह खुशगवार हो जाती है कि मुर्दादिल इंसान के दिल में भी जीने कि उमंग हो जाती है। पतझड़ के मुरझाएपन के बाद ईरान के बसंत कि यह हरियाली दुनिया भर में बेमिसाल है।

ईरान में सूखे मेवे और ताज़े फल बहुतायत से मिलते हैं। इस्फ़हान के तरबूज़ और खुरासान के खरबूज़ बहुतायत से मिलते हैं। सतरहवीं सदी में हिंदुस्तान के मुग़ल बादशाह इन मेवों और फलों को आगरे में मंगाते थे। एक आदमी अपने कंधों पर लकड़ी रखकरके उसके दोनों तरफ़ रस्सी के सहारे दो टोकरी लटका देता था। इन्हीं टोकरियों में एक एक तरबूज़ या खरबूज़ रख दिया जाता था, जो गर्मी के मौसम में भी ख़राब नहीं होता था। अस्सी दिन पैदल चलने के बाद ये फल आगरा के बाज़ारों में पहुचते थे। ये तरबूज़ ख़राब होने से बचाने के लिए ज़मीन में गाड़ दिये जाते थे। ईरानी तरबूज़ों कि बीस से ज़्यादा क़िस्में मौजूद हैं, और यही हाल अंगूर का भी है, जो हद से भी ज़्यादा सस्ते हैं। और आठ दस आने किलो के हिसाब से बिकते हैं माल्टे के फल को पुर्तकाल कहते हैं और यह ईरानियों को बेहद पसंद है। गर्मी के मौसम में यह फल तोहफों के रूप में भेजा जाता है । खाने कि हर दस्तरख्वान पर यह मौजूद होता है। इसको चूसते वक़्त यह मालूम होना कठिन हो जाता हैकि, लाल सफ़ेद ईरानी के गाल से शुरु है और कहाँ ख़त्म, एवं माल्टा कहाँ से। सूखे मेवों में पिस्ता, बादाम, अखरोट, चिलगोजा, मूंगफली वगैरा मेवे बहुत सस्ते हैं। इन सब को मिलाकर बेचते हैं तो इन्हें आजील कहते हैं। इनकी क़ीमत का अंदाज़ इस बात से होगा जो पिस्ता हिंदुस्तान में चालीस-पचास रूपये किलो के हिसाब से मिलता है उससे कहीं ज़्यादा उम्दा पिस्ता ईरान में दस-बारह रूपये किलो के दाम में मिल जाता है।

ईरानी खान-पान में चिल्लो कबाब एक तरह से राष्ट्रीय भोजन है। सूखे चावल और कबाब को दही, मक्खन और मट्ठे वग़ैरा से खाते हैं। चावल में अक्सर कच्चे अंडे भी मिला देते हैं। चावल में अगर सब्ज़ी, गोश्त, और मसाला वगैरा डालकर पकाए तो इसे पोलाव कहते हैं। और अगर सूखा चावल पकाए तो इसे चिल्लो कहते हैं। खाली सब्ज़ी खाने का रिवाज बहुत कम है। गोश्त की मिलावट ज़रूरी समझी जाती है। शाकाहारियों के लिए ईरानी दस्तरख्वान पर बैठना बहुत मुश्किल हो जाता है। चावल में और भी बहुत सी चीज़े मिलाकर खाते है जैसे मछ्ली ख़जूर मुर्ग़, बादाम वग़ैरा भी। रोटी घर में नहीं पकाई जाती है, बल्कि बाज़ार से ख़रीद कर लाई जाती है। जहाँ गैस के बड़े बड़े तन्दूरों पर तरह तरह की रोटियाँ तैयार की जाती हैं, यह रोटियाँ जिन्हे ‘नान’ कहाँ जाता हैं, बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं। एक आदमी एक रोटी पूरी नहीं खा सकता है। उन रोटियों की ख़ास किस्में ये हैं-बरबरी, तुसतन और लवास वग़ैरा। कबाब ईरानियों का ख़ास खाना है, इसकी भी बहुत सी किस्में है-कबाब कोविदा, कबाब बर्ग, शस्लीक वग़ैरा को बहुत पसंद किया जाता है। कल्ला, पाचा, ज़बान, जिगर, कुलू वग़ैरा के कबाब भी ईरानियों को बहुत पसन्द है। ग़रीब लोग दोनों वक़्त रोटी कबाब खाते है। कबाब के नीचे वाली रोटी को बहुत पसन्द किया जाता हैं। इसी से फ़ारसी में एक कहावत है-नान ज़ीरे कबाब(कबाब के नीचे वाली रोटी)यह बीबी की बहन यानी साली के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ईरानी अक्सर खुले एवं हवादार मकानों में रहते हैं। घने से घने इलाक़े में भी हर मकान के सामने एक चौड़ा आँगन ज़रूर होगा। जिसको हयात कहा जाता है। चहारदीवारी से घिरे हयात के बीच में गर्मियों में नहाने और पेड़ पौधों को सीचने के लिए एक छोटा तालाब ज़रूर बनाया जाता है। जिसको अस्खर कहा जाता है मकान मालिक के शान ओ शौक़त का अंदाज़ा इसी तालाब से लगाया जाता है। तालाब के चारों ओर ऐसे पेड़ पौधे लगाए जाते हैं, जो फूल देने वाले और ख़ूबसूरती बढ़ाने वाले होते हैं। बहार(बसंत) के मौसम में लोग ज़्यादा से ज़्यादा से वक़्त यहीं बिताते हैं। शहरों के मकान दो मंज़िल, तीन मंज़िल, और चार मंज़िल तक होती हैं। एक मंज़िल नीचे भी बनाई जाती है। जिसे फ़ारसी में ‘ज़ेर ए ज़मीनी’ कहते हैं। गर्मी के मौसम में लोग यहीं इकट्ठे रहते हैं। तेहरान में नए मकान ज़्यादातर इसी तर्ज़ के बने हैं, जो सर्दियों और गर्मियों दोनों के लिए बेहद आरामदायक होते हैं। उताक़ ए पज़ीराई(Guest Room) को ख़ास तौर पर सजाया जाता है। कालीनों, पर्दों और दूसरे सामानों का उम्दा होना घर वाले की हैसियत पर होता है। घुले मिले और गहरे दोस्त ज़मीन पर ही बैठते हैं, और क़ालीन पर लेटे लेटे चाय और कहवा वग़ैरा पीते रहते हैं । ‘समावर’ हर घर के सामान का ज़रूरी हिस्सा है। सुबह का पहला काम समावर जलाकर कहवा की तैयारी है। पिकनिक पर जाते वक़्त समावर ज़रूर रखते हैं। सही बात तो यह है कि समावर और क़ालीन के बिना एक ईरानी की ज़िंदगी अधूरी समझी जाती है। सामाजिक शिष्टाचार, दोस्ताना अंदाज़, मेहमाननवाज़ी, रख रखाव में दुनिया की बहुत कम जातियाँ होंगी, जो ईरानियों का मुक़ाबला कर सके। बच्चों को आँखें खोलने के साथ ही तौर तरीक़े और सामाजिक शिष्टाचार सिखाये जाते हैं। यही वजह है कि ईरानी बच्चे ख़ूबसूरती के साथ-साथ अपने अच्छे एवं नैतिक व्यवहारों के लिए भी मशहूर हैं। ईरानियों की उच्च नैतिकता का ज़िक्र पुरानी किताबों में भी मौजूद है।

नए पश्चिमी संस्कृति के बावजूद ईरानी अभी भी परम्परा को निभा रहे हैं। घर में मेहमान का आना अच्छी क़िस्मत का नतीजा समझा जाता है। मेहमान के स्वागत में तरह तरह की बातें बोली जाती हैं। जो मेजबान के प्यार और खुशदिली को बयान करता है। जैसे-‘अज़ीज़म बफरमा-ईद, बर्ग ए गुलू आबुर्दे अस्त बाद’ यानी अज़ीज़ तशरीफ़ लाइये, यह आप नहीं हैं मानो हवा फूलों की पत्ती उड़ा कर लाई हो। प्यार से मेहमान को चूमना ज़रूरी समझा जाता है। इस तरह घर का मालिक और दूसरे सदस्य मेहमान को चूमने के लिए घर के बाहर इंतज़ार कर ते हैं। जब सब लोग इस काम को कर चुके होते हैं तो घर में आते हैं। दोस्तों और मेहमानो से इतनी खुशदिली और मुहब्बत से मिलते हैं, कि फारसी में कही गई इस कहावत का मतलब समझ में आता है-‘बेगाना व दूर उफ़तादा आन कसी अस्त कि ऊरा दोस्त नीस्त’ यानी बेगाना और दूर रहने वाला वो है जिसके कोई दोस्त न हो । कैसी भी औपचारिकता क्यों न हो सामाजिक तौर तरीक़ों का ख़याल रखा जाता हैं। किसी की ओर पीठ करके बैठना बहुत ही बुरा समझा जाता है। अगर यह हालत मजबूरी में हो तो बैठने वाला हज़ार बार खेद व्यक्त करता है। दूसरे लोग एक खास शायराना अंदाज़ में जवाब देते है-बैठे रहिए जनाब फूल पीठ या चेहरा नहीं रखता। किसी से कोई चीज़ लेकर फौरन ही कहा जाता है-“दस्ते शुमा दरदनकने यानी आप का हाथ सलामत रहे। किसी चीज़ की तारीफ़ कीजिये मालिक फौरन कहेगा-“चश्महात तिश्नगे यानी यह चीज़ ख़ूबसूरत नहीं बल्कि आप की आँख ख़ूबसूरत है, जो इसे ख़ूबसूरत बना रही है। एक दोस्त किसी दोस्त से किसी दिलकश महफ़िल का ज़िक्र कर रहा है। पहले यही कहेगा-‘जाए शुमा ख़ाली, शब खेली ख़ूब गुज़श्त’ यानी रात को मज़ा तो बहुत रहा लेकिन आप की कमी बहुत खली। दूसरे की तारीफ़ आपके सामने करेंगे तो पहले यह कहेंगे- “मिस्ले शुमा न बूदी बाजहम”यानी कैसा भी हो आप जैसा नहीं था। किसी से मिलने पर”सलाम आक़ा” और विदा होते वक़्त “ख़ुदा हाफ़िज़” कहना फ़र्ज़ समझा जाता है। विदेशी और अपरिचित की इज़्ज़त करना ईरानियों के लिए धार्मिक कर्तव्य की तरह है। सिनेमा और बस के टिकट के लंबी लाइन लगती है, लेकिन विदेशी दिख जाए तो फ़ौरन उसे सबसे पहले जगह दी जाएगी ट्रेनों बसो में किसी ईरानी को हटाकर विदेशी को बैठाते हैं, और कहते हैं –आक़ा बफरमाईद शुमा मेहमान ए मा हस्तीद” यानी श्रीमान आप बैठिए आप हमारे मेहमान हैं। घरों में पेइंग गेस्ट पर मेहमान रखने का रिवाज है , आपको घर के एक सदस्य की तरह समझा जाएगा सब लोग आपके रस्म ओ रिवाज, संस्कृति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए बेहद उतावले नज़र आयेंगे। आपके हालात जानने के फ़ौरन बाद आप से सवाल किया जाएगा कि आपको ईरान कैसा लगा? यह ज़रा सा टेढ़ा सवाल है । ईरान की तारीफ़ करना आपका फ़र्ज़ है, वरना महफ़िल में बैठे हुये ईरानी के माथे पर शिकन पड़ जाती है। ईरानियों का देश एवं संस्कृतिप्रेम कट्टरता की हद तक पहुंचा हुआ है।